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________________ १३२) छक्खंडागमे वैयणाखंड (४, २, ६, १७. संखेज्जगुणवड्डि-असंखज्जगुणवड्डि त्ति दो चेव वड्डीओ होति, ओघजहण्णट्ठिदिं पेक्खिदूण ओघुक्कस्सहिदीए असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । एवं संखेज्जपलिदोवमेहि ऊण त्तीससागरोवम-' कोडाकोडिमेत्तअजहण्णट्ठाणवियप्पा णाणावरणीयस्स परूविदा । एत्थ जीवसमुदाहारपरूपणा जहा अणुक्कस्सट्ठाणेसु परूविदा तहा परूवेदव्वा । एवं दसणावरणीय-अंतराइयाणं ॥ १७ ॥ जहा णाणावरणीयस्स जहण्णाजहण्णढिदिसामित्तपरूवणा कदा तहा दंसणावरणीय-अंतराइयाणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो। सामित्वेण जहण्णपदे वेयणीयवेयणा कालदो जहणिया कस्स ? ॥ १८ ॥ सुगममेदं । अण्णदरस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स तस्स वेयणीयवेयणा कालदो जहण्णा ॥ १९ ॥ परन्तु जघन्य स्थितिका आश्रय करके संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि ये दो ही वृद्धियां होती हैं, क्योंकि, ओघजघन्य स्थितिकी अपेक्षा ओघउत्कृष्ट स्थिति असंख्यातगुणी पायी जाती है। इस प्रकार संख्यात पल्योपमोसे हीन तीस कोड़ाकोडि सागरोपम मात्र ज्ञानावरणीयके अजघन्य स्थानभेदोंकी प्ररूपणा की है। यहां जीवसमुदाहारकी प्ररूपणा जैसे अनुत्कृष्ट स्थानोंमें की गई है वैसे ही करनी चाहिये। इसी प्रकार दर्शनावरणीय एवं अन्तराय कौकी जघन्य व अजघन्य स्थितिके स्वामित्वकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १७ ॥ जैसे शानावरणीय कर्मकी जघन्य व अजघन्य स्थितिके स्वामित्वकी प्ररूपणा की है वैसे ही दर्शनावरणीय और अन्तराय की भी करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। स्वामित्वसे जघन्य पदमें वेदनीय कर्मकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य किसके होती है ? । १८ ॥ यह सूत्र सुगम है। जो कोई जीव भव्यसिद्धिककालके अन्तिम समयमें स्थित है उसके वेदनीयकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है ॥ १९ ॥ १ अ-आ-काप्रतिषु ' - सागरोवमाणि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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