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________________ १, २, ५, १६.] वेयणमहाहियारे वेयणवेत्तविहाणे सामित्त ट्ठाणे जीवा विसेसाहिया । अणुक्कस्सए द्वाणे जीवा विसेसाहिया । सव्वेसु डाणेसु जीवा विसेसाहिया । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ १४ ॥ एदेसिं तिण्डं घादिकम्माणं जहा णाणावरणीय उक्कस्साणुक्कस्सखेत्तपरूवणा कदा तहा कादव्वं, विसेसाभावाद।। सामित्तण उक्कस्सपदे वेदणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥१५॥ उक्कस्सपदे त्ति णिद्देसेण जहण्णपदपडिसेहो कदो। वेदणीयवेदणा त्ति णिदेसेण सेसकम्मवेयणाए पडिसेहो कद।। खेत्तणिद्देसेण दव्यादिवेयणाणं पडिसेहो कदो। कस्से त्ति किं देवरस, किं णरइयस्स, किं तिरिक्खस्स, किं मणुस्सस्स होदि त्ति पुच्छा कदा। अण्णदरस्स केवलिस्स केवलिस मुग्घादेण समुहदस्स सव्वलोगं गदस्स तस्स वेदणीयवेदणा खेत्तदो उकस्सा ॥ १६ ॥ अण्णदरस्से त्ति णिदेसेण आगाहणाविसेसाणं भरहादिक्खेत्तविसेसाणं च पडिसहाउनसे अजघन्य स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं। उनसे अनुत्कृष्ट स्थानमें जीव विशेष अधिक हैं । उनसे सब स्थानों में जीव विशेष अधिक है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मके भी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट वेदनाक्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये ॥ १४ ॥ जैसे ज्ञानावरणीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट क्षेत्रों की प्ररूपणा की गई है वैसे ही इन तीन घाति कौके उक्त क्षेत्रोंकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उनमें कोई विशेषता नहीं है। स्वामित्वसे उत्कृष्ट पदमें वेदनीय कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥ १५॥ 'उत्कृष्ट एद.' इस निर्देशसे जघन्य पदका प्रतिषेध किया गया है । ' वेदनीय कर्मकी वेदना' इस निर्देशसे शेष कर्मोंकी वेदनाका प्रतिषेध किया है । क्षेत्रका निर्देश करनेसे द्रव्यादि वेदनाओंका प्रतिषेध किया गया है। 'किसके होती है?' इससे उक्त वेदना क्या देवके, क्या नारकीके, क्या तिर्यचके और क्या मनुष्यके होती है। यह पृच्छा की गई है। __ अन्यतर केवलीके, जो केवलिसमुद्घातसे समुद्घातको व उसमें भी सर्वलोक अर्थात् लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त हैं, उनके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥१६॥ 'अन्यतर ' पदके निर्देशसे अवगाहनाविशेषोंके और भरतादिक क्षेत्रविशेषोंके १ अ- काप्रयोः “ तरस ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001405
Book TitleShatkhandagama Pustak 11
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Balchandra Shastri, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1995
Total Pages410
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size10 MB
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