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________________ ४, २, ६, २०.] वेयणमहाहियारे वेषणकालविहाणे सामित्त [१३३ ओगाहण-संठाणादीहि विसेसो णत्थि त्ति अण्णदरस्से त्ति उत्तं । भवसिद्धिओ णाम अजोगिभडारओ। तस्स चरिमसमए एगा ट्ठिदी एगसमयकाला होदि त्ति भवसिद्धियचरिमसमए जहण्णसामित्तं उत्तं । दुचरिमादिसमएसु जहण्णसामित्तं किण्ण भण्णदे ? ण, तत्थ वेयणीयस्स एगसमयहिदीए अणुवलंभादो । तव्वदिरित्तमजहण्णा ॥२०॥. तदो जहण्णादो वदिरितं तव्वदिरितं, सा अजहण्णा द्विदिवेयणा होदि । एत्थ जहा णाणावरणीयस्स अजहण्णट्ठाणपरूवणा कदा तहा कायव्वा । णवरि अजोगिचरिमसमयादो ताव णिरंतरट्ठाणपरूवणा कायव्वा जाव अजोगिपढमसमओ त्ति । पुणो सजोगिचरिमसमए द्विदस्स सांतरमजहण्णट्ठाण होदि । कुदो १ तत्थ चरिमफालीए अंतोमुहुत्तमत्तीए दसणादो । पुणो हेट्टा रूवूणुक्कीरणद्धामेत्तणिरंतरहाणेसु उप्पण्णसु सइं सांतरट्ठाणमुप्पज्जदि, तत्थंतोमुहुत्तट्ठाणंतरदसणादो । एवं णेदव्वं जाव लोगपूरणं करिय ह्रिदसजोगिकेवलि त्ति । तदो पदरगदकेवलिम्हि अण्णमपुणरुत्तसांतरट्ठाणं । कुदो ? लोगपूरणगदकेवलिट्ठिदिसंतादा पदरगदकेवलिट्ठिदिसंतस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । तदो कवाडगद अवगाहना व संस्थान आदिकोंसे कोई विशेषता नहीं होती, यह जतलाने के लिये सूत्र में 'अन्यतर' पदका प्रयोग किया है। भव्यसिद्धिकसे अयोगकेवली भट्टारक विवक्षित हैं । उनके अन्तिम समय में चूंकि एक समय कालवाली एक स्थिति होती है, अतः भव्यसिद्धिकके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व बतलाया गया है। शंका- अयोगकेवलीके द्विचरमादिक समयोंमें जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उक्त समयोंमें वेदनीयकी एक समयवाली स्थिति नहीं पायी जाती। उससे भिन्न अजघन्य स्थितिवेदना होती है ॥२०॥ उससे अर्थात् जघन्य स्थितिवदनासे जो भिन्न वेदना है वह अजघन्य स्थितिघेदना है। यहां जैसे ज्ञानावरणीयके अजघन्य स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही वेदनीयके भी करना चाहिये । विशेष इतना है कि अयोगकेवलीके अन्तिम समयसे लेकर अयोगकेवलोके प्रथम समय तक निरातर स्थानोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। फिर सयोगकेवली गुणस्थानके अन्तिम समयमें स्थित जीवके सान्तर अजघन्य स्थान होता है, क्योंकि, वहां अन्तिम फालि अन्तर्मुहूर्त प्रमाण देखी जाती है। पुनः नीचे एक कम उत्कीरणकाल प्रमाण निरन्तर स्थानोके उत्पन्न होनेपर एक वार सान्तर स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि, वहाँ अन्तर्मुहूर्त स्थानान्तर देखा जाता है। इस प्रकार लोकपूरण समुद्घातको करके स्थित सयोगकेवली तक ले जाना चाहिये । पश्चात् प्रतरसमुद्घातगत केवलीमें अन्य अपुनरुक्त साम्तर स्थान होता है, क्योंकि, लोकपूरण समुद्घातगत केवलीके स्थितिसत्त्वसे प्रतरसमुद्घातगत केवलीका स्थितिसत्त्व असंख्यातगुणा पाया जाता है। पश्चात् कपाटसमुद्घातगत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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