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________________ ४, २, ६, १६. वेयणमहाहियारे वैयणकालविहाणे सामित्त । १२५ एदेण लक्खणेण सरिसछेदं कादूण सोहिदे सुद्धसेसमुक्कस्ससंखेज्जमेगरूवस्स असंखेज्जा भागा च भागहारो होदि । एदेण बादरधुवहिदीए ओवट्टिदाए इच्छिदट्ठाणस्स वड्डिसमया आगच्छंति । पुणो हिदिघादेण दुसमउत्तरं द्विदिं धरेदूण द्विदस्स वि असंखेज्जभागवड्डीए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एत्थ वि छेदभागहारो चेव । तिसमउत्तरं धरेदण ट्ठिदस्स असंखेज्जभागवड्डीए अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवं ताव छेदभागहारो होदण गच्छदि जाव बादरेइंदियधुवहिदिं जहण्णपरित्तासंखेज्जेण खंडेदृण तत्थ एगखंडस्सुवरि तं चेव उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडं रूऊणं वड्डिदं त्ति । पुणो संपुण्णं वडिदे समभागहारो होदि । कुदो ? उक्कस्ससंखेज्जेण रूवाहिएण जहण्णपरित्तासंखेज्जे भागे हिदे उवरिमविरलणाए अवणेदुमेगरूबुवलंभादो । एत्थ संखेज्जभागवड्डीए आदी असंखेज्जभागवड्डीए परिसमत्ती च जादा । पुणो एदम्सुवरि अण्णो जीवो द्विदिघादं करेमाणो समउत्तरद्विदि धरेदूण विदो। एत्थ वि संखेज्जभागवड्डी चेव । एदिस्से वड्डीए छेदभागहारो होदि । तं जहा- उवरिमेगरूवधरिदं हेट्ठा विरलेदूण तं चैव समखंडं कादूण दिण्णे एक्कक्कस्स रुवस्स एगेगो समओ पावदि । पुणो एदं उवरिमरूवधरिदेसु पक्खिविय समकरणे कीरमाणे परिहीण इस नियमके अनुसार समखण्ड करके घटा देनेपर अवशिष्ट उत्कृष्ट संख्यात व एक रूपका असंख्यात बहुभाग भागहार होता है । इसका बादर एकेन्द्रियकी धुवस्थितिमें भाग देनेपर अभीष्ट स्थान के वृद्धिंगत समय प्राप्त होते हैं। फिर स्थितिघातसे उत्तरोत्तर दो समयोंकी अधिकताको प्राप्त स्थितिको ग्रहणकर स्थित हुए जीवके भी असंख्यातभागवृद्धिका अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । यहां भी छेदभागहार ही होता है। तीन तीनं समय अधिक स्थितिको ग्रहणकर स्थित जीवके असंख्यात भाग वृद्धिका अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार तब तक छेदभागहार होकर जाता है जब तक कि बादर एकेन्द्रियकी ध्रुवस्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उससे एक खण्डके ऊपर उसको ही उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमेंसे एक अंक कम एक खण्डकी वृद्धि नहीं हो जाती । तत्पश्चात् पूरे खण्ड प्रमाण वृद्धि हो जाने पर समभागहार होता है, क्योंकि, जघन्य परीतासंख्यातमें एक अधिक उत्कृष्ट संख्यातका भाग दंनपर ऊपरकी विरलन राशिमसे कम करनेके लिये एक रूप उपलब्ध होता है । अब यहां संख्यातभागवद्धिका प्रारम्भ और असंख्यातभागवृद्धिकी समाप्ति हो जाती है। इसके ऊपर अन्य जीव स्थितिघातको करता हुआ एक-एक समय अधिक स्थितिको लेकर स्थित हुआ। यहां भी संख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस वृद्धिका छेदभागहार होता है । यथा- ऊपरके एक एक अंकके ऊपर स्थित राशिका नांचे विरलन करके ऊपर उसको ही समखण्ड करके देनेपर हर एक अंकके प्रति एक एक समय प्राप्त होता है। फिर इसको ऊपरके अंकोंपर स्थित राशियों में मिलाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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