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________________ १४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, २, ६, २३४. एदमत्थमाहारं काऊण छण्णं जवाणं जीवाणमप्पाबहुगं भणिस्सामो। तम्हि भण्णमाणे सादस्स चउठाणबंधा जीवा थोवा । कुदो ? थोवद्धाणत्तादो।। तिट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥ २३४ ॥ कुदो ? सादचउट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदीहिंतो तिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणत्तुवलंभादो। बिट्ठाणबंधा जीवा संखेज्जगुणा ॥२३५॥ - कुदो ? सादावेदणीयतिहाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो तस्सेव बिट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसाणं संखेजगुणत्तुवलंभादो। असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणी २३६ ॥ सादावेदणीयबिट्टाणाणुभागबंधपाओग्गहिदिविसेसेहितो असादावेदणीयबिट्ठाणाणु- . भागबंधपाओग्गहिदिविसेसा संखेजगुणहीणा । कुदो ? अंतोकोडाकोडिऊणपण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तसादबिट्ठाणाणुभागबंधपाओग्गहिदीहिंतो सागरोवमसदपुत्तहिदिविसेसाणं संखेजगुणहीणत्तुवलंभादो । तदो असादस्स बिट्ठाणबंधा जीवा संखेजगुणा त्ति ण इस अर्थको आधार करके छह यवोंके जीवोंके अल्पबहुत्वको कहते हैं। उसका कथन करने में साता वेदनीयके चतुस्थानबन्धक जीव स्तोक हैं, क्योंकि, उनका अध्वान स्तोक है। त्रिस्थानबन्धक जीव उनसे संख्यातगुणे हैं ॥ २३४ ॥ इसका कारण यह है कि साता वेदनीयके चतुःस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितियोंकी अपेक्षा त्रिस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३५ ॥ कारण कि सातावेदनीयके त्रिस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितिविशेषोंकी अपेक्षा उसके ही द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितिविशेष संख्यातगुणे पाये जाते हैं। असाता वेदनीयके द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं ॥ २३६ ॥ शंका-साता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागवन्धके योग्य स्थितिविशेषोंसे असातावेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थिति विशेष संख्यातगुणे हीन हैं, क्योंकि, अन्तःकोड़ाकोडिसे हीन पन्द्रह कोड़ाकोडि सागरोपम प्रमाण साता वेदनीयके द्विस्थान अनुभागबन्धके योग्य स्थितियोंकी अपेक्षा शतपृथक्त्व सागरोपम प्रमाण स्थिति विशेष संख्यातगुणे हीन पाये जाते हैं । अतएव असाताके द्विस्थानबन्धक जीव संख्यातगुणे हैं, यह कहना उचित नहीं है? क.प्र.१.१०१. सर्वस्तोकाः परावर्तमानशुभप्रकृतीनां चतुःस्थानकरसबन्धका जीवाः तेभ्योऽपि त्रिस्थान. करसबन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः (म. टी.) १तेभ्योऽपि परावर्तमानशुभप्रकृतीनां द्विस्थानकरसबन्धकाः संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि चतुःस्थानकरसन्धका संख्येयगुणाः। तेभ्योऽपि त्रिस्थानकरसबन्धका विशेषाधिकाः । क. प्र. (म.टी.) १,१०१. । १ ताप्रतो 'सादावेदणीणं विट्ठाणाणु-' इति पाठः । ३ ताप्रतो 'विट्ठाणाणुबन्ध ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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