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________________ ४, २, ६, २३३. ] वेयणमहाहियारे वेयणकालविहाणे ट्ठिदिबंधझवसाणपरूवणा [ ३४.१ दाहो उक्कस्सडिदिपाओग्गसंकिलेसो तस्स दाहस्स कारणभूदहिदी दाहहिदी णाम, कारणे कज्जुवारादो । तत्थ जहण्णदाहट्टिदिप्पहुडि जाव उक्कस्सदाहट्ठिदित्ति एदासिं सव्वासिं जादिदुवारेण एयत्तमावण्णाणं दाहहिदि ति सण्णा । सा पण्णारससागरोवमPaternister पेक्खिण विसेसाहिया, किंचृणतीससागरोवमकोडाको डिपमाणत्तादो । असादस्स चउट्टाणियजवमज्झस्स उवरिमाणाणि विमेसाहियाणि ॥ २३० ॥ केत्तियमेत्तेण अंतोकोडाको डिसागरोवममेत्तेण । असादचउट्ठाणियजवमज्झादो उवरिमजहण्णदाहद्विदीदो हेमि असादस्स उक्कस्सट्ठिदिबंधो विसेसाहिओ ॥ २३१ ॥ केत्तियमेत्तेण ? अंतोकोडाकोडीए । जट्टिदिबंध विसेसाहिओ ॥ २३२ ॥ त्तियत्ण ? तिण्णिवाससहस्समेत्तेण । एदेण अट्टपदेण सव्वत्थोवा सादस्स चउट्ठाणबंधा जीवां ॥२३३॥ दाहका अर्थ उत्कृष्ट स्थितिके योग्य संक्लेश है । उस दाहकी कारणभूत स्थिति कारण का का उपचार करनेसे दादस्थिति कही जाती है । उसमें जघन्य दाहस्थिति से लेकर उत्कृष्ट दाहस्थितिपर्यन्त जातिके द्वारा एकताको प्राप्त हुई इन सब स्थितियोंकी दाहस्थिति संज्ञा है । वह पन्द्रह कोड़ाकोड़ि सागरोपमों की अपेक्षा विशेष अधिक है, क्योंकि, वह कुछ कम तीस कोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण है । असाता वेदनीयके चतुः स्थानिक यवमध्यके ऊपरके स्थान विशेष अधिक हैं ॥ २३०॥ वे कितने मात्र से अधिक हैं ? असाता वेदनीयके चतुस्थानिक यवमध्यके ऊपरकी जघन्य दाहस्थितिसे नीचेके अन्तः कोड़ाकोड़ि सागरोपम मात्र से अधिक हैं । असातावेदनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध विशेष अधिक है | २३१ ॥ वह कितने मात्रसे अधिक है ? वह अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम मात्र से अधिक है ! ज-स्थितिबन्ध विशेष अधिक है ॥ २३२ ॥ वह कितने मात्र से अधिक है ? वह तीन हजार वर्ष मात्र से अधिक है । इस अर्थपदसे सातावेदनीयके चतुःस्थानबन्धक जीव सबसे स्तोक हैं ॥ २३३॥ तदन्ता तावती स्थितिर्ब्रद्धा डायस्थितिरिहोच्यते । सा चोत्कर्षतोऽन्तः सागरोपमकोटिकोट्यूना सकलकर्मस्थितिप्रमाणा वेदितव्या । तथाहि — अन्तः सागरोपमकोटिकोटिप्रमाणं स्थितिबन्धं कृत्वा पर्याप्तसंशिपंचेन्द्रिय उत्कृष्टां स्थिति बनातीति, नान्यथा । क. प्र. ( म. टी. ) १,१००. .९ तत्गेऽपि परावर्तमानाशुभप्रकृतीनामुत्कृष्टः स्थितिबन्धो विशेषाधिक इति २२ । क. प्र. ( म. टी. ) १,१००. २ संखेजगुणा जीवा कमसो एएस दुविहपगईणं । असुभाणं तिट्ठाणे सव्युवरि विसेसओ अहिया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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