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________________ ४८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, २, ५, २१. खंडिदेगखंडमेत्तमिमा ओगाहणा वट्ठावेदव्वा जाव बादरपुढविक्काइयणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो पदेसुत्तररादिकमेण इमा ओगाहणा आवलियाए असंखज्जदिमागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरपुढविकाइयणिवत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । पुणो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिवत्तिपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ गुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। पुणो पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा त्ति । तदो इमा ओगाहणा पदेसुत्तरादिकमेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं वड्ढावेदव्वा जाव बादरणिगोदणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । तदो पदेसुत्तरादिकमेण चदुहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वा जाव णिगोदपदिहिदपज्जत्तयस्स जहणियाए ओगाहणाए सरिसी जादा ति । एत्थ ओगाहणागुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । पुणो पदेसुत्तरादिकमेण असंखेज्जभागवड्डीए आवलियाए असंखेज्जदिभागेण बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर पृथिवीकायिक निर्वत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें से खण्ड मात्रले बढाना चाहिये जब तक कि वह बादर पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है । तत्पश्चात् इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा बादर निगोद निवृत्तिपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर निगोद निर्वृत्त्यपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। फिर इस अवगाहनाको एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमले आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करने पर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये जब तक कि वह बादर निगोद निर्वृत्तिपर्याप्तककी उत्कृष्ट अवगाहनाके सदृश नहीं हो जाती है। तत्पश्चात् एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे चार वृद्धियों द्वारा उसके निगोदप्रतिष्ठित पर्याप्तककी जघन्य अवगाहनाके सदृश हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। यहां अवगाहनागुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। फिर एक प्रदेश अधिक इत्यादि क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि द्वारा आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड मात्रसे बढ़ाना चाहिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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