SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, ५, ८. ] वेयणमहाहियारे वेयणखे सविहाणे सामित्तं [ १५ जो मच्छो जोयणसहस्सिओ सयंभुरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लए तडे अच्छिदो ॥ ८॥ जो मच्छो जोयणसहस्सओ त्ति एदेण सुत्तवयणेणगुलस्स असंखेज्जदिभागमार्दि कादून जा उक्कस्सेण पदेसूणजोयणसहस्स त्ति आयामेण जे ट्ठिदा मच्छा तेसिं पडिसेहो कदो । उस्सेह-विक्खंभे हि महामच्छासरिसलद्धमच्छेसु गहिदेसु विण कोच्छि दोसो अस्थि, तदो तेर्सि गहणं किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो, महामच्छायाम - विक्खंभुस्सेहेसु अणवगएसु लद्धमच्छायामविक्खंभुस्सेहाणं अवगमोवायाभावादो | ण महामच्छायामो अण्णा अवगम्मदे, सुत्तभूदस्स एदम्हादो जेट्ठस्स अण्णस्सासंभवादो । महामच्छस्स आयामो जोयणसहस्सं १००० । एदस्स विक्खंभुस्सेहा केत्तिया होंति त्ति उत्ते, उच्चदे – एसो महामच्छो पंचजोयणसदविक्खंभो ५०० पंचासुत्तरबीस दुस्सेहो २५० । सुत्तेण विणा कधमेदं णव्वदे ? समाधान-- नहीं, महान् परिपाटीसे प्ररूपणा करनेके लिये पश्चादानुपूर्वी से प्ररूपणा की जा रही है । (अर्थात् उद्देश्यके अनुसार यद्यपि पहिले जघन्य पदकी प्ररूपणा करना चाहिये थी, तथापि विस्तृत होने से पहिले उत्कृष्ट पदकी प्ररूपणा की जा रही है। ) जो मत्स्य एक हजार योजनकी अवगाहनावाला स्वयम्भूरमण समुद्र के बाह्य तटपर स्थित है ॥ ८ ॥ जो मत्स्य एक हजार योजनकी अवगाहनावाला है ' इस सूत्रांशसे, जो मत्स्य अंगुलके असंख्यातवें भागको आदि लेकर उत्कर्षसे एक प्रदेश कम हजार योजन प्रमाण तक आयामसे स्थित हैं, उनका प्रतिषेध किया गया है । शंका - उत्सेध और विष्कम्भकी अपेक्षा महामत्स्यके सदृश पाये जानेवाले मत्स्यौका ग्रहण करनेपर भी कोई दोष नहीं है, अतः उनका ग्रहण क्यों नहीं करते ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जब तक महामत्स्यके आयाम, विष्कम्भ और उत्सेधका परिज्ञान न हो जावे तब तक प्राप्त मत्स्योंके आयाम, विष्कम्भ और उत्सेधका परिज्ञान होना किसी प्रकार से सम्भव नहीं है । महामत्स्यका आयाम किसी अन्य सूत्रसे नहीं जाना जाता है, क्योंकि, इस सूत्रले ज्येष्ठ प्राचीन सूत्रभूत कोई अन्य वाक्य सम्भव नहीं है । महामत्स्यका आयाम एक हजार ( १००० ) योजन प्रमाण है । इसके विष्कम्भ और उत्सेधका प्रमाण कितना है, ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि उस महामत्स्यका विष्कम्भ पांच सौ (५००) योजन और उत्सेध दो सौ पचास (२५०) योजन मात्र है । - यह सूत्र के विना कैसे जाना जाता है ? शंका For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy