Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुण्य श्रीजी स्वर्ण श्रीजी स्मारक ग्रन्थमाला पुहर न० ५३
वृहत् पूजा-संग्रह
उपदेशिका विश्व- प्रेम प्रचारिका, जैन कोकिला, प्रार्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज साहब
प्रकाशक
ज्ञानचन्द लूनावत
१५ए, लक्ष्मीनारायण मुखर्जी रोड,
कलकत्ता- ६
विक्रम सम्बत् २०३७
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुस्तक प्राप्ति-स्थान : . ... (१) पुण्य स्वर्ण ज्ञानपीठ
विचक्षण भवन कुन्दीगर भेरू का रास्ता जौहरी बाजार जयपुर-३ ( राजस्थान)
मूल्य ६ रुपये
मुद्रक : ग्ता प्रिन्टर्न २जी, एमान बस लेना पलकत्ता
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
()
अनुक्रमणिका । (१) स्लानपूजा विधि (२) स्नान पूजा
श्रीमद्देवचन्द्रजी ८ (३) अष्टप्रकारी पूजा -श्रीमद्देवचन्द्रजी - २६ (४) नवपद बडी पूजा '-श्रीमद् यशोषिजयजी देवचन्द्रजी
ज्ञानविमलसूरिजी लालचन्द्रजी ३६ (५) सतरहभेदी पूजा -उपाध्याय श्री साधुकोतिजीगणि ७० (६) पंचपरमेष्ठी पूजा उपाध्याय श्री सुगुणचन्द्रजी ६०' (७) वीस स्थानक पूजा -श्री जिनहर्पसूरिजी १०६ (८) पंचकल्याणक पूजा उपाध्याय श्री वालचन्द्रजी १४४ (६) पंच ज्ञान पूजा -उपाध्याय श्री सुगुणचन्द्रजी १६७ (१०) पि मण्डल पूजा उपाध्याय श्री शिवचन्द्रजी १७७ (११) बारह व्रत पूजा -पडित श्री कपूरचन्दजी २०३ (१२) श्री आदीश्वर पंच कल्याणक पूजा
श्री विजयवल्लभसूरिजी २३२ (१३) श्री शांतिनाथ पंच कल्याणक पूजा
-श्री विजयवल्लभसूरिजी २५५ (१४) गिरनारतीर्थ पूजा -श्री जिनकृपाचन्द्रसूरिजी ३०५ (१) श्री पार्श्वनाथ पंच कल्याणक पूजा
-उपाध्याय श्री फवीन्द्रसागरजी ३१७
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ख) (१६) श्री महावीर स्वामी पूजा
-उपाध्याय श्री कवीन्द्रसागरजी ३३७ (१७) रत्नत्रय पूजा -उपाध्याय श्री कवीन्द्रसागरजी ३५४ (१८) चौसठ प्रकारी पूजा विधि
- उपाध्याय श्री कवीन्द्रसागरजी ३७१ (१६) ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा
-उपाध्याय श्री कवीन्द्रसागरजी ३७३ (२०) दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा
३८६ (२) वेदनीय कर्म निधारण पूजा
४०२ (२२) मोहनीय कर्म निवारण पूजा
४१५ (२३) आयुष्य कम निवारण पूजा (२४) नाम कर्म गिवारण पूजा
४४३ (२५) गोन कर्म निवारण पूजा
४५७ (२६) अन्तराय कर्म निवारण पूजा
४२६
४६८
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
। प्रस्तावना
जैनागों में निक्षेपा सत्य माना गया है और इसी कारण स्थापना निक्षेपा की सत्यता स्वीकार करते हुए जिनप्रतिमा के समक्ष धूप खेने के 'घूव दाउणं जिनवराण' शास्त्र पाठ द्वारा जिन प्रतिमा जिन सारसी होना स्वयं सिद्ध है। जैनागमों मे स्थानस्थान पर जिन प्रतिमा को अनादिकाल से शाश्वत माना गया है और उसकी पूजन पद्धति भी देवों में, मनुष्यों में प्रचलित होने के प्रमाण शास्त्र सम्मत हैं। शाश्वत-अशाश्वत तीर्थों का वन्दन पूजन शास्त्र विहित है। चतुर्विधसंघ को जिन प्रतिमा के वंदनपूजन की स्पष्ट आज्ञा ही नहीं अपितु साधु लोगों के लिए जिनवदनार्थ मंदिरों में जाना अनिवार्य है और न जाने पर महानिशीयसूत्र मे दण्डनीय माना है। हाँ साधु के लिए सावध योग का त्याग होने से वह केवल भाष पूजा का अधिकारी है और श्रावक सागारधर्मी होने से द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का पूजन करने की उसे उन्मुक्त आज्ञा है। वर्तमान में महाविदेह में फेवली अवस्था में विचरने पाले भगवान श्री देवचन्द्रजी महाराज ने जिन पूजा और श्रावकों के भक्तिभाव की स्पष्ट अनुमोदना की है।
मूल जैनागमों में अष्टप्रकारी-सतरह प्रकारी आदि पृजाओं का विधान है और इसी पुष्टावलम्बन से रावण आदि ने तीर्थ
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
(घ )
कर नाम कर्म उपार्जन किया है। जिन प्रतिमा के अवलम्बन को अस्वीकार करने वाला सम्यक्त्वी नहीं हो सकता और उसे तीन कालसें भी आत्म दर्शनकी सम्पूर्णता - मोक्ष प्राप्ति नहीं हो सकती । जैन शास्त्रों में सम्यक ज्ञान क्रिया से मोक्ष बतलाया है । शुष्क ज्ञानी और क्रिया जड़ दोनों को ही मोक्ष मार्ग से दूर माना गया है । जिनेश्वरदेव से भक्ति के तार जोड़ना अवश्य कर्तव्य है, विभक्त रहने से मोक्ष मार्ग असम्भव है । अतः भव्यात्माओं को जिन भक्ति मार्ग के सुगम पथारूढ होने के लिए आगमों में पूजा विधि बतलाई है । आगम काल से प्राकृत भाषा का प्रचलन था अतः संस्कृत प्राकृत में पूजा पाठ प्रचलित थे । अपभ्रंश भाषा युग में उस भाषा में निर्माण हुआ है इधर चार-पांच शताब्दी से हिन्दी गुजराती राजस्थानी लादि लोक भाषा में प्रचुरता से एतद्विषयक पूजा साहित्य का निर्माण हुआ । इन पूजाओं में तत्वज्ञान इतिहास आचार संहिता और जितेन्द्र भक्ति सम्पूर्ण रूपेण आप्लावित हैं । शुष्क तत्वज्ञान आकलन करना दुरूह है, सूखे चावल अग्नि ताप से दग्ध हो जाएँगे पर भक्तिजल मिश्रित करने पर सिद्ध होंगे तभी तो श्रीमद्देवचन्द्रजी ने "कलश पानी मिसे भक्तिजल सींचता" वाक्यों द्वारा भक्ति भाव प्रवण पूजोपचार निर्दिष्ट किया है ।
विगत चार सौ वर्षों से विद्वानों ने लोकभाषा में विविध संगीतलय युक्त राग-रागनियों में व देशी ढालों में पूजा साहित्य का निर्माण करना प्रारंभ किया । उ० साधुकीर्तिजी की संतरह
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ड)
भेदी पूजा और उ० यशोविजयजी देवचन्द्रजी और ज्ञानविमल सूरिजी कृत संयुक्त नवपद पूजा जैन समाज मे विशेष प्रसिद्धि को प्राप्त हुई । गन दो शताब्दियों मे शिवचन्द्रोपाध्याय, चारित्रनंदी, अमरसिन्धुर, ज्ञानसार, सुमतिमडन, कपूरचन्द्र श्रीजिनह सूरि, जिनकृपाचन्द्रसूरि, हरिसागरसूरि, कवीन्द्रसागरसूरि आदि अनेक विद्वान कवियों ने खरतरगच्छ मे लगभग ६० पूजाएँ निर्माण कर पूजा साहित्य का भण्डार भरने के साथ-साथ भक्त जनता का बड़ा उपकार किया है। इन्हें अर्थ विचारणा पूर्वक गाने वाला व्यक्ति भक्ति रसपूर्ण संगीतज्ञ बनने के साथ-साथ जैन तत्वज्ञान, इतिहास और विधि-विधान मे भी प्रबुद्ध निष्णात हो सकता है ।
प्रस्तुत वृहत् पूना समइ विश्नप्रेम प्रचारिका, जैन कोकिला, प्रवर्तिनी श्री विचक्षणश्रीजी महाराज के उपदेश से प्रकाशित हो रही है। इसमे प्रचलिन अनेक पूजाओं के साथ-साथ परम पूज्य श्रीमद् कवीन्द्रसागरसूरिजी फा ११ पूजाएँ जो आचार्य पद से पूर्व निर्मित है, संगृहीत है एवं श्रीमद्विजय वल्लभसूरिजी महाराज कृत कतिपय प्रचलित पूजाएँ देकर मन्थ के महत्व में अभिवृद्धि की गई है । आशा है इन पूजाओं के उपयोग से जैन संघ अधिकाधिक लाभान्वित होगा ।
— भँवरलाल नाइटा
}
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
प्रवर्तिनीरत्न श्री विचक्षणश्रीजी महाराज
रत्नगर्भा वसुन्धरा वाली उक्ति को चरितार्थ करते हुए आज से लगभग ६८ वर्ष पूर्व अमरावती (महाराष्ट्र) में आपाढ वदी एकम सं० १६६६ को मृथा कुल में, पिता श्री मिश्रीमलजी व माता रूपादेवी की कुक्षी से दाखीवाई का जन्म हुआ। पिता व माता के नाम के अनुरूप गुण को धारण करती हुई अर्थात् मिश्री सी मीठी तथा रूपावाई नाम सहश रूपवती वाला को देख माता ने इनका नाम दाखोबाई रखा। इन्हें देख कोई सहज ही इनके उच्च जीवन की कल्पना कर सकता था, पर यह दीपक विश्व का आलोक बन जायेगा, ऐसा तो किसी की कल्पना में भी न आया होगा।
विराटशक्ति सम्पन्न यह देवी भारत माँ को गौरवान्वित बना हजारों की श्रद्धा सम्पादित करती हुई इतिहास की अविछिन्न शृंखला में कड़ी बन स्वयं भी जुड़ जायेगी, जिसको सदियों तक सुरक्षित रखने में इतिहास भी सावधान रहेगा, ऐसा कितने विचारा होगा।
दाखी बाई ने नव वर्ष की अल्प आयु में माता रूपा देवी के साथ खरतर गच्छ में पू. सुखसागर जी म. सा. के समुदाय में पू०प्र० श्री पुण्यश्रीजी म. सा. की शिष्या बनी एवं श्री जतनः श्रीजी म० सा० से पीपाड राजस्थान मूल वतन में अनेक प्रकार
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
( छ )
के विरोधी वातावरण को शान्त बना दीक्षा ग्रहण की। उस समय इनकी दीक्षा का सर्वाधिक श्रेय मिला इनकी जननी रूपादेवी को । प्राणप्रिय पोतीकी दीक्षासे दादाजीके मोह को ठेस लगी। जिसकी अभिव्यक्ति दीक्षा जुलून में प्रत्यक्ष प्रकट हो गयी, मोह मृढ दादाजी ने पोती को घोड़े पर से उतार लिया, जन समूह हलचल मच गयो पर आप न रोई, न चिल्लाई, न अन्य कोई प्रतिक्रिया को, अपितु शान्त भाव से उतर कर दादाजी के साथ हो ली और फिर अपने धैर्य से उन्हें समझाया जो उनकी समझदारी गंभीरता व विचक्षण बुद्धि का परिचायक है ।
मैं
दीक्षा से पूर्व अन्य घटनाओं से इनके अदम्य उत्साद शान्त गंभीरता व धैर्य का दर्शन हमे स्थान-स्थान पर होता है। दीक्षा से पूर्व आपको दादाजी ने जिन दर्शन बंचित रमा तो भी आपने अपनी बाल सुलभ चेष्टा का परिचय न देते हुए शान्ति से अन्न पानी के विना समय व्यतीत किया और अपना दृढ संकल्प बताते हुए कहा कि जिन दर्शन करने पर हो मैं कुछ गो ।
दीक्षा के सदर्भ मे -- जब उन्हें न्यायाधीश के पास ले जाया गया तो उन्होंने अपनी पूर्ण शक्ति का प्रयोग करते हुए उन्हें धमकाया, बन्दूक दिसाते हुए मृत्यु-भय बताया। आपमे निहित दैविक शक्ति बोल उठी एक दिन सभी को मरना है, मरने से क्या डर ? प्रभावित हो न्यायाधीश ने कहा ये वाला किमी की बहकायी हुई दीक्षा नहीं ले रही यह तो वास्तव में इम जीवन के अनुरूप हो लग रही है ।
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ज)
दीक्षा के पश्चात् आपका नाम साध्वी विचक्षणीजी रखा -गया । अपने गुरुवर्या श्री के अनुशासन में अपनी सरलता नम्रता विनय-शीलता, वाणीमाधुर्य आदि विशिष्ट गुणों से सभी को - प्रभावित किया। इनके गुण सभी को आकर्षित करने लगे। कुशाग्रबुद्धि परिश्रम का योग मणि-कांचन संयोग चना जिससे वर्षों में ग्रहण करने योग्य-योग्यता कुछ समय में ही विकसित हो गई। गुरणीजी के स्वर्गवास पश्चात् उन्नीस वर्ष की अल्पायु में ही स्वतन्त्र विचरण करने का योग वना । उस समय अपने उत्तरदायित्व का बोझ बहुत ही सफलतापूर्वक वहन किया जिसमें न अविवेक एवं न अहं।
महाराजश्री के विकसित व्यक्तिस्त्र का प्रभाव सम्पर्क में आने वालों को भाषित करने लगा. प्रवचन शैली, पाणी व्यवहार सभी से साधुता की अभिव्यक्ति होने लगी तब से लेकर आपने जिन शासन की सेवा में जिन वाणी के प्रचार द्वारा अनेक प्रान्तों में विहार कर जिन मंदिरों का निर्माण. जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, मंडलों की स्थापना, संस्थाओं की स्थापना की, अन्य कई कुरीतियों को आपने उखाड़ा। आपकी वाणी में इतनी शक्ति थी कि बिखरी हुई शक्तियों जुड़ गई विखरे घर संगठित हो गये। आपको कई पदवियाँ समाज ने प्रदान की जैसे व्याख्यान-भारती' विश्व प्रेम प्रचारिका, समन्वय-साधिका आदि के साथ आप प्रवर्तिनी पद से अलंकृत थी।
आपके इस अनूठे व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अनेक कन्याओं
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
( झ )
ने अपना जीवन आपको समर्पित किया. शिष्या संख्या ४० तक पहुँच गयी। जो अपनी प्रतिभा, व्यक्तित्व आदि से जन मानस को रोशनी दे रही हैं ।
आप श्री का विहार क्षेत्र काफी विस्तृत रहा । आघे भारतवर्ष से भी अधिक भाग का आपने भ्रमण किया । राजस्थान, गुजरात, सौराष्ट्र, पालीताना, महाराष्ट्र, मद्रास, हैदरावाद आंध्रप्रदेश, दक्षिण प्रान्त, रायपुर, मध्य प्रदेश, दिल्ली, जयपुर और भी अन्य कई स्थानों में आपने अपने कोफिल कंठ से मुग्ध घने लोगों को धर्मशिक्षा देकर सन्मार्ग पर चलना सिसाया, किनने ही पथ भूलों को मार्ग बताया । आत्मोन्मुखी होते हुए आपने पर कल्याण किया । दीपक की भांति जलकर प्रकाश देना ही
जाना ।
५५ वर्ष की लम्बी संयम साधना के साथ आपने जो अमृत घुट्टी लोगों को दो वह जिहा या लेसनी का नहीं, अपितु अनुभव का विषय है । हम सबने देखा कैंसर जैसी महाव्याधि में भी फैसी समाधि थी । कॅमर जिसका नाम श्रवण करने मात्र से व्यक्ति घनरा जाता है, आपने उसका कोई इलाज नहीं करवाया। हर जिहा आपको समता व सहनशीलता की गुगगानं कर रही थी । सत की जरूरत समाज को रहती है, उसका हर गवव पथ घतलाने वाला होता है पर आपको इस नश्वर देह से कोई मोह नहीं था अत इलाज के लिए सदैव मना किया। बढ़ती हुई गांठ की वेदना आपके मन को शान्ति को भंग करने में समर्थ न हुई ।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ब)
बही प्रसन्न मुद्रा व्याख्यान का चलता कम, क्षणभर भी आराम का नाम नहीं, दर्शकगण वास्तव में देखकर आश्चर्य में डूब जाते थे जब वे देखते कि समता मूर्ति के मुखारविन्द से अमृत स्रोत भर रहा है।
लगभग ढाई-तीन महीने हुए जब इस उग्र दाह ने अपना रूप डगला, गाँठ में से पानी, धीरे-धीरे वह खून के रूप में प्रवाहित होने लगा, दिन में ३-४ बार खून आना, पर आपकी वही सहज मुद्रा। सभी घबड़ा जाते, हलचल मच जाती पर वह शांत-मूर्ति वास्तव में मूर्ति के समान ही बैठी रहती और हलचल मचाने वालों को कहती हलचल किस बात की जो होने का कार्य है वह हो रहा है। परेशानी किसलिए? खून में लथपथ होने पर पाव-आधाकिलो खून के बहने पर भी चेहरे पर कोई शिकन नहीं उस समय भी कोई पूछता तो हँसते चेहरे से जबाब मिलता सदा आनन्द । देह का कार्य देह में हो रहा है, आत्मा में तो आनन्द है और यही चाहिए। कोई इस विषय की चर्चा करना चाहता तो एक-दो शब्द में उसका जबाब दे पुनः उपदेश में लग जाते। धन्य है ऐसे संत, धन्य थी उनकी साधना।
वास्तव में वे इस व्याधि में जीत गई थी जैसा एक बार के प्रसंगवश बोली थी, "मैं जीत गई' वास्तव में कर्म शत्रु से संप्राम में विजय प्राप्त कर ली। धन्य है, ऐसी अद्भुत शक्ति सम्पन्न साधना-पथ की महान साधिका को कोटि-कोटि नमन् ।
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
शासन प्रमाविका जैन कोकिला प्रवर्तिनी
श्री विचक्षणश्रीजी महाराज
भ
AON
KC
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
Arime
Manirnamann
ain
L
ifsaked
LAIME TAls lhsh ll fhlle
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ट )
सं० २०३७ बैसाख शुक्ला ४ ता० १८ अप्रेल १६८० को आपका समाधिपूर्वक स्वर्ग गमन जयपुर मे हो गया। जिसकी सूचना टेलीफोन एवं तार द्वारा प्राप्त होते ही पूरे जैन समाज में शोक छा गया। हजारों की संख्या में दूसरे स्थानों से भक्तजन आपके अन्तिम संस्कार के लिये जयपुर पहुंचे। अन्तिम संस्कार के समय आँखों मे आँसू लिए १५-२० हजार व्यक्ति इकट्ठे हुए । पूरे भारत के विभिन्न शहरों व गांवों मे श्रद्धांजलि सभाएँ हुई । अनेकों स्थानों में आपश्री को पुण्य स्मृति में अट्ठाई महोत्सव व पूजाएँ हुई ।
प्रवर्तिनीजी श्री विक्षणश्रीजी जैन समाज के लिये ज्योति थे, प्रकाश थे, प्रेरणा थे। उनकी जैन शासन सेवा को कभी भुलाया नहीं जा सकता ।
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
A
आर्या श्री पुष्पाश्रीजी महाराज
लोक में कई आत्माएँ लाखों योनियों में भ्रमण करते हुए क्रमिक विकास करके इस अमूल्य मानव देह को प्राप्त करती हैं । लेकिन मानव देह पाकर आत्मा पिछले कष्टों को भूलकर भोग बिलास के द्वारा जो भी कर्मजाल उसने पूर्वजन्मों में भोगा है उसे ही पुनः शुरु कर देती हैं। कुछ ही ऐसी पावन पुन्यात्माएँ होती है जो सजग सावधान होकर वैराग्य भावना से इस मानव देह रूपी पुद्गल की सहायता से अपने शेष कर्मों को नष्ट कर मुक्ति पद की ओर अग्रसर होती है ।
ऐसी ही एक सचेतन आत्मा ने वकील मोहनलाल हीमचन्द के कनिष्ठ पुत्र रतिलाल भाई की धर्मपत्नी चम्पा बहन की कुक्षि में मानव देह धारण कर बैसाख सुदी सप्तमी वि० स० १६८४ को बड़ौदा (गुजरात ) के निकटवर्ती पादरा प्राम में पदार्पन किया । नाम शान्ता बहन रखा गया। जो अपने नाम के अनुकूल बचपन से ही पूर्वार्जित पुण्यों के फल से शान्त प्रकृति की थी । बचपन से ही धार्मिक वातावरण में पलती हुई आपको इस असार संसार में रूचि नहीं थी । आपकी बड़ी बहन जिनका नाम विद्या बहन था, सं० १६६६ में खरतरगच्छाधिपति सुखसागरजी म० सा के समुदाय में पू० प्रवर्तिनी विचक्षणश्रीजी म० सा० के पास दीक्षित हुई । आप उसी समय से पूर्ण वैराग्य भावना से रहने
1
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
लगी व एक वर्ष तक साधना पथ का अनुभव करके सं० १६६६ में दिल्ली नगर में माघ पदी सप्तमी को ५० पू० जतनश्रीजी म. सा० के कर-कमलों से दीक्षा ली। दीक्षित करके परम पूज्या अनुपम श्रीजी म. सा. की शिप्या पुप्पा भी नी नाम रखा गया।
दीक्षा ग्रहण करने के बाद आपका पहला चातुर्मास मुमनु (शेखावटी) नगर में प० पू० विचक्षणश्रीजी म. सा. के साथ हुआ । यहाँ पहले चातुर्मास में ही आप काफी अस्वस्थ रहे।
आपको समहणी नामक व्याधि से कप्द उठाना पड़ा। मुमनु में ही द्वितीय चातुर्मास में आपने मासक्षमण तप किया। फिर वहाँ से पू० विचक्षणीजी म. सा. के उपचार हेतु आप सनके साथ फतहपुर नगर पधारी । पू० विचक्षण श्री जी म. सा. के स्वास्थ्य राम के पश्चात् आप बीकानेर नगर में सेठ मेरुदानजी कोठारी द्वारा नीर महावीरके मन्दिर के प्रतिष्ठा महोत्सव घ छोटी घाई (विनयेन्द्रनीली) के दीक्षा अवसर पर पू० विचक्षणश्रीजी के साय यीकानेर नगर पधारे। यहाँ आपने पू० दयाश्रीजी म. सा. को घेयाषच्च की। बीकानेर नगर में मापको पुन संग्रहणी रोग हो गया। स्वास्थ्य लाभ के पश्चात आप पृ० जतनश्रीजी म. सा. की सेवा हेतु श्री विनीताश्रीजी के माय दिही पधारे। मं० २००४ में दिल्ही चातुर्मास में आपने पुन' मामलमण तप किया। वर्षों से पृ० यात्रीजी मसा की सेवा हेतु पाप फिर पोकानेर पधारे। रास्ते में व्यापर नगर में दी श्री हरि
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
लागरसूरीश्वरजी म. सा. के कर कमलों से आपकी बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई। ___ मापने बीकानेर नगर में प्रवेश किया अव से लेकर स्वर्गवास तक (२७) सत्ताईस वर्षों में, पू० दयाश्रीजी म. सा, कंचन श्री जी म. सा. शान्तिश्रीजी म. सा., पवित्रश्रीजी म. सा व महिमाश्रीजी म. सा. आदि अनेक साध्वियों की निर्मल मन से आपने निरन्तर सेवा की। यहाँ २७ वर्ष रहने पर भी किसी के अप्रिय नहीं बने थे कारण कि आपका व्यवहार बड़ा मधुर व स्वभाव मिलनसार था। आपको प्रतिवर्ष कभी पानीझरा, कभी मोतीझरा हो जाता था। पिछले काफी समय से बुखार व रक्तचाप की बीमारी से भी आप पीड़ित रहे। फिर भी आपने कभी अपनी सेवा के लिए किसी को कष्ट नहीं दिया।
स्वर्गवास के दिन २६-४-७५ को सुबह आप का रक्तचाप २१० था। अतः विनीताश्रीजी जो अभी बीकानेर नगर में हुई तीन दीक्षाओं के अवसर पर साध्वी श्री कमलाश्रीजी म०, सुरंजनाश्रीजी म० को साथ लेकर पधारी थी (यह गृहस्थ जीवन में आपकी बहन थीं) इन्होंने आपको चिकित्सा कराने की सलाह दी लेकिन आपश्री ने साफ मना कर दिया कि मैं अंग्रेजी दवाई नहीं लेती। निरन्तर व्याधि होने पर भी कभी उफ तक नहीं की। उसी दिन रात्रि को जब आपके पास कमलाश्री जी म. सा. सोयी हुई थीं ऊन्होंने हा वजे तेज-तेज श्वांस सुनकर आपको पुकारा, लेकिन वापस जवाब न मिलने पर जब उठ कर
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ण)
देखा तो आप वमन किए हुए लेटी थी। फिर नाक व मुंह से खून निकलने लगा इस स्थिति से घबराकर भावकों को सूचना दी गई। उन्होंने रात में १२ बड़े डा० को बुलवाया। लेकिन डा० साहन असफल रहे क्योंकि आपको हेम्रज हो गया था। आगा निराशा में परिणत होने पर पू० सुरेन्द्रश्रीजी म. सा. व पू० विनीतागोजी म सा ने संथारा भवचरिम प्रत्याख्यान करा दिए और नवकार मंन सुनाते रहे। नवकार मत्र सुनते-सुनते आपने ३-५ मिनट पर समाधि पूर्वक नश्वर देह त्याग दी पण्डित मरन हा। रेल दादावाडी के पास वैमाघ कृष्ण द्वितीया ता० २७.४.७५ रविवार को इस नश्वर देह को चन्दन की चिता में रखा गया व दाह संस्कार किया। ___ अममय हो यह ध्यागा नप प साधना की भव्य भातमा इस लोक से विदा लेकर अवश्य लोक में प्रविष्ट हो गई। लेकिन उनको सुरभि वर्षी तक जैन शासन को सुरमित करती रहेगी।
-~~-पद्यशाश्री ~पूर्णयशाश्री
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
( द )
सागरसूरीश्वरजी म० सा० के कर कमलों से आपकी बड़ी दीक्षा सम्पन्न हुई ।
आपने बीकानेर नगर में प्रवेश किया अब से लेकर स्वर्गवास तक (२७) सत्ताईस वर्षों में, पू० दयाश्रीजी म० मा०, कंचन श्री जी म० सा० शान्तिश्रीजी म. सा, पवित्रश्रीजी म सा० व महिमाश्रीजी म सा आदि अनेक साध्वियों की निर्मल मन से आपने निरन्तर सेवा की। यहाँ २७ वर्ष रहने पर भी किसी के अप्रिय नहीं बने थे कारण कि आपका व्यवहार बड़ा मधुर व स्वभाव मिलनसार था । आपको प्रतिवर्ष कभी पानीभरा, कभी मोतीझरा हो जाता था । पिछले काफी समय से बुखार व रक्तचाप की बीमारी से भी आप पीड़ित रहे। फिर श्री आपने कभी अपनी सेवा के लिए किसी को कष्ट नहीं दिया ।
स्वर्गवास के दिन २६-४-७५ को सुबह आप का रक्तचाप २१० था । अतः विनीताश्रीजी, जो अभी बीकानेर नगर में हुई तीन दीक्षाओं के अवसर पर साध्वी श्री कमलाश्रीजी म० सुरंजनाश्रीजी म० को साथ लेकर पधारी थी (यह गृहस्थ जीवन में आपकी बहन थीं ) इन्होंने आपको चिकित्सा कराने की सलाह दी लेकिन आपश्री ने साफ मना कर दिया कि मैं अंग्रेजी दवाई नहीं लेती। निरन्तर व्याधि होने पर भी कभी उफ तक नहीं की। उसी दिन रात्रि को जब आपके पास कमलाश्री जी म० सा सोयी हुई थीं उन्होंने ६ ॥ वंजे तेज-तेज श्वांस सुनकर आपको पुकारा, लेकिन वापस जवाब न मिलने पर जब उठ कर
*
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ण) देखा तो आप वमन किए हुए लेटी थी। फिर नाक व मुंह से खून निकलने लगा इस स्थिति से घबराकर भावकों को सूचना दी गई। उन्होंने गत मे १२ बजे डा० को चुलवाया। लेकिन डा० साहन असफल रहे क्योंकि आपको हेम्रज हो गया था । आशा निराशा में परिणत होने पर पू० सुरेन्द्रप्रीजी म. सा० घ पू० विनीतामोजी म सा ने संथारा भवचरिम प्रत्याख्यान करा दिए और नयकार मंत्र सुनाते रहे। नवकार मंत्र सुनते-सुनते
आपने ३.५ मिनट पर समाधि पूर्वक नश्वर देह त्याग दी पण्डित मग्न हा। रेल दादावाडी के पास सार कृष्ण द्वितीया ता. २७-४-७५ रविवार को इस नश्वर देह को चन्दन की चिता में रखा गया व दाह संस्कार किया।
मममय हो यह त्याग, नप व साधना की भव्य आत्मा इस लोक से विदा लेकर अदृश्य लोक में प्रविष्ट हो गई। लेकिन उनको सुरभि वर्मा तक जन शासन को सुरमित करती रहेगी।
-~पद्मयशाश्री ----पूर्णयमापी
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
- द्रव्य सहायक :---
१०००) आर्या श्री विनीताश्रीजी महाराज के उपदेश से श्राविका
मण्डल बीकानेर
(आर्या श्री पुष्पाश्रीजी महाराज की पुण्य स्मृति में ) १००१) आर्या श्री चन्द्रप्रभाश्रीजी महाराज के उपदेश से
श्री नागेश्वर तीर्थ में नवपद ओली आराधना के उपलक्ष
में प्राविका संघ १५००) आर्या श्री सुलोचनाश्रीजी महाराज सुदर्शनाश्रीजी ।
महाराज के उपदेश से १०००) श्री जिन कुशल सूरि जैन सेवा संघ
साउथ एक्सटेनशन II नई दिल्ली ५००) श्री विचक्षण महिला मण्डल
श्री जैन छोटी दादाबाड़ी नई दिल्ली ५००) श्री ग्वरतर गन्छ संघ कोटा २५०) श्री मोभागमल जी चोरडिया भानपुर २५०) जैन श्रीसंघ भानपुर २५०) श्री मोहनराजजी भंसाली की धर्मपत्नी गुमानबाई १००) श्री जैन श्वेताम्बर संघ तलोदा (खानदेश)
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
3
॥ ॐ ॥
|| श्रीमद् अर्हद भ्यो नमः ॥
वृहत् पूजा संग्रह
॥ अथ नवकार मन्त्र ||
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए
सन्त्र - साहूणं ॥
पाव - प्पणासणो ।
एसो पंच णमुकारो, सन्च मगलाणं च सचेसिं, पढमं हवड़ मंगलं ॥
॥ स्नात्र पूजाविधि ॥
प्रात काल मे भव्यात्मा आसातनाओ को टालता हुआ, सम्यग्दर्शन की शुद्धि के लिये, प्रभु मन्दिर मे 'नमो जिगाणं' कहता हुआ प्रवेश करे । पाप व्यापारी के निषेध रूप 'निस्सिहि' शद का तीन बार उच्चारण करे। वहाँ शुद्ध जल से स्नान कर, शुद्ध धोती पहिने । उत्तरासन, दाहिने कंधे के नीचे और चाये कन्धे के ऊपर करे । फिर अपने सिर के वालों को सँवार कर हाथी को
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुद्ध जल से धो-पोंछकर पूजक अपने ललाट पर मेरु आकृति का तिलक करे तथा चारों अंगों में करे। फिर प्रक्षाल के लिये शुद्ध जल का घड़ा तैयार रखे। दृध-दही-घृत-मिश्री और केसर, इनके मिश्रण से पंचामृत का कलश तैयार करे। रकेवी में फूल या लौंग व अक्षत स्वच्छ जल धोकर रखे। भगवान के डाबी वाजु धूपदानी में धूप और जिवणी वाजु घृत दीपक तैयार करे। नैवेद्य पेड़ा लड्डू या मिश्री, फलरकेवी में रखे। मोली-काँच-पंखाखसकूची तीन अंगलहणे तथा आरती, मंगल, दीपक, चामर, घण्टा ( घड़ियाल ) आदि भी तैयार रखे । ____ पहले स्नानशुद्धि के बाद, पूजन के वस्त्र यानी धोती पहन कर दुपट्टे या चद्दर आदि का उत्तरासन लगा के, मुंह एवं नाक अष्टपट्ट मुखकोश वॉधकर चन्दन केशर घोटकर तैयार कर ले। सुगन्धि के लिये केशर में थोड़ा वरास डाल। गरमी हो तो थोड़ा गुलावजल भी डालं। फिर मौली अपने दाहिने हाथ में बाँधे । दाहिनी हथेली में केशर का साथिया करे। इतना ध्यान अवश्य रहे कि अपने ललाट व अंगों पर तथा हथेली में साथिया करने के लिये चन्दन-केशर अलग कटोरी में होना चाहिये। प्रभु पूजा की चन्दन-केशर की कटोरी अलग होनी चाहिये। प्रभु पूजा की चन्दन-केशर की कटोरी में से हाथ के साथिया भूल के भी न करे। तिलक करने के बाद अपने हाथों को शुद्ध जल से धोकर पोछ लेना चाहिये । हाथ आदि भी अन्य पात्र में धोना, मंदिरजी में कीचड़ कभी नहीं करना चाहिये। फिर मन्दिरजी में या जहाँ
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी स्नात्र पढ़ानी हो, वहाँ पहले भूमि शुद्ध करके चन्टरवा और पूठीया वाँधकर तीन वाजोट (पाटे ) एक के ऊपर एक तिगडे के रूप मे रसकर ऊपर सिंहासन रखे। एक और बाजोट या बडा पाटा निगडे के सामने रसे, जिस पर पूजा आदि का सामान रसा जाय। फिर पूजक (नात्रिया) आठ पुड का मुसकोश बाँधकर प्रमुजन्माभिषेक का चिन्तन करता हुआ, बिगडे मे व सिंहासन पर साथिया करके ऊपर छत्र को बाँधकर श्री प्रभु को विराजमान करे। निगडे,मे अक्षत साथिया कर श्रीफल के मौली वाँधकर तीन नवकार गिनता हुआ चाँवल पुज ( साथिये ) पर श्रीफल स्थापन करे । रूपानागा (द्रव्य) भी वहाँ रसे। सामने वाले बाजोट पर पाँच साथिए चावलों के करे। धूप सेवे। पूजा की सव वस्तुएँ धूप से धूपित करे। रकेत्री मे थोडे अक्षतों के साथ केशर-फूल या लोग मिलाकर कुसुमाजलि तयार कर ले। बाट मे पुरुप जिन प्रतिमाजी के दाहिने हाथ की तरफ और स्त्री वायीं तरफ कुसुमाञ्जलि की रकेबी लेकर सड़ा होकर एक नवकार मन्त्र पढता हुआ स्नान-पूजा पढनी (गानी) या पढवानी (गवानी) आरम्भ करे ।।
कुछ आवश्यकीय ध्यान देने योग्य वाते -- . जैन शास्त्रों में पूजा की विधि बहुत ही विस्तार पूर्वक एव विधि-विधान सहित लिखी हुई है एव पूजा का फल भी बहुत कहा है। परन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भन नही है कि
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
[४]
वह शास्त्र पढ़कर ही सब विधि जाने। अतएव, संक्षेप में यहाँ जिन पूजन विधि लिखते हैं। ताकि हरएक साधारण व्यक्ति भी समझकर कर सके।
पूजन करने वालों को स्लान आदि करके अपने शरीर की शुद्धि करनी चाहिये । आजकल प्रायः कई व्यक्ति पर में ही स्नान करके आते हैं। एवं मन्दिरजी में आकर हाथ-पाव धो-पोंछकर पहनने के कपड़े बदल कर पूजा में चले जाते हैं। किन्तु घर से कपड़े पहन कर आना एवं रास्तों में कितनों ( अस्पश्य ) का स्पर्श हो जाता है । यह उचित नहीं है एक दूसरी बात यह है कि उसे सब लोग तो नहीं जानते कि ये घर से स्नान करके आये हैं ? अतः उनका अनुकरण (ओ अज्ञानी एवं अजान हैं ) करके दूसरे व्यक्ति भी केवल हाथ-पाँच धोकर पूजा में प्रवेश हो जाते हैं । इसमें कितनी आसातना होती है यह अति विचारणीय है। इस प्रकार शुद्ध हो प्रत्येक व्यक्ति पूजक रूप में यथावत बनकर मूल गॅभारे में जावें । तीन नवकार मंत्र स्मरण कर सर्व-धातु की अरिहंत प्रतिमा सिद्धचक्र गट्टाजी स्नात्र के लिये लावे। प्रभु प्रतिमा का देखते ही वन्दना करके समस्त पूजा वस्तु को धूप से धूपित करके सर्वप्रथम प्रभु को धूप से धूपित करना चाहिये। तत्पश्चात् आभूपगों को उतारकर यथास्थान रखें। फिर जीवदया का पूरा पूरा ध्यान रखते हुए कि कहीं कोई चींटी-मकोड़ी रोशनी के जन्तु आदि न हों! सावधानी से देखकर प्रतिमाजी के मोरपीछी का व्यवहार करें। अर्थात् पहले का चढ़ा हुआ पूजा-द्रव्य मोरपीछी से उतारें।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५] फिर पानी व दूध वस्त्र से छानकर पहले एक कलश मे दूध ( पंचामृत ) और दूसरे मे जल भरकर फिर धूप देकर प्रतिमाजी का प्रक्षाल कर। ससक्ची से जहाँतहाँ केशर आदि लगी हो उसे हल्के हाथ से उतार कर दूध या पंचामृत से, बाद में पानी से प्रक्षाल करें। यदि गरमी की ऋतु हो तो जल में गुलाव, केवडा जल डालकर प्रतिमाजी को स्नान करावें। पास में और भी कोई भाई हो तो उन्हें भी ( बहनों को भी ) प्रभु पूजा मे लाभ लेने का निवेदन करें। प्रक्षाल के बाद, एक-एक करके तीन अंगलहणों से प्रतिमाजी को पोंछकर साफ करें। ध्यान रस कि कहीं भी जरा जल्-बिन्दु भी प्रतिमाजी पर अवशेष रहना न चाहिए।
तीन अंगहणा करके पुन धूप देकर प्रभु की चन्दन केशर से इस प्रकार पूजन करें।
पूजन सर्व अंगों से पहले दाहिनी तरफ, फिर वाई तरफ करें। भगवान के नव अंगों की पूजा होती है। उसके लिये एक-एक श्लोक (मंत्र ) पढ़ें और प्रभु अंग भेटें। प्रभु की प्रतिमाजी के नव अंगों का
क्रमवार वर्णन १ प्रभु के दोनों चरण। २ प्रभु के जानु (गोडों) । ३ प्रभु के कर (हाथों की कलाइयाँ)। ४ प्रभु के सबों पर ( चारों अंगों पर प्रथम दाहिने फिर यायें अग पर) ५ प्रभु के मस्तक पर । ६ प्रभु के भाल ( ललाट पर)। प्रभु के कठ पर । ८ प्रभु के पर दिय
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
पर)। ६ प्रभु के उदर ( अर्थात् नाभि पर ) इस प्रकार क्रम से केशर-चन्दन के पूजा करनी चाहिए। ___ तथा सवसे पहले पूजक (स्नात्रिये को) अपने चार अंगों में-१ भाल ( ललाट)। २ कंठ (गले में )। ३ उर (हृदय) में और ४ उदर ( नामि ) में तिलक करके पूजन में प्रवेश होना चाहिए।
प्रभु के नव अंगों के दोहे (मंत्र) यहाँ विस्तार से न लिखकर केवल नव अंगों के नाम लिखे है।
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि पहले मूलनायकजी की पूजा वाद में अन्यान्य स्थापित तीर्थंकर प्रतिमाओं का पूजन, पीछे गणधर पूजा, नवपदयंत्रादि उसके बाद आचार्यादि की प्रतिमा पूजन, फिर शासनदेवी भैरूजी आदि की पूजा करनी चाहिये।
कई लोग आट मंगलपट्ट की पूजा करते हैं किन्तु वह पूजा करने की वस्तु नहीं वह तो भगवान के सामने चढ़ाने की है। आटमंगलीक ावलों से मांडे जाते हैं या पट्टक सामने चढ़ाया जाता है।
पूजा करने वालों स्नात्रियों) को यह बरावर ध्यान में रखना चाहिये कि उनके शरीर में यदि जरा भी अशुचि हो, जैसे-शरीर में कहीं भी घाव-फोड़ा-फुसी के कारण मवाद-पीब आदि आता हो तथा स्त्रियों को, खास जो रजस्वला हो तो, चार दिन तक तथा ऊपर लिखे रोगियों को पूजा नहीं करनी चाहिये। और जिन्होंने शव (मुर्दा) उठाया हो वे तीन दिन तक तथा जिनके घर में
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमूत ( पन्चा जन्मा) हो, उन्हे भी तीन दिन तक पूजा नहीं करनी चाहिये । अशुचि की और भी कई बाधाएँ है, वे अपने गुरु आचार्या से पृछकर ध्यान मे रसना व अनुसरण करना चाहिये।
पुष्प चढाने के नियम ( पूजा में काम आने वाले पुप्पो को काटकर-पिरोकर काम में लेने से, कभी-कभी बेइन्द्रिय जीव पुप्यो मे लिपटे रहने से हिंमा की सम्भावना रहती है। अत फग के काटने पीरोने में शास्त्र-विहित विधि से प्राप्त पुप्पो से (चाहे घोडे हो ) पूजा विशेष फलदायक है। अत विवेक एव जयगा रसना अत्यन्त ही आवश्यक है। तथा
मुखकोग बाँधने का तरीका मुखकोश बांधने का यह विधान (नियम है कि आठ पुड बाल बच से मुग्य और नाक दोनों को बाँध कर पूजन में प्रवेश करना चाहिए। पई-पई भाई-बहन केवल मुग्न बाँधते है तथा नाफ युग रखते हैं। फाई-यई तो केवल मुह के आगे नाम मात्र कोही चदर गा लेते है, पुछ लोग पूजन के बाद तुरन्त मुसकोग गोर देने है। एव घोक देते हुए मनु प्रतिमा तक पिना मुनकोश याँधे ही परे जाते है नया एक व्यक्ति तो पिना मुन्वकोश के ही प्रतिगाजी फे मागीप मोहोरर नयन लोगादि गान-पाठ पर
समे मुनाफकोगी हना थालार के छोटे प्रनिमाजी पर गिर जाते है । उमन मशआमानना हो जाती है। इसलिये
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
[८]
मुखकोश सावधानी से बाँधना चाहिये । ध्यान रहे कि प्रभु पूजन सूर्योदय के दो घड़ी बाद ही शास्त्रों में करने की आज्ञा है, पहले नहीं । इसका सदा ध्यान रखना चाहिये । इस प्रकार यह पूजा तथा स्नात्रपूजा की विधि संक्षेप से लिखी है
1
ॐ श्रीमत् परम अध्यात्म-रसिक, परम- गीतार्थ श्रीमद्देवचन्द्रजी महाराज कृत
॥ स्नान पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
चउती से अतिसय जुओ - वचनातिसय संजुत्त ॥ सो परमेसर देखि भवि— सिंहासण संपत ॥ १ ॥
|| ढाल ||
सिंहासन बैठा जग भाण, देखी भविजन गुण मणिखाण || जे दीठे तुझ निम्मलभाण, लहिये परम महोदय ठाण ॥१॥
कुसुमाञ्जलि मेला आदि जिणन्दा । तोरा चरणकमल चौबीस, पूजो रे चौबीस, सोभागी चौबीस, बैरागी चौवीस जिणन्दा | कुसुमाञ्जलि मेलो आदि जिणन्दा ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
[]
॥ मंत्र ॥
ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म- जरा मृत्यु - निवारणाय, श्रीमद् आदिजिनेन्द्राय, ( श्रीमज्जिनेन्द्राय ) कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ||
इस मन्त्र को बोलने के बाद रकेवी में से कुछ कुसुमांजलि दोनों हाथों या अपने दाहिने हाथ से प्रभु के चरणों पर चढावे । फिर चन्दन-केशर को कटोरी वाएँ हाथ में लेकर दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली से प्रभु के दोनों चरणों मे ( पहले दाहिने, फिर बाएँ ) टीकी लगावे । फिर रकेवी में से दाहिने या दोनों हाथों मे कुसुमांजलि लेकर सड़ा रहे। फिर मंत्र बोले ।
॥ मंत्र ॥ ॐ नमोऽर्हदमिद्धाचार्योपाध्याय, सर्वसाधुभ्यः || TET ||
जो नियगुण पज्जनरम्यो, तम अनुभव एगत ॥ सद पुग्गल आरोपतां, ज्योति सुरंग निरत ||२|| जा निज आतम गुण आणन्दी, पुग्गल मंगे जेह अफन्दी || जे परमेश्वर निज पर लीन, पूजो प्रणमो भय अदीन ॥२॥
समाजलि मेलो शान्ति जिणन्दा । वोरा चरण
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१०] कमल चौवीस, पूजो रे चोवीस, सोभागी चौबीस, बैरागी चौबीस जिणन्दा । कुसुमांजलि मेलो शान्ति जिणन्दा ॥
॥ मन्त्र ॥ ॐ ह्रीं अहँ परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीमत्-शान्ति जिनेन्द्राय (श्रीमज्जिनेन्द्राय ) कुसुमांजलिंयजामहे स्वाहा ॥
इस मंत्र को बोलने के बाद कुसुमांजलि को प्रभु के चरणों में दूसरी वार और चढ़ावें। फिर चंदन-केशर की टीकी, प्रभु के घुटनों (गोडों) पर लगावें।
फिर हाथों में कुसुमांजलि लेकर खड़ा रहे । तथा नीचे लिखा मंत्र बोले। संत्र--ॐ नमोऽहत् सिद्धाचार्योपाध्याय, सर्वसाधुभ्यः ॥
॥दोहा॥ निम्मल नाण पयास कर, निम्मलगुण सम्पन्न । निम्मल धम्मुवएसकर, सो परमप्पा धन्न ॥३॥
॥ ढाल || लोकालोक प्रकाशक नाणो, भविजन तारण जेहनी वाणी । परमानन्द तणी नीसाणी, तसु भगते मुझ मति ठहराणी ॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुसुमांजलि मेलो नेमि जिणन्डा । तोरा चरण कमल चौबीस, पूजो रे चोवीस, सौभागी चौवीस वैरागी चोवीस जिणन्दा | कुसुमाजलि मेलो नेमि जिणन्दा |
॥ मंत्र ॥
ॐ ही अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म जरा मृत्यु निवारणाय, श्री नेमि जिनेन्द्राय
- ( श्री मज्जिनेन्द्राय ) कुसुमाज लियजामहे स्वाहा ||
-
यह मंत्र पढ़कर प्रभु के चरणों मे कुसुमाजलि तीसरी वार चढ़ावें । तथा चदन- केशर से प्रभु की कलाइयों पर टीकी लगायें । फिर कुसुमाञ्जलि हाथों मे लेकर सड़ा रहे तथा मंत्र पढ़ें । मत्र — ॐ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ ॥ दोहा ॥
जे सिद्धा सिज्झन्ति जे, सिज्झिसति अणत || जसु आलम्बन ठवियमन, सो सेवो अरिहंत ||४||
|| ढाल || शिव सुख कारण जेह निकाले - सम परिणामें जगत निहाले || उत्तम साधन मार्ग दिसालें - इन्द्रादिक जसु चरण पसाले ||
कुसुमाञ्जलि मेलो पार्श्व जिणन्दा । तोरा चरणकमल
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १२ ] चौवीस, पूजो रे चौबीस, सोभागी चौबीस, बैरागी चौबीस जिणन्दा । कुसुमाञ्जलिमेलो पार्श्व जिणन्दा ॥ ___ मंत्र-ॐ हीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्री पार्श्व जिनेन्द्राय [श्रीमज्जिनेन्द्राय ] कुसुमाञ्जलि-यजामहे स्वाहा ।। ___यह मंत्र पढ़कर कुसुमांजलि प्रभु के चरणों पर चौथी बार चढ़ावे । फिर प्रभु के दोनों कन्धों पर टीकी लगावे। फिर कुसुमांजलि हाथों में लेकर खड़ा रहे । तथा नीचे लिखा मंत्र पढ़े। मंत्र-ॐ नमोऽहत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधूभ्यः ॥
॥दोहा॥ सम्मद्दिट्टी देसजय—साहु साहुणी सार ॥ आचारज उवज्झाय मुणि-जोनिम्मल आधार ॥५॥
॥ ढाल ॥ चउविह संघे जे मन धार्यो,-मोक्षतणो कारण निरधार्यो । विविह कुसुम वर जाति गहेवी,-तसु चरणे प्रणमन्त ठवेवी ॥ .. कुसुमाञ्जलि मेलो, वीर जिणन्दा । तोरा चरणकमल चौबीस । पूजो रे चौबीस, सोभागी चौवीस वैरागी चौवीस जिणन्दा । कुसुमाञ्जलिमेलो-वीर जिणन्दा ॥५॥
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १३ ]
मंत्र — ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, भगवते श्री बीर जिनेन्द्राय, [ श्रीमज्जिनेन्द्राय ] कुसुमाञ्जलिं यजामहे स्वाहा ||
उपरोक्त मन्त्र बोलकर प्रभु के मस्तक [ चोटी ] पर चन्दन केशर की टीको लगाना । फिर हाथ मे चामर लेकर सडा रहे ।
॥ वस्तु छन्दः ॥
मनरङ्ग ।
सयल जिनवर, सयल जिनवर - नमिय कल्लाणक विहि सठविय - करिय सुधम्म सुपवित्त सुन्दर || सय इक सत्तरि वित्थकर - इक समय विरहन्ति महीयल । चवण समय इगवीस जिण-जन्म भत्तिय भावे पूजिया करो सघ
समय इगवीस | सुजगीस ॥ ६ ॥
dud
॥ दाल १ ॥
तर्ज- इक दिन अचिरा हुलरावतीए
भवतीजे समकित गुणरम्या - जिण भक्ति प्रमुख गुण परिणम्या || तजी इन्द्रिय सुख आसशना - करी थानक वोसनी सेवना ॥१॥ अति राग प्रशस्त प्रभावता - मन भावना एहवी भावता ॥ सवि जीव करूँ शासन रसीइसी भाव दया मन उल्लसी ॥ २ ॥ लही परिणाम
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ 49 ]
एहयूँ भलै - निपजावी जिनपद निर्मले || आउथे विन इक भवकरी - श्रद्धा संवेग ने थिर घरी ॥ २ ॥ निहाँ भी चविय लहे नर भव उदार भरत तिम ऐवतेज सार || महाविदेह विजय प्रधान मञ्क खण्डे अवतरे जिन
निधान ॥ ४ ॥
॥ ढाल २ ॥
भगवान के चामर ढाले। फिर हाथों में अद्भुत या कुसुमांजलि लेकर खड़ा रहना ।
पुण्ये सुपनाँए देखें, मन में हरख विशेषे । गजचर उज्वल सुन्दर-निर्मल वृषभ मनोहर || २ || निर्भय केसरी सिंह- लखमी अतीहि अबीह अनुपम फूलनी माला-निर्मल शशि सुकुमाल || २ || तेज तरणि अति दीपे, इन्द्रध्वजा जगजीपे पूरण कलश पडूर, पद्मसरोवर पूर ||३|| इग्यारमे रयणायर, देखे माताजी गुणसायर । वारमे भुवन विमान, तेरमे रतन निधान ॥४॥ अग्नि सिखा निरधूम | देखे माताजी अनूपम । हरखी रायने भासे, राजा अस्थ प्रकासे ||५|| जगपति जिनवर सुखकर, होस्ये पुत्र मनोहर । इन्द्रादिक जसु नमसे - सकल मनोरथ फलसे ||६||
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१५]
॥ वस्तु छन्दः ॥
पुण्य उदय, पुण्य उदय - उपना जिन्नाह । माता तन रयणी समें - देखी सुपन हरसन्त जागिय ॥ सुपन कही निज कन् ने -सुपन अस्थ सॉभलो सोभागिय ।। त्रिभुवन तिलक महागुणी - होशे पुत्र निधान || इन्दादिक जसु पाय नमी - करसे सिद्धि विधान ||७||
T
॥ ढाल ३ ॥
तर्ज- चन्द्रावलानी
सोहमपति आसनकपीयो देई अवधे मन आणंदियो । मुझ आतम निर्मल करण काज - भवजल तारण प्रगट्यो जहाज || १ || भव अडवी पारंग सत्थवाह — केवल नाणाइय गुण अगाह | शिवसाधन गुण अकूर जेह-कारण उलट्यो आपाढि मेह ||२|| हरपे विकसे तब रोम राय --- वलयादिक माँ निज तन् न माय । सिंहासण थी उठ्यो सुरिन्द - प्रणमन्तो जिण आनन्द कन्द ||३|| सग अड़पय समुहा आवीतत्थ - करी अंजली प्रणमिय मत्थ- सत्य । मुस भासे ए क्षण आज सार— तियलोय पह दीठो उदार ॥ ४ ॥ रे ! रे ! निसुणो सुरलोय देव
-
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १६ ] विषयानल तापित तनु समेव । तसु शान्ति करण जलघर समान-मिथ्या विष चूरण गरुड़वान ॥५॥ ते देव सकल तारण समत्थ----प्रगट्यो तसु प्रणमी हुओ सनत्य । इम जम्पी शकस्तव करेवि-तर देव-देवी हरपे सुणेवि ॥६॥ गावे तब रंभा गीत गान-सुरलोक हुओ मंगल निधान । नर क्षेत्रे आरजवंश ठाम-जिनराज वधे सुर हर्ष धाम||७|| पिता-माता घरे उच्छा अशेष-जिन शासन मंगल अति विशेष । सुरपति देवादिक हरप संग-संयम अर्थी जनने उमंग ॥८॥ शुभ वेला लगने तीर्थनाथ-~-जनम्या इन्द्रादिक हर्प साथ। सुख पाम्या त्रिभुवन सर्व जीवबधाई-बधाई थई अतीव ॥६॥
उपरोक्त ढाल-गाथा गाने-बोलने के बाद, हाथों में ली हुई कुसुमांजलि या अक्षतादि से प्रभु को बधावे। बाद में प्रभु प्रतिमा को तीन प्रदक्षिणा व तीन खमासगा देकर, बायाँ घुटना खड़ा रखकर, और दायाँ घुटना जमीन पर टेककर, चैत्यवन्दन करे। यहाँ कहीं-कहीं केवल "शक्रस्तव” “णमुत्थुणं” पाठ "ठाणं संपाविउ कामस्स” तक बोलने का उल्लेख है। और कहीं कहीं "जगचिन्तामणि" बोलकर, "जय वीयराय” पढ़कर ही चैत्यवन्दन करने का उल्लेख मिलता है। जो कुछ भी हो, जहाँ जैसी प्रथा
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १७ ]
परिपाटी हो, उसी तरह करे । बाद में दोनों हाथों को शुद्ध जल से धोकर पोंछकर दाहिने हाथ में साथिया केशर चन्दन का कर, पंचामृत-जलादिका कलश ऊपर वस्त्र से ढँककर, धूप देकर हाथ में लेकर प्रभु प्रतिमा के दाहिनी बाजू सडा रहे । ॥ कलश की ढाल ४ ॥
कलश
आधार ॥
तर्ज- श्री शान्ति जिननो कलश कहीशु, प्रेमसागर पूर० श्री तीर्थपतिनो मज्जन - गाइये सुखकार । नरखेत्र मण्डण दुहविहडण - भविक मन विहाँ शव राणा, हर्ष उच्छव-धयो जग-जयकार | दिशि कुमरी अवधि विशेष जाणी-ललो हर्ष अपार ॥ १ ॥ निय अमर अमरी संग कुमरी - गावती गुण छन्द । जिन जननी पासे, आत्री पहुँती - गहगहती आणन्द || हे माय ! तं जिनराज जायो-गचि वधायो रस्म । अम्द जम्म निम्मल करण कारण करीश सूक्ष्य कम्म ॥२॥ विहाँ भूमिशोधन' दीप दर्पण - चायनीजण धार ।
,
१ यहाँ प्रभु के सामने वस्त्र से भूमि शोधन करना । २- प्रभु के सन्मुख दीपक -फानस दिखाना ।
३ - प्रभु को दर्पण विसाना ।
-
-प्रभु
के आगे पसा भलना (हवा करना ) चाहिये ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १८ ] तिहाँ करिय कदली गेह जिनवर-जननो मज्जनकार ।। वर राखड़ी जिन पाणि वाँधी-दिये इम आशीष । जुग कोड़ा कोड़ी चिरञ्जीवो-धर्म दायक ईश ॥३॥
॥ ढाल ५॥
तर्ज-एकवीसानी जगनायक जी, त्रिभुवनजन हितकार ए। परमातमजी, चिदानन्दधन सार ए॥ जिण स्यणी जो, दश दिशि उज्वलता धरे । शुभ लगने जी, ज्योतिष चक्र ते संचरे ॥ जिन जनम्याजी, जिण अवतर माता घरे । तिण अवसर जी, इन्द्रासन पिण थरहरे ॥१॥
॥ हरिगीतछन्द ॥ थरहरे आसन इन्द्र चिन्ते, कवण अवसर ए बण्यो। जिन जन्म उच्छवकाल जाणी, अति ही आनन्द ऊपन्यो।
-
-
M
१-यहाँ प्रभु के सामने के पाटे पर कदली घर यानी अक्षतों का
साथिया वनाना। २-यहाँ पर मौली प्रभु प्रतिमा के दायें हाथ की कलाई पर
धरना।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १६ ]
निज । सिद्धि संपति हेतु - जिनवर, जाणी भगते उमयो । वधते, देवनायक गहगह्यो || १ ||
विकसंत वदन प्रमोद
॥ ढाल ||
C
तन सुरपति जी, घण्टानाद' कराव ए । सुरलोके जी, घोषणा एह दिराव ए ॥ नरक्षेत्रे जी, जिनपर जन्म हुओ अछे । तसु भगते जी, सुरपति मन्दरगिरि गच्छे ||२|
॥ हरिगीत छन्द || [ त्रोटक ]
गच्छेति मन्दर शिखर ऊपर भुवन जीवन जिन तणो । जिन जन्म उच्छव करण कारण, आवजो सवि सुर गणो । तुम शुद्ध समकित थास्ये निर्मल, देवाधिदेव निहालताँ । आपणा पातिक सर्व जासे, नाथ चरण पसाला ॥२॥
|| दाल ||
इम साँभलजी, सुखर कोडी बहू मिली । जिन वन्दन जी, मन्दरगिरि साहमी चली ||
१- यहाँ पर उठकर घण्टा बजाना चाहिये ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२० ] सोहमपति जी, जिन जननी घर आविया । जिन माता जी, वन्दी स्वामी वधाविया ॥३॥
॥ हरिगीत छन्द [त्रोटक ] धाविया जिनवर हर्ष बहुले, धन्य हूँ कृतपुण्य ए। त्रैलोक्यनायक देव दीठो, मुझसमो कुण अन्य ए॥ हे जगतजननी पुत्र तुमचो, मेरु मज्जन वर करी। उत्संग तुमचे क्लीय थापिश-आतमा पुण्ये भरी ॥३॥ .
॥ढाल॥ सुरनायक जी, जिन निज कर कमले ठव्या । पंच रूपे जी, अतिशय महिमाए स्तव्या ।। नाटक विधि जी, तब बत्तीस आगलवहे । 'सुर कोड़ी जी, जिन दर्शन ने ऊमहे ॥४॥
॥ ढाल हरिगीत [त्रोटक ] छन्द ॥ . - सुर कोड़ा कोड़ी नाचती, वलि नाथ शचि गुण गावती ।
अप्सरा कोड़ी हाथ जोड़ी, हाव भाव दिखावती ॥
१-यहाँ पर प्रभु को कुसुमांजलि या अक्षतों से वधाना
चाहिये। २- यहाँ प्रभु के सामने नाच करना चाहिये।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२१]
जय जयो तू जिनराज जगगुरु, एम दे आशीष ए । अम्ह प्राण शरण आधार जीवन, एक तू जगदीश ए ॥४॥
|| ढाल ||
सुर गिरिवर जी, पाँडुक वन में गिरि शिल पर जी, सिंहासन तिहाँ आणी जी, शक्रे जिन सोले ग्रथा । घउस े जी, तिहाँ सुरपति आवी रह्या ॥ ५॥
चिह्न दिशे । सासय वसे ||
॥ हरिगीत [ त्रोटक ] छन्द ॥ आविया सुरपति सर्व भगते, कलश श्रेणी वणावए । सिद्धार्थ पमुहा तीर्थ औषधि, सर्व वस्तु अणावए || अच्चय पति तिहाँ हुकम कीनो, देव कोडा कोड़ी ने । जिन मज्जनारथ नीर लावो, ससुर कर जोडी ने | ५||
|
यहाँ पर हाथ में जल-कलश लेकर सड़ा रहे ।
॥ ढाल ६ ॥
[ तर्ज - शान्ति ने कारणे इन्द्र कलशा भरे ] रसी, देवकोडी
हसी ।
आत्मसाधन
उल्लसी ने धसी, क्षीर सागर दिसी ||
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २२ ] पउस दह आदि दह, गंग पमुहा नई। तीर्थ जल अमल लेवा भणी ते गई ॥१॥ जाति अड़ कलश करि, सहस अट्ठोत्तरा। छत्र चामर सिंहासने, शुभतरा ॥ उपगरण पुष्फ चंगेरी, पमुहा सवे । आगमे भाखिया, तेम आणी ठवे ॥२॥ तीर्थ जल भरिय करी, कलश करी देवता । गावता भावता, धर्म उन्नति रता ॥ तिरिय नर अमरने, हर्ष उपजावता । धन्य अम्ह शक्ति शुचि, भक्ति इस मावता ॥३॥ समकित वीज निज, आत्म आरोपता। कलश पाणी मिसे, भक्ति जल सींचता ॥ मेरु सिहरोवरि, सर्व आव्या वही । शक्र उत्संग जिन, देखि मन गहगही ॥४॥
॥ गाथा वस्तुछन्द ॥ हहो देवा-हंहो देवा, अणाई कालो, अदिट्ठपुग्यो । तिलोय तारणो, तिलोय बंधू, मिच्छत्त मोहविद्ध सणो ॥ अणाई तिहा विणासणो, देवाहिदेवो, दिब्यो, हिअय
कामेहि ॥७॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २३ ]
॥ ढाल- पूर्ववत् ॥७॥ एमपमणन्तिवण, भुवणजोईसरा । देव वैमाणिया, भत्ति धम्मायरा ॥ केविकप्पट्ठिया, केविमित्ताणुगा। केवि वररमणि, वयणेण अई उच्छगा ||
| वस्तु छन्दः ॥ तत्थ अन्य-तत्थ अच्चुय, इन्द आदेश । कर जोडी सवि देवगण, लैडकलश आदेश पामिय || अद्भुत रूप सरूप-जुय, कवणएह पुच्छन्ति सामिय ।।
॥दोहा॥ इन्द्र कहे जगतारणो, पारग अम्ह परमेस । नायक दायक धम्मनिहि, करिये तसु अभिषेक ||८||
|| ढाल ८॥ [राग प्रभात भैरव (प्रभाती ) तर्ज तीर्थ कमल दल
उदक भरोने-पुष्कर सागर आवे] पूर्ण कलश शुचि उदफनी धारा, जिनपर अंगे नामे । आतम निर्मल भाव करन्ता, बघते शुभ परिणामे || अच्चपादिक सुरपति मज्जन, लोकपाल लोकान्त । सामानिक इन्द्राणी पाहा, इम अमिपेक करन्त ॥८॥१॥
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २४ ]
॥ गाहा ॥ तब ईशाण सुरिन्दो, सकळ पाणेई करिहु सुप्पसाओ । तुम्ह अंके महणाहो, खिणमित्त अम्ह अप्पेह ॥ ता सक्किन्दो पभणई, साहम्मियवच्छलम्मि बहुलाहो । आणाईचं तेणं गिण्हह, होउ कयत्था भो ॥१॥ इतना कहकर प्रभु के चरणों पर थोड़ी सी जलधारा देवे ।
॥ ढाल ६ ॥
[राग प्रभात भैरव ] (प्रभाती) सोहम सुरपति वृषभरूपकरी, न्हवण करे प्रभु अंग। करिय विलेपन पुष्पमाल ठवि, वर आभरण अभंग ॥ टेर । तब सुरवर बहु जय जय रख करी, नच्चे धरी आणन्द । मोक्ष मार्ग सास्थपति पाम्यो, भाजिसू हिव भवफन्द ॥१॥ कोड़' बत्तीस सोवन्न उवारी, वाजन्ते वरनाद । सुरपति संघ अमर श्रीप्रभु ने, जननी ने सुप्रसाद ॥२॥
१ - यहाँ शक्ति के अनुसार द्रव्य नाणा लेकर, प्रभु के ऊपर
(घोल) उतार (न्यौछावर ) कर, प्रक्षालित जल पात्र में डालें।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २५ 3 आणीयापी एम पर्यपे, अम्ह निस्तरिया आज । पुत्र तमारो धणोय हमारो, तारण तरण जहाज ॥३॥ मात जतन करी राखजो एहने, तुम सुत अम्ह आधार । मुरपति भक्ति सहित नन्दीसर, करे जिन भक्ति उदार ॥४॥ निप-निय कप्प गया सहुनिर्जर, कहता प्रभु गुण सार । दीक्षा-केरल-ज्ञान-कल्याणक, इच्छा चित्त मझार ॥५॥ खरतरगच्छ जिन आणारगी, "राजसागर उनमाय" । 'ज्ञानधर्म' 'दीपचंद' सुपाठक, सुगुरु तणे सुपसाय । "देवचन्द" जिन भक्ते गायो, जन्म महोत्सव छन्द ॥ बोध वीज अंकुरो उलस्यो, सघ सफल आनन्द ॥ ७ ॥
॥सोहम मुरपति० ॥ || ढाल १० ॥ फलश ॥ [राग-बिलावल या माड अथवा यथा रुचि.] इम पूजा भगते करो, आतम हितकाज । आत० । वजिये विभाव निजमावर्मा, रमता शिवराज । रमतौशिव०११ काल अनन्त जे हुआ, होगे जैद जिणन्द । होशेजह० ॥ संपई सीमन्धर प्रभु, फेनल नाग दिनन्द । केवल नाण०२॥
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२६ ] जन्म महोत्सव इणपरे, श्रावक रुचिवन्त । श्रावकरुचि० । विरचे जिनप्रतिमातणो, अनुमोदन खन्त । अनुमोदन० ३॥ "देवचन्द" जिन पूजना, करताँ भव पार | करताँभव० । जिन पडिमा जिन सारखी, कही सूत्र मझार । कही सूत्र०४
॥इम पूजा भगते करो० ॥
उपरोक्त ढाल, सोहम सुरपति गाते हुए भगवान को अच्छी तरह से प्रक्षालन करावें। बाद में तीन अंगलहणों से प्रतिमाजी को पोंछकर केशर चन्दन स्वस्तिक युक्त सिहासन में विराजमान करे।
॥ अथ अष्टप्रकारी पूजा ॥
॥ प्रथमा जल पूजा ॥ १ ॥ नमोऽहत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः । विमल केवल भासन भास्कर, जगति जन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलोपतः, शुचि मनः स्नपयामि विशुद्धये।१
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
[.२७ ]
॥ मत्रः॥ ॐ हीं अहं परमात्मने, अनंतानंत ज्ञान शक्तये, जन्मबरा-मृत्यु-निवारणाय,श्रीमज्जिनेन्द्राय, जलंयजामहे स्वाहा।
उपरोक्त काव्य और मंत्र बोलकर प्रभु प्रतिमाजी के चरणोंपर गोड़ा-सा जल चढावे। तथा फिर अंगलूहण देना न भूले।
॥ द्वितीया चदन पूजा २॥
॥ ॐ नमोऽहंसिद्धाचार्यो० ॥ सकल मोह तिमिस्र विनाशनं, परम शीतल भावयुतं जिनम् । विनय कुकुम दशन चन्दनः, सहज तल विकासकृतेऽर्चये ॥२॥
मत्र-ॐ ही अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु - निवारणाय, श्रीमज्जिनेन्द्राय, चन्दनं पजामहे स्वाहा ।
उपरोक्त काव्य तथा मंत्र पढकर, प्रभु प्रतिमाजी के नवों अंगों में चन्दन, फेशर विलेपन करे।
॥ तृतीया पुष्प पूजा ३ ॥ || ॐ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ विकचनिर्मल शुद्ध मनोरमै, विशदचेतनभाव समुद्भवः । सुपरिणाम प्रसनघनैर्नवैः, - मयंहि यजाम्यहम् ॥३॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २८ ] मंत्र-ॐ हीं अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म - जरा - मृत्यु निवारणाय, श्रीमज्जिनेन्द्राय, पुष्पं. यजामहे स्वाहा। उपरोक्त काव्य तथा मंत्र पढ़कर, प्रभु चरणों में पुष्प चढ़ावे ।
॥ चतुर्थी धूप पूजा ४ ॥ ॥ ॐ नमोऽहत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥ • सकल कर्म महेन्धन दाहनं, विमल संवर भाव सुधूपनम् । अशुभ पुद्गल सङ्गविवर्जितं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहर्पतः ॥४॥
' मंत्र-ॐ ही अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म-जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्रीमज्जिनेन्द्राय, धूपं यजामहे स्वाहा।
उपरोक्त काव्य तथा मंत्र पढ़कर, प्रभु प्रतिमा के सामने धूप
खेवे।
॥ पंचमी दीपक पूजा ५॥ ॥ ॐ नमोऽहत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्यः ॥ भविक निर्मल बोधविकासकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनम् । सुगुण राग विशुद्ध समन्वितं, दधतुभाव विकास कृते जनाः॥
ॐ हीं अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये,
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२६] जन्म-जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्रीमज्जिनेन्द्राय, दीपं यजामहे स्वाहा। ___ उपरोक्त काव्य तथा मंत्र पढ़कर, प्रभु प्रतिमाजी के सन्मुस दीपक फानस वाला दिखा।
॥ पष्ठी अक्षत पूजा ६॥ ॐ नमोऽर्हसिद्धाचार्योपाध्याय, सर्वसाधुभ्यः सकल मंगल केलि निकेतनं, परम मंगलभावमयं जिनम् । __ यति भन्यजना इति दर्शयन्, दधतिनाथ पुरोक्षत स्वस्तिकम् ॥६॥
ॐ हीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्री मन्जिनेन्द्राय, अक्षतान् यजामहे स्वाहा।
उपरोक्त कान्य और मन्त्र पढ़कर, प्रभु के आगे पाटे के ऊपर अक्षतों का स्वस्तिक बनाकर-सिद्धशिला तथा तीन पुंज भी करे।
॥ सप्तमी नैवैद्य पूजा ७॥ ॥ ॐ नमोऽर्हसि द्वाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ।। सकल पुद्गल सग विनर्जनं, सहज चेतन भाव विलासरम् । सरसभोजन नन्यनिवेदनात्, परम नितिभावमहस्पृहे ग७॥
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३०] मंत्र-ॐ हीं अहं परमात्मने, अनन्तानन्तज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्री मजिनेन्द्राय, नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
इस प्रकार उपरोक्त काव्य तथा मंत्र पढ़कर प्रभु प्रतिमा ' के आगे के पाटे के ऊपर मिठाई-पक्वान्न. (पकवान ) आदि.
चढ़ावे।
॥ अप्टमी फल पूजा ८ ॥ ॥ ॐ नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः ॥ कटुक कर्म विपाक विनाशनं, सरस-पक्व-फल व्रजढौकनम् । विहित मोक्षफलस्य प्रभोः पुरः, कुरुत सिद्धि फलाय महाजनाः ||८||
मंत्र-ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तथे, जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय, श्रीमजिनेन्द्राय, फलं यजामहे स्वाहा।
___ उपरोक्त काव्य और मंत्र पढ़कर, प्रभु के सामने के पाटे के ऊपर, अर्पण किये हुए नैवेद्य के पास ऋतुफल [ श्रीफल, सुपारी, मौसमीफल, जो भी उपलब्ध हो] को चढ़ावे।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३१ ]
॥ अथ अर्घ पूजा है ॥ । ' || ॐ नमोह सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः' ।
॥मलिनी छन्दः ॥ इति जिनवर वृन्दं, भक्तितः। पूजयन्ति । । सकल गुणनिधानं, देवचन्द्राः स्तुवन्ति ॥ प्रति दिवस मनन्तं, तत्समुद्भासयन्ति । परम सहज रूपं, मोक्ष सौख्य श्रयन्ति ॥६'
मत्र-ॐ हों अर्हपरमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म-जरा - मृत्यु निरिणाय, श्री मज्जिनेन्द्राय, अर्घ्य यजामहे स्वाहा।
उपरोक्त काव्य तथा मन पढकर, प्रभु-प्रतिमा के बिगड़े के चारों कोनों में पानी की धारा देवे ।
॥ अथ वस्त्र युगल पूजा १० ॥
वसन्ततिल्का छन्द' ।। ॥ ॐ नमोऽर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यः ॥ शक्रोयथा जिनपतेः सुरशैल चूला। सिंहासनोपरि मितः स्नपनावसाने । दध्यक्षतः कुसुम चन्दन गन्ध धूपैः । कृत्वार्चन तु विदधाति सुवस्त्र पूजाम् ॥१॥
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३४ ]
विश्वसेन अचिरा जी के नन्दा,
शान्तिनाथ मुख पूनम चंदा || जय जय० १॥
चालिस धनुष सोवनमय काया,
मृग लंछन प्रभु चरण सुहाया || जय जय० २॥ चक्रवर्ती प्रभु पंचम सोहे, सोलम जिनवर सुर-नर मोहे || जय जय० ३ || मंगल आरती प्रभु की कीजे,
जनम जनम को लाहो लीजे ॥ जय जय० ४ ॥ कर जोड़ी "सेवक" गुण गावे,
सो नर-नारी अमर पद पावे || जय जय० ५॥
॥ मंगल दीवो ॥
दीवो रे दीवो मंगलिक दीवो,
भुवन प्रकाशक जिन चिरंजीवो ॥ ढेर | चन्द्र सूरज प्रभु तुम मुख केराँ,
छण करताँ दे नित फेराँ || दीवो रे० १॥ जिन तुझ आगल सुरनी अमरी,
मंगल दीप करे देई भँवरी || दीवो रे० २ ॥
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३५ J. जिम • जिम धूप घटी प्रगटावे, . , “ ।'
तिम-तिम भवना दुरित गमावे दीवो रे० ३॥ नीराऽक्षत कुसुमांजलि चन्दन,
___धूप-दीप-फल-नैवेद्य - वन्दन ।। दीवो रे० ४॥ इणि परे अष्टप्रकारी कीजे,
पूजा - स्नात्र विशेष करीजे ॥दीवो रे० ५॥
इसके बाद, पंचामृत-कलश को प्रभु के सामने वृहत् शान्तिस्तोत्र का पाठ करता हुआ असण्ड धारा से भरे। जल छिडकाव करे । प्रभु समक्ष क्षमा याचना करे। भक्तिभाव से करबद्ध होकर बोलना।
॥ श्लोकः॥ आज्ञा हीन, क्रियाहीनं मत्रहीनं च यत्कृतम् ॥ तत्सर्व क्षम्यतां देव, क्षमस्व परमेश्वर ! ॥ १ ॥ घाट मे भाव पूजार्थ चैत्यवन्दन जयवीयराय पर्यन्त वोल्फर करे।
-
O
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ श्रीमद् यशोविजयजी, देवचन्द्रजी ज्ञानविमलजी, लालचन्द्रजी आदि चार महापुरुषों द्वारा विरचित
॥ नव पद - बड़ी पूजा ॥
॥ प्रथमा अरिहन्त पद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ परम मंत्र प्रणमी करी, तास घरी उर ध्यान । अरिहन्त पद पूजा करो, निज-निज शक्ति प्रमाण ॥ १ ॥
॥ काव्यम् ॥ उपजाति वृत्तम् ॥
उप्पण्ण सण्णाण महोमयाणं, सप्पाडिहेरासण संठियाणं । सद्द सणार्णदिय सज्जणाणं, णमो - णमो होउ सया जिणाणं । १
॥ भुजङ्ग प्रयात वृत्तम ॥
नमोऽनंतसंत प्रमोद प्रदानं,
प्रधानाय भव्यात्मने भास्वताय ।
था जेहना ध्यानथी सौख्यभाजा,
सदासिद्धचक्राय श्रीपालराजा ॥१॥
करयाकर्म दुर्मर्म चकचूर जेणें,
भलांभव्य नवपद ध्यानेन तेणे |
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३७ ] करी पूजना भव्य भाचे त्रिकाले, -
सदा वासियो आतमा तेण काले ॥२॥ जिके तीर्थकर कर्म उदये करीने,
. दिये देशना भन्यने हित करीने । सदा आठ महा पाडिहारे समेवा,
सुरेशे नरेशे स्वव्या ब्रह्म पुत्ता ॥३॥ कस्या घातिया कर्म चारे अलग्गा,
भवोपग्रही चार जे छे विलग्गा । जगत पंच कल्याणके सौख्य पामे,
नमोतेहतीर्थकरामोक्ष गामे ॥४॥
॥ ढाल देशी उल्लालानी ॥ तीरथपति अरिहा नम, धर्मधुरधर धीरोजी। देशना अमृतवरसता, निज वीरज वड वीरोजी ॥१॥
॥ उल्लालो॥ घर अखय निर्मल ज्ञान भासन, सर्व भाव प्रकाशता । निज शुद्धश्रद्धा आत्ममावे, चरणथिरता वासता || जिन नाम कर्म प्रभाव अतिशय, प्रातिहारज शोभता।
amaa
maa
अनि
सारे Imrn
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३८]
॥ ढाल श्रीपालना रासनी ॥ ॥ श्री सीमन्धर साहिब आगे० ॥ एदेशी ।। अन्य कई राग
रागनियों में पूजा की ढालें. गाई जा सकती है। तीजे भव वर थानक तपकरी, जेणे वाँध्यु जिन नाम । चउसठ इन्द्र पूजित जे जिन, कीजे तास प्रणाम रे भविका । सिद्धचक्र पद वन्दो, जेम चिरकाले नन्दो, रे भविका । उपशम रसनो कंदो, रे भविका, रत्नत्रयीनो वृन्दो रे भविका सेवे सुर नर इन्दो, रे भविका सिद्धचक्रपद वन्दो ।।टेर १॥ जेहने होय कल्याणक दिवसे, नरके पिण उजवालु। सकल अधिक गुग अतिशय धारी,ते जिन नमी अघ टालूँ ।
रे भविका, सिद्धचक्रपद वन्दो ॥२॥ जे तिहुनाण समग्ग उपन्ना, भोग करम क्षीण जाणी। लेई दीक्षा शिक्षा दिये जगने, ते नमिये जिननाणी ।
___रे भविका, सिद्धचक्रपद वन्दो ॥३॥ महागोप महामाहण कहिये, निर्यामक सत्थवाह । उपमा एहवी जेहने छाजे, ते जिन नमिये उत्साह ।
रे भविका, सिद्धचक्रपद वन्दो ॥४॥
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३६ ] आठ प्रातिहारज जसु छाजे, पैत्रीस गुणयुत वाणी। जे प्रतिरोध करे जग जनने, ते जिन नमिये प्राणी ।
- रे भविका, सिद्धचक्रपद वन्दो ॥५॥
॥ ढाल | अरिहन्त पद ध्याता थको, दलहगुण पज्जाये रे। भेद छेद करी आतमा, अरिहन्त रूपी थाये रे ॥१॥ वीर जिणेसर उपदिशे, साभलजो चितलाई रे। आतमा ध्याने आतमा, ऋद्धि मले सविआई रे ॥२॥
वीर जिणेसर उपदेशे। ॥ अरिहन्त पद काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् १ ॥ जियंत रागाणिजिण सुनाणे, सुप्याडिहेराई समप्पहाणे । सन्देहसंदोहरयहरते, माएहनिच्चंपि जिणेरिहन्ते ॥१॥
॥ काव्यम् द्र तविलम्भित वृत्तम् २ ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगतिजन्तुमहोदयकारणम् । जिनपरं बहुमान जलौषतः, शुचिमनाः स्लपपामि विशुद्धये ।२ ___ मंत्र-ॐ हीं अहंपरमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म - जरा • मृत्यु निवारणाय, श्रीमदहते, पंचामृतं,
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४० ] चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीप-अक्षतान्, नैवेद्य फलं-वस्त्रं-वासं यजामहे स्वाहा ॥१॥
॥ द्वितीया श्रीसिद्धपद पूजा ॥
॥दोहा॥ दूजी पूजा सिद्ध की, कीजे दिल खुशियाल । अशुभ करम दूरे टले, फले मनोरथ माल ॥१॥
__|| काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥ सिद्धाण माणंद रमा लयालं,
णमो - णमोऽयंत चउकयाणं । सम्मग कम्मवखय कारगाणं,
जम्मं जरा दुक्ख निधारगाणं ॥१॥
॥ भुजंग प्रयातवृत्तम् ॥ निजानादि कर्माष्टके क्षय करीने,
___जरा जन्म मरणादि ने हरीने । स्थिता सर्वलोकाग्र भागे विशुद्धा,
चिदानन्द रूपा स्वरूपे प्रसिद्धा ॥१॥ निजानन्द चोधादि युक्त प्रदेशा,
निराबाधनानिता जे अलेशा।
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४१ ] निराकार साकार भावे महंता,
भजो ते प्रमोदे सदासिद्ध सन्ता ॥२॥
करी आठ कर्म क्षय पार पाम्या,
जरा जन्म मरणादि भय जेणे वाम्या । निरावरण जे आत्म रूपे प्रसिद्धा,
या पार पामी सदा सिद्धबुद्धा ||३|| त्रिभागो न देहावगाहात्मदेशा,
रथा ज्ञानमय जातिवर्णादि लेशा । सदानन्द सौख्याश्रिताज्योतिरूपा,
अनावाध अपुनर्भवादि स्वरूपा ||४|| || ढाल उल्लालानी देशी ॥ सकल करम मल क्षय करी, पूरण शुद्ध स्वरूपोजी । अथ प्रभुतामयी, आतम संपत भूपोजी ॥ १ ॥ ॥ उल्लालो ||
जे भूप आतम सहज संपति, शक्ति व्यक्ति पर्ण करी । स्वद्रय क्षेत्र स्वकाल भावे, गुण अनन्वा आदरी । स्वस्वभाव गुण पर्याय परिणति, मिद्ध साधन परभणी । मुनिराज मानम हंस समन, नमो सिद्ध महागुणी ॥२॥
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ ढाल श्रीपालना रासनी देशी ॥ समय पएसंतर अणकरसी, चरम विभाग विशेष । अवगाहन लही जे शिव पहोता, सिद्ध नमो ते अशेष रे।
॥ भविका० १॥ पूर्व प्रयोग ने गति परिणामे, बंधन छेद असंग । समय एक ऊरथ गति जेहनी, ते सिध प्रणमो रंग रे ।
॥ भविका० २॥ निर्मल सिद्धशिलानी उपरे, जोयण एक लोकंत । सादि अनंत तिहाँथिति जेहनी, ते सिद्ध प्रणमो संतरे ।
॥ भविका० ३॥ जाणे पिण न शके कही पुरगुण, प्राकृत तिम गुण जास । ओपमा विण नाणी भव मांहे, ते सिद्ध दियो उल्लास रे ।
॥भविका०४॥ ज्योतिसुज्योति मली जस अनुपम, विरमी सकल उपाधि । पातमराम रमापति समरो, ते सिद्ध सहज समाधि रे।
॥ भविका० ५॥
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४३ ]
॥ ढाल रूपातीत स्वभाव जे, केवल दसण नाणी रे। ते ध्यावा निज आतमा, होये सिद्ध गुण खाणी रे ॥१॥
॥ वीर जिनेसर उपदेशे।
॥ श्री सिद्धपद काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥ दुछुट्टकम्भावरण पमुक्के, अनंतनाणाइ सिरि चउक्के । सम्मग लोयग्ग पयप्प सिद्ध, माएह निच्चपि समत्त सिद्ध।
॥ काव्यम् द्र तविलंबित वृत्तम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर,
__ जगति जन्तु महोदय कारणम् । जिनवर बहुमान जलौघता,
शुचि मनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥२॥ मत्र-ॐ ही अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्रीसिद्धाय, पंचामृतंचन्दन-पुष्प-धूप-दीपं-अक्षतान् - नैवेद्य - फलं - वस्त्रं-वासं
तापमाना।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४४ ]
॥ तृतीया श्रीआचार्यपद पूजा || ॥ दोहा ॥ हिव आचारिज पद तणी, पूजा करो विशेष । सोह तिमिर दूरे हरे, सूके भाव अशेष || १ || ॥ काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
सुरीण दूरी कय कुग्गहाणं, णमो णमो सूर समप्पहाणं । सद्द सणादाण समायराणं, अखंड छत्तीस गुणायराणं ॥ १ ॥ ॥ भुजंग प्रयातवृत्तम् ॥
नमू' सूरि राजा सदा तत्व ताजा,
षड्वर्ग वर्गित
जिके पंच आचार पाले सुभावे,
जिनेन्द्रागमे प्रौढ़ साम्राज्य भाजा । गुणेशोभमाना,
पंचाचारने पालवे सावधाना ॥१॥
अनित्यादि सद्भावना नित्य भावे ।
जिनेन्द्रागमे ज्ञान दाने सुरता,
बहुभव्य में जे रहे अप्रमत्ता ॥ २ ॥ छतीसे गुणे दीपमाना गणेशा, सदा
शासनाधारभूता सुलेशा ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४५ ] बहुभन्यलोका सुमार्गेनयंता,
हुजोरि मुख्या सदा तेजवन्ता ॥३॥ भवि प्राणीने देशना देश काले,
सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र आले ॥ जिक शासनाधार दिग्दन्तिकल्पा,
___ जगत्ते चिरंजीवजो शुद्ध जल्पा ||४||
॥ ढाल उल्लालानी देशी ॥ आचारज मुनिपति गणी, गुण छत्तीसे धामोजी ॥ चिदानन्द रस स्वादता, परमावे निःकामोजी आचा० १॥
॥ उल्लालो॥ निकाम निर्मल शुद्ध चिद्घन, साध्य निजनिरधार थी। निज ज्ञान दर्शन चरणवीरज, साधना व्यापार थी। भवि जीवबोधक तत्वशोधक, सयल गुण सपति धरा । संवर समाधि गत उपाधि, दुविध तप गुण आगरा ॥२॥
॥ पूजा-ढाल ॥ श्रीपालनारासनी-देशी ॥ पंच आचार जे बधा पाले, मारग भासे साचो । ते आचारज नमिये तेशु, प्रेम करीने जाचो रे भविका०१
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४६ ] वर छत्रीश गुणे करी सोहे, युगप्रधान जग मोहे ॥ जग बोहे ना रहे खिण कोहे, सूरि नमूं ते जोहेरे ॥भ०२॥ नित्य अप्रमत्त धर्म उचएसे, नहिं विकथा न कपाय ।। जेहने ते आचारजनमिये, अकलुप अमल अमाय रे ॥भ०३ : जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयन वली जनने ।। पटधारी गच्छथंम आचारज, ते मान्या मुनिमनने रे ।भ०४ अत्थमिये जिन सूरज केवल, चंदे ते जग दीवो ॥ भुवन पदारथ प्रकटन पटुते, आचारज जिरंजीवो रे भ०५॥
॥ ढाल॥ ध्याता आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानी रे। पंच प्रस्थाने आतमा. आचारज होय प्राणी रे॥ वीर० ॥
॥ श्री आचार्यपद काव्यम् ॥ णं तं सुहं देइ पियाणमाया, जेदिति जीवाणिह सूरीस पाथा। तुम्हाहुते चेव सया सहेह, जमुक्ख सुक्खाई लहुँ लहेह ॥१
काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगति जंतु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये।२
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
[४७ ] मंत्र : ॐ ही अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीआचार्यपदे, पंचामृतं, चंदन-पुष्पं-धूप-दीपं अक्षतान्-नवेद्य-फलं-बल-वास यजामहे स्वाहा। ॥ अथ चतुर्थी उपाध्यायपद पूजा ॥
॥दोहा॥ गुण अनेक जग जेहना, सुन्दर शोभित गान । उमज्माय पद अरचिये, अनुभव रसनो पात्र ॥१॥
॥काव्यम् इन्द्रवजावृत्तम् ॥ सुत्नत्यवित्यारण तप्पराण, णमो णमो वायगजराणं । गणस्स संधारण सायराण, सबप्पणा वज्जिय मच्छराण १
॥ भुजंगप्रयात वृत्तम् ॥ महास्य सिद्धान्त सुद्धे करीने,
पढावे सुशिष्या अनुग्रह धरीने ॥ करे पूजना लोक मध्येत्वदीया,
श्री जास शक्ति स्वकीया ॥२॥ गग सार शुद्ध सुहर्प करता,
मुनिवर्ग मधे प्रमादो इरता।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ४८ ] पचीशे गुणे युक्त देहा सुर्या,
सदा वंदिये ते उपाध्याय पूर्या ॥२॥ नहीं सूरिपण सूरि गुणने सुहाया,
नमुंवाचका त्यक्तमदमोह माया । वली द्वादशांगादि सूत्रार्थ दाने,
जिके सावधाना निरुद्धामिमाने ॥३॥ घरे पंचनेवर्ग वर्गित गुणौधा,
प्रवादि द्विपोच्छेदने तुल्य सिंघा ॥ गुणीगच्छ संधारणे स्तंभभूता, ___ उपाध्याय ते बंदिये चित् प्रभूता ॥४॥
॥ ढाल उल्लालानी देशी॥ खंति जुआ मुत्ति जुआ, अज्जव मद्दव जुत्ताजी। सच्चं सोयं अकिंचरणा, तव संजम गुण रत्ताजी ॥ १ ॥
॥ उलालो।। जे रम्या ब्रह्म सुगुत्ति गुत्ता, सुमति सुमता श्रुतधरा । स्याद्वादवादे तत्ववादक, आत्म पर भविजन करा ॥ भव भीरु साधन धीर शासन, वहन धोरी मुनिवरा । सिद्धांत वायण दान समरथ, नमो पाठक पद धरा ॥२॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
[४६ ] ॥ पूजा ढाल श्रीपालनारासनी देशी ॥ द्वादश अंग समाय करे जे, पारग धारग तास । र अर्थ विस्तार रसिकते, नमो उवझाय उल्लास रे म०१
अर्थ सूत्र ने दान विभागे, आचारज उवमाय । ___ भव त्रीजे जे लहे शिवसपद, नमिये ते सुपसाय रे ।म०२
मूरख शिष्य निपाई जे प्रभु, पाहाणने पल्लव आणे । ते उवझाय सकल जन पूजित, सूत्र अर्थ सवि जाणेरे ।भ०३ राजकॅवर सरिखा गणचिंतक, आचारज पद योग। जे उवमाय सदा ते नमतां, नावे भवभय सोगरे ।म० ४॥ वावना चंदन रससमवयणे, अहित ताप सचि टाले। ते उघमाय नमोजे जे वली, जिनशासन अजुमाले रेशम०५
॥ सिद्ध चक्र पद वदो ॥
|| ढाल ॥ तप सज्झाये रत सदा, द्वादश अंगनो ध्याता रे । उपाध्याय ते आतमा, जगपंधव जग भ्राता रे॥
वीर जिनेसर उपदिसे ॥५॥ ॥ श्री उपाध्यायपद काव्यम् ।। सुत्तत्य संवेग मय सुएण, संनीर खीरायम विस्सुएण | पीणति जेते उवज्झायराए, माएह णिच्चंपि कयप्प साए॥१
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५० ]
॥ काव्यम् ॥ चिमल केवल भासन भास्कर, जगतिजन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौषतः,शुचि मनाः स्नपयामि विशुद्धये।।२
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म- जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्रीउपाध्यायपदे, पंचामृत - चन्दनं - पुष्पं-धूप-दीपं-अक्षतान्-नैवेद्य-फलं-वस्त्रंवासं यजामहे स्वाहा। ॥ अथ पंचमी श्री मुनि पद पूजा ॥
॥दोहा॥ मोक्ष मारग साधन भणी, सावधान थया जेह । ते मुनिवर पद बंदता, निर्मलथाये देह ॥१॥
| काव्यम् ॥ इन्द्रवज्रावृत्तम् ।। साहूण संसाहिअ संजमाणं, नमो नमो सुद्ध दया दमाणं । तिगुत्ति गुत्ताण समाहियाणं, मुणीण माणंद पयट्टियाणं ।।
॥ भुजंग प्रयात वृत्तम् ॥ जिके दर्शन ज्ञान चारित्र रत्ने,
करी मोक्ष साधे प्रधान प्रयत्ने ।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १] सुमत्ती गुपत्ती घरे सावधाना,
शुभाचार पाले हरे मोह माना ॥१॥ विजे विकत्या प्रमादादि दोपा,
जितेन्द्रियपणे जे महाबान कोशा । शुम ध्यान ध्यावे गणौधे समिद्धा,
__ नमो ते सदा सर्व साधु प्रसिद्धा ॥२॥ करे सेवना रिवायग गणीनी,
करूँ वर्णना तेहनीशी मुणिनी । समेता सदा पच समिते त्रिगुप्ता,
त्रिगुप्ते नहीं काम भोगेपुलिप्ता ॥३॥ क्ली बाह्य अभ्यन्तर प्रथिटाली,
होये मुक्तिने योग्य चारित्र पाली । शुमाष्टाग योगे रमे चित्तवाली,
नमु साधुने तेह निज पाप टाली ॥४॥
॥ ढाल ॥ उलालानी देशी ॥ सकल विषय विप वारिने, नि:कामी निःसगीजी। भव दव ताप समावता, आतम साधन रगी जी ॥१॥
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५२ ]
॥ उल्लालो ॥
जे रम्या शुद्ध स्वरूप रमणे, देह
निर्मम निर्मदा | अभ्यासी सदा ||
काउसम्म मुद्रा धीर आसन, ध्यान तप तेज दीपे कर्म झोपे, नैव छीपे पर भणी । निराज करुणासिंधु त्रिभुवन, बंधु प्रणमं हित भणी ॥२॥
|| पूजा ढाल श्रीपालनारासनी देशी ॥ जिम तरुफूले भ्रमरो बेसे, पीडा तस न उपावे || लेई रस आतम संतोषे, तिम मुनि गोचरी जावेरे ॥ भ० २१| पंचेंद्रिीने कपाय निरुधे, पटकायक प्रतिपाल || संयम सतर प्रकारे आराधे, वंदू तेह दयाल रे ॥ भ० २२ ॥ अढार सहस शीलांगना धोरी, अचल आचार चरित्र । अनि महंत जयणा युत बंदी, कीजे जनम पवित्र रे | भ०२३ नवविध ब्रह्म गुप्ति जे पाले, बारे विध तप शुरा ।
हवा मुनि नमिये जो प्रगटे, पूरब पुण्य अंकुरा रे | भ०२४ सोना तणी परे परीक्षा दीसे, दिन-दिन चढ़ते वाने । संजम खप करता मुनि नमिये, देश काल अनुमाने रे । भ०२५
|| ढाल ||
अप्रमत्त जे नित रहे, नवि हरषे नवि सोचे रे । साधु सुधा ते आतमा, युं मूंडे स्युं लोचे रे ॥ वीर० ६ ॥
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५३ ] ॥ श्री साधुपद काव्यम् ॥ संतेय दंते य सुगुत्ति गुत्ते, मुत्ते पसंते गुण जोग जुत्ते । गप्प माए हय मोह माए, गाएह निच्चं मुणिराय पाए ।४ ॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्करं, जगति जंतु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥ ५
मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निनारणाय, श्रीसाधुपदे पंचामृतं, चंदन- पुष्पं- धूप-दीपं अक्षतान् नैवैद्य - फलं वस - वास यजामहे
स्वाहा ।
॥ अथ पष्ठी श्रासम्यग् दर्शनपद पूजा || ॥ दोहा ॥ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्त्व वणी परतात ते सम्यक दर्शन सदा, आदरिये शुभ रीत ॥ १ ॥
|| कान्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
जिणुत्त तत्ते रुइ लक्खणस्स, नमो नमो निम्मल दसणस्स । मिच्छत्त नासाह समुग्गमस्स, मूलस्स सद्धम्म महादुमस्म । १
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५४ ]
॥ भुजंगप्रयात वृत्तम् ॥
अनंतानुबंधी क्षयादि प्रकारे,
महा मोह मिथ्यात्वने जेह वारे ।
इगध्यादि भेदें करी वर्णवीजें,
सडसट्टिभेदें वली जे थणी जें ॥ १ ॥
जिनेंद्रोक्त तच्चार्थ श्रद्धान रूपो,
गुणा सर्वे मध्ये प्रवर्त्ते अनूपो ।
विना जेण नाणं चरित्रं न शुद्ध,
सुहं दंसणं तं नमामो विशुद्धं ॥ २ ॥
विपर्या सह वासना रूप मिथ्या,
टले जे अनादि अछे जे कुपथ्या । जिनोक्त होड़ सहज थी शुद्ध ध्यानं,
कहीये दर्शनं तेह परमं निधानं ॥ ३ ॥ विना जेहथी ज्ञान मज्ञान रूपं,
चरित्रं विचित्रं भवारण्य कूपं ।
प्रकृति सातने उपशमे क्षय ते होवे,
तिहां आपरूपे सदा आप जोवे ॥ ४ ॥
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५५ ]
॥ ढाल उलालानी देशी ॥ सम्यग दर्शन गुण नमो, तच प्रतीत स्वरूपोजी। जसु निरधार बभाव छे, चेतन गुण जे अरूपोजी ॥१॥
॥ उलालो॥ ज अनुप श्रद्धा धर्म प्रगटे, सयल पर ईहा टले। निज शुद्ध सत्ता भाव प्रगटे, अनुभव करण रुचिता उछले ॥ वहमान परिणति वस्तु तत्वे. अहव तस कारण पणे । निज साध्य दृष्टे सर्वकरणो, तत्वता सपति गणे ॥ २ ॥
॥ पूजा ढाल श्रीपालनारासनी देशी॥ शुद्ध देवगुरु धर्म परोक्षा, मदहणा परिणाम । जेह पामी जे जेह नमी जे, सम्यग दर्शन नाम रे भ०२६ मल उपशम क्षय उपशम क्षय थी, जे होय त्रिविध अभंग । सम्यग्दर्शन तेह नमीजे, जिन धर्मे दृढ रंग रे ।भ० २७ पच वार उपशमिय लहोजे, क्षय उपशमिय असंख । एकपार क्षायिक ते समकित, दर्शन नमिये असंख रे । भ०२८ जे विण नाण प्रमाण न होवे, चारित्र वरु नवि फलियो । मुख निर्वाण न जेविण लहिये,समकिन दर्शन बलियोरे।भ०२६ सटसट्ठ पोले जे अलकरियु, ज्ञान चरित्र नुं मूल । समफित दर्शन ते नित प्रणम् , शिवपथनु अनुकूल रे म०३०
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
[५६ ]
॥ ढाल ॥ शम संवेगादिक गुणा, खय उपशम जे आवे रे। दर्शन तेहिज आतमा, शुहोयनाम धरावे रे ॥ वीर० ७ ॥
॥ श्री सम्यग्दर्शन पद काव्यम् ॥ जं दव्य छक्कई सुसदहाणं, तं दंसणं सम्वगुणप्पहाणं । कुग्गाह-वाहीउवयन्ति जेणं, जहा विसुद्धण रसायणेणं ॥६॥
॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगतिजन्तुमहोदयकारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ।६
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञानशक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीसम्यग्दर्शनपदे, पंचामृतं, चन्दनं, पुष्पं, धूपं, दीपं-अक्षतान्, नैवेद्य फलंवस्त्रं-यासं यजामहे स्वाहा । ॥ अथ सप्तमी श्रीसम्यग ज्ञान पद पूजा ॥
॥ दोहा॥ सप्तम पद श्री ज्ञाननो, सिद्ध चक्र तप माह । आराधीजे शुभ मने, दिन-दिन अधिक उच्छाह ॥१॥
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५७ ]
|| काव्यम् इन्द्रवज्जावृत्तम् ॥ अन्नाण संमोह तमो हरस्स, नमो नमो नाण दिवायरस्त । पंचप्पयारस्तु वगारगस्स, सत्ताण सन्वत्यपयासगस्स ॥१॥ ॥ भुजंग प्रयात वृत्तम् ॥
हुवे जेहथी सर्व अज्ञान रोधो,
जिनाधीवर प्रोक्त अर्थावबोधो ।
मति आदि पंच प्रकार प्रसिद्धो,
जगद् भासने सर्व देवाविरुद्धो || १ || यदीय प्रभावे सुभक्षं अभक्षं,
सुपेयं अपेयं सुकृत्य अकृत्यं ।
जिणे जाणिये लोक मध्ये सुनाणं,
सदा ते विशुद्ध तदेव प्रमाणं ॥२॥
होये जेहधी ज्ञान शुद्ध प्रपोधे,
यथा वर्ण नासे विचित्रावसोधे ।
तेणे जाणिये वस्तु पडू द्रव्य भाना,
न हुवे विकत्था निजेच्छास्वभावा ॥३॥
दोह पंच मत्यादि सुज्ञान मेदे,
गुरु पास धी योग्यता तेह वेदे ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५८ ]
चली ज्ञेय हेय उपादेय रूपे,
लहे चित्तमां जेम ध्याने प्रदीपे ||४||
|| ढाल उलालानी देशो ||
भव्य ननो गुण ज्ञानने, स्त्रपर प्रकाशक भावे जी । पर्याय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावे जी ॥ १ ॥ ॥ उलालो || जे मुख्य परिणति सकल ज्ञायक, वोधभाव विलासता । मति आदि पञ्च प्रकार निर्मल, सिद्धि साधन लंच्छता ॥ १ स्याद्वाद संगी तच्चरंगी, प्रथम भेदाभेदता । सविकल्पने अविकल्प वस्तु, सकल संशय छेदता ॥ २ ॥
|| पूजा ढाल श्रीपालना रासनी देशी ||
भक्ष अभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपेय विचार | कृत्य अकृत्य न जें विण लहिये, ज्ञान ते सकल आधार रे । ॥ भविका० ३१ ॥ प्रथम ज्ञान ने पछी अहिंसा, श्री सिद्धान्ते भाख्युं । ज्ञान ने वंदो ज्ञान सनिन्दो, ज्ञानीए शिव सुख चाख्यु रे । || भविका० ३२ ॥
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ५६ ] सकल क्रिया नु मूल ते श्रद्धा, तेहनु मूल जे कहिये । तेह ज्ञान नित नित वंदी जे ते विण कहो केम रहिये रे ।
॥ भविका० ३३॥ पांच ज्ञान माहिं जेह सदागम, स्नपर प्रकाशक तेह । दीपक परे त्रिभुवन उपकारी, वली जेम रविशशि मेह रे।
॥ भविका० ३४ ॥ लोक ऊरध अध तिर्यग ज्योतिष, वैमानिक ने सिद्धि । लोकालोक प्रगट सविजेह थी, तेह ज्ञान मुझ शुद्धि रे ।
॥ भविका० ३५ ।।
|| ढाल ॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छ, क्षय उपशम तसु थाय रे । तो हुवे तेहीज आतमा, ज्ञान अमोधता जाय रे । वीर० ८
॥ श्री सम्यग ज्ञान पद काव्यम् ॥ नाणं पहाण जय सिद्धचक, तत्वावरोधिमय पसिद्ध । धरेह चित्ता वसहे फुरंत, मणिक दिन तमो हरतं ॥ ७ ॥
॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगति जतु महोदय कारणं । जिनवरं बहुमान जलौषतः, शुचिमनानपयामि विशुद्धये १७
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६० ] मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणय, श्रीसम्यग् ज्ञानपदे,.. पंचामृतं-चंदनं-पुष्प-धूप-दीपं-अक्षतान्-नैवेद्य-फलं-वस्त्रं-वासं यजामहे स्वाहा। ॥ अथ अष्टमी श्री सम्यग चारित्र पद पूजा ॥
॥दोहा॥ अष्टम पद चारित्र नो, पूजो धरी उमेद । पूजत अनुभव रस मिले, पातिक होय उच्छेद ॥१॥
॥ काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥ आराहियाखंडिअसक्किअस्स, नमो नमो संजम वीरिअस्स ।। सम्भावणासंगविवट्टिअस्स, निवाणदाणाइ समुज्जयस्स ॥१॥
॥ भुजंग प्रयातवृत्तम् ॥ फले जेह सम्पूर्ण थी तत्कालं,
गुणाणंपि सर्वात्म भावे विशालं। जिणे आदस्यो जे प्रयत्ने करीने,
दीयो लोकने जे अनुग्रह धरीने ॥१॥ हुवे जेहथी रंक लोकोपि पूज्यो,
गुण श्रेणिथी दीपतो जेम सूों ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६१ ] स्वकीये स्वभेदे करी जे विचित्रं,
जयो ते सदा लोक मध्ये चरित्रं ॥२॥ वली ज्ञान फल चरण धरीये सुरंगे,
निराशंसता द्वार रोध प्रसंगे। भवांभोधि संतारणे यान तुल्यं,
धरूँ तेह चारित्र अप्राप्त मूल्यं ॥३॥ होये जास महिमा थकी रंक राजा,
चली द्वादशांगी भणी होय ताजा। वली पाप रूपोपि निःपाप थावे,
थई सिद्धते कर्मने पार आवे ॥४॥
॥ ढाल उल्लालानी देशी ॥ चारित्र गुण वली वली नमो, तच रमण जसु मूलोजी । पर रमणीय पणु टले, सकल सिद्ध अनुकूलोजी ॥ १ ॥
॥ उल्लालो ॥ प्रतिकूल आश्रय त्याग संयम, तत्त्वधिरता दममयी । शुचि परम संती मुत्ति दशपद, पञ्च सवर उपचइ ।। सामायिकादिक मेद धर्मे, यथा ख्याते पूर्णता । अपाय अक्लप अमल उज्वल, काम कश्मल चूर्णता ॥२॥
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
] ६२ ] ॥ पूजा ढाल श्रीपालनारासनी देशी ॥ देश विरति ने सर्व विरति जे, गृहीयति ने अभिराम । ते चारित्र जगत जयवंत, कीजे तास प्रणाम रे ॥भ० ३६॥ तृण परे जे षट् खण्ड सुख छंडी, चक्रवर्तिपण वरियो । ते चारित्र अखय सुखकारण, तेमें मन माहे धरियोरे।भ०३७ हुआ रंकपण जेह आदरी, पूजित इंद नरिंदें । अशरण शरण चरण ते चंद, पूयु ज्ञान आनन्दे रे भ०३८ बार मास पर्याये जेहने, अनुत्तर सुख अतिक्रमिये । शुक्ल शुक्ल अभिजात्यते उपरे,ते चारित्र ने नमियेरे ।म०३६ चयते आठ करमनो संचय, रिक्त करे जे तेह । चारित्र नाम निरुक्त भाष्यु, ते वंद्गुण गेह रे भ० ४०
॥ ढाल॥ जाण चारित्र ते आतमा, निज स्वभावमा रमतो रे । लेश्या शुद्ध अलंकर्यो, मोह वने नवि भमतो रे ।वीर० ।।
॥श्री चारित्र पद काव्यम् ॥ सुसंवरं मोह निरोधसारं, पञ्चप्पयारं विगयाइयारं । मूलोत्तराणेग गुणं पवित्तं, पालेहनिच्चंपिठ्ठसच्चरित्तं ॥६॥
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६३ ]
॥ कान्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्करं, जगतिजंतु महोदय कारणम् । जिननरं महमान जलौघतः, शुचिमनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥८ मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय, श्रीचा निपदे, पचामृतचन्दनं पुप्प धूपं दीप अक्षतान् नैवेद्य-फलं वस्त्रं वास
-
यजामहे स्वाहा ।
॥ अथ नवमी श्री तप पद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ कर्म काष्ठ प्रति जालना, परतिख अगनि समान । तप पद पूजो भवि सदा, निर्मल धरिये ध्मान ॥ १ ॥ ॥ काव्यम् इन्द्रवजावृत्तम् ॥
कम्ममोन्मूलण कु जरस्म, नमो नमो तिन्न वनोयरस्स । अणेगलद्वीण निघणस्म, दुमज्ज अत्याणय साहणस्स ||१|| || मालिनीवृत्तम् ॥
-
-
"
इय नव पय शिद्ध, लद्धि विन्ना समिद्ध । पपडिय सरसग्ग, हाँ विरेदास मग्ग || विसारं, सोणि पीडा वया । विजय विजय चक्र, सिद्धचक्क नमामि ||१||
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६४ ]
॥ भुजंगप्रयात वृत्तम् ॥ विधे जे कर्यों आतमा उज्जवाले,
घणाकाल नो कर्म राशि प्रजाले । अनेका सुलद्धि लहे यत्प्रभावे,
क्षमा युक्त ए साधु महानन्द पावे ॥१॥ वली बाध अभ्यंतरे भेद भिन्न,
जिनेन्द्रागमे वर्णव्यु जे अछिन्न । अनासं स्वभावे तिलोके सुनद्य,
नमूते प्रमोदे तपः पद मनिंद्य ॥२॥
॥ मालिनी वृत्तम् ॥ इति जिनवर बंद्य भक्तिता ये स्तुवंति।
परम पद निधान, मानसे संस्मरंति ॥ पर भव इहवा श्रीपालवन्मानवानां,
प्रभवति किलतेषां चारु कल्याण लक्ष्मी ॥३॥
॥ भुजङ्गप्रयातवृत्तम् ॥ त्रिकालिक पणे कर्म कषाय टाले,
निकाचित पणे बांधियांतेह बाले। कह यु तेह तप वाह्य अन्तर दुभेदे,
क्षमा युक्त निर्हेतु दुर्ध्यान छेदे ॥४॥
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६५ ] होये जास महिमा थकी लब्धि सिद्धि,
अवछक पणे कर्म आवरण शुद्धि । तपो तेह तप जे महानन्द हेते,
होये सिद्धि सीमंतिनी जिम सकेते ||५|| इस्या नव पद ध्यान ने जेह ध्यावे,
सदानन्द चिद्रूपता तेह पावे ।
वली ज्ञान विमलादि गुणरत्न धामा,
*
4
नमु ते सदा सिद्धचक्र प्रधाना ||६|| || मालिनी वृत्तम् ॥
हम नवपद ध्यावे, परम आनन्द पावे | नव भव शिव जावे, देव नर भन पावे ॥ ज्ञान विमल गुण गावे, सिद्धचक्र प्रभावे । सवि दुरित शमाचे, जयकार पावे || नि || ढाल उलालानी देशी ॥
इच्छा रोधन तप नमो, बाह्य अभ्यंतर मेरे जी । आतम सत्ता एकता, पर परिणति उच्छेदे जी ॥ १ ॥ ॥ उलालो ||
अनादिमतति, जेह सिद्ध पणू बरे ।
,
आहार गली भाव अता करे
उच्छेद कर्म यक्ष योग
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
[६६ अंतर मुहूरत तत्त्व साधे, सर्व संवरता करी। निज आत्मसत्ता प्रगट भावे, करो तप गुण आदरी ||२||
॥ ढाल ॥ इम नव पद गुण मंडलं, चउनिक्षेप प्रमाणे जी। सात नये जे आदरे, सम्यग् ज्ञाने जाणे जी ॥३॥
॥ उलालो ।। निर्द्वार सेती गुणे गुणनो, करे जे बहु मान ए। तसुकरण इदा तत्त्व रमणे, थाय निर्मल ध्यान ए॥ इम शुद्ध सत्ता भल्यो चेतन, सकल सिद्धि अनुसरे । अक्षय अनन्त महंत चिद्धन, परम आनंदता वरे ॥ ४ ॥
॥ अथ कलश ॥ इय सयल सुखकर गुण पुरंदर, सिद्ध चक्र पदावली । सवि लद्धि विज्जा सिद्धि मंदिर, भविक पृजो मन रली ॥ उवझायवर · "श्रीराजसागर", ज्ञान-धर्म सुराजता । गुरु "दीपचन्द" सुचरण सेवक, 'देवचन्द्र" सुशोभता ॥१॥
___पूजा ढाल श्रीपालनारासनी देशी ॥ जाणतां त्रिहु ज्ञाने संयुत, ते भव मुक्ति जिणंद । जेह आदरे कर्म खपेवा, ते तप सुर तरु कंद रे॥भ०४१॥
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
, [६७ ] -फर्म निकाचित पण क्षय जाये, क्षमा सहित जे करता। ते तप नमिये-जेह दीपावे, जिन शासन उजमंतारे ।भ०४२॥
आमोसही पमुद्दा बहु लद्धि, होवे जास प्रमा।.... • अष्ट महासिद्धि नवनिधि प्रगटे,नमिये ते तप भावे रे ।भ०४३॥ फल शिवसुख मोहटु सुर नर वर, संपति जेहनु फूल । ते तप सुर तरु सरिखो बंदु, शम मकरद अमूल रे ।भ०४४॥ सर्व मंगल माहि पहेलु मगल, वर्णवियु जे थे। ते तप पद त्रिकरण नितेनमिये, वर सहाय शिवपंथे रेशम०४॥ इम नव पद थुण तो तिहां लीनो, हुओ तन्मय श्रीपाल । सुजस विलासे चौथे सडे, एह डग्यारमी ढाल रे ।भ०४६।
। ' ॥ सिद्धचक्र पद बन्दो० ॥
॥ ढाल । । - इच्छा रोधन सवरी, . परिणति समता योगे रे। तप ते एहिज आतमा, चर्ते निज गुण भोगे रे ॥वीर०१०॥ आगम नो आगम तणो, भाव ते जाणो साचो रे। आतम मावे थिर हुगो, पर भावे मत राची रे ।वीर०११॥ अष्ट सम्ल समृचिनी, घट माहिं ऋद्धि-दाखी रे।तिम नरपद माद्धिजाणजो, आतमराम हे साखीरे पीर०१२॥
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
:
[ ६८ ] योग असंख्य छे जिन कला, नत्र पद मुख्य ते जाणो रे । एंह तणे अवलंबने, आतम ध्यान प्रमाणो रे || वीर०१३ ढाल वारसी एहवी, चौथे खंडे पूरी रे | वाणी वाचक जस तणी, कोई रही न अधूरी रे || वीर०१४ || वीर जिनेसर उपदिसे० ॥
॥ श्री तप पद काव्यम् ॥ बज्यं तहान्भिन्तर मेयमेयं, कषाय दुज्जेय कुकम्म मेयं । दुक्खक्खयुत्थे कयपावनासं, तवेह दाहागमयं निरासं ॥ ६ ॥ ॥ काव्यम् ॥
विमल केवल भासन भास्करं, जगतिजन्तु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः शुचि मनाः स्त्रपयामि विशुद्धये ॥६॥
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म- जरा मृत्यु निवारणाय, श्रीतपपदे, पंचामृतं चन्दनं पुष्पं-धूपं दीपं अक्षतान् नैवेद्य - फलं वस्त्रंवासं यजामहे स्वाहा |
w
-
स्नात्र करतां जगतगुरु शरीरे, सकल देवें विमल कलश नीरे । 'आपणा कर्ममल दूर कीधा, तेणें ते विबुध ग्रंथे प्रसिद्धा ॥ १ ॥
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ६६ ] हर्ष धरी अप्सरा वृन्दे आवे, स्नात्रकरी एम आशीष भावे । जिहालगे सुरगिरि जंबुदोवो, अमतणा नाथ जीवाति जीवो॥२॥ ॥ अथ नवपद जी की आरती ||
जय जय जगजन वाँछित पूरण, सुरतरु अभिरामी । सुर० आतम रूप विमल कर तारक, अनुभव परिणामी ॥ जय० १ ॥
1
+
जय जय जय जग सारा, भविजन आधारा । भवि० आरति पार उतारा, सिद्धचक्र सुखकारा ॥ जय० २|| जगनायक जगगुरु जिण चदा, भज श्रीभगवंता । भज० आतम. राम रमा सुख भोगी, सिद्धा जगवता ॥ जय० ३ ॥ पंचाचार दिये आचारज, युगपर गुणधारी । युग० धारक वाचक सूत्र अरथना, पाठक भवतारी ॥ जय० ४ ॥ शम दम रूप सकल गुण धारक, मोटा मुनिराया । मोटा० दरिसण नाण सदा जयकारक, सजम तप भाया ॥ जय० ५|| नवपद सार परम गुरु भासे, सिद्धचक्र सुखकारी | सिद्ध० इह भव परभव ऋद्धिदायक, भन सायर वारी ॥ जय० ६ ॥ कर जोडी 'सेवक जस गावे, मनवाँछित पावे | मन० श्री जिनचन्द चरण परिपूजक, शिवकमला पावे ॥ जय० ७ ||
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपाध्याय साधुकीर्ति गणि कृत ॥ सतरहभेदी-पूजा ॥
॥ दोहा ॥ भाव भले भगवंतनी, पूजा सतरे प्रकार । परसिध कीधी द्रौपदी, अंग छठे अधिकार ॥
॥राग सरपदी॥ जोति सकल जग जागति (हां रे अइ० ) ए सरसति समरि सुभिद । सतर सुविधि पूजा तणी, पमणिसु परमानंद ॥१॥
॥ गाथा ॥ म्हवण विलेवण वत्थजुगं, गंधारुहणं च पुरोहणयं । मालारोहण वन्नयं चुन्न पडागाय आभरणे ॥ १॥ मालकलासुरवं सुघरं, पुष्फ पगरं च अट्ठ मंगलयं । धूव उखेवो गीययं, नट्ट वज्ज तहा भणियं ॥२॥
॥दोहा ॥ सतर सुविध पूजा प्रवर, ज्ञाता अंग मझार । द्र पदसुता द्रौपदी परे, करिये विधि विस्तार ॥
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा -
७१.. -प्रथम न्हवण पूजा ॥
॥ राग देशास ॥ • पूर्व मुख सावन, करि दणन पावनं, अहत धोती धरी, उचित मानी (अइयो)। विहित मुखकोशके, सीरगंधोदके, सुभृत मणिकलश करि विविध वानी ॥ अ० ॥ १॥ नमिवि जिन मुंग, लोम हस्ते नव, मार्जन करिय जिनं वारि वारि | अ० । भणिय कुसुमाजली, कलश विधि मन रली, न्हवति जिन इन्द्र जिम, तिम अगारी ॥ अ० २ ॥
॥दोहा॥ पहिली पूजा साचवे, श्रावक शुभ परिणाम | शुचि पताल तनु जिन तणे, करे सुकृत हितकाम ।। परमानद पीयप रस, न्हवण मुगति सोपान । धरम रूप तरु सींचत्रा, जलधर धार समान ॥
|| राग सारंग तथा मल्हार ॥ पूजा सतर प्रकारी, सुणियोरे मेरे जिन (वर ) की। परमानन्द तिण अति छल्योरी सुधारस, तपत चुमी मेरे तनकी हो ॥पू० ॥१॥ प्रभु विलोकि नमि जतन
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
७२"
वृहत् पूजा संग्रह प्रमार्जित, करत पखाल शुचिधार वनकी हो। न्हवण प्रथम निजवृजिन पुलावत, पंककु वरप जैसे घन की हो ॥पू०॥२॥ तरणि तारण भवसिंधु तरणकी, मंजरी संपदफल वरधनकी । शिवपुर पन्थ दिखावण दीपी, धूमरी आपद वेल मरदनकी हो ॥ पू० ॥ ३ ॥ सकल कुशल रंग मिल्योरी सुमति संग, जागी सुदशा शुभ मेरे दिनकी । कहे साधुकीरत सारंग भरि करताँ, आस फली मेरे मनकी हो ॥ पू० ॥४॥
॥ द्वितीया विलेपन पूजा ॥
॥राग रामगिरी ॥ गात्र लूहे जिन मनरंगसु हो देवा ॥ गा० ॥ सखर सुधूपित वाससु हारे देवा वाससु । गंध कसायसु मेलिये, नन्दन चन्दन चन्द मेलीये रे देवा ॥१॥२०॥ मांहे मृगमद कुकम भेलीये, कर लीये रमणपिंगाणी कचोलीये ॥२॥ पग जानु कर खंधे सिरे रे देवा, भाल कण्ठ उर उदरंतरे। दुख हरे हारे देवा सुख करे, तिलक नवे अङ्ग कीजिये ॥ ३॥ दूजी पूजा अनुसरे श्रावक, हरि विरचे जिम सुरगिरे । तिम करे जिणपर जन मन रंजीये ॥ ४ ॥
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा ॥ राग ललित ॥
॥दोहा॥ करहुं विलेपन मुससदन, श्रीजिनचन्द शरीर । तिलक नवे अंग पूजता, लहे भवोदधि तीर । मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता सग । चित्त खेद सवि उपसमे, सुखमें समरसी रंग ।।
॥ राग बिलावल || विलेपन कीजे जिनपर अंगे ; जिनवर अंग सुगधे ॥वि०॥ कुंकुम चन्दन मृगमद यक्षकई म, अगरमिश्रित मनरंगे ॥ वि० ॥ १॥ पग जान कर संधे सिर, भालकण्ठ उर उदरंतर सगे। विलुपति अघ मेरो करत विलेपन, तपत बुमति जिम अगे ॥ वि० ॥२ ॥ नव अग ना नव तिलक करत ही, मिलत नवे निधि चंगे। कह साधु तनु शुचि, करो सुललित पूजा जैसे गगतरगे || वि० ॥ ३ ॥
॥ तृतीय वस्त्रयुगल पूजा ॥
॥दोहा॥ वसनयुगल उज्वल निमल, आरोपे जिण अग। लाम जान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसग ॥
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह
॥ राग गोडी ॥ कपल कोमरुवनं, चन्दनं चर्चितं, सुगंधगधे अधिवासिया ए हां रे अइ० । कनकपंडित हये, लालपल्लव शुचि वान जुग कंत अतिवासिया ए ॥१॥ जिनप उत्तम अंगे, सुविधि शक्रो यथा, करिय पहिरावणी ढोइये ए हां रे अ०। पाप लूहण अंग लूहणुं देवने, वस्त्रयुग पूज मल धोइये ए हां रे अ० ॥२॥
॥राग वैराडी ।। देवदुष्य जुग पूजा बन्यो हे जगतगुरु, देव दुष हर अब इतनो मागु। तुहिज सब ही हित तुहिज मुणतिदाता, तिण नमि नमि प्रभुजीके चरणे लागु ॥ दे० ॥१॥ कहे साधु त्रीजी पूजा केवल दसण नाण, देवदुष्य मिश देहु उत्तम वागुं। श्रवण अंजली पुट सुगुण अमृत पीतां, सविराडि दुख संशय धुर में भांगु ॥ दे० २ ॥ .
॥ चतुर्थ वासक्षेप पूजा ॥
॥ राग गोडी दोहा॥ पूज चतुर्थी इण परे, सुमति वधारे वास । कुमति कुगति दूरे हरे, दहे मोह दल पास ।।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा ,
' ॥राग सारंग ॥ हांहो रे देवा बावन चन्दन घसि कुमकुमा चूरण विधि विरचे वासु ए । हां ।। कुसुम चरण चन्दन मृगमदा, कंकोल तणो अधिवासु ए ॥ हां ॥ १ ॥ वास दशोदिशि वासते, पूजे जिन अग उन गु ए ॥ हां० ॥ लाछि भुवन अधिवासियो, अनुगामिकी सरस अभंगु ए ॥२॥
॥ राग गौडी तथा पूर्वी ॥ । । मेरे प्रभुजीकी पूजा आणद मेले ॥ मे० ॥ वास भुवन मोयो सब , लोए, सपदा मेलेकी ॥ पूजा० १॥ सतर प्रकारी पूजा, विजय देवा तत्ता थेई । अप्रमत्त गुण तोरा चरण सेवाकी ॥ पू० ॥ २॥ कुंकुम चन्दनवासे, पूजीये जिनराज ताई। चतुर्गति दुख गौरी चतुर्थी धनकी ॥ पू० ॥३॥ ., , पंचम पुष्पारोहण पूजा ॥
॥ दोहा ॥ मन विकसे तिम विकमतां, पुष्प अनेक प्रकार । प्रभुपूजा ए पंचमी, पंचमि गति दातारं ॥
॥ राग कामोद ॥ चम्पक केतकी मालती हा रे अ० ए, कुंद किरण
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
वृहत् पूजा संग्रह मचकुंद। सोवन जाइ जूईका, विउलसिरी अरविंद ॥१॥ जिनवर चरण उवरि धरे ए हां रे अ०, मुकुलित कुसुम अनेक । शिव रमणीसे वर वरे, विधि जिन पूज विवेक ॥२॥
॥ राग कानडो॥ सोहेरी माई वरणे मन मोहेरी माई वरणे । विविध कुसुम जिलचरणे ॥ सो० ॥ विकसी हसी जंपे साहिबकू, राखि प्रभु हम सरणे ॥ सो० १॥ पंचमि पूज कुसुम मुकुलितकी, पंचविषय दुख हरणे ।।सो०॥ कहे साधुकीरति भगति भगवंतकी, भविक नरा सुखकरणे ॥ सो० २॥
॥ छठी मालरोहण पूजा ॥
॥ राग आशावरीमा दोहा॥ छठी पूजा ए छती, महा सुरभि पुफमाल । गुण गुंथी थापे गले, जेम टले दुखजाल ।
॥राग रामगिरी गुर्जरी ॥ हे नाग पुन्नाग मंदार नव मालिका, हे मल्लिकासोग पारिध कली ए। हे मरुक दमणक बकुल तिलक वासंतिका, हे लाल गुल्लाल पाडल भिली ए ॥१॥ हे जासुमण
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
"सतरहभेदी-पूजा मोगर वेउला मालती, हे पंच वरणे गुंथी मालती ए॥ हे माल जिन कंठ पीठे ठवी लहलहे, हे जाण सताप -सहु पालती ए ॥२॥
॥ राग आशावरी ॥ देखी दामा कंठ जिन अधिक एधति नदे, चकोरकु देखि देखि जिम चंदे ॥ दे० १॥ पंचविध वरण रची कुसुमाकी जैसी रयणावलि सुहमदे ।। दे० ॥२॥ छट्ठी रे तोडर पूजा तव डर धूजे, सब अरिजन हुइ हुइ तिम छन्दे । दे० ॥३॥ कहे साधुकीरति सकल आशा सुख, भविक भगत जे जिण वदे ॥दे० ॥४॥
॥ सप्तम वर्णपूजा ॥
॥दोहा॥ केतकि चंपक केवड़ा, शोमे तेम सुगात । । 'चढो जिम चढता हुवे, सातमिये सुखशात ।।
|| राग केदारो गोडी ॥ . कुंकुम । चर्चित विविध पच वरणक, कुमुमप्त - हारे अ० ॥ कुद गुलापशु चंपको दमणको, - ॥१॥ सातमी पूजमे अगिए अग अलकिये।। रे वज आलंक मिश माननी, मुगति आलिंगिये ए ॥२२ कार पंच
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
. . ७८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ राग भैरवी ॥ . : . " : पंच वरणी अंगी रचि, कुसमनी जाती। फूलनकी जाती ॥ पं० ॥ कुंद मचकुंद गुलाव शिरोमणी, कर करणी सोवन जाती ॥ पं० ॥ दमणक मरुक पाडल अरविंदो, अंस जई बेउल वाती ॥ ५० ॥१॥ पारधि चरण कल्हार मंदारो, विण पटकूल बनी भांती ॥ ५० ॥ सुरनर किन्नर स्मणी गाती, भैरवी कुगति व्रतती दाती ॥पं० २॥
॥ अष्टम गंधवटी पूजा ॥
॥ दोहा सोरठो रागमा ।। सुमति पूजा आठमी, अगर सेल्हारस सार । लावो जिन तनु भाकशु गंधवटी घनसार ॥१॥
॥राग सोरठ॥ . कुद किरण शशि ऊजलो जी देवा, पावन धन धनसारोजी। आछो सुरभि शिखर मृग नाभिनो जी चा, चुन्नरोहण अधिकारोजी ।। आ०॥१॥ वस्तु सुगंध
हेरियोजी देवा, अशुभ करम चूरीजै जी ।। आ०॥ पारिध कल तरु मोरियोजी देवाः तव कुमति जन खीजै जी तिका, हे ६) तव सुमती जन रीझै. जी ॥२॥
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा - ॥ राग सामेरी ॥ । ', पूजोरी माई, जिनवर अग सुगंधै | जि० ॥ ३० ॥ गधाटी घनसार उदारे, गोत्र तीर्थंकर बांधै ।। पू० ॥ १ ॥ आठमी पूजा अगर सेल्हारस, लावे जिन तनु रागे। धार कपूर भाव धन वरपत, सामेरी मति जाग ॥ पू० ॥२॥
॥ नवमी वज, पूजा ॥ । - - - ॥दोहा॥ .
मोहन- ध्वज घर मस्तके, सहव गीत समूल । दीजै तीन प्रदक्षिणा, नवमी पूज अमूल ।।
. ॥ राग मेघ गोडी वस्तु छन्द ॥ ।
सहस जोयण सहस जोयण हेममय दण्ड ! युतपताक - पचे वरण, घुम घुमन्त धूधरी बाजे । मृदु समीर लहके
गयण, जाण कुमति, दल सयल भाजै ॥ सुरपति जिम विरवे - धजा ए, नरमी पूज सुरंग ॥ तिण पर श्रावक । ध्वज वहन, आपै दान अभंग ॥१॥ , - ॥ राग नट्टनारायण ।।
-जिनराजको ध्वज। मोहना, , वन मोहना रे ध्वज मोहना || जि० ॥ मोहन सुगुरु अधिवासियो, करि पच
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह सबद त्रिप्रदक्षिणा । सधव वधू शिरसोहणा | जि० ॥ १ ॥ भांति वसन पांच वरण बन्यो री, विध करि ध्वजको रोहणां ॥ साधु भणत नवमी पूजा नव, पाप नियाणां खोहणां ॥ शिव मंदिरकुअधिरोहणा, जन मोयो नट्टनारायण ॥जि०॥२॥
॥ दशमी आभरण पूजा॥
। राग केदार दोहा॥ दशमी पूजा आभरण, रचना यथा अनेक । सुरपति जिम अंगेरचे, तिम श्रावक सुविवेक ॥ शिर सोहे जिनवर तणे, रयण मुकुट झलकंत । तिलक भाल अङ्गद भुजा, श्रवण कुण्डल अतिकंत॥
॥ राग अधमास वा गुण्डमल्हार ॥ पांच पिरोजा नीलू लसणीया, मोती माणक लाल रसणीया, हीरा सोहे रे, मन मोहे रे धुनी चुनी पुलक करकेतना, जातरूप सभग अंक अंजना, मन मोहै रे
जड्यो, काने कुण्डल हारे अति जुगते जुड्यो । उरहारू रे मनवारू रे ॥ २ ॥ भाल तिलक बांहे अगदा, आभरण दशमी पूजा मुदा । सुखाकारू रे, दुखहारू रे ॥३॥ .
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतरहभेदी-पूजा
॥ राग केदारो॥ प्रभु शिर सोहे, मुकुट मणि रयणे जड्यो । अंगद बांह तिलक भालस्थल, येहु नीको कोन घड्यो ॥प्र०॥१॥ श्रण कुण्डल शशि तरणि मडल जीपे, सुरतरुसम अलकर्यो । दुसके दार चमर सिंहासण, छत्र शिर उचरि धरयो, अलकृत उचित वस्यो । प्र० ॥२॥
॥ एकादश फूलपर पूजा ॥
॥दोहा ॥ फूलघरो अति शोभतो, फूदे लहके फूल । महकै परिमल फलमहा, ग्यारमी पूज अमूल ।।
॥राग रामगिरी कौतकिया । कोज अकोल रायवेलि नव मालिका, कुन्द मचकुन्द वर विचिकलू हारे ॥ अइ० वि० ए॥ तिलक दमणक दलं मोगरा परिमल, कोमला पारिध पाडल हां रे अ. पा० ए॥१॥ प्रमुख कुसुमे रच त्रिभुवन रुच, कुसुम गेहे विच वोरण, हा रे अ० तो ए ॥ गुच्छ चन्द्रोदय भरका उन्नय, जालिका गोस चित चोरणू हा रे अ. चो० ए॥२॥
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह
|| राग रामगिरी ।। मेरो मन मोह्यो माईरी, फूलवर आणंद मिले। असत उसत दाम वधरी मनोहर, देखत तयही सब दुरित खिलै ॥ फू० ॥ १ ॥ कुसुम मंडप थंभगुच्छ चन्द्रोदय, कोरणि चारु विनाण सके । इग्यारसी पूज भणीहे रामगिरी विबुध विमाण जैसे तिपुरि भजे ॥ फ० ॥ २ ॥
॥ द्वादश पुष्पवर्षा पूजा ॥
॥ दोहा मल्हार रागमां ॥ वरपे चास्मी पूजमें, कुसुम बादलिया फूल । हरण ताप दुख लोकको, जानु समा बहु मूल ॥
(राग भीममल्हार गुढमिश्र, देशी कड़खानी)
मेघ वरस भरी, पुष्फ वादल करी, जानु परिमाण करि कुसुम पगरं । पंच वरणे बन्यो, विकच अनुक्रम चण्यो, अधोवृते नहीं पीड पसरं ॥ मे० ॥१॥ वास महके मिलै, भमर भमरी मिले, सरस रसरंग तिण दुख निवारी । जिनप आगे करै, सुरप जिम सुख वरे, वारमी पूज तिण पर अगारी ॥ मे० ॥२॥ .
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
TY
सतरहभेदी-पूजा
॥राग भीम मलार॥ पुष्प बादलीया वरसै सुसमा | अहो पु० ॥ योजन अशुचिहर वर गंधोदक, मनोहर जानु समा ॥ पु० ॥१॥ गमन आगमनकी पीर नही तसु, इह जिनको अतिशय सुगुणै । गुंजत-गुंजत मधुर इम पभणे, मधुर वचन जिन गुण थुणे ।। पु० ॥२ ॥ कुसुम सुपरि सेना जो करे, तसु पीर नहीं सुमणे | समवसरण पचवरण अधोत; विध रचे सुमना सुसमा । पु० ॥ ३॥ बारमी पूज भविक तिम करे, कुसुम विकस हसी उच्चरे, तसु भीम बंधण अधरा हुचे, जे करे जै जै जिन नमा |पु० ॥४॥
॥ त्रयोदश अष्ट मगलिक पूजा ।।
॥ दोहा राग कल्याणमें ॥ तेरमी पूजा अवसरे, मंगल अष्ट विधान । युगति रचे सुमते सही, परमानन्द निधान ॥
॥ राग वसन्त ॥ अतुल विमल मिल्पा, असंड गुणे भिल्या सालि रजत तणा तंदुला ए| इलपण समाजक, पचविध वर्णके, चन्द्रकिरण जैसा ऊजला ए॥१॥ मेलि मंगल लिखे,
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
वृहत् पूजा संग्रह सयल मंगल अखे, जिनप आगे सुथानक धरे ए। तेरमी पूजविधि ते रमी मन मेरे, अष्टमंगल अष्टसिद्धि करे एर ॥२॥
॥ राग कल्याण ॥ हांहो पूजा वणी तेरी रसमें । अष्ट मंगल लिखे, कुशल निधान है ; तेज तरणके रसमें ।। हां ॥ १॥ दप्पण भद्रासण नंद्यावत्ते पूर्णकुंभ, मच्छयुग श्रीवच्छ तसुमें । वर्धमान स्वस्तिक पूज मंगलकी, आनंद कल्याण सुख रसमें ॥ हां ॥ २॥
__॥ चतुर्दश धूप पूजा ॥
॥ दोहा ॥ गंधवटी मृगमद अगर, सेल्हारस धनसार । धरि प्रभु आगल धूपणा, चउदमि अरचा सार ॥
॥राग वेलावल ॥ कृष्णागर कपूरचूर, सोगंध पंचे पूर। कुंदरुक्क सेल्हारस सार, गंधवटी घनसार ।। गंधवटी धनसार चंदन मृगमदा रस भेलिये, श्रीवास' धूप दशांग अंबर, सुरभि बहु द्रव्य मेलियै ॥ वेरुलिय दंड कनक मंडित, धूपधाणो
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूज कर धरे। भववृत्ति धूप करंति भोगं, रोग सोर अशुभ हरै ॥१॥
॥ राग मालवी गौडी॥ सब अरति मथनमुदार धूपं, करति गंध रसाल दे ।। देवा, कर० | धाम धूमा वलीय धूसर, कलुष पातिक गाल रे ॥ देवा, स० ॥ १ ॥ अर्ध्वगति सूचंति भविक मघमधे करनाल रे ॥ दे० ॥ चौदमी वामांग पूजा, दीये रयण विशाल रे । आरती मगल माल रे, मालवी गौडी ताल रे ॥ दे० स० ॥२॥
॥ पंचदश गीत पूजा ॥
॥दोहा॥ कठ भले आलाप करि, गावो जिनगुण गीत । भावो अधिकी भावना, पनरमी पूजा प्रीत ॥
॥ श्री रागे आर्यावृतं ॥ यद्धदनतकेवल मनंत, फल मस्ति जैनगुणगानं । गुणवर्णतानवाद्य, मात्रामापालययुक्त ॥१॥ सप्त खरसंगीतः स्थानर्जयतादि तालकरणैश्च । चंचुरचारी चारै, गीतं गानं सपीयपं ॥२॥
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ श्री राम ||
जिनगुण गानं श्रुत अमृतं । तार मंद्रादि अनाहत तानं, केवल जिस तिम फल अमृतं || जि० ॥ १ ॥ विबुध कुमार कुमारी आलापे, सुरज उपंग नाद जनितं । पाठ प्रबंध आप्रतिमान, आयति छंद सुरति सुमितं ॥ २ ॥ शब्दसमान रुच्यो त्रिभुवनकु, सुर नर गावे जिन चरितं । सप्तस्वर मान शिवश्री गीतं, पनरमी पूजा हरे दुरितं ॥ जि० ॥ ३ ॥
८६
4118
॥ पोडस नृत्य पूजा || ॥ दोहा ॥
कर जोडी नाटक करे, सजि सुन्दर सिणगार । भव नाटक ते नवि भमे, सोलमी पूजा सार ॥
॥ राग शुद्ध नट्ट ||
॥ काव्यं । शार्दूलविक्रीडितं वृतं ॥ भावा दिपिमणा सुचारु चरणा, सुं पुन्न सपिम्मासम रूव वेस वयसो, मत्तेभ
लावण्णा सगुणा पिकल्स रखई, रागाह कुम्मारी कुमरावि जैनपुरओ, नच्चंति
चंदानना,
कुंभत्थणा |
आलावणा,
सिंगारणा ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा
॥ गद्य ॥ तएण ते अठमयं कुमार कुमरीओ सूरियामेण देवेणं सदिट्ठा रग मडवे परिहा जिण नमता गायता वायता नच्चंतेत्ति ॥
॥ रागनट्ट त्रिगुण ।। नाचंति कुमार कुमरी, द्रागडदि तत्ता थेड्य, द्रागडदि द्रागडदिकि थोंग थोंगनि मुखे तत्ता घेडय ॥ ना० ॥१॥ वेणु वीणा मुरज पाजे, सोलही सिणगार साजे, तनन्न नन्नानेइय, घणण घणण धूघरी घमके, रण्णण्णण णा णेहय ।। ना० ॥ २ ॥ कसती कचुकी तरुणी, मजरी झकार करणी, मोमति कुमरीय, दस्तकृत हावादि भावे, ददति भमरीय ।। ना० ॥ ३ ॥ सोलमी नाटक पूजा, सुरीयाभे रापण कोनी । मुगंध तत्ता त्येईय, जिनप भगते भरिक लोणा, आणद तत्ता थेईय || ना० ॥४॥
|| सप्तदशमी यानित्र पला ।
॥दोहा॥ ततधन सुपिरे जानधे, वाजिब चउनिध वाय । भगति भली भगवनी, गतरमी ए मुदाय ॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह || गाहा ॥
सुरमद्दल कंसालो, महुरय मद्दल सुवज्जए पणवो । सुरनारि नंदि तूरो, पभणेइ तूं नंद जिणनाह ।।
॥ राग मधुमाधवी ॥ तूं नंदिआनंदि बोलत नंदी, चरण कमल जसु जगत्रय वंदी । ज्ञान निर्मल बावन मुख वेदी, तिवलि बोले रंग अतिही आनंदी ॥ तूं० ॥ १ ॥ भेरो गयण वाजंती, कुमति त्याजंती ; प्रभु भक्ति पसाये अधिक गाजंती। सेवे जैन जयणावंती, जैनशासन, जयवंत नंदती । उदय संघ परिपास्य वदन्ती ॥ तूं० ॥२॥ सेवि भविक मधु माधनफेरी, भव नी फेरी नप्पभणंती, कहे साधु सतरमी पूज वाजिन सत्र, मंगल मधुर धुनिकर कहंतो ॥ तूं ॥३॥
|| कलश ॥
। राग धनाश्री॥ भवि तु भण गुण जिनके सब दिन, तेज तरणि मुख राजै । कवित शतक आठ थुणत शक्रस्तव, थुय थुय रंगै हम छाजै ।। भ० ॥ १ ॥ अण हिलपुर शांतिशिव सुखदाई,
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
सतरहभेदी-पूजा
८६ नवनिधि सिद्धि आवाजे। सतर सुपूज सुविधि श्रावककी भणी मैं भगति हित काजे ॥ भ० ॥ २ ॥ श्री जिनचन्द्रसूरि सरतर पति, धरम वचन तसु राजै । संवत सोल अढार श्रावण धुरि, पचमी दिवस समाजै ॥भ० ॥३॥ दयाकलश गुरु अमरमाणिक्य वर, तासु पसाये सुविध हुई गाज। कहे साधुकीरति करत जिन सस्तव, सर लीला सुर साज ॥ भ० ॥४॥
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री सुगुणचन्द्रोपाध्याय कृत
॥ पंचपरमेष्ठी-पूजा ॥
-:0:
|| प्रथम अरिहंतपद पूजा || ॥ दोहा ॥ ॐकार बीज आदे नमू, गीर्वाणी सुखदाय | तु तूठी पंडित करे, पूजे सुरनर राय ॥ ॐ नमो गुरुदेवकुं, भाषा सरस चनाय | पाहणथी पल्लव करे, उपगारी सिर राय || प्रथम नमू अरिहंतजी, दूजा सिद्ध अनंत | तीजा सूरि सदा नमू, उपगारो भगवन्त ॥ बलि उवझाया चंदिये, गुण पचवीस प्रधान । द्वादश अंग प्ररूपता, नहीं विकथा नहीं मान ॥ पंचम पद सुनिराजनो, वंदो भवि इकतार । -गुण सत्तावीस सोभता, करुणा रस भंडार ॥
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचपरमेष्ठी - पूजा
पांचों पद सेवे नही, मूरख लोक अजाण । ए पांचू परमेष्टि है, अनुपम सुखकी खाण || उज्जवल वरण विराजता, कुमति हरण सुभ लेश | अरिहत पद पूजा करो, सेवत सदा सुरेश ॥ अष्ट द्रव्य लेई करी, पूजो अरिहंत देव | पूजत अनुभव रस मिले, पावो सुख नितमेव ॥ प्रथम पद श्रीकार है, अतिसय जास अनंत । तीन लोकना राजनी, सेवे सुर नर सत ॥
६१
|| ढाल होलीरी ॥
लिहारी सुखकर जिनवर की । सब देवन मे देव नगीनो, महिमा अघिकी मुनिवरकी ॥ ० ॥ १ ॥ कोई घ्यावे हरि हर ब्रह्मा, कोई कहे मेरे बाला जी ॥ ० ॥ कोई कहे मेरे चण्डी माता, कोई कहे भैरू काला जी ॥ च० ॥ २ ॥ कोई नरसिंह देव कु घ्यावे, कोई कहे मेरे ज्याला जी || ० || मेरे परसन तुम ही आए, वीतराग गुण बालाजी | ० || ३ || अनर देव सन काच कधोरा, तुम हो अमोलक हीरा जी ॥ न० ॥ राग द्वेष तुम पास नहीं है, बाइस परिसह धीराजी ॥ ० ॥ ४ ॥ तेरी सुखकी
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह बलिहारी, क्या कहु अजब अमीरा जी ॥ ३० ॥ कोड देवता हाजर रहता, अणहुते बडवीरा जी ॥ ३० ॥ ५॥ जगजीवन जगलोचन कहिये, तुम सम अवर न धीरा जी ॥ ब० ॥ तेरे गुणको पार न पायो, सुरनर राय बजीरा जी ॥ ५० ॥ ६॥ बारै गुण प्रभु ऊपर सोहे, वृक्ष अशोक उदारा जी ॥ २० ॥ तीन छत्र भामंडल पूरी, ध्वजा फुरक रही सारा जो ॥ ब० ॥ ७ ॥ पृथ्वी पीठ सिंहासन ऊपर, राजत हो वडवीरा जी || ब० ॥ पान फूल करके बहु सोभित, राजत हो गुण पूरा जी ॥१०॥८॥ सहस जोजननो इंद्रध्वजा, प्रभु आगल चालत सारा जी ॥ब०॥ महा गोप महामाहण कहिये, निर्यामिक सथवारा जी ॥ २० ॥ ६ ॥ ऐसे अरिहंत पद की महिमा, सुणियो तुम सब प्यारा जी ॥ २० ॥ तीन लोक में इनका झंडा, पूजत है इकतारा जी ।। ब० ॥ १० ॥ अष्टद्रव्य से पूजा करतां, सदा हुवे जयकारा जी ॥ ३० ॥ धरमविशाल दयाल पसाये, सुमति कहै गुण सारा जी ॥ ब० ॥ ११ ॥ ॐ हीं परमात्मने पंचपरमेष्टीमहामन्त्रराजाय अरिहंतपदे अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचपरमष्ठा-पूजा ॥ अथ बीजी सिद्धपद पूजा ||
॥दोहा॥ दूजी पूजा सिद्धकी, करो भविक गुणवत । ध्वजा चढावो भावसु, लाल वरण मतिवंत ॥ गुण इकतीस विराजता, तीन लोक सिर छत्र । अनंत चतुष्टय धारता, जगजीवन जगमित्र ।।
॥ ढाल॥ चाल-भवि पनरम पद गुण गाना हो भवि सिद्धपदके गुण गाना हो ॥ भ० ॥ पनरे मेदे सिद्ध विराजै, भवि तुम चित्तमे लाना हो ॥ भ० सि० ॥ जिन जिन तीरथ अतीरथ कहीये, अन्य सलिंग कहाना हो || म० सि० ॥ १ ॥ स्त्री पुरुषादिक लिंगे नाये, कृत्य नपुंसक गाना हो । भ० सि० ॥ प्रत्येकयुद्ध ने सह संबुद्धा, युद्ध नोधित सुप्रमाना हो ॥ म० मि० ॥२॥ एक अनेक कह्या एक समये, गुरु मुसथो शुद्ध पाना हो ॥ भ० सि०॥ अष्ट सिद्धि नवनिधिके दाता, तुम हो देव निधाना हो || भ० सि० ॥ ३ ॥ सादी अनंत तुम सुखके भोगी, जोगीसर लय लाना हो । भ० सि० ॥ शन्द रूप रस गध फरस, जीत भए मुनि
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
वृहत् पूजा संग्रह भाना हो । भ० सि० ॥ ४ ॥ अव्यावाध सुखके तुम रसिये, भव्य सकल सुख दाना हो ॥ भ० सि० ॥ घाति अघाति दूर करीने, जोतमें जोत समाना हो ॥ भ० सि० ५॥ पैंतालीस लख जोजन शिल्ला, उज्जवल वरण कहाना हो ॥ भ० सि० ॥ ऊपर जोजन भाग चोइसमें, सिद्ध प्रसु ठहराना हो ॥ भ० सि० ॥६॥ तिहां श्रीसिद्ध सदा जयवंता, परम गुरु परधाना हो ॥ भ० सि० ॥ अनंत गुणाकर ज्ञान दिवाकर, इनके गुण नित गाना हो ॥ भ० सि. ७ || लब्धि रिद्धि सत्र सिद्धिके दाता; परम इष्ट सुखदाना हो ॥ भ० सि० ॥ धरमविशाल दयाल पसाये, सुमति कहै बुधवाना हो ॥ भ० सि० ८ ॥ ॐ ह्रौं परमात्माने सिद्धपदे अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा । || तीजी भाचार्य पद पूजा ॥
॥दोहा॥ तीजे पदकुं नित नमु, आचारज गुणवान । गुण छत्तीस विराजता, जिनवरके परधान ॥ प्रतिरूपादिक गुण करी, राजे सूर समान । जातिवंत कुलवंत है, नहि विकथा नही मान ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचपरमेष्ठी - पूजा
भन्य सकलकु ताखा, दे साचो उपदेश | कुमति सदा दूरे करे, सुमति पाले हमेश || ऋद्धि सिद्धि कारण पूजिये, पीले रंग प्रधान । गणधारक गुरु गछपति, जुगप्रधान सुजान ॥
॥ ढाल ॥
चाल - मही जिनंद सुसकारी रे वाला आचारज सुखकारी रे, वाला ॥ आ० ॥ गुण छत्तीस विराज जेहना, परम परम उपगारी रे ॥ वा० आ० || १ || पचाचार विराजत जगमणि, सहम किरण अववारी रे || वा० आ० || प्रतिरूपादिक गुण जस छाजें, मोह माया परिहारी रे || वा० आ० ॥ २ ॥ राग द्वेप दूर निवारे, समता रस भंडारी रे || वा० आ० || क्रोध मान माया नहि जिनके, चिरुथा दूर निनारी रे ॥ वा० आ० ॥ २ ॥ तेज करी सूरज सम शोभित, मिध्यातमके वारी रे || वा० आ० ॥ क्षमा अधिक जगमें जसु राजे, विषय विकार निवारी रे ॥ वा० आ० || ३ || हृदय गभीर महायण निरमल, रूपाधिक मनुहारी रे || वा० आ० ॥ देस जात कुल उत्तम जिनके, मोधा सन नर-नारी रे ॥ चा० आ० ॥ ४ ॥ सुखर
६५
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
वृहत् पूजा संग्रह
नरवर सेव करत है, जय जय तुम सुखकारी रे || वा० आ० ॥ मोठी अमृत वाणी बोले, सुणतां हरप अपारी रे || वा० आ० || ६ || पूरव चवद भण्या श्रुतसागर, लवधि अठाइस धारो रे || वा ० आ० ॥ द्रव्यानुजोगी चरणानुजोगो, करणानुजोगके धारी रे || वा० आ० ॥ ७ ॥ गणतानुजोगरू धरमानुजोगी, जाणे आगम सारी रे || वा० आ० || धर्म प्रभावक एह कहीजे, सूरि मंत्रके धारी रे || वा० आ० ॥ ८ ॥ गणधारी गछभार धुरंधर, सारण वारणकारी रे ॥ वा० आ० || ज्ञान उजागर विद्यासागर, वारी जाऊँ चार हजारी रे ॥ वा० आ० ॥ ६ ॥ धरमविशाल दयाल पसाये, समति कहे जयकारी रे || वा० आ० ॥ ऐसे गौतमस्वामी कहिये, पूजो कर इकतारी रे || वा० आ० ॥ १० ॥ ॐ ह्रीं परमात्मने आचार्य - पदे अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा || ३ ||
|| चौथी श्रीउवज्झाय पद पूजा || ॥ दोहा ॥
श्री उवज्झाया वंदिये, प्रेम धरी मन रंग । चौथे पद में शोभता, पूज़ो धर उछरंग ॥
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचपरमेष्ठी-पूजा नील वरण बज सुन्दरु, धर लावो शुभ थाल। अष्ट द्रव्य लेई करी, सेवो दीन दयाल ॥
॥ढाल ॥ (घाल-जिन गुण गानं श्रुत अमृत ) श्री उवज्माया भय हरण, भय हरणं रे देवा मय हरण || श्री० ॥ परिहर विषय विकार प्रकार, ए गुरु है अशरण शरण ॥ श्री० ॥ १॥ गुण पचवीस विराजित सुन्दर, देसत समको मन हरण ॥ श्री० ॥ तेज पंज रवि शशि सम दोपत, मिथ्या तम दरे करण || श्री० ॥२॥ सूर अर्थ दाता जगाह, मुनि मानसमें जप करणं ॥ श्री० ॥ सारण वायण चोयण करता, पडिचोयण वलि आचरण ॥ श्रा० ॥३॥ द्वादश अग पठ्या श्रुतमागर, मुमतिपर कुमति हरण || श्रो० ॥ अतिशय विद्या चूरण जागे, जिन शासन उन्नति करण || श्री० ॥ ४॥ धरम प्रभावक है उपगारी, ऐसे गुरु तारण तरणं !! श्री० ॥ नप जप आदिकनी सप करना, भय मकला निसतरण ॥ श्रो० ॥ ५॥ नाविध नावय के धारक, दमविध पिनप सदा करण ॥ श्री० ॥ माया ममता दूर निगारी,
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
वृहत् पूजा संग्रह ज्ञान दान दे, सूरख थी पंडित करणं ॥ श्री० ॥ जगजीवनके हो प्रतिपालक, तुम विन अवर न आभरणं ॥ श्री० ॥ ७ ॥ विन कारण जग उपगारी, धन धन तुमरो आचरणं ॥ श्री० ॥ पंच परमेष्ठी महामंत्रको, इष्ट सदा दिलमें धरणं ॥ श्री० ॥ ८ ॥ धरम-विशाल दयाल पसाये, सुमति करे तुम नित वरणं ॥ श्री० ॥ नवनिध अडसिथ मंगलमाला, पूजत जगमें जस भरणं ॥ श्री० ॥ ६ ॥ ॐ ही परमात्मने सकल पाठक राजाय अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा । || अथ साधुपद पूजा ॥
॥ दोहा ॥ पंचम पदमें शोभता, साधु सकल गुणवंत । गुण सतवीस विराजता, महिमावंत महंत ॥ स्याम वरण मुनिवर कह्या, तप करवा अति सूर । भविक कमल प्रतियोधता, धरता निरमल नूर ॥
|| ढाल ॥ (चाल सदा सहाई कुशलसूरि०) सदा सहाई बीर पटोवर, सुणियो भविक उदार ॥ भलाजी गुरु, सु० ।। सुधरसा स्वामी अंतरजामी, तसु
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचपरमेष्ठी-पूजा
६६ घदन सुखकार ॥ भ० ॥ जंबू आदिक गुण के सागर, ते प्रणमुं हितकार ॥ भ० स० ॥ १ ॥ प्रभवादिक सय पांच उदारा, प्रतियोध्या सुखकार ॥ भ० ॥ सिज्जंभव आदिक जे सरि, तेहना शिष्य सुविचार ||भ० स०॥ २ ॥ थूलभद्र मोटो ब्रह्मचारी, दुक्कर दुक्करकार || भ० ॥ सिंह गुफा वासी जे मुनिवर, भापे दुक्कर कार ॥ भ० स० ॥ ३ ॥ वजकुमार बड़े उपगारी, प्रतियोध्या नर नार ॥ भ०॥ श्रीसिद्धसेन दिवाकर स्वामी, राखी जगमें कार भ० स० ॥४॥ विक्रम आदिक नृप अठारे, प्रतियोध्या सुखकार ॥ म० ॥ एक तीरथकु परगट करके, गुरु चरणा व्रतधार ॥ भ० स० ॥ ५ ॥ वलि जिनभद्र समामण कहिये, चूर्णी कारक जेह ।। भ० स० ॥ पन्नवणा चलि सूत्र ना कारक, श्यामाचारज तेह ॥ भ० स० ॥ ६ ॥ देवडीगणी ए सनमे मोटा, राख्यो ज्ञानज सार ॥ भ०॥ सूत्र ताडपत्रे घर राख्या, जेसलमेर मझार || भ० स० ॥ ७ ॥ अभयदेवसरि उपगारी, नव अग टीकाकार ॥ भ० ॥ हेमाचारज है चडभागी जिण कीनो हेमनो भार ॥ भ० स० ॥ ८॥ कुमारपालने जिण प्रतियोध्यो,
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह साखी धरमनो राख ॥ भ० ॥ श्रीजिनदत्तसुरीसर मोटा, श्रावक किया सवा लाख ॥ भ० स० ॥ ॥ रतनप्रभसरि उपगारी. ओस्यानगर मझार ॥ भ०॥ जिहांथी जेन धरम विसतरियो, मोटो कियो उपगार ॥ भ० स० ॥६॥ इत्यादिक गुणगणके दरिया, सेवो भविक उदार ॥ भ० ॥ ढंढण आदिक महा तपसूरा, नाम लियां जयकार ॥ भ० स० ॥ १० ॥ गजसुकमाल महामुनि बंदू, भाव करी इकतार ॥ भ० ॥ धन चन्ना अरू शालिभद्रजी, कीनी करणीसार ॥ भ० स० ॥११॥ खंधकसरिना शिष्य पाचसै, सूरवीर व्रतधार ॥ भ० ॥ पंचम पदमें ए मुनि पूजो, सदा हुवे सुखकार ॥ भ० स० ॥ १२ ॥ पंचम आरे छहडे होसी, दुपसह सूर दयाल ।। भ० ॥ इत्यादिक ए द्वीप अढोमें चंद् साध कृपाल ॥ भ० स०॥ धरम विशाल दयाल पसाये, पूज रची सुखदाय ॥ भ० ॥ सुमति कहे . ए पंच परमेष्ठी, कामधेनु कहवाय भ० स० ॥ १४ ॥
॥ ढाल दुजी ॥
(चाल-पणिहारीकी) सुण प्याराजी, सुणतां आसीस्वाद ॥ प्याराजी,
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचपरमेष्ठी-पूजा
१०१ धरम सनेही साधुजी ॥ सु० ॥ करता पर उपगार ॥ प्या० ॥ लालच लोभ न जेहने, सु० । नहीं राखे द्वप लगार ॥ प्या०॥ ममता माया छोडीने, सु०। धारे वा सुसकार | प्या० ॥ १॥ गाम नगर पुर पाटणे, सु० । करता धरम व्यापार ॥ प्या० ॥ राग द्वेष मुनिराजने, सु० ! नहीं कोई विपय विकार || प्या० ॥२॥ उपगारी सिर सेहरो सु० । कुमति करे परिहार प्या०॥ विन कारण मुनिराजजी, सु० । भन्य जीव हितकार ॥ प्या० ॥ ३ ॥ ज्ञानी ध्यानी सूरमा, सु० । महिमा करत नरेस ॥ प्या०॥ वाणी अमृत सारसी, सु० । सुणतां हरप हमेस || प्या० ॥ ४ ॥ अनेक जीव प्रतियूमिया, सु० । घरम तणा परधान ॥ प्या० || माया न करे साधजी, सु० । नहीं विकथा नहीं मान ॥ प्या० ॥ ५ ॥ पच महाव्रत धारता, सु०। पटकाया प्रतिपाल ॥ प्या० ॥ दोप वपालीस टालता, । सू० । ऐसे दीन दयाल || प्या० ॥ सुमति धारक पांच ने, सु० । गुपतिना रसपाल ।। प्या० ॥६॥ उद्देशक आदे करी स० । कृतकड़ने वलि दूत ॥ प्या०॥ सिज्यातर राय पिंड, स०। नहीं धारे अवधत ॥ प्या० ॥७॥ वासी विदल
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
वृहत् पूजा संग्रह ने टालता सु०। न लगावे कोई दोष || सु० प्या० ॥ कुवचन केहनो सांभली, सु०। न धरे मनमें रोष ॥ प्या० ॥ ८॥ मधुकरनी परे मालता सु० । ऊंच नीच कुलमांह ।। प्या० ॥ इर्यासमिति सोधता सु० । लेता धर्म नो लाह ॥ प्या० ॥ ६ ॥ जयणा कर कर चालता, लेवे निरस आहार ॥ प्या० ॥ लांघे भाडो दे देहने, सु० । अणलाधे तपधार ।। प्या० ॥ १० ॥ ओसर मोसर देखने, सु० । रस लंपट नहीं होय || प्या० ॥ किरिया करता साधुजी, सु० । आलस न करे कोय ॥ प्या० ११॥ परिषह जीते आकरा, सु० । करम हुवे सब दूर ॥ प्या० ॥ मुनिवर मधुकर सम कह्या सु० । दिन दिन वधते नूर ॥ प्या० ॥ १२ ॥ जंगम तीरथ सारिखा, सु०। धरम तणा आधार ॥ प्या० ॥ एहवा मुनिवर पूजतां, सु० ॥ पावे वंछित सार ॥ प्या० ॥१३॥ धरमविशाल दयालनो, सु० । सुमति कहे करजोड़ ॥ प्या० ॥ एहवा श्रीमुनिराजजी, सु० । मुझ माथेका मोड ॥ प्या० ॥१४॥ ॐ हीं परमात्मने सर्व साधुभ्यो अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचपरमेष्ठी-पूजा
॥ कलश ॥
॥दोहा॥ अब है पूजा कलशकी, सुणियो तुम नरनार । साभलता सुख पामसो, सफल हुसी अवतार ॥ ऐमी डारु मोहनी, सभा सहु हरखाय । सेनो जगतकी मोहनी, ए जग सार कहाय ॥ मन मांह सिरदार है, पचपरमेष्ठी एह । सरवारथ सिद्धी कयो, गणधर गौतम जेह ॥ जेहने एहनी आसता, तेहने एह सहाय । भागहोन निरयुद्धिक, होत नहीं फल दाय ॥
॥ ढाल प्रश्न तथा उत्तर ॥ चंगीमें चंगी, कौन जगतकी मोहनी, चगीमें चगी, जान जिणदपद मोहनी ॥ १ ॥ सुखी जगसमें कौन कहो मन भावना, सुखी वही ससार परमपद भावना ॥ २ ॥ सर देवनमें देव, बडो कुण जाणना। सर देवनमे देव, पडो जिन जाणना ॥ ३ ॥ सबमें मोटो कौन, कहो मेरो माजना। सबमें मोटो होय, क्षमा गुण साजना ॥ ४ ॥ सबमें मोटो ध्यान, कहो कोन साजना । सनमे मोटो
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
वृहत् पूजा-संग्रह ध्यान, शुकल तुम जाणना ॥ ५ ॥ धरम बड़ो जग मांहि, कहो कुण जाणना। दया धरम जगमांय, बड़ो हे साजना ॥ ६॥ सब रसमें रससार, कहो कुण साजना । सब रसमें चैराग, बड़ो तुम जाणना ॥ ७ ॥ सब रमणीमें सार कहो, कुण साजना। शिव रमणी है सार, सुनो मेरे साजना ॥ ८ ॥ दान बडो कुण होय, कहो मेरे साजना, अभयदान सिरदार, सनो मेरे साजना ॥ ६ ॥ शिवरमणीको नाथ, कहो कुंण साजना, शिव रमणीको नाथ, सरव सिद्ध जाणना ॥ १० ॥ धरममें मोटो कौन, कहो मेरे साजना, धरम मांह शुभ भाव, सुणो मेरे साजना ॥ ११ ॥ दाता कहिये कौन, कहो मन भावना, गुरु बड़े दातार, धरम धन पावना ॥ १२ ॥ मीठी जगमें कौन, कहो मन भावना, मीठी जिनको वाणी, धरो चित चाहना ॥ १३ ॥ मीठी दाख खजरके, मीठी चाहनी, जिणसे अधिकी होय, वाणी जिनरायनी ॥ १४ ॥ सब व्रतमें कुण सार. कहो मेरे साजना, सब व्रतमें व्रत सार, चौथो व्रत जाणना ॥ १५ ॥ खरतर गच्छपति चन्द, सूरीश्वर सोहता, सकल विमल गुण गेह भविक मन मोहता ॥ १३ ॥ प्रीतसागर गणि शिष्य सकल गुण
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
पंचपमेष्ठी-पूजा राजता, अमृतधर्म उदार वाचक पद छाजता ॥ १७ ॥ पाठकमें परधान क्षमा गुण सारता । तसू सुत धरम विशाल मुनिव्रत धारता ॥ १८॥ सुमति कहे गुण सार, भविक मन सोहता। बीकानेर मझार सकल मन मोहता ॥ १६ ॥ संघ सकल सुसदाय सेवो प्रभु भावस। पूज रची चित लाय अधिक चित चावसु ॥ २० ॥ सम्बत सय उगणीसके तेपन जाणीये, माहा सुद चवदस वार मंगल मन आणिये ॥ २१ ॥ भणतां गुणतां एह सदा सुख पामसे, घर घर मंगल माल हुवे जिन नामसे ॥ २२ ॥ इति पंचपरमेष्टी पूजा सपूर्णम् ॥
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री जिनहर्षसरि कृत ॥ वीसस्थानक पूजा॥ ॥ प्रथम अरिहंतपद पूजा ॥
॥दोहा॥ सुखसंपति दायक सदा, जगनायक जिनचंद । विधनहरण मंगलकरण, नमो नाभि नप नंद ।। लोकालोक प्रकाशिका, जिनवाणी चित धार । विंशतिपद पूजन तणो, कहिस्यु विधि विस्तार ॥ जिनवर अंगे भाखिया, तप जप विविध प्रकार । विंशतिपद तप सारिखो, अवर न कोई उदार ॥ दान शील तप जप क्रिया, भाव विना फलहीन । जैसे भोजन लवण विन, नहीं सरस गुण पीन । जे भवियण सेवे सदा, भावे स्थानक वीश । ते तीर्थकर पद लहे, वंदे सुरनर ईश ।।
॥ ढाल | (चाल-तीरथपति त्रिभुवन सुखदाई) श्रीअरिहंत पद१ सिधपद२ ध्यावो, प्रवचन
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१०७
आचारिज४ गुण गावो । स्थविर पचम पद पुनI रुवझाया तपसि७ नाण८ दसह मन भाया ॥१॥
॥ ऊलालो ॥ मनभाय विनया१० वश्यका ११ मल, शील१२ किरिया १३ जाणिये । तप१४ विविध उत्तम, पात्र १५ वेया, चच्च१६ समाधि१७ वखाणिये । हितकर अपूव नाग संग्रह १८, धरो मन सुजगोश ए| श्रुत भक्ति १६ पुनि तीरथप्रभावन२० एह थानक वीशफ ॥ २ ॥
॥ ढाल ||
एह थानक चीश जग जयकारा, जपता लद्दीये जिनपद सारा । करम निकदे विसवा वीशे, भाख्या जगतारक जगदीशे ॥ ३ ॥
॥ ऊलालो ॥
जगदीश प्रथम, जिणंद जगगुरु, चरम जिनवरजी मुदा । भन तीसरे पद, सकल सेवी, लही जिनपति सपदा ॥ बानीश जिनपर सकल सुखकर, इन्द्र जसु गुण गाइये | हग दोय त्रिण, महु पद जपीने, तीर्थपति पद पाइये ॥ ४ ॥
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ दोहा ॥ अरिहंतादिक पद सदा, भजिये तप करि शुद्ध । अति निर्मल शुभ योगता, करिके तसु गुण लुद्ध ॥ विमल पीठ त्रिक तदुपरे, ठविये जिनवर वीश । पूजन उपकरण मेलि करी, अरचीजे सुजगोश ।। एक एक ए पद तणो, द्रव्य पूज परकार । पंच अष्टविध जाणिये, सत्तर इगविस सार ।। अष्ट जातिना कलश करि, विमल जले भरिपूर । पूजो भवियण सहु मुदा, होय सकल दुख दूर ॥ सोहे सहु परमेष्ठिमें, जिनवरपद अभिराम । वेद४ निक्षेपे समरिये, वधते शुभ परिणाम ||
॥ राग देशाख ॥ (चाल-पूर्वमुखसावनं, ए देशी) सकल जगनायकं, परमपद दायकं, लायकं जिनपदं विमलभानं । चतुरधिकतीस३४ अतिशय अमल बारगुण१२ वचन पणतीस३५ गुणमणिनिधानं ॥ अइयो ॥ १ ॥ सुखकरण जिन चरण पद्मसेवित सदा, भमर सुर असुर नर हृदयहारी। एह जिनवर तणी आण पूरण सदा, दाम जिम जगतजन शिरसि धारी ॥ अइयो ॥ २॥ जिनप
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
वीसस्थानक-पूजा पददरस, पारस फरसते हुवे, प्रगट निज रूप परिणति विभास । तजिय बहिरात्म, गिरिसारता भवि लहे, अनुपम आत्मकांचन प्रकाशं ॥ अइयो ।। ३ ॥ हुवह जिनराज पद, जाप रवि किरणते, तुरत बहु दुरित भर तिमिर नाश । घनचिदानन्द वरकंदघन भवि लहे, तीर्थकरचरण कमलाविलासं || अइयो ।॥ ४ ॥ वर विवुध मणि लही काच लघु शकलकों, ग्रहण करवा कवण कर पसारे। तिम लही जिन चरण, शरण शुभ योगसे, अवर सुरशरण कुण हृदय धारे ॥ अइयो ॥ ५ ॥ प्रभु तणे पंच, कल्याण केरे दिने, प्रगट तिहु लोक में हुइ उजेरो । भविक देवपाल, श्रेणिक प्रमुख जिन नमी, बाधियो गोत्र जिनराज केरो ॥ अडयो ॥ ६ ॥ जेह त्रिण काल, नित नमें जिन हरखशु, तेह भरजल तरे जनम बाजे। अधिक भव यदि करे, तदपि निश्चय करी, सप्त चलि अष्टभव करीय सीमे || अइयो ॥ ७ ॥
॥ काय ॥ णमोणतविन्नाण सद्द सणाण, सयाणदिया सेसजतूगणाण || भवाभोज विच्छेयणं वारणाण, णमोरोहियाण वराण जिणाण ॥१॥ ॐ हो श्री अर्हद्भ्यो नमः अष्ट दन्यं यजामहे स्वाहा।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
११०
वृहत् पूजा संग्रह ॥ द्वितीय श्रीसिद्धपद पूजा ॥
॥दोहा॥ तनु त्रिभागके घटनतें, धन अवगाहन जास । विमल नाण दंसण कियो, लोकालोक प्रकाश ॥ अविनाशी अमृत अचल, पदवासी अविकार । अगम अगोचर अजर अज, नमो सिद्ध जयकार ॥
|| राग सोरठ ॥ (चाल-कुँदकिरण शशि ऊजलो रे देवा ) अनुभव परमानन्दशु रे वाला, परमातम पद चंदों रे। करम निकंदो बंदीने रे वाला, लहि जिनपद चिरनन्दो रे ॥१॥ गगन पएसंतर चली रे वाला, समयान्तर अणफरसी रे। द्रव्य सगुण परजायना रे वाला, एक समय विध दरसी रे ॥ २ ॥ एक समय ऋजुगति करी रे वाला, भए परमपद रामी रे। भांगे सादि अनंतमा रे वाला; निरुपाधिक सुखधामी रे ॥३॥ अखिल करममल परिहरो रे वाला, सिद्ध सकल
सुखकारी रे। विमल चिदानन्द धन थया रे वाला, वर - इकतीस गुण धारी रे ॥ ४ ॥ उत्पन्नता वलि विगमता रे
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक-पूजा वाला, ध्रुवता त्रिपदी संगे रे। प्रभुमें अनत चतुष्कता रे वाला, सोहे शमक्रम भगे रे ॥ ५ ॥ पनर भेदै ए सिद्ध थया रे चाला, सहजानंद स्वरूपी रे ॥ परम ज्योतिमें परिणम्यारे घाला, अव्यावाध अरूपी रे ॥ ६॥ जिणवर पण प्रणमैं सदा रे वाला, एहने दीक्षा अवसरे रे । तिण प्रभुपद गुणमालिका रे वाला, कठं धरिये सुपरे रे ॥ ७ ॥ हस्तिपाल भवि भगतिशुरे वाला, सिद्ध परमपद भजिने रे। पद श्रीजिनहरसे लयो रे वाला, परगुण परणति तजिने रे ॥८॥
॥काव्य ।। लोगग्गभागोपरि संठियाण बुद्धाणसिद्धाण मणिदियाण | निस्सेस कम्मख्खय कारगाण, णमोसया मगल धारगाण ॥१॥ ॐ हीं श्रीसिद्धेभ्यो नमः अष्ट द्रव्य यजामहे स्वाहा ॥ २ ॥ || तृतीय प्रवचनपद पूजा ॥
॥दोहा ।। पद तृतीय प्रबचन नमो, ज्यू न भमो ससार । गमो कुमति परिणमनता, दमो करण भयकार | जेसे जलघर वृष्टिते, असिल फलद विकसाय । तैसे प्रवचनभक्तित, शुभ परिणति उलसाय ॥
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
वृहत् पूजा संग्रह
॥ श्री राग ॥
( चाल - जिनगुणगानं श्रुत अमृतं । )
प्रवचन ध्यानं सुखकरणं । परिहरिये सह विषय विकारं करिये प्रवचन आदरणं ॥ प्र० ॥ १ ॥ सप्त भंगि भूषित ए प्रवचन, स्यादवाद मुद्राभरणं । सप्त नयात्मक गुणमणि आगर, बोधिवीज उतपति करण ॥ प्र० ॥ २ ॥ जैसे अमृत पान करणतें, हुवे सकलविषसंहणं । तैसे I प्रवचन अमृत पाने, कुमति हलाहल प्रविसरणं । प्र० ॥ ३ ॥ प्रवचनको आधेय ए कहिये, सकलसंघ तसु अधिकरणं । तिण ए संघ चतुर्विध प्रवचन, ए पद अखिल कलुष हरणं ॥ प्र० ॥ ४ ॥ यदि भविजन तुम ए चाहतु हा, मुगति रमणिको वशकरणं | करण तीन इक करि तद करिये, प्रवचन पद समरण धरणं ॥ प्र० ॥ ५ ॥ जिनवरजी पण ए तीरथने, प्रणमे मध्य समवसरणं । भवजल तारण तरणि समानं, ए तीरथ अशरण शरणं ॥ प्र० || ६ || जिम भरतेसर संघ भगति करी, कहियो पुण्यफलाचरणं । चक्री पद अनुभवि वलि शिवपद, लीध करिय कर्म निर्जरणं ॥ प्र० ॥ ७ ॥ नरपति संभव जिनहरषे करि,
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा आराधी प्रवचन चरणं । करम निकदि थया जगदीसर, जिनप रमा उर आभरण || प्र० ॥ ८ ॥
॥ काव्य ॥ अणंत संसुद्ध गुणायरस्स, दुखसंधयारुग्गदिवायरस्स । अणंतजीवाण दयागिहस्स, णमो णमो सघ चउब्विहस्स ॥१॥ ॐ ही श्रीप्रवचनाय नमः अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा ॥३॥ ॥ चतुर्थ भाचार्य पद पूजा ॥
॥ दोहा ॥ पद चतुर्थ नमिये सदा, सूरीसर महाराज । सोहम जवू सारिसा, सकल साधु सिरताज ॥ सारण वारण चोयणा, पडिचोयण करतार । प्रवचनकज विरुपायवा, सइस किरण अवतार ।।
॥ राग रामगिरी ॥ (तर्ज-गान लूटे मनरंग सुरे वाला) आचारिज पद ध्याइयेरे पाला, तास विमल गुण गाइये। पाइये, हाहो रे वाला पाइये। जिनपति पद जगशिर तिलो रे || आ० ॥१॥ जिन शासन उननालता रे वाला, सकलजोर प्रतिपालता || पालता हा० ॥ पालता चरण करण मग चालवां रे ॥ आ० ॥२॥ सूरि सफल
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
वृहत् पूजा संग्रह गुण सोहता रे वाला, सुरनर जन मन मोहता ।। मोहता हां हो० भवियणने पडिवोहता रे ॥ आ० ॥ ३ ॥ पंचाचार विराजिता रे वाला, सजल जलद जिम गाजता ॥ गाजता हां हो० ॥ सूरि सकल सिर छाजता रे ॥ आ० ॥ ४ ॥ उपदेशामृत बरसता रे वाला, दुरित ताप सहु निरसता ॥ निरसता हां हो० ॥ परमातम पद फरसता रे ॥ आ० ॥ ५ ॥ धरम धुरंधरता धरा रे वाला, जगबांधव जग हितकरा ॥ हितकरा ॥ हां हो० ॥ स्वपर समय विद गणधरा रे ॥ आ० ॥ ६॥ पद श्रीजिनहरखे ग्रह्यो रे वाला, सूरीसर पद तप वह्यो। तप वडो हाँ हो । पुरुषोत्तम नृप शिव लह्यो रे ॥ आ० ॥ ७ ॥
॥काव्य ॥ कुवादि केली तरु सिंधुराणं, सूरीसराणं मुणिवन्धराणं । धीरत्तसन्तज्जिय मंदराणं णमो सया मंगलमंदिराणं ॥ १॥ ॐ हीं श्री आचार्येभ्यो नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥४॥ ॥ पंचम स्थविर पद पूजा ||
॥दोहा॥ द्विविध थिविर जिनवर कया, द्रव्य भाव परकार । लौकिक लोकोत्तर वली, सुणिये भेद विचार ॥
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोसस्थानक-पूजा जनकादिक लौकिक घिविर, लोकोत्तर अणगार । पचम पदमें जाणिये, द्वितीय थिविर अधिकार ॥
॥ गग मारंग ॥ नित नमिये घिविर मुनीसग । पंच महावत धारक पारक, कुमति जगत जन हितकाग । नि० ॥ १ ॥ संयम योगे गीदत पालक, ग्लानाटिक सहु मुनिवग । एहने उचित महाय दियणते, वारे एहना दुःसमरा ॥ नि० ॥ २ ॥ पर्याय वय श्रुत निविध ए घिविग, वीमा माठ ममो पग । वयधर ममनायाटिक पाठक, एह थिचिर गुण आगग | नि० ॥ ३ ॥ पीजे अङ्ग कया दम थिगि, रलयाना गुणधग । ते इह निर्मल भावे अहिना, मविक मगंज दियारा ॥ नि० ॥ ४ ॥ क्षीरजलधि मम अतिहि गमीग, मुरगिरि गुरु धीरज धग । गुग्णागत तारणता धाग, शान-पिमल जल मागर ॥ नि० ॥ ५ ॥ श्रुत तप भाग्न ध्यान धागने, द्रव्याटिक मातारा । तह म्वरुपग्मण या पिरिय, नाहिय धाल केगांग ॥ नि० ॥६॥ एर पिरिपट मी भगत, पदमोत्तम यमुधमग । पट मीनिन र निग लदियो, मुनिर समुद निशारुग
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
वृहत् पूजा संग्रह
॥ कान्य ॥ सम्मत्तसंयम, पतित भविजन, अतिहि थिर करता भला । अवगुण अदूषित, गुण विभूषित, चंद्रकिरण समुज्जला ।। 'अष्टाधिकादश सहस शीलांग, रथ रुचिर धाराधरा । भव सिंधु तारण, प्रवर कारण, नमो थिविर मुनीसरा ॥१॥ ॐ ही श्री स्थविराय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥५॥ || षष्ठ उपाध्याय पद पूजा ॥
॥दोहा॥ प्रवरनाण दरसण चरण, धारक यतिधर्म सार । समितिपंच त्रिण गुप्तिधर, निरुपम धीरज धार ॥ चरण कमल जेहनां नमे, अहोनिश सुर नर राय ।। जड़तागिरिदारण कुलिश, जयजय श्रीउवझाय ॥
॥ राग भैरव ॥ (तर्ज-पंच वरणी अंगी रची) भाव धरी उवझाया बंदो, विजयकारी । श्रीउवझाय परमपद वंदी, लहो जिनपद अतिशय धारी ॥ भा० ॥१॥ कुमति मदतरु भंजन सिंधुर, सुमतिकंद घन अवतारी । अंग दुवादस भणे भणावे, शिष्य भणी चित्त हितधारी ॥ भ० ॥ २ ॥ सकल सूत्र उपदेश दियणते, वाचक अति
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
पीसस्थानक पूजा
११७ विमलाचारी । भव पीजे अमृत सुख पावे, सुर असुरेन्द्र मनोहारी || भा० ॥३॥ हय गय वृप पंचानन सरिखा, करमकद वर तखारी। वासुदेव वासव नृप दिनकर, विधु भंडारि तुला धारी || भा० ॥ ४ ॥ जंयू सीता नदि कांचनगिरि, चरम जलधि ओपम भारी । ए ओपम बहु अतनी जाणो, उत्तराध्ययन कही सारी ॥ भा० ॥ ५ ॥ अमल पंचविंशत्ति गुण मणि निधि, सफल भुवन जन उपकारी। मशय तिमिर हरण वासरमणि, पाप ताप आतप वारी || भा० ॥ ६ ॥ प्रार संख पय भरियो सोहे, तिम ए जान चरण चारी। महेन्द्रपाल पाठकपद सेवी, लहियो जिनपद विजितारी || भा०७॥
॥ काव्य ॥ मनोहि पीबाल कारणाण, णमो णमो पायग वारणाणं । पुरोदि दती इरिणेसराणं निग्धोष सतार पयोहराणं ॥१॥ * ही श्रीउपाध्यायेभ्यो नमः अदम्य यजामहे स्वाहा॥६॥ ॥ सप्तम साधपद पूजा ॥
॥दोहा ॥ जागं जिनपाणी गरम, स्यादवाद गुणात । मुनि कहिये गिर पर्यने, माधे माधु कदत ॥
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
वृहत पूजा-संग्रह शमता रस जल झीलता, विशदानंद सुरूप । तिण पाम्या पद सप्तमे, नमो नमो मुनि भूप ।।
॥ राग गुंड मिश्रित भीम मल्हार ॥ (तर्ज-मेघ वरसे भरी पुप्प वादल करी) भक्ति धरि सातमे, पद भजो मुनिवरा, सुखकरा विजित इंद्रिय विकारा। गुण सतावीश, भूषण करि शोभिता, क्षोभिता विकट क्रम सुभट सारा ॥ भ० ॥१॥ चरणसत्तरि परम, करणसत्तरि धरा, शिव करण नाण किरिया प्रधाना। प्रतिदिने दोष, आहारना वरजिता, सप्त चालीश यति धर्म निधाना ॥ भ० ॥ २ ॥ मदन मद भंजता, कुमति जन गंजता, भक्त जन रंजता शांति भरिया । सुमति धरिया सदा, चरण परिया जना, तारिया ज्ञान गंभीर दरिया ॥ भ० ॥ ३ ॥ तृणमणि सम गिणे, चतुर विध धर्मना, परम उपदेश दायक उदारा। बहिरभ्यंतर भिदा, वारविध अति कठिन, तप तपे सकल जीउ अभयकारा || भ० ॥ ४ ॥ वलि अठाचीश, मनहरण गुण लन्धि निधि, सातमे छट्ट गुणठाण वसिया । सप्त भय वारका, प्रवरजिन आगन्या, धारका स्वगुण परिणमन रसिया ॥ भ० ॥ ५॥ पंच परमाद, कल्लोलताकुल महा,
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
वीसस्थानक-पूजा पार संसार सागर जिहाजा । विविध नव वाडि युत, शील व्रतके धरा, मधुर निज वाणि रजित समाजा ॥ भ०॥६॥ कोडि ना सहस थुणिये महा नवरा, वीरभद्र जिम करिय साधु सेवा । परमपद जिनहर्प सुग्रह्यो तसु तणा, चरणकज युग नमे सफल देवा ॥ भ० ॥ ७ ॥
॥काव्य ॥ संतज्जिया सेसपरीसहाणं, निस्सेस जीवाण दयागिहाण । सन्नाण पज्जाय तरूवणाणं, णमो णमो होउ तपोधणाण ॥ १ ॥ ॐ ही श्री सर्वसाधुभ्यो नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ ७ ॥ || अष्टम श्रीज्ञानपदपूजा ।।
॥दोहा॥ विमल नाण वर किरण किय, लोकालोक प्रकाश । जीत लही निज तेजसे जिण अनत रविभास ॥ सहु सशय तम अपहरे, जय जय नाण दिणंद । नाण चरण समरण थकी, विलयहोय दुस दद ॥
॥राग पाटो॥ (तर्ज-मेरो मन बस कर लीनो जिनवर प्रभु पास)
भावे ज्ञान बटन करिये, गिर सुससुर तरु कंद भा० जिनचन्द्र पद गुण धरिये, परिये परम आनद ।। भा० ॥१॥
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
वृहत् पूजा संग्रह मतिनाण श्रुत पुनखधि, मनपरजय जाण । भा० । । । लोकालोक भाव प्रकाशी, वर केवलनाण ॥ भा० ||२|| पंच ए इकावन भेदे, कह्यो जिनवर भान । भा० । जगजीव जडता छेदे, ज्ञानामृत रस पान || भा० ॥ ३ ॥ विन ज्ञान कीधी किरिया, होय तसु फल ध्वंस | भा० । भक्षाभक्ष प्रगट ए करिये, जिम पय जल हँस ॥ भा० ॥ ४ ॥ वर नाण सहित सुकिरिया, करी फल दातार । भा० । हुवो ज्ञान चरण रसिला, लहो भवजलपार ॥ भा० ॥ ५ ॥ ज्ञानानंद अमृत पीधो, भरतेसर महाराय । भा० । तिणसें अमृत पद लीधो, सुरपति गुण गाय ॥ भा० ६ ॥ सेवी ज्ञान जयंत नरेश, भये जिन महाराज | भा० । सोहे ज्ञानए त्रिभुवन में, सहु गुणपरि सिरताज भा० ॥ ७ ॥ ॥ काव्य ॥
छद्दव्व पज्जाय गुणुक्करस्स, सया पयासी करणोद्धुरस | मिच्छत्त अन्नाण तमोहरस्स, णमो णमो नाणदिवायरस ||१|| ॐ ह्रीं श्रीज्ञानाय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ ८॥
|| नवम दर्शनपद पूजा || ॥ दोहा ॥
दरिसण आश्रय धर्म्मनो, एहनां षट् उपमान । दरसण विण नहि चरणविद, उत्तराध्य जाण ॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१२९ जिनदरसण फरस्यो भलो, अंतर मुहुरत मान । अर्द्ध पुग्गल परियट रहे, तमु संसार वितान ॥
|| राग कामोद ॥
(तर्ज-चपक केतक मालती ए) जिणदरिसण मुझ मनवस्यो ए, अडयो मन वस्यो ए, उपजत परम आनन्द । जिनदरसण दरसण दिये, विमल नाण तरु कंद ॥१॥ दरसण मोह रिपु जीतिया ए ॥१०॥ वर सरसण उलसंत। दरसण घट परगट हुवा, भवियण भव न भमत ॥ २ ॥ जिनपर देव सुगुरु व्रती ए ॥ अ० ॥ केवलि कथित जिनधर्म । तीन तत्त्व परिणति रमे, ते दरसण करे शर्म ॥३॥ जिन प्रभु वचनोपरि सदा ए ॥ अ० ॥ थिर सरदहण धरत। इण लक्षणते जाणिये, समकितवत महंत ॥ ४ ॥ डग दुग ति चउ शर दस विहा ए, सत्तसठि भेदविचार ।। अ० ॥ वलि परीति समकित भण्यो, द्रव्य भाव परकार || ५ ॥ द्रव्ये जिण दरसण कयो ए॥ अ० ॥ भावे ममकित सार । द्रव्यत दरसण भावतो, दरसण कारण धार ॥ ६ ॥ द्रव्य दरस यदिगत वली ए ॥ अ० ॥ तदपि उत्तर हितकार । सय्यंभर जिनदरसणे, पायो दरसण सार ।॥ ७॥ दरसण विण किरिया इता ए
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ अ० ॥ अंक विना जिम विंदु । बलि हणियो विन चन्द्रिका, वासरमें जिम इन्दु ॥ ८॥ हरिविक्रम नृप सेवतो ए॥ अ०॥ दरसण पद अभिराम । पद श्रीजिनहरपे धर्यो, वधते शुभ परिणाम ||१||
॥काव्य ॥ अणंत विन्नाण सुकारणस्स, अणंत संसार विदारणस्त । अणंत कम्मावलि धंसणस्स, णमो णमो निम्मलदंसणत्स ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनाय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ ६ ॥ ॥ दशमी विनयपद पूजा ||
॥दोहा॥ विनय भुवन रंजन करे, विनये जस विसतार । विनय जीव भूषित करे, विनये जयजयकार ॥ विनय मूल जिनधर्मनो, विनय ज्ञानतरु कंद । विनय सकलगुण सेहरो, जयजय विनय समंद ।।
॥राग सामेरी ॥ (तर्ज-पूजोरी माई, जिनवर अंम सुगंधे) ध्यावोरी माई, विनय दशम पद ध्यावो। पंच भेद दश विध तेरस विध, वावन भेद गणेशे। बासठ भेद कह्या
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक-पूजा
१२३ आगममें, विनयतणा सुविशेपे ।। ध्या० ॥१॥ तीर्थकर सिद्ध कुल गण संघा, किरिया धर्म वरनाणा। नाणी आचारिज मुनि थविरा, पाठक गणि गुण जाणा ॥ ध्या० ॥२॥ ए अरिहादिक तेरस पदनो, विनय करे जे भावे । ते तीर्थकर पद अनुभविने, अमृतपद सुख पावे ॥ ध्या० ॥३॥ जिम कंचनमें मृदुगुण लाभे, नहीय कालिमा पावे। तिण ए सकल धातुमें उत्तम, नाम कल्याण कहाचें ॥ ध्या० ॥४॥ तिम-विनयीमें छे मृदुता गुण, कुमति कठिनता नासे । कृष्णादिक लेश्यानी मलिनता, जाये विनय गुण भासे ॥ ध्या० ५ ॥ दोय सहस अरु अधिक चिहुत्तर, देवनदन निरधारी । गुरुवंदन विधि नारसे चाण, मेद करी उर धारो ॥ ध्या० ॥६॥ तीर्थक्रादिकनो मन रंगे, विनय चरण शुभ घ्यायो । धन नामा भविजन शुभयोगे, पद जिनहर्प पायो || ध्या० ॥७।
कान्य ॥ आणढिया सेसजगज्जणस्स, कुदिंदु पादा मलतावणस्म। सुधम्म जुत्तस्न दयामयस्स, णमो णमो श्रीपिणयालयस्स ॥२॥ॐ हीं श्रीग्नियाय नमः अष्टद्रव्य
mar
॥
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
वृहत् पूजा संग्रह ॥ एकादशम चारित्रपद पूजा ||
॥दोहा॥ इग्यारम पद नित नमु, देश सरव चारित्र । पंक मलिनता दूर करि, चेवन करे पवित्र ॥ एह चरण सेवन करे, रंक थकी सुरराय । तीन जगतपति पद दिये, जसु सुर नर गुणगाय ॥
॥राग सारंग ॥ (तर्ज हां हो देवा वावन चन्दन घसि कु०)
चरण शरण मुझ मन हत्यो, सुख करण हरण घन पाप ए ॥ हां हो रे वाला || एह चरण जलधर हरे, अज्ञान तरुणतर ताप ए ॥ हां ॥ १ ॥ आठ कपाय निवारतां, देश विरति प्रगट हुने खास ए ॥ हां ॥ बार कषाय निवारिया, समविरति लहे गुणवास ए॥ हां ॥ २ ॥ इगवासर सेन्यो थको ; शुद्ध सर्व संवरचारित्र ए हां। परमानंद धन पद दिये, सुरलोक जनित सुखचित्र ए । हां ॥३॥ भवभय तरुगण छेदवा, ए संयम निशित कुठार ए ॥ हां ॥ ज्ञान परंपर करण छे, अमृत पदनो हितकार ए ॥ हां ॥४॥ चरण अनंतर करण छ. निवाण तणो निरधार ए ॥ हां॥ सरवविरति शुद्ध चरणसे ; पामे अरिहंत पद सार ए ॥ हां
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक - पूजा
१२५
|| ५ || वरस चरण परजायमे, अनुत्तर सुख अतिक्रम होय ए ॥ हां ॥ सतर भेद चारित्रना, कहिया जिन आगम जोय ए ॥ हां || ६ || देशथी सम सयम विपे, उज्जवलता अनत गुण थाय ए ॥ हां || अरुण देव सेवी चरणने, भये जगगुरु जिन महाराय ए ॥ हां ॥ ७ ॥
॥ काव्य ॥
कम्मोधकतार दवानलस्स, महोदयानन्द लयाजलस्स । विन्नाण पकेरुहकाणणस्त, नमो चारितस्स गुणापणस्स ॥१॥ ॐ हृीं श्रीचारित्राय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥११॥ ॥ द्वादश ब्रह्मचर्य पद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
सुरवरु सुरमणि सुरगनी, काम कलश अवधार । ब्रह्मचर्य इण सम कलो, कामित फलदातार । जिम जोतिषिया रजनिकर, सुरगणमे सुरराय । तिम सहु व्रत सिर सेहरो, ब्रह्मचरिजकहवाय ॥ ॥ राग काफी जंगलो || (तर्ज-भला प्रभुगुण चाल्दा हो)
भवभयहरणा शिवसुखकरणा, सदा भजो ब्रह्मचारा ( मैं वारी जाऊँ सदा० ) हो ॥ भ० ॥ शील निध तरु
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत् पूजा संग्रह प्रतिपालनकों, कहि जिनवर नववारा हो ||भ०॥ दिन्योदारिक करण करावण, अनुमति विषय प्रकारा हो ॥ भ० ॥ १॥ त्रिकरण जोगें ए परिहरिये, भजियें भेद अढारा हो ॥ भ० ॥ कनक कोडिनो दान दिये नित, कनक चैत्य करतारा हो । भ० ॥ २ ॥ एहथी ब्रह्मचरज धारकनो, फल अगणित अवधारा हो ॥ भ० ॥ सहम चोरासी श्रमण दान फल, सम ब्रह्मवतफल सारा हो । भ० ॥ ३॥ विजयशेठ विजया शेठाणी, उभय पक्ष ब्रह्मधारा हो ॥ भ० ॥ भये सुदर्शन शेठ शीलसे, मुगतिवधु भरतारा हो ॥ भ० ॥ ४ ॥ सहस अढार शीलांगरथ धारा, धार करो निसतारा हो । भ० ॥ सिंहादिक वसुभय तरु अंजन, सिंधुर मद मतवारा हो ॥ भ० ॥ ५ ॥ कलहकारि नारदऋपि सरिखे, तो भवजलधि अपारा हो ॥ भ० ॥ पच्चरखाण विरति नहि एहमें, ए ब्रह्मत्रत उपगारा हो ॥ भ० ॥ ६ ॥ सकल सुरासुर किन्नर नरवर, धरिय भगति हितकारा हो । भ० ॥ ब्रह्मचरज व्रतधर नरवरके, प्रणमे चरण उदारा हो ॥ भ० ॥७॥ दशमे अंगे भणियो नवर्मा, नरपति गुण आधारा हो ॥ भ०॥ ब्रह्मचरज व्रत पाल लयो पद, जिनहर जयकारा हो ।। भ० ॥ ८ ॥
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१२७ ॥ काव्य ॥ सग्गापवग्गग्ग सुहप्पयस्स, सुनिम्मलाणंत गुणा-लयस्स । सम्बन्चया भूपण भूपणस्स, णमोहि सीलस्स असणस्स ॥१॥ ॐ ही श्री ब्रह्मचर्याय नमः अष्टद्रव्य यजामहे स्वाह ॥१२॥ ॥ अथ त्रयोदशी क्रियापद पूजा ॥
॥दोहा॥ करम निरजरा हेतु है, अपरक्रिया गुण खाण । जिनशासननी स्थिति रहि, किरियारूपे जाण ॥ भुवनमाहि किरिया मही, सफल शुद्ध विहार । प्रवरनाण दरिसणतणो, शुद्ध किरिया सिणगार ॥
|| राग मालवी गौडी ॥ (तर्ज-सन अरति मयनमुदार धूपं ) शुम ध्यान किरिया हृदय धरोने, धर्म सकल उरधार रे। आर्त रौद्रनी हेतु किरिया अशुम पणनीस वार रे ।। शु० ॥१॥ ज्ञानात अशस्त्र मट है, किरिया शस्त्र वतस रे। सुमट नाणी क्रियाशस्त्रे, करे फर्म अरिध्वस रे ॥ शु० ॥२॥ ज्ञानसेति यदे शिव यदि, तेरमे गुणठाण रे । एकनाणं करि जिनेमर, किमु न लहे निरसाण रे ॥ शु० ॥३॥ जिनप शैलेशीकरण करी, चउढमे गुणठाण रे। सरस
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
बृहत् पूजा-संग्रह संवर चरण करणे, लहे पद निखाण रे ॥ शु० ॥ ४ ॥ ए अनंतर अमृत कारण, कह्यो जिनवर भाण रे । सव संवर चरण किरिया, न शिव इण विण जाण रे । शु० ॥ ५ ॥ एक नाणे इक क्रियामें, न शिव वितरण शक्ति रे। कहे जिनवर उभय योगें, लहे भविजन मुक्ति रे ॥ शु० ॥ ६॥ गरल मिश्रित सरस भोजन अशुभ परिणति धार रे । अमृत संयुत तेह भोजन, रूचिर परिणति कार रे ।। शु० ॥ ७ ॥ ज्ञानसहिता तेम किरिया, करि करे निसतार रे ॥ ज्ञान विणु किरिया न दीपे, मनोगत फलसार रे ॥ शु० ॥ ८॥ ज्ञान परिणत रमी किरिया, तेह किरिया सार रे। भयो हरिवाहन जिनेसर, शुद्ध किरिया धार रे ॥ शु० ॥ ६ ॥
॥ काव्य ॥ विशुद्धसद्धाण विभूसणस्स, सुलद्धि संपतिसुपोसणस्स । णमो सदाणतगुणपदस्स, णमो णमो सुद्धक्रियापदस्स ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीक्रियायैनमः अद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥१३॥ ॥ चतुर्दश तप पद पूजा ॥
॥दोहा॥ समतारत युत तपरुचिर, भणियो जिनजगभान । शिवसुर सुख चंदनफलद, नंदनविपिन समान ||
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१२६ सघन करम कानन दहन, करन विमल तप जान । विपिन धूमकेतन समो, जय तप सुगुणनिधान ।।
॥राग कल्याण ॥ (तर्ज-तेरी पूजा बनी हे रस मे) . मेरी लगी लगन तप चरणे ।। मे० ॥ सकल कुशलमें प्रथम कुशल ए, दुरित निकाचित हरणे ॥ मे० ॥१॥ जैसे गणधरकी जिन चरणे, चातक की जलधरणे ॥ मे० ॥ जैसी चक्रयाककी अरुणे, चकोरको हिमकर फिरणे ॥ मे० ॥२॥ जिनवर पण तदभर शिर जाणे, त्रण च: नाण सुकरणे || मे० ॥ तदपि सुकोमल करण चरणने, ठत्रय कठिन तप करणे ॥मे०॥३॥ कपट सहित तप चरणधरणते, वांछित फल नवि तरणें ॥ मे० ॥ नित ए दम रहित तपपदके, सुरपति गण गुण वरणे ॥ मे० ॥ ४ ॥ पोठ महापीठ मुनि मल्लीजिन, पूरव भव तप शरणे ॥ मे० ॥ रहिया तदपि कपट नचि छंड्यो, भये स्त्री गोत्रावरणें ॥ मे० ॥ ५ ॥
प्रहारी पांडा घनकरमी, छंड्या करमावरणे ॥ मे० ॥ तपसे शोम लही त्रिभुपनमे, केवल कमलाभरणे ॥ मे० ॥ ६॥ लास इग्यारह असी हजारा, पचसय शर दिन
ma
...
..
mrt 2
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
बृहत् पूजा संग्रह
शिव धरणें || मे० ॥ ७ ॥ तप करियो गुणरयण संवत्सर, खंधक शमता-दरणें ॥ मे० || चउदसहस मुनिमें कह्यो अधिक, धन्नो तप आचरणें ॥ मे० ॥ ८ ॥ वहिरभ्यंतर भेदे ए तप, वार भेद अधिकरण || मे० ॥ वसिने कनककेतु पाम्पो पद, जिनहरपे भवतरण || मे० ॥ ६ ॥
॥ काव्य ॥
लडी सरोजा वलितावणस्स, सरूवसंगग्ग सुपावणस्स । अमंगलानो कुहदुडवरस, णमो नमो निम्मल सत्तवस्स ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री तपसे नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥१४॥ ॥सुपात्रदानाधिकारे पंचदशम गौतमपद पूजा || ॥ दोहा ॥
गौतम गणधर पनरमे, पद सेवो सुप्रसन्न । वलि सहु जिन गणधर नमो, चौदेशे बावन्न || दान सकल जगवश करे, दान हरे दुरितारि । मनवांछित सहु सुख दिये ; दान धरम हितकारि || ॥ राग सोरठा ॥
(तर्ज- तेरी प्रीति पिछानी हो प्रभु
पनरम पद गुण गाना हो भवि । पनरम० । भाव धरी करिये मन रंगे, परम सुपात्रे दाना || हो भवि
मैं )
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
पोसस्थानक-पूजा
१३१ पनरम० ॥२॥ पात्र कह्या द्रव्य भार दुभेदे, द्रव्यलच्छन ए जाना ।। हो भवि प० ।। सर्वोत्तम जत्तम हुवे भाजन, रतनकनक रूपाना ॥ हो भवि प० ॥ २ ॥ मध्यम पात्र कहीजे एहवा, ताम्र धातु निपजाना ॥ हो भवि प० ॥ पात्र लोहादिक अपर जातिना, तेह जघन्य कहाना ॥ हो भवि प०॥३॥ भाव पात्रनो लच्छन कहिये, सुणिये सुगुण सयाना ॥ हो भवि प० ॥ पचम चरणधरे बलि वरते, क्षीणमोह गुणठाना हो भवि प० ॥४॥ रतनपात्र सम ते सर्वोत्तम, पात्र कयां जिन भाना हो भवि० प०॥ प्रार नाण किरियाधर मुनिपर, लाभालाभ समाना ॥ हो भघि प० ॥५। ते काचन भाजन सम कहिये, भाजल तारन याना || हो भवि प० ॥ शुद्ध मन द्वादस नत दरसन धर, तार-पात्र मम जाना ॥ हो भवि प० ॥६॥ शुद्ध समफिनधर श्रेणिक परमुस, रखा अविरति गुणठाणा ॥ हो भवि प० ॥ ताम्रपात सम एहने फाहिये, मारी गुणमणि साना ॥ हो भवि प० ॥७॥ अपर सफलजन मिथ्या दृष्टि, लोहादिक पात्र गिनाना | हो भवि ५० ॥ जिनशासन रगे रंगाना, याचयम सुप्रमाना ।। हो भषि प० ॥८॥ एहने दान दिया शिर लहिये, एह सुपात्र पहिचाना ॥ हो भवि प० ॥ पचदान दशदान निकरमें,
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत् पूजा-संग्रह अभयसुपात्र महिराना ॥ हो भवि प० ॥६।। नरवाहन शुभ पात्र दानते, भये जिनहरष निधाना ।। हो भवि प० ॥ शालिभद्र बलि सुरसुख लहियो, सुर नर करय वखाना ॥ हो भवि प० ॥१०॥
काव्य ॥ अणंतविन्नाण विभाकरस्स, दुवालसंगी कमलाकरस्स। सुलद्धवासा जरगोयमस्स, णमो गणाधीसर गोयमस्स ॥१॥ ॐ ही श्रीगौतमाय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा । ॥ षोडश वेयावच्चपद पूजा ॥
॥दोहा॥ सोलम पदमें जाणिये, वेवाच्च विधान । अखिल विमल गुणमणितणो, सोहेप्रवर निधान । जिन सूरि पाठक मुनि, बालक वृद्ध गिलान । तपसी चैत्य संघकी करो, यावच्च प्रधान ।।..
॥ राग जंगलो ॥ (तर्ज-मुने म्हारो कब मिलसे मनमेल दे० ) सेवो भाई, सोलमपद सुखकारी। श्रीजिनचन्द्र प्रमुख दशपद नो, करो वेयावच्च भारी ॥ १ ॥ श्रीतीर्थङ्कर . त्रिभुवन शंकर, अवर केवली हारी। मनपर्यवधर अवधि
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
पीसस्थानक पूजा नाणधर, चौदपूरव श्रुत धारी ॥ से० ॥२॥ दशपूर्वि उत्कृष्ट चरणधर, लन्धिवत अणगारी। ए जिन कहिये इन वदनते, भनि हुये जिन अतारी ॥ से० ॥३॥ जिनमदिर विम्म करिय भरावे, पूज करे मनुहारी। वेयावच्च कहिये ए जिनकी, करिये भवजलतारी ॥ से० ॥ ४ ॥ आचारिज परमुख नवपदकी, वेयावच्च विजितारी। भक्तिपूर्व वस्त्रोपध अनजल, देवे गुणविस्तारी ॥ से० || ५ | पंचसय मुनिनी करिय वेयावच्च, पूरवभव व्रतचारी। भरत बाहुबलि चक्रिपदभुन, वल लडो वरी शिवनारी ॥ से० ॥६॥ नंदिपेण सुलसा मुनिजनकी, करीय वेयावच्च सारी । तिनसे स्वर्गलोकमे दुईकी, भईय प्रशसा भारी ।। से० ॥७॥ इत्यादिक मोलमपद उधरे, बहुलभन्य क्रमजारी । तिनमें इन वेयावच्चपढकी, वारि जाउँ वार हजारो ।। से० ॥८॥ नृप जीमूतकेतु सोलमपद, सेवी भये दुसवारी। श्रीजिन हर्ष धरो हरिवंदित, शरणागत निसतारी से०॥६॥
|| काव्य ॥ मणण्णा सन्चातिसया सयाण, सुरासुराधीसर वदियाणं । रविंदु निनामल सरगुणाण, दयात्रशाण हि नमो जिणाण ॥१॥ ॐही श्रीजिनेभ्यो नमः अष्टद्रन्य यजामहे स्वाहा।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
वृहत् पूजा संग्रह ॥ सप्तदश समाधि पद पूजा ॥
॥दोहा॥ सतरम पदमें सेविये, सहु सुख करण समाधि । जिन सेवनते भविकनो, गमे व्याधि अरु आधि । ब्रह्मनगर पथि विचरतां, वर पाथेय समान । ए समाधि पद जाणिये, सुरमणि किये हैरान ॥
॥राग कहरवो ॥ (तर्ज-बाजे तेरा विछुआ रे वा० ) मेरो रे समाधि चरण वित बसियो, तसु गुण समरण कियो मनु वसियो । मे० ॥ सकल जगत जन जिनकुस्तवतुहे, अनुभवरंगे अतिहि विकसियो ।मे० ॥१॥ द्रव्यत भावत दुविध समाधि, सुरतरु मार्नु नित भुवन विलसियो । असन वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी करुणा रसियो ।। मे० ॥२॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुणिये, कहो जिन लोकालोक दरसियो। सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे ध्रममें हरसियो । मे० ॥ ३ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चुरण फरसियो। सकल संघको जो उपजावत, दुविध
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१३५ समाधि दुरित तसु नसियो । मे० ॥ ४ ॥ समिति पंच त्रण गुपति धरे नित, सुरगिरिवरनो धीरज करसियो । जगत जंतु अघ तपत हरण अनुभव अमृतधार वरसियो मे०॥।॥ शुकल अनिल कर्मेन्धन दाहत, जिनसे परगुण परिणति सिसियो । ए मुनितरणि तेज सम दीपत, अमृत सुखामृत्तपान तिरसियो | मे० ॥ ६॥ इन पदमें ऐसे मुनिजनके, समरनते हुय जग अवतंसियो। ए पद सेवी नृपति पुग्दर, भये जगपति जिन हरस उलसियो । मे० ॥ ७ ॥
॥काव्य ॥ सबिंदिया पारनिकारदारी, अझारणा सेमजणोवगारी। महामयातंकगणापहारी, जयो सदा शुद्ध चरितधारी ॥ १ ॥ ॐ ही श्रीचारित्रधारिभ्यो नमः अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा ॥ १७ ॥ ।। अष्टदशभपूर्वश्रुत ग्रहणरूप ज्ञान पूजा ।।
।दोहा ॥ श्रुन अपूर्व ग्रहिये मटा, अष्टादश पट भांहि । हण पद सेकक जन तणा, महु संकट भय जाहि ॥ जेमी उमति निशुद्धना, धार तप करि हाय । नत् अनन गुण शुद्धता, समानी की जोय ॥
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
वृहत् पूजा संग्रह
॥ काव्य ॥
(तर्ज - दिलदार यार गवल राखुं रे हमारा घट में ) जिनचन्द्र ज्ञान तेरा, महाराज ज्ञान तेरा हो जीते रे विकट भव भटने । सद्पूर्वज्ञान धरणा, वितरे जिनेन्द्र चरणा, करे सर्व कर्म हरणा | जी० ॥ १ ॥ जगमें महोपकारी, भवसिन्धु वारि तारी, कुमतांधता विदारी ॥ जी० || २ || सहु भावनो प्रकाशी, परम स्वरूप भासी, परमात्म सद्मवासी || जी० ||३|| बिन हेतु विश्ववन्धु गुण रत्न राशि सिंधु, समता पीयूष अन्धू || जी० ॥ ४ ॥ स्याद्वाद पक्ष गाजे, नयसप्तसे चिराजे, एकान्त पक्ष भाजे || जी० ||५|| लहि तीर्थ पाव तारा, इनसे जिनेन्द्र सारा, भविका किया उधारा || जी० || ६ || पद सेवि ए नरिन्दा, भये सागरादि चन्दा, जिनहर्ष के समन्दा || जी० ॥ ७ ॥
॥ काव्य ||
सुड क्किया मंडल मंडणस्स, संदेह संदोह विखंडणस्स | मुत्ती उपादाण सुकारणस्स, मोहि नाणस्स जसोधणस्स ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री ज्ञानाय नमः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा । ॥ एकोनविंशति श्रुतपद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
पाप ताप संहरण हरि, चंदन सम श्रुत सार | तत्त्व रमण कारण करण, अशरण शरण उदार ॥
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१३७ हगुनवीस पदमे भजो, जिनवर श्रुतनी भक्ति। इनपद बदनसे लहे, विमलनाण युक्त भुक्ति ॥
ढाल (तर्ज प्रजवासी कान त मेरी गागर ढोरी रे)
भविजन श्रुतभक्ति, चरण उर धरिये रे । ए श्रुतमक्ति सुमगल माल, विमल केवल कमला वरमाल || भवि० ॥१॥ सरल द्रव्यगण गुणपर्याय, प्रगट करण ए श्रुत मन माय ॥ भ० ॥ अतुल अनतकिरण समवाय, धरण तरणिगणतम कहिवाय ॥ भ० ॥२॥ ए श्रुत कुमति युवतिने संग अगणित रमणितणो करे भग ।। भ० ॥ अरथे भाख्यो श्रीजिनरास, ससे गणधर मुनि मिरताज ॥ म० ॥ ३ ॥ ए श्रूत मागर अगम अपार, अनत अमल गुणरयणाधार ॥ म० ॥ भवमय जलनिधि तग्ण महाज, निमुणि मगन मई सफल समाज || भ० ॥४॥ भवकोटी लगे तप करी जीर, सार्ना मरे जितनी सदोन ॥ म० ॥ कर्मनिरजरा जितनी होग, गानीके रक क्षणमें जाय ॥ भ० ॥ ५ ॥ एक मइम फोदि उसयकोडि, चतुरतीस कोडि अक्षर जोडि ॥ म. ॥ अमठि लापरु मात हजार, अटसप असीय प्रमिन निराधार || म० ॥६॥ इतने परनसे एक पद होय.
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
बृहत् पूजा-संग्रह एक श्लोकका गणित ए जोय ॥ भ० ॥ इक पद को परिमाण ए जाण, इण पदसे आगम परिमाण ॥ भ० ॥७॥ तीन कोडि अरु अडिसठि लाख, सहस चैयालिस ए पद भाख ॥ भ० ॥ इतने पदसे अंग इग्यार, करी गणना अवि चित्त धार || भ० ॥८॥ बारम दृष्टिवादको मान, असंख्यात पदको पहिचान || भ० ॥ इनको चौदपूरब इक देश, इसको पार लह्यो हे गणेश || भ० ॥६|| एह दुवालस अंग उदार, एहनी जाये नित वलिहार ॥ भ० ॥ एहनी द्रव्यभाव बहु भक्ति, करिये धरिये जिनपदयुक्ति ॥ भ० ॥१०॥ रत्नचूड नृप सुखमा धार, जिनश्रुत भक्ति करी हितकार ॥ भ० ॥ भथे जिन हरप परमपद दाय, जिनके सुर नरपति गुन गाय ॥ भ० ॥११॥
|| काव्य ॥ अन्नाणवल्ली वणवारणस्स, सुवोहिनीजांकुर कारणस्स । अणंतसंसुद्ध गुणालयस्त, णमो दयामंदिर सत्थुयस्स ॥१॥ ॐ ह्रीं श्रीश्र ताय नमः अष्टद्रयं यजामहे स्वाहा ॥ १६ ॥ ॥ विशति श्रीतीर्थपद पूजा ।।
॥दोहा॥ प्रावचनी अरु थर्मकथी, बादि निमित्ती जाण । तपसी विद्या सिद्ध पुनि, कवि एह मुनित्राण ॥
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक पूजा
१३६ माव तीर्थ प्रभुजी कह्या, प्रभाविक ए अष्ट । तीर्थ प्रभावन जे करे, ते फल लहे विशिष्ट ॥
॥ ढाल राग धन्याश्री ।। (तर्ज-तेज तरण मुख राज एहनी) तीरथ परमावन जयकारा ॥ ती० जिनसे भर सागर जल तरिये, ते तीरय गुण धारा || ती० ॥१॥ जिनके गण घर तीरथ कहिये, वलि सहु संघ सुखकारा । एह महा तोरय पहिचानो, यदि लहो भनपारा ॥ ती० ॥२॥ अडसठ लौकिक तीरथ तजि करि, भज लोकोत्तर सारा । द्रव्यमात्र दोय मेद लोकोत्तर, स्थिर जंगम भयहारा । ती० ॥३|| पुण्डरीक परमुख पच तीरथ, चत्य पंच परकारा। एह चा तीरय थापर कहिये, दीठां दुरित विदारा ॥ तो० men धीमीमघर प्रमुग धीश जिन, विरहमान भवतारा दोष कोटि केलि विसरता, जंगम तोथं उदारा । ती० ॥५। संघ चघि जंगम तोग्य, जिन शासन उजियारा । पर अनत गुग भूपण भूपित, निनको नमन जिनमाग ॥ ती० ॥६॥ ए नोग्य परमारन कग्धि, शुम भारत आधारा हिर कर जल शितितम पदकी, जाऊ प्रतिदिन
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
बृहत् पूजा-संग्रह गुणधर, सकल आगम सागरा । युगप्रवर श्रीजिनचंदरि, गुरु सकलसूरीसरा ॥ ४ ॥ तसु चरण कमलज युगलसेवन, अहनिशि मधुकरता धरी । पुन सुगुरुपद, अरविन्द युगनी, कृपा नित चित आदरी। गणधार श्रीजिनहरपमरी, हरपधरि घन अघहरी । या वीस पदकी, विविध पूजन, विधि तणी रचना करी ॥५॥
__|| विशतिस्थानक आरती ॥ (तर्ज-जिया चतुरसुजाण नवपदके गुण गाय रे) ।
पिया विंशतिस्थान मंगलआरति गाय रे। सुमतिप्रिया कहे चेसनपतिको, निसुण वचन मन भायरे ॥ पि० ॥१॥ यदि निजगुण परिणति तुम चाहिये, तिणको एह उपायरे ॥ पि० ॥ अरिहंत सिद्ध आचारिज पाठक, साधु सकल समुदाय रे ॥ पि० ॥ २ । इत्यादिक विंशति पद समरण, भवभय हरण विधाय रे, एह आरती अरतिवारती,
* अट्ठारसय तदुवरि इकोत्तर वरसभाद्रव मासए, परब विशद दशमी रविज वासर अजीमगंजपुर वासए, विंशति पदों की विविध पूजा विध तणि प्रति खासए। उवझाय शिवचंद्र गणियं लिखी मन उल्लासए ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीसस्थानक-पूजा
१४३ अनुपमसुर सुसदाय रे ॥ पि० ॥ ३ ॥ जैसे भगते करय आरतो, सफल सुरासुरराय रे । तसे भवि तुमे करो आरती, ए पदगुण चित लाय रे ॥ पि० ॥ ४ ॥ पचप्रदीपसे करय आरती, जे नितचित उलसाय रे । ते लही पंच चिदानन्दघनता, अचल अमर पदपाय रे ॥ पि० ॥ ५॥ पच प्रदीप अखंडित ज्योते, दुर्मति तिमिर विलाय रे । एह आरती तुरत तारती, भरजल निपतित धाय रे ॥ पि० ॥६॥ पद जिनहरप तुणी ए करणी, मनहरणी कहिवाय रे । चन्द्रविमल शिन सिधिनिधि धरणी, वरणी किण विध जाय रे ॥ पि० ॥ ७ ॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री बालचंद्रोपाध्याय कृत ॥पंचकल्याणक पूज ॥ प्रथम च्यवन कल्याणक पू
॥दोहा॥ ज्योतिरूप जगदीशनु, अदभुत रूप अनुप । प्रवचन प्रभुता प्रगट पण, जय जय ज्योति सरूप ।। चौबीसे जिनवर नमी, पंच कल्याणक रूप । शासननायक वरण, दर्शन ज्ञान सरूप ॥ कल्याणक ओच्छव करे, इन्द्रादिक जे देव ॥ ते भावे भविजन करे, श्रीजिनवरनी सेव ॥
॥ राग सरपदो॥ ज्योति सकल जगदीसना। हां रे जगदीसनी ए ।। चार निक्षेप प्रमाण । नाम जिनादिक जिन कथा, आगम मांहि प्रधान ॥
|| गाथा ॥ नाम जिणाजिण नामा, ठवण जिणाश्रो जिणंद पडिमाओ। दबजिणा जिण जीवा, भावजिणा समवसरणत्था ॥ १॥
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक पूजा
॥ढाल || विन कारण कारज नहीं, हां रे का० ए॥ ए सब लोक प्रसिद्ध । भार निक्षेप प्रधानता, कारज रूपे सिद्ध ॥ १ ॥ विण आकारे द्रव्यनो ॥ हां ॥ द्र० ए॥ नाम न होय विशुद्ध ॥ नाम गिना आकारनो, प्रगटपणो नवि बुद्ध ॥ २ ॥ नामादिक कारण सही ॥ हां ॥ का० ए॥ इन विन भाव न होय। भाव विशुद्ध जिनतणो, पूज करो सहु कोय ॥ ३ ॥ व्यवहारे निश्चय लहे || हां ॥ नि० ए० ॥ कारण कारज होय ॥ पावडशाला क्रम करी, सौध चढे सहु कोय ॥ ४॥
॥दोहा॥ ज्ञानकला कलितावमा, लोकालोक प्रकाश । व्यापकभावे घिर रयो, शुद्ध विकास विभास ||
राग-सारंग हाहो रे देवा जोति सकल जिनराजनी, सह लोकालोक प्रकाश ए। हांहो रे देवा राजत श्रीजिनराजजी, वाणी प्रवचन शुभवास ए॥१॥ हाहो रे देवा माता न नित शारदा, गुरु पंच कल्याणक सार ए। हाहो रे देवा तीर्थकरना वरण, गुण शास्त्र परपर धार ए ॥२॥
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ दोहा ॥ शासननायक जगधणी, त्रिभुवन पति परमेश। . पर उपगारी प्रभु तणा, गुण गावत सहु वेस ॥
॥ ढाल ।। हांहो रे देवा वीशथानक करि सेवना, बांध्यु जिन नाम प्रधान ए ॥ हांहो० दिव्य अमर सुख अनुभवे, प्राये प्रभु पुण्य प्रणाम ए ॥१॥ हांहो० निरमलतर वरज्ञानना, धारक कारक शुभयोग ए॥ हांहो० शब्द वरण रस गंधना, शुभ फरस तणा वर भोग ए ॥२॥ हांहो. शाश्वत सिद्वायण तणा, नित उत्सव करत सुरंग ए॥ हांहो० बालचन्द्र पाठक कहे, नित मंगल होय सुचंग ए ॥३॥
॥दोहा॥ पुण्य पूर्वभव प्रभु तणो, प्रगट्यो प्रगट प्रभाव । सुरकुमरी नित प्रति करे, नाटक नव नव भाव ॥
(तर्ज-पूर्व मुख सावनं ) । शुद्ध निज दर्शने, करिय गुणकर्षना, जिन-चरण सेवना विविधकारी । हे अईयो विविधकारी ॥ ए आं० ॥
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक पूजा १४७ एक जिन धर्ममय परम लय लीनता, दीनता सफल तज, रज निवारी ॥ हे अई० ॥र० ॥१॥ आत्मगुण अन्तरातमपणे वृत्तिता तजिय पहिरात्मजिन आण धारी ॥ हे अई० ||आ० ॥ २ ॥ शुद्ध सम्यक्त्व गुण, संपदा निज लही, सहीय शुद्ध धर्म रुचि, भास सारी ॥ हे अ० ॥ मा० ॥ ३ ॥ भानुजिम मलहले तेजपुजेकरी, प्रवर वपु भूपणे शोम भारी ।। हे अ० । शो० ॥ ४ ॥ विविध मणि रत्ननी जोती जगमग जगे, चन्द्रिका भास भासित करारी ।। है अ० ॥ भा० ॥ ५॥ प्रवर कुल शुद्ध राजन्य प्रमुख मुदा, आयुफर बंध नर भव सुधारी ॥ हे अ० ॥ न०॥६॥ गर्भ अवतार निज मात उदरे लहे, चाल शुभ लग्न शुभ योगचारी ॥ है अ० ॥ शु० ॥७॥ ५ सुपारी ५ पान एवं पुष्प व ईतर चढावें ।
॥दोहा॥ शुभदिन शुभ मुहूरत घडी, शुभ ऊँचे ग्रह चार । देवलोक चवि प्रभु लहे, मात उदर अवतार ॥ सुन्दरखर प्रासाद मांहि, मध्यनिशा जिनमात ।
समान aman
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
वृहत् पूजा-संग्रह राग काफी, घाटो चैति
(तर्ज-जिनजी हमें कछु दीज) जिनजी भजो भवि प्यारा, याते आनंद अधिक अपारा ॥ जि० ॥१॥ सुख सेज सूती जिन माता, देखे सुपना मन भाता। चित्त हरखित हुय तिण वारा ॥ जि. ॥२॥ गज वृषभ सिंह श्रीदेवी, वर पुष्प चन्द्र रवि सेवी । ध्वज कुम्भ पदमसर सारा ॥ जि० ॥ ३॥ वर क्षीरसमुद्र विमानं, रयणोच्चय मेरु समानं, निधूम पावक सुखकारा ॥ जि० ॥ ४ ॥ शिव धान्य मंगल श्रियकारी, जाणी अर्थ हृदय क्रमधारी, शुभसूचक पुण्य संमारा ॥ जि० ॥ ५ ॥ सुन्दर वर सखियन संगे, करिधर्म नागरिका रंगे, निशि शेष गई तिणवारा ।। जि० ॥ ६॥
ए भणी दो पुष्पमाला चढ़ाइये।
॥दोहा॥ परम पुरुष परमातमा, भावी भगवन भास । प्रवचन प्रगट करण प्रभु, पुण्य तणे सुप्रकाश ।
॥ राग सारंग ॥
(तर्ज-पूजा सतर प्रकारी) आज आनंद वधाई, भई त्रिभवनमें । चौदह सपन
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक-पूजा
१४६ सूचित गुण जेहनां, अवतरे माता उदरन में || आ० ॥१॥ नृपति सदन बहु सुपन शास्त्रविद, अर्थ विचार करि निज मनमें । पुत्र रतन फल वदत नृपति कुल, परम कल्याण होत जननमे ॥मा०॥२॥ प्रफुल्लित हरस भरत हिय उलसत, जिन जननी तात सुनी तनमें। दिन दिन वढत प्रवर धन जन मन, अधिक उत्साह घर घरनमें |आ०॥३॥ स्वर्ण रजत मणि माणक मोतिय, शंख प्रवाल शिल वरसन में । धनद धनदसुर इन्द्र हुकमते, भरत भंडार नृपसदनमें । आ० ॥४॥ ताल कसाल मध वीण बजावत, गारत गीत तान तननमें । दुन्दुमि मुरज मृदंग घन गरजत, गरज गरज मार्नु जैसे धनमें |आ०|||मुर नर लोक माहे अधिक उत्साह वाह, निशदिन होत जन जनपदनमें। इन्द्र इन्द्राणी नृप दोहद पूरत, मनोरथ होत जो जो मातु मनमें ॥ आ० ॥ ६॥ परम कल्याण शुभ योग सयोग भयो, शुभ घरि शुभ ग्रह शुभ दिनमें । घरण सके न ताहि कवि अवसरको, आनंद छायो तीन भुवनमें ॥ आ० ॥ ७॥ ॐ ही श्री परमात्मनेऽनंतानंतज्ञान शक्तये जन्म-जरा-मृत्यु निवारणाय च्यवन कल्याणक अष्ट
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५०
वृहद् पूजा-संग्रह
द्रव्यं यजामहे स्वाहा || इति प्रथम च्यवन कल्याणक
पूजा ॥ १ ॥
हीरा चढ़ावें पुष्प गुलाबजल वर्षा करे ।
॥ द्वितीय जन्मकल्याणक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ प्रगटे पतित पावन प्रभु, अधम उधारण काज । नृपकुलमा अवतरे, त्रिभुवनके शिरताज ॥ ॥ राग सोरठी ॥
आज अधिक आनन्द भयो रे वाला, आज सुरंग बधाई रे । आछो जगपति जिनवर जनमिया रे वाला, सुखधुबन मिल आई रे || १ || आछो आज आनन्द घन उलट्योरे देवा, दिशि कुमरी हरखाई रे । आछो दश दिश निर्मलता थई रे देवा, फूल रही वनराई रे || २ || आछो फूले फूली बनलता रे वाला, मधु मालती महकाई रे । आछो शालि प्रमुख सहु धान्यनी रे वाला, निपजी राशि सवाई रे ||३|| आछो नारकी जीवे नरकमां रे वाला, क्षण इक शाता पाई रे । आछो सव जन मन हरषित भयो रे बाला, भूमंडल छवि छाई रे ||४|| आछो शुभ मुहूरत
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचकल्याणक पूजा
१५१ शुभ घडी रे वाला, शुभ ग्रह शुभ पल आई रे। आछो जन्म थयो जिन राजनो रे वाला, प्रगटी पूर्व पुण्याई रे ॥५॥ ए भगी पुष्प तथा गुलाबजल की वर्षा फरें।
॥ सोरठो॥ त्रिभुवन मांहि सुरूप, जन्म समय जिनराजके । बार्जिन वाजत अनूप, सुरनर कृत उत्मन हुवे ।।
॥राग मोरठ॥ (तर्ज-रायग निरत यगावे हो भला ) आज आनंद पधाई रे, देखो आज आनंद पधाई। जय जयकार मयो जिनशामन, सुरकुमरी इरसाई रे ॥ दे० ॥१॥ पर पागोरी मगल गावत, मोतियन चौरु पुराई रे। ति उपद्रव भय सब भागे, सार समुढे जाई रे । दे० ॥२॥ आज सनाथ मपी है त्रिभुवन, जिनपर जनम्या भाई रे। आज अधिक जग हर्ष भयो है, धनधन मात कहाई रे गई०॥३॥ जन्म महोन्मर करनन सम, दिशिमरी मिल भाईरे। करि कटलीगृह मुन्टर रचना, पावन फर मार लाई ॥ दे० ॥ ४ ॥ जिनजननी जिनपर पय प्रगमी, मन्तक आग बढ़ाई है। स्नान करात उमप अरोरे,
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
वृहत् पूजा संग्रह तेलाभ्यंग कराई रे दे०॥५॥ भूषण भूपित अंग विलेपन, देवदूष्य पहराई रे, दर्पण ले मंगल घट थापी, चामर जुगल ढुलाई रे ॥दे० ॥ ६ ॥ पंच बरनके फूल सुगंधित, सुरकुमरी वरसाई रे । होम करी रक्षा पोटलिया, जिनवर करे बंधाई रे॥ दे० ||७|| संगल गावत जिन जगजननी, निजगृह माहे ठाई रे। सफल भयो निज आतम जाणी, दिशिकुमरी घर आई रे ॥ दे० ॥८ । स्वस्तिक करे चमर ढोले इन्द्र वने २ या ४
॥दोहा॥ अतिहि अधिक उत्सव करी, गई कुमरी जिन थान । इन्द्र हवे उत्सव करे, जन्म समय जिन जान ।।
|| राग गोड़ी सारंग मल्हार ॥ ___ (तर्ज-सांझ समे जिन वंदो) आज उच्छव मन भायो रे देखो माई। जगजननी जिन जायो रे ॥ दे०|आ०॥ त्रिभुवन माहि प्रकाश भयो है, इन्द्रासन थररायो रे ।।दे०॥१॥ अवधिज्ञान घर जिनजीकु निरखत, हृदय कमल उलसायो रे। हरिणगमेषी इन्द्र हकमसे. घंट सघोष घरायो रे॥ ॥ ॥२॥ रत
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक पूजा
१५३
नव नव रूप मनोहर, सुर समुदय मन भायो रे । सुरकुमरी वरभूपण भूपित, अद्भुत रूप बनायो रे || दे० || आ० ||३|| • नव नव यानवाहन रच सुखर, सुरगिरि शिसरे आयो रे । चौसठ इन्द्र करत अति उत्सव, मेघ घटा घररायो रे || दे० ॥ आ० || ४ || काली घटा वरदामनी चमकत, दादुर मोर सुहायो रे । अतिहि सुगंध पुप्पत्रज वरसत, मोतियनकी भर लायो रे || दे० ॥ आ० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
शक्र जाय जिनपर गृहे, जिनजननी जिनराज | प्रणमी श्रीमहाराजनको, भक्ति करे सुरराज ॥ ॥ राग कालिंगडो ॥
(तर्ज- सुन्दर नेमि पियारो माई )
तुम सुत प्रान पियारो माई तु० ॥ आंकणी । जगत्सल जगनायक निरख्यो, धन धन भाग्य हमारो माई || ० ||१|| धन जगजननी तुम सुत जायो, अधमउधारण हारो माई । धन धन प्रगट भयो जगदिनकर, त्रिभुवन तारनहारो माई || तु० | २|| सब सुर चाहत स्नात्र करनकु सुरगिरि प्रभुजी पधारो माई ॥ कर जोडी प्रभु
|
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
वृहत् पूजा संग्रह अरज करत हूँ, सब जन काज सुधारो माई ॥तु०॥३॥ मैं सेवक तुम सुत चरननको, आयो हूँ अधिकारो माई ।। इन्द्र कहे पदपंकज प्रणमु, भय सर दूर निवारो माई ।। तु० ॥ ४ ॥ पांच रूप करीप्रभुजीकु लावे, पांडुगवन सिणगारो माई || चोसठ इन्द्र महोत्सव करी है ; पूजन अष्ट प्रकारो माई ।। तु० ॥ ५ ॥
प्रभु प्रतिमा पंचतीर्थी अन्दर से लाचे सिंहासण ऊपर स्थापन करे, फिर स्नात्र पूजा करावे ।
॥दोहा॥ पंचरूप कर इन्द्र जिन, पंडुग वन ले जाय । सिंहासन उछरंग गहि, स्नात्र करे सुरराय ।।
(तर्ज-इतनो गुमान न करिये छबीली राधा हे)
जिनजी को पूजन करिये, हाँ रे हो रंगीले श्रावक हो ॥ जि० ॥ द्रव्य भाव बेहु भेदें करतां, भवसागर निस्तरिये ॥ जि० ॥१॥ गंगाजल चंदन पुष्पादिक, अडविध मंगल धरिये ॥ भाव विशुद्ध जिन गुण गावो, नाटक नवनव चरिये । जि०॥२॥ बहुविध प्रभुकी भक्ति रचावत, वर्नन कर भव तरिये। वो आनन्द देखे सोई जाने, दुःख सब दूरे हरिये ॥ जि० ॥३॥ पूजन करी प्रभुकु घर ल्यावे,
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक पूजा
१५५ आतम पुण्ये भरिये || करी अढाई महोत्सव आवत, सर सुर मिल निज परिये (जि० ॥४॥ ॐ ही श्रीप० अ० ज० जन्म कल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥ २॥ ॥ तृतीय दीक्षा कल्याणक पूजा ॥
॥दोहा॥ सुरकन उत्सव अति अधिक, भये अनंतर प्रात । माव पिता उत्सव करे, निज कुल क्रम विख्यात ॥ पार नहीं धनको जहाँ, अगणिव भरे भंडार । दान मनोपंछित दिये, दयावंत दातार ॥
॥ राग रामगिरी॥
(तर्ज-गान लहे.) जिन जन्म महोत्सव रंगसुरे, भये प्रात करत उछरंगसुंरे। हां रे देवा रगसु । नृपउत्सव करे अति घणो ॥ १ ॥ पुरजनम कुलकम करे रे देवा, जगजस कीरत विस्तरे । वि० घर घर उत्सब रंग में ||२|| मुखधु मिल सुरसगरे । सु० ॥ करे नाटक नवनव रंगमुं रे ॥ रंग। हारे बाललीला जिन संगमें ॥ ३ ॥ रूपातिशय शोभता रे ।। दे० ॥ इन्द्रादिक मन मोहता रे वाला || मो० ॥ विद्याप्रभु विस्मयता ॥४॥ परमप्रमोद प्रवीणवा रे देवा,
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५८
वृहत् पूजा संग्रह एम कही फूल चढ़ावे ।।
॥दोहा॥ दाता दीन दयाल प्रभु, देत संवत्सरी दान । दूर करे दारिद्र जग, त्रिभुवन मांहि प्रधान । (तर्ज-मरुदेवा नन्दनकी क्या छबि लागत प्यारी)
जगपति जिनवरकी, क्या छवि मोहनगारी । ज० ॥ मोहत प्रभुके मोहन रूपे, निरख निरख नरनारी ॥ क्या० ॥ १॥ भोग कर्म अन्तरायकर्म कछु, क्षीण भये निरधारी। दानसंवत्सर घन जिम वरसत, पृथ्वी प्रमुदितकारी ॥ क्या० ॥२॥ नवलोकांतिक देव सबे मिल, हाजर होय सुचारी। जय जय मंगल शब्द उचारत, धर्म गहो सुखकारी ॥ क्या० ॥३॥ दान धर्म शिवमारग प्रभुजी, प्रगट कियो हितकारी । दाता दोनदयाल जगतमें, जिन सम को सुविचारी ॥ क्या० ॥४॥ इन्द्रादिक सुरसुरी नर नारी, दीक्षोत्सव अति भारी। गान दान सनमान तान करि, प्रभुगति सकल सुप्यारी |क्या०॥ ५ ॥ तजि संसार लियो शुभयोगे, संयम सत्तर प्रकारी। मनपर्यव वर ज्ञान भयो तव, विहरत परउपगारी ॥ क्या० ॥ ६॥ ॐ ह्रीं श्री ५० अ० ज० श्री दीक्षाकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥३॥
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्यागय पूजा
१५४ ॥ चतुर्थ केवलज्ञान कल्याणक पूजा ॥
॥दोहा गनपर अव समूह रथ, पायक कोटाकोट । जिन दीक्षा महोत्सव मम, हाजर होय तिन ठोर ॥ इन्द्रादिक मुर अमुर नर; प्रभु कर प्रणाम । नरनारी आशीष दे, जय जर निभुवन माम ॥ नजि आश्रा मवर गहे, मयम मार निधान । सर मंमार वजी झी, भए अगगार प्रधान ॥
राग- स-गरी पूजा मणी है रस में)
घारी धारी धारी, जिन भये मंयमपद धारी । परन फमत परिहार्ग | जि० ॥पन गुमतिघर तीन गुरुविकर, सप जोगं मुगकारी ॥ जि० ॥ १ ॥ बीत लिये उपसर्ग पग्गिह, गमेना गामारी। मामग्रने निःप्राप भए, निगंग नियंकारी। वि०॥ २ || शोध मान माया सोग अरिंगन, परिपन मार्ग। पुपगम मिलेर
गुरु, निन्दन गरिसा जि. पेन पर प्रम मानी, गगन निगमगीमा परासी. निविदा
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
वृहत् पूजा-संग्रह
गुणक्षीर || पा०||३|| प्रातिहार्य अतिशय जिन संपद भयो अनुकूल समीर । दे उपदेश भविक प्रतिबोधत, वचनातिशय गंभीर || पा० ॥ ४ ॥ लोकालोक प्रकाश परमगुरु, कहि न सके मति सीर । पाठक विजयविमल परमातम, प्रभुता परम सुधीर || पा० ||५|| ॐ ह्रीं श्री परम० अ० ज० श्री केवलज्ञानकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा || बासक्षेप चढ़ावें
|| पंचम निर्वाण कल्याणक पूजा || इन्द्रादिक सुर सब मिली, तीन भुवन सिरदार । सब दरसी सर्वज्ञनी, महिमा करे अपार || (राग - वसन्त, चाल - अतुल विमल मिल्या अखंड गुणे भिल्या )
अतुल विमल प्रभुता प्रभुकी लख, चौसठ इन्द्र उच्छव धरे रे । चार प्रकार के सुर सब मिलकर समवशरण रचना करे ए ॥ अ० ||१|| रजत कनकवर रत्न प्रकारे, कनक रत्नमणि कंगुरे ए । वृक्षअशोक सिंहासन शोभित, तीन छत्र चामर दुरे ए ॥ अ० || २ || दुदुभि प्रमुख श्रवणसुख दायक, गहिर सुरे वाजित्र घुरे ए । जानुप्रमाण पुष्पधन वरसत, जलज थलज विकसित सुरे ए ॥ अ० ||३||
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६३
पंचकल्याणक - पूजा साधु साधवी श्रावक श्राविका, इन्द्रादिक सुरी सुखरे ए । नरनारी तिर्यग विद्याधर, द्वादश विध परिपद भरे ए ॥ अ० ॥ ४ ॥ भविजन धर्म तणे उपदेशे, योजनगामि मधुरगिरे ए । प्रतिपोधत चौमुस श्रीजिनवर, निज निज भाषा अनुसरे ए || अ० ॥५॥
॥ दोहा ॥ प्रगटपणे प्रभुकी प्रभा, प्रगट प्रकाशक रूप । प्रगटी प्रभुता परमसम, परमातम पद भूप ॥
( तर्ज - बिगरी कौन सुधारे नाथ बिन )
भूमंडल भविकमल विद्योधन, दिनकर सम जिनराया रे || भू० || अहूते इक कोडि अमरपद, पंकज भ्रमर लुभाया रे || भू० ||१|| ग्राम नगर पुर पट्टण विचरत, त्रिभुवननाथ कहाया रे । चौसठ इन्द्र करे जाकी सेवा, तन मन से लय लाया रे ॥ भू० ||२|| इन्द्राणी मिल मगल गावत, मोतियन चौक पुराया रे । सर्व जीव हितकारक प्रभुजी, निःश्रेयस मुसाया रे || भू० ||३|| भव जलनिधि निर्यामक जगगुरू, तारक सकल कहाया रे । शासननायक सघ सकलकु, प्रवचन तल सुनाया रे || भू०|| ४ || अनंत
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
वृहत् पूजा-संग्रह
गुणाकर प्रभुजी की महिमा, वरने को कविराया रे । पर उपकारक प्रभुके पाठक; विजय विमल गुण गाया रे । भू० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
निज निज भाषा भविकजन, तृपत न सुनतहि श्रोत । मीठी अमृत सम गिरा, समझत श्रम नहिं होत ॥ ॥ राग कहरखो ||
जिनंदवा मिल गयो रे, दोय चरणों पर ध्यान शुकल मन गहगयो रे || जि० ॥ ज्ञायक ज्ञेय अनंतनो रे, सब दरसी जिनचंद | सुरतरु सम जग वालहो रे, सेवत सुरनर इन्द | धर्म में लहलह्यो रे ॥ दो० ॥१॥ चौदम गुण थानक करे रे, आतम वीर्य अनंत । योग निरोधनकी क्रिया रे, सूखम बादरकंत । बंध सब टर गयो रे, सरव संवरभयो रे ||दो ० || २ || घन कर आत्मप्रदेशनो रे, कर शैलेशी कर्ण । कर्म सकल दूरे किया रे, जीर्णवृक्ष जिम पर्ण, मुक्ति पद जिन लह्यो रे || दो ० ||३|| ज्ञान क्रिया कर कर्मकोरे क्षय कर पर अनुबंध | निज आतम रूपे लह्यो रे, शाश्वत सुख सम्बन्ध, सिद्ध शुद्ध बुध थयो रे || दो ० ॥ ४ ॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचकल्याणक पूजा
॥दोहा ॥ अकल अगोचर अगमगम, सिद्ध भए सुविशुद्ध । परमातम प्रभु परमपद, चिदानंद अविरुद्ध ॥
॥ राग धन्याश्री ॥
(तर्ज-तेज तरणिमुस राजे) तेज तरणिसम राजे, प्रभुजीको ॥ ते० ॥ एक समय प्रभु ऊरध गतिकर, मुक्तिमहल सुविराजे ॥ प्र० ॥ ते० ॥१॥ सादि अनंत सदा शाश्वतवर, अनत महासुख छाजे। अचल अगोचर प्रभु अविनाशी, सिद्ध सरूप विराजे ॥०॥०॥२॥ निरुपाधिक निरुपम सुस प्रभुके, कहि न सके कविराजे । अजर अमर अक्षय अविकारी, सफलानंद सहाजे ॥ प्र० ॥ ३॥ सवत ओगणीसे तरोत्तर (१९१३), श्रावण शुदि पस राजे। श्रीजिनराजवणा गुण गाया, पंचमी दिवस समाजे ॥ प्र० ॥ ते. ॥ ४ ॥ श्रीविक्रमपुर नगर मनोहर, श्रीसघ सकल समाजे। पंच कल्याणक पूजा प्रभुकी, कीनो हित सुख काजे ॥ प्र० ते०॥५॥ श्रीसरतरगच्छ नायक लायक, युगप्रधान पद छाजे। जंगमगुरु भट्टारक पर थी, जिनसौभाग्य सुराजे
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा संग्रह ॥०॥०॥६॥ प्रीतिविलास धर्मसुन्दर गणि, अमृतसमुद्र सुभ्राजे । पाठक विजयविमल प्रभुके गुण, गावत घन जिम गाजे ॥ प्र० ॥७॥ हंसविलास प्रवरगणिवरकी, प्रेरणया सुसमाजे। श्रीजिनवरकी स्तवना कीधी, धर्म प्रभावन काजे ॥ प्र०॥०॥८॥ ॐ ही श्री प० अ० जन्मजरामृत्युनिवारणाय निर्वाणकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥
पंचकल्याणक पूजाकी आरती
॥ राग मालवी गोडी ॥ शुभ आरती प्रभुकी उदारचित्ते, करो भविक रसाल रे। प्रथम धूप सुगंध जिनक्, उखेवो जिननाल रे ॥ शु० ॥१॥ भाल निजकर तिलक सुन्दर, पहरपुष्प सुमाल रे । दक्षिणकर जिनराज जीके, कर आवर्त सुथाल रे ॥शु०॥२॥ यथासकते शुद्धभगते, करो दिल खुशियाल रे। द्रव्यभावे द्विविध पूजा, भविक भाव विशाल रे ॥ शु० ॥३॥ गुण अनन्त महन्त गावो, प्रभु परमदयाल रे । जन्म सफल करो भविकजन, कहे पाठक वाल रे ॥शु०॥४॥
-
-
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीसुगणचंद्रोपाध्याय कृत ॥ पंच ज्ञान पूजा ॥
|| प्रथम मतिज्ञान पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
वर्द्धमान जिनचंदकू, नमन करी पूज रचू भवि प्रेमसे, सांभलजो पाँच ज्ञान जिनवर कथा, मति श्रुत अवधि प्रधान । मनपर्यच केवल चडो, दिनकर ज्योति समान ॥ ज्ञान बडो ससारमे, गुरु बिन ज्ञान न होय । ज्ञान सहित गुरु चदिये, सुचि कर तनमन दोय ॥ वीर जिणद वखाणियों, नदी सूत्र मकार ॥ भन्य सदा अनुभव घरो, पावो सुख श्रीकार । निरमल गंगोदक भरो, कचन कलश उदार । श्रुत सागर पूजन करो, भान धरी भविसार ||
मनरंग |
उछरंग |
|| ढाल ||
( वर्ज - चित हरस घरी, अनुभव रंगे वीस परमपद से विये ) मति अतिहि भलो, सकल विमल गुण आगर, भवि
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
वृहत् पूजा संग्रह जन सेविये । आंकणी ॥ ए मतिज्ञान सदा नमिये, निज पाप सकल दूरे गमिये, मम शुद्ध करी निज गुण रमिये ॥ म० ॥ १ ॥ व्यंजन कर अवग्रह इम जाणो, चउ भेद करी मनमें आणो, इम भाखे श्रीजिन जगभाणो ॥ म० ॥२॥ अरथे करी भेद जिणंद आखे, पण इन्द्रिय मनकर प्रभु दाखे, मुनि मानस ते दिल में राखे ॥ म० ॥ ३ ॥ वलि षट् विध भेद ईहा कहिये, पट् भेद अपाय करी लहिये, षटू विध धारण भवि सरदहिये ॥ म० ॥ ४ ॥ इम भेद अठाइस भवि धारो, इम भाखे जिनवर सुखकारो, निश्चय व्यवहार ते अवधारो ॥ म० ॥५॥ वलि रतन जडित कंचन कलशे, भवि पूजन कर तन मन उलसे, चिदरूप अनूप सदा विलसे ॥म० ॥६॥ ए ज्ञान दिवाकर सम कहिये, इम सुमति कहे दिलमें गहिये, एज्ञानथी अनुपम सुख लहिये । म० ॥७॥ ॐ हीं श्री परमात्मने श्रीमतिज्ञानधारकेभ्यो अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥१॥ || द्वितीय श्रु तज्ञान पूजा ॥
॥दोहा॥ श्रुतधारक पूजन करो, भाव धरी मनरंग। उपगारी सिर सेहरो, भाखे जिन उछरंग ॥
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंच ज्ञान-पूजा
१६६ मृगमद चंदन वाससु, जो पूजे श्रुतअंग । अनुभव शुद्ध प्रगटे सही, पावे सुख अभंग ॥
॥ ढाल ॥ (तर्ज-नामिजीके नंदाजीसे लाग्या मेरा नेहरा)
श्रुतजानकी पूजाकर सीसो भवि सेहरा ॥ श्रु० ॥ विनय सहित गुरु वदन करके, लुल लुल पाय नमें गुरुदेवरा ॥श्रु०॥ तीन तीस आसातन टाली, भगत करे भवि गुणगण गेहरा ॥१०॥१॥ श्रीगुरु ज्ञान असंडित वरसे, ज्यू पावस मृतु बरसे मेहरा ॥ध्रु०॥ दश विध विनय करे श्रुत गुरुको, सेवे ज्यु अलि फूलने नेहरा ॥ १० ॥ २ ॥ गुण मणि रयण भयो श्रुतसागर, देस दरश हरखावे मेरा जियरा ॥ १० ॥ पूछन पायन वलि पलि करिये, सीमे पंछित ज्यु मुनि सेवरा ॥ १० ॥३॥ गुरु भगती जैसी गणघरकी, वीर कहे मुण गौतम सेहग ॥ श्रु० ॥ ऐसे गुरु भक्तिसे सीखो, ए श्रुतनान सकल मुख देहरा ॥ श्रु० ॥ ॥४॥ गुरु पिन और न को उपगारी, श्रीगुरुदेव नित गुणमणि जेहग ॥०॥ ऐसे गुरुकी कोरत फरके, मुमति घरो दिलमे गुण गेहरा ॥५०॥५॥
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ ढाल वीजी ॥ (तर्ज-नित नमिये थिवर मुनिसरा नि०) नित नमिये श्रुतधर मुनिवरा, नि० । अरथे श्रीजिनराज बखाणे, सूत्रे श्रीगुरु गणधरा ॥ नि० ॥ १॥ मेघधुनी जिम भवि जन सुणके, हरखे न्यू केकीवरा। अंग इग्यारे गुणमणि धारक, वारे उपांग उजागरा नि०॥२॥ जगत उद्धारण तूं परमेसर, सकल विमल गुण आगरा । छेद पयन्ना नंदी सेवो, मूल सूत्र भवि गुणकरा ॥नि०॥३॥ श्रुतधारी गौतम गुरु दीवो, पूरवचवद विद्याधरा। पहिलो आचारांग वखाणे, चरण करण गुण सुखकरा ।। नि० ॥ ४ ॥ दूजो खूयगडांग सुणोजे, भेदतिसय तेसठ खरा। तीजो ठाणांग सूत्र विराजे, सुणता पाप मिटे परा ॥ नि० ॥ ५॥ चौथो समवायांग सुहावे, अर्थ अनेक करीवरा। पांचमे भगवइ महिमा करिये, सहस छतीस प्रश्नधरा ॥नि०॥६॥ छट्ठो ज्ञाता अंग सुध्यावो धर्मकथा कहे जिनवरा । सातमो अंग उपासक कहिये, दश श्रावक प्रतिमाधरा || नि० ॥६॥ आठमे अंगे जिनवर दाखे, अंतगड़ केवली मुनिवरा । नवमे अंगे भवि सुन धारो, अनुत्तरवाइ शुभकरा ॥ नि० ॥ ८ ॥ प्रश्न विचार कह्या जिन दशमें, अंगुष्ठादिक शुभ
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७१
पंच ज्ञान पूजा तरा। अंग इग्यारमें जिनवर दासे, कर्मविपाक विविध परा ॥नि०॥६॥ वारमो अग जिणंद बसाणे, अतिशय गुण विद्याधरा । अक्षर श्रुत बलि सन्नी कहिये, सम्यक् भेद अधिकतरा ॥ नि० ॥ १० ॥ सादि भेद सपरजव लहिये, गम्यक् मेद सुणो नरा । अंग प्रविष्ट कहे जिनवरजी, मेद चवद सुणजो सरा ॥ नि० ॥११॥ इम जो श्रीश्रुतज्ञान आराधे, भाव भगत कर नहु परा, सुमति कहे गुरु ज्ञान आराधो, पछितपूरण सुरतरा ॥ नि० ॥ १२ ॥ ॐ हीं श्री पर० श्रीश्रुतज्ञानधारकेभ्यः अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा ॥ ॥ तृतीय अवधिज्ञान पूजा ||
॥दोहा॥ अगर सेल्हारस धूपसे, पूजोअवधि उदार । वोध वीज निरमल हुवे, प्रगटे सुक्ख अपार ॥ नवल नगीने सारसो, ज्ञान बडो संसार । सुरनर-पूजे भावसु, महियल ज्ञान उदार ॥
॥ ढाल॥ (तर्जे-निरमल हुय भजले प्रभु प्यारा, सब संसार) अवधिज्ञानको पूजन कर ले, ज्यू पावो भवपार सलूणा ॥ १०॥ ज्ञान बडो सख देण जातो. लपगारी सिरदार
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
- १७२
वृहत् पूजा-संग्रह सलूणा ॥ अ० ॥ १॥ भेद असंख कहे जिनवरजी, मूल भेद पर सार; सलणा। बड़माण हियमाण वखाणे, सूत्रे श्रीगणधार, स०॥०॥२॥ सुरनर तिरी सहु अवधि प्रमाणे, देखे द्रव्य उदार ; सलूणा । अवधि सहित जिनवर सहु आवे। थाये जग भरतार; स०॥०॥३॥ ज्ञान बिना नर मूढ कहावे । ढोर समो अवतार ; स०। ज्ञानी दीपक सम जग माहे पूजे सहु नरनार ; स० [अ०॥४॥ ज्ञानतणी महिमा जग माहे, दिन दिन अधिकी सार ; स० । मूलमंत्र जग वश करवाको, एहिज परम आधार, स० ॥ अ० ॥५॥ ज्ञाननी पूजा अहनिस करिये, लीजे बंछित सार, स० । ज्ञानने वंदी बोध उपायो, करम कलंक निवार, स० ॥ अ० ॥ ६॥ इत्यादिक महिमा भवि सुणके, पूजो अवधि उदार, स०। सुमति कहे भवि भाव धरीने, सेवो ज्ञान अपार, स०॥०॥७॥ ॐ ह्रीं श्री परमा० श्रीअवधिज्ञान धारकेभ्यः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥
|| चतुर्थ ज्ञान पूजा ॥
केतकी भाव
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंचं ज्ञान पूजा
१७३ मनपर्यव पूजा करो, विविध कुसुम मनरंग। महके परिमल चिहूदिशे, पामे सुजस अभंग ॥
॥ ढाल । (तर्ज-सेव॒जानो वासी प्यारो लागे मोरा राजिंदा)
जिनजीरो ज्ञान सुहावे म्हारा राजिंदा। जि० ॥ जिनजीरो ज्ञान अनंतो सोहे, कहतां - पार न आवे ।। म्हां० ॥ जि० ॥१॥ सन्नी नर मन परजव जाणे, ते मुनि शान कहावे; म्हा० । विपुलमतिने ऋजुमति कहिये, ए दुय मेद लहावे । म्हा० ॥जि०॥ २ ॥ अंगुल अढिए उम्गो देखे, ते ऋजु नाम धरावे ; म्हा० । सपूरण मानव मन जाणे तेही विपुल कहावे म्हा० । जि०॥३॥ मनगत भाव सफल ए मापे, ते चोथो मन भावे ; म्हां० । एहनी महिमा नित नित कीजे, तिम भवि नाम धरावे ; म्हा० ॥ जि. ॥ ४ ॥ जगजीवन जगलोचन कहिये, मुनिजन ए नित ध्याचे ; म्हां० । दीक्षा ले जिनवर उपगारी चोथो ज्ञान उपाये ; म्हा० ॥ जि० ॥ ६॥ मनका शंका दूर करत है, मुणता आण मनावे ; म्हा० । तनमन सुचिकर पूजन करले, जनम जनम मुख पावे ; म्हा० ॥जि० ॥६॥ विविध कुमुमसे पूजा करता, वोधि लता उपनारे ; महा। सुमति
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७४
वृहत् पूजा संप्रद
कहे भवि ज्ञान अराधो, श्री जिनदेव बतावे; म्हा० ॥ जि०
॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्री परमा०
श्रीमनपर्यवज्ञानधारकेभ्यः
अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ||
|| पंचम केवलज्ञान पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचम ज्ञान प्रधान | सकल भाव दीपक सदा, पूजो केवलज्ञान ॥ फल दीपक अक्षत धरी, नैवेद्य सुरभि उदार । भाव धरी पूजन करो, पावो ज्ञान अपार ॥
|| ढाल ||
( तर्ज - तुम विन दीनानाथ दयानिधि कोन खवर ले ) तु चिदरूप अनूप जिनेसर, दरसण की बलिहारि रे || तु ० ॥ निरमल केवल पूरण प्रगट्यो, लोकालोक विहारी रे । केवलज्ञान अनंतविराजे, क्षायक भाव विचारी रे ॥ ० ||१|| ज्योति सरूपी जगदानंदी, अनुपम शिव सुख धारी रे । जगत भाव परकाशक भानू, निज गुण रूप सुधारी रे । ||०||२|| सकल विमल गुण धारक जगमें, सेवत सब नरनारी रे, आत्म शुद्ध रूपी भविजन, गुण मणिरयण भंडारी रे || || ३ || केवल केवलज्ञान विराजे, दूजो भेद
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंच ज्ञान पूजा
१७५ न धारी रे। आतम भावे भविजन सेवो, जगजीवन हितकारी रे॥ तु० ॥ ४ ॥ अपर ज्ञान सब देश कहावे, केवल सरव विहारी रे। सर्व प्रदेशी जिनवर भासे, सासे श्री गणधारी रे ॥ तुं० ॥ ५ ॥ भए अयोगी गुणके धारक, श्रेणी चढी सुखकारी रे। अष्ट कर्मदल दूर करीने, परमातम पद धारी रे ॥ तु० ॥ ६ ॥ ऐसे ज्ञान घडो जगमाहे, सेवो शुद्ध आचारी रे ॥ सुमति कहे भविजन शुभभावे, पूजो कर इकतारी रे ॥ तुं० ॥ ७ ॥ फल अक्षत दीपक नैवेद्यसे, पूजो ज्ञान उदारी रे। पूजत अनुभव सत्ता प्रगटे, विलसे सुख ब्रह्मचारी रे ॥ तुं० ॥ ८॥ ॐ हीं श्रीपरमात्मने श्रीकेवलज्ञानधारकेभ्यः अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा।
॥ कलश ॥ (तर्ज-केसरियाने जहाजको तिरायो) अशरण शरण कहायो, प्रभु थारो ज्ञान अनन्त सुहायो । अ० ॥ मति श्रुति अवधि अने मनपर्यव, केवल अधिक कहायो। भन्य सकल उपगार करत है, श्रीजिनराज बतायो ॥ प्र० ॥१॥ सरतर गच्छपति चद्रसूरीश्वर, राजत राज सवायो । तेजपुञ्ज रवि शशि सम सोहे, देखत दिल
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७६
बृहत् पूजा-संग्रह उलसायो ॥ प्र० ॥ २ ॥ प्रीतिसागर गणि शिष्य सुवाचक, अमृतधर्म सुपायो। शिष्य क्षमाकल्याण सुपाठक, सद्गुरु नाम धरायो ।प्र०॥३॥ धरम विशाल दयाल जगतमें, ज्ञान दिवाकर ध्यायो। ज्ञान क्रियानो मूल जे कहीये, वत्वरमन मन भायो । प्र० ॥ ४ ॥ चीकानेर नगर अति सुंदर, संघ सकल सुखदायो । शुद्धमति जिन धर्म आराधक भगति करे मुनिरायो । प्र० ॥ ६॥ उगणोसे चालीसे वरसे, आसु सुदि वरदायो। ज्ञान विजयकारक सब जगमें, नित प्रति होत सहायो ॥५०॥६॥ सुमति सदा जिनराज कृपासे, ज्ञान अधिक जस गायो। कुशलनिधान' मोहनपुनि भावे, ज्ञान तणो गुण गायो । प्र० ॥ ७॥
. १-तत्वदीपक।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शिवचन्द्रोपाध्याय विरचित ।। ऋषि-भण्डल-पूजा॥ ॥ प्रथम जल पूजा ॥
॥ दोहा ॥ प्रणमी श्रीपारस विमल, चरण कमल चितलाय । ऋपिमंडल पूजन रचूं, वरविधि-युत सुसदाय ॥ नंदीश्वर मंदिर गिरें, शाश्वत जिन महाराज । अरचे अठ विध पूजसे, जिम समस्त सुरराज ॥ तिम चितजिनपतिगुणधरी, श्रावक समकितधार । विरचे जिन चौवीसकी, अठविधि पूज उदार ॥
॥ गाथा ॥ सलिल सुचन्दन कुसुमभरं, दीवगकरणंच धूवदाणं च । घर अक्षत नैवेद्य, शुभ फलं पूजाय अट्ठ विहा ॥१॥
॥दोहा॥ यह अठविधि पूजा करण, सुनिये सूत्र मझार । जे भवि विरचे प्रभुतणी, ते पामें भवपार ॥
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७८
वृहत् पूजा-संग्रह
प्रथम जिनेश्वर तिम प्रथम,
योगीश्वर नरराय |
प्रथम भये युग आदिमें, सकल जीव सुखदाय ॥
॥ राग देसाख ॥
(तर्ज - पूर्व मुख सावनं करि दशन पावनं ) विमलगिरि उदयगिरिराज शिखरो परे, तरुणि तर तेज दीपत दिणिन्दा | युगल धर्मवार करी धरम उद्योत किये, विमल इक्ष्वाकु कुल जलधिचन्द्रा ॥ १ ॥ मातमरु देवी वर उदर दरी हरिवरा, सकल नृप मुकुट मणि नाभिनन्दा | अखिल जगनायका, मुगति सुखदायका, विमल वर नाण गुण मणि समंदा || २ || वृपभ लांछन धरा, सकल भव भयहरा, अमर वरगीत गुणकुशल कन्दा । गहिर संसार सागर तरणि समधरा, नमत शिवचन्द प्रभु चरण चंदा ||३||
॥ काव्य ॥
1
सलिल चन्दन पुष्प फलनजे: सुविमलाक्षत दीप सुधूपकैः । विविध नव्य मधु प्रवरान्नकै, जिनममीभीरहं वसुभिजे ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री परमात्मनेऽनंतानंत ज्ञानशक्तये जन्म जरामृत्यु निवारणाय श्रीमत् ऋषभ जिने
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मडल-पूजा
१७६
न्द्राय जलं चन्दनं पुष्प धूपं दीपं नैवद्य फलं वस्त्रं
यजामहे स्वाहा ॥
॥ श्री अजित जिन पूजा || ॥ दोहा ॥ जयजिणद दिणद सम, लखि भविरुज विरुसात । परमानन्द सुकद जल, विजयामात सुजात ॥
॥ ढाल ॥ (तर्ज-आय रहो दिल बागमे प्यारे जिनजो इस ख्यालकी )
एक अरज अनधारियें, अजित जिन एक अरज अनधारियें || आणी || अजित जिनेसर, जग अलबेसर, करम निजर निहारिये । अजित जिन एक० । वारणतरण बिरुद सुणि तेरो, आयो शरण तिहारियें || अजित० एक० ॥ १ ॥ चरम सिंधु भाभय जल निपतित, चरण पतित मोहे तारिये । अजित० एक० | परमानन्द घन शिन वनितानन, काज मधुपान सुकारिये ॥ अजित० एक० ॥ २ ॥ चिर सचित घन दुरित तिमिर हर । तुम जिन भये तिमिरारिये । अजित० । कहे शिवचन्द्र अजित प्रभु मेरे एह अरज न विसारिये ॥ अजित० ॥३॥
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ काव्य ॥ सलिल चंदन ॥ ॐ हीं श्री प० श्रीमत् अजित-- जिनेन्द्राय जलं चन्दनं० यजामहे स्वाहा । ॥ तृतीय श्रीसंभव जिन पूजा ।।
॥दोहा॥ जय जितारि संभव सदा, श्रीसंभव जिनराज !! सकल लोक जिण जीतलिय, जीतो मोह समाज ।
॥ ढाल | (तर्ज-गंधवटी घनसार केसर, मृगमदारस भेलिय)
अपरिमित वर शिखर सागर, धार संभव कार ए। जिनराज संभव पाय वंदो, लहो भव जल पार ए । वलि जलधि जात सुजात कुञ्जर, कुम्भ भंजन जानिये । तसु, जनक नाम समान नामा, भए जिन उर आनिये ॥॥ जसु चरण पंकज मधुर मधुरस, पान लय लागी रह्यो । मिल कर सुरासुर खचर व्यंतर, भमर नित चित्तः ऊमया ॥ जसु चरण कमले प्लवंग लांछन, कनक सुवरन काय ए। सहु भुक्न नायक सुमति दायक, जननि सेना. जाय ए ॥ २ ॥ जसु मधुर वाणी जग वखाणी, तीस शर गुण धारिणी। संसार सागर भय भराभर, पतित पार
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मण्डल-पूजा
१८१ उतारिणी । स्याद्वादपक्ष कुठार धारा, कुमति मद तरुदारिणी। प्रभु वाणि नित शिवचन्दगणि के, हुवो मगल कारिणी ॥३॥
॥ काव्य ।। सलिलचदन० ॐ ही श्रीप० श्रीमत्मभाजिने० ॥ चतुर्थ श्री अभिनन्दन जिन पूजा ॥
॥दोहा॥ श्री चतुर्थ जिनवर सटा, पूजो मविचित लाय । भक्ति युक्ति सकट हरण, करण तीन शुद्धथाय ।।
॥राग सोरठ॥ (तज-कुद किरण शशि उजलो रे देवा) सर नदन जिनगरु रे व्हाला, अभिनंदन हितकामी रे। जगदमिनदन जयकरु रे हाला, दुरित निकंदन स्वामी रे ॥१॥ लोकालोक प्रकाशवा रे व्हाला, करता अविचल धामो रे। अपराध अरूपिता रे व्हाला, विमल चिदानद रामो रे ॥२॥ पछित पूरण मुरमणि रे म्हाला, ए प्रभु अतरजामो रे। ऐसे जिन महाराज रे झाला, शिश्चद्र नमे सिर नामी रे ॥३॥
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८२
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ काव्य ॥
-
सलिल० ॐ ही श्री प० श्रीमत्अभिनन्दन जिने ॥ पंचम श्रीसुमति जिन पूजा।
॥दोहा॥ पंचमजिन नायक न,, पंचसी गति दातार । पंचनाणवर विमल कज, वन विकसन दिनकार ॥
॥ राग कैरवो ॥ (तर्ज-बंशी तेरी वैरिणी बाजे रे) शुद्धभाव चित्तथिर धरिके रे, पूलो सुमति जिणंद । जिन भक्ति करण रसीला. लहो परमानंद ॥शद्ध भाव०॥२॥ जिनराज सुमति समंद, करे कुमति निकंद । प्रभुना चरणअरविन्द, वंदे असुर सुरिन्द ॥ शुद्ध० ॥ २ ॥ कनकाम तनु धुति सोहे, प्रभु सुमंगलानंद। करुणोपशम रस भरिया, वंद नित शिवचंद ॥ शुद्ध० ॥३॥
|| काव्य ॥ सलिलचंदन० ॐ हीं श्री ए० श्रीमत्सुमति जिनेन्द्राय जल०॥
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपि मण्डल-पूजा
१८३ ॥ षष्ठ पद मप्रम जिन पूजा ||
॥दोहा॥ हिव पष्टम जिनपर तणी, पूजन करो उदार । भविचित भक्ति धरी करी, सुख सपति करतार ।।
॥राग सारग ॥ (तर्ज पावन चंदन घसि कुम कुमा०) हां हो रे वाला पदमप्रभु मुख चन्द्रमा, नित सकल लोक सुखदाय ए ॥ हा० ॥ हरिसुर असुर चकोरडा, नित निरख रह्या ललचाय ए हा||१|| जिन मुख वचन अमृत वणो, जे श्रवण करे भवि पान ए ॥ हां० ॥ ते अजरामरता लहे, हरिगण करे जसु गुण गान ए हां||२|| धर नृप कुल नभ दिनमणि, प्रभु मात सुसीमा नद ए हां०॥ प्रभु दर्शनतें प्रति दिने, होज्यो शिवचन्द आनन्द ए॥हा॥३॥
॥कान्य ॥ सलिल० ॐ ही० श्री प० श्रीमद् पद्मप्रभु जिने ॥ ॥ सप्तम सुपार्श्व जिन पूजा ॥
॥दोहा ॥ श्रीसुपार्श्व सुरतरु समो, कामित पूरण काज । भो! भत्रिजन पूजो सदा. वसविधि पूल समाज॥
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ राग कल्याण ॥ (तर्ज-मेरा दिल लाग्या जिनेश्वरसे) मेरी लगी लगन जिनवरसे | मेरी ॥ जैसे चन्दचकोर भमरकी, केतकि कमल मधुरसे ॥ मे० ॥ एह सुपारस प्रभु भये पारस, गुणगण समरण फरसे ॥मे०॥ चेतन लोह पणौ परिहरके, हुय ले कंचन सरिसे ॥मे०॥१॥ ए प्रभु करुणाकरकुँ धरिल्ये, उर जिम कमल भमरसे ||मे०॥ जे भवि जिनपद लगन धरे तसु, नहीं भय मरण असुरसे ॥मे०॥ ॥२॥ मात पृथ्वी तनु जात तनु द्युति, सम शुभ कंचन सरसे ॥मे०॥ कहे शिवचन्द्र चित्त नित मेरो, रहो प्रभु पद लय भरसे ॥मे०॥३॥
॥ काय॥ सलिल० ॐ ही श्री प० श्रीमत्सुपार्य जिनेन्द्रायः । ।। अष्टम श्रीचन्द्रप्रभ जिन पूजा ॥
॥दोहा॥ अष्टम जिन पद पूजिये, विविध कष्ट हरनार । अष्ट सिद्धि नवनिधि लहे, जिन पूजन करतार ॥
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपि-मण्डल-पूजा
१८५ ॥ राग गुंड मिश्रित भीम मल्हार ॥ (तर्ज-मेव वरस भरी कुसुम बादल करी)
परमपद पूर्व गिरिराज परि उदय लहि, विजित परचंद्र दिनकर अनन्ता। चन्द्रप्रभु चन्द्रिका विमल केवल कला, कलित शोभित सदा जिन महन्ता ॥परम०॥१॥ कुमति मत तिमर भर हरिय पुन भूरि भवि, कुमुद सुख करिय गुणरयण दरिया । गहिर भवसिंधु तारण तरण तरणि गुण, धारि भव तारि जिनराज तरिया ॥परम पद०॥२॥ राखिये आज मेरी लाज जिनराज प्रभु, करण सुख चरण जिन शरण परीया। परम शिवचन्द्र पद पद्म मकरन्द रस, पान नित करण ततपर भरिया ।। परम पद० ॥३॥
॥ कान्य ।। सलि० ॐ ही श्री प० श्रीमचन्द्रप्रभु जिने० जलं० ॥ ॥ नवम श्रीसुविधि जिन पूजा ||
॥दोहा॥ सुविधि सुविधि समरण थकी, कामित फल प्रगटाय । अतिगहन ससार वन, बहुल अटन मिट जाय ॥
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ राग कामोद ॥ (तर्ज- चंपक कैतकि मालती ) सुविधि चरणकज चंदिये ए || अइयो चं० ॥ नंदिये अति चिरकाल । शिव तवारि निकंदिये ए, विवन कंद तत्काल ||१|| आज जन्म सफलो भयो ए ॥ हां अयो स०|| दीठो प्रभु दीदार | तनु मन हग विकसित भयो ए, जिम कज लखि दिनकार ||२|| अमृत जलधर वरसियो ए ॥ हां अइयो व० || भवि उरक्षेत्र मफार । दर्शन सुरतरु ऊगियो ए, शिव फलनो दातार ||३||
॥ काव्य ॥
सलिल० ॐ ह्रीं श्री श्रीमत्सुविधि जिते० ॥
॥ दशम श्रोशीतल जिन श्रोशीतल जिन पूजा || ॥ दोहा ॥
मुझ तन मन शीतल करो, श्रीशीतल जिनराय । तुम समरण जलधारसे, अंतर तपत
पलाय ||
॥ राग घाटो ||
"
(तर्ज- दादा कुशल सुरिन्द० )
मेरे दीनदयाल, तुम भये सकल लोक प्रतिपाल । सुणि शीतल जिनवर महाराज, चरण शरण धर्यो प्रभुनो
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपि-मण्डल पूजा आज ॥ मेरे दीन० ॥ न नमूसहु सविकारी देव, कर चरण कमलनी सेव ।। मे० ॥१॥ जैसे सुरमणि करतल पाय, कुण ल्ये काच सकल उलसाय ॥ मे० ॥ तुम सम सुरवर अवर न कोय, हेर हेर जग निरस्यो जोय ॥०॥२॥ प्रभु दर्शन जलधर घनघोर, लखिय नृत्य करे भविजन मोर ॥मा पढ शिवचन्द्र विमल भरतार, शिव वनिता वरे अति सुसकार ॥ मे० ॥३॥
। काव्य ॥ सलिल० ॐ श्री प० ही श्रीमतशीतल जिनेन्द्राय जलं ॥ ॥ एकादश श्री श्रेयांस जिन पूजा ॥
॥ दोहा ॥ श्रीश्रेयांस जिनेन्द्र पद, नदधु ति सलिलाधार । जे ने मज्जन करे, ते शुचि हुई विधुतार ।।
. . ॥राग ॥ (तर्ज-सोहस सुरपति वृपभ रूप करि न्हवण)
श्री श्रेयास जिनेश्वर जगगुरु, इन्द्रियसदन सभद है। जसु वसु विध पूजनसे अरचो, उर धरि परमानन्द है। ए समकित धर श्रावक करणी, हरिणी भविमन रग हे।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
वृहत् पूजा-संग्रह विजय देव जिन प्रतिमा पूजी, जोवाभिगम उपांग हे ॥ श्री० ॥ १॥ सुरियाम प्रभु पूजन करियो, रायपसेणी उपांग हे। ज्ञाता अंगे द्रौपदी श्राविका, पूज्या जिन प्रतिबिम्ब है। जे निन्हन कुमति जिन पूजन उत्थापे तेह अनंत हे। काल अनंत भमसी भव वनमें, मंदमती भय भ्रान्त हे ॥ श्री० ॥ २ ॥ विष्णु मात तनु जात विष्णु नृप, विमल कुलांवर हंस हे । सकल पुरन्दर अमर असुरगण, शिव वरि प्रभु अवतंस हे। इम सुरखरनी परे-श्रावक जे, पूजे जिन उछरंग है। ते शिवचन्द्र परम पद लहिस्ये, निश्चय करि भव भंग हे ॥ श्री० ॥३॥
॥ काव्य ॥ सलिल० ॐ हीं श्री प० श्री श्रेयांस जिनेन्द्राय० ॥ ॥ द्वादश श्रीवासुपूज्य जिन पूजा ॥
॥दोहा॥ हिन वारम जिनवरतणी, पूजन करिये सार । भाव भक्ति युत भत्रि सदा, द्रव्य भक्ति चितधार ॥
॥राग मालवी गौड़ी ॥ ( तर्ज-नव वाड़ सेती शील पालौ० ) सकल जगजन करत वंदन, जया नंदन सामि रे॥
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मण्डल-पूजा
૧૮
देवा० ॥ दुरित ताप निकद चंदन, परम शिवपद गामी रे ||१|| नृपति वर वसुपूज्य नृप कुल, विपिन नंदन जात रे ॥ देवा ० || सुहरि चन्दन नंद नदन, नद मदकिय घात रे || देवा० || स० || २ || वासुपूज्य जिनेन्द्र पूजो सकल जिन महाराज रे || देवा० || करत नुति शिवचन्द्र प्रभु ए निखिल सुर सिरताज रे || देवा० ॥ स० ॥ ३ ॥
॥ काव्य ||
"I
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमत् वासुपूज्य जिनेन्द्राय जलं० ॥ ॥ त्रयोदश श्रीविमल जिन पूजा ॥ दोहा ॥ विमल विमल प्रभु कर मुझे, मलिन कर्म करो दूर | वेश्म प्रभृ, रमिये सदा, मुझ उरमभि गुणपूर ॥
॥ ढाल ||
( वर्ज - सिद्धपक पद वो रे भ० )
विमल चरण वज चंदो रे || भविजन वि० ॥ चंदनसे आनन्दो रे || भवि० वि० ॥ जमु गणधर मुनिवर गण मधुर, सेवत पद अरविन्दो | श्यामा उदर मुकति मुक्ताफल, दर्मा नृप नंदो रे ॥ भ६ि० ॥ १ ॥ सहुजग मंदल विमल वरनकु, दिन शामन नभ चन्दो | उदय
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
वृहन् पूजा संग्रह
भयो भवि कुमुद विमवा, वर गुण रयण समंदो रे ॥
भवि० ॥
२ ॥ यदि भव बंध हरण भवि चाहो, प्रभु चंदो घन मय रूपी, नित चंदव
चिरनंदो | विमल चिदानंद शिवचन्दो रे || भवि० ॥ ३ ॥
॥ काव्य ||
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्री सत्वमल जिने० || ॥ चतुर्दश श्री अनंत जिन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
हिव चवदम जिन पूजता हरिये विषय विकार । सो भवियण सुणिये सदा, ए प्रभु सरणाधार ॥ || ढाल भैरवी ॥
(तर्ज - पंचवर्णी अंगी रची० )
पूज करणी प्रभुनी दुरित निवारो । दुरित० ॥ पू० ॥ अनंत तरणि हिस किरण तरुण तर, किरण निकर जीता है भारी । अनंत नाणवर दर्शन तेजे, प्रभु सुयशोदर है अवतारी ॥ पू० ॥ १ ॥ लोकालोक अनंत द्रव्य गुण, पर्याय प्रकट करण हारी । तातें अन्य युत जिन धरियो, अनंत नाम अति मनुहारी ॥ पू० ||२|| सिंहसेन नृप नंदन वंदन करते इन्द्रचन्द्र सुखकारी । '
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मण्डल-पूजा
१६१ मादि अनत भग स्थिति धरियो, पद शिवचन्द्र विजयधारी ॥ पू० ॥३॥
काव्य ।। सलिल० ॐ ही श्री १० श्रीमत्अनत जिने० जल० ॥ ॥ पंचदश श्रीधर्म जिन पूजा ॥
|| टोहा॥ भानुभूप पुल भानुकर, पनरम जिन सुएफार । शोभित मधु जग पिपिन जन, हरख फलट जलधार !!
॥ढाल॥ (न-धार माना तोरे यमति यने यनमारी)
धर्म जिनेवर घरम थुरघर, जगाधर जगपाला ॥ मैं चारिका मुनगा नंदन पाप निकटन प्रभु भये दीनदयाला मैं वारि०व०॥१॥ प्रभु धीरज गुण निरपि जम गरि, जिसीनो अचला धाग ॥ पा०॥ जिन गंगीता चरम निध लपि, फिय लोसन द्विारा 1 में यारि०धर्म ॥२॥ एमिनयन्न माग र मनने, लदि जिन पति अपनारा ॥20॥ परम चरि दल करि मयि लहिम्पो, पद शिरचंद्र दारा में पारित धर्म ॥३॥
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
वृहत् पूजा-संग्रह
। काव्य ॥ सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमत्धर्म जिने० जलं०॥ ॥ षोडश श्रीशान्ति जिन पूजा ।।
॥दोहा॥ अचिरा उदरे अवतरी, शांति करी सुखकार । मारि विकार मिटायके, नामर्यो शांति सार ॥
॥राग विभास ॥ (तर्ज-भावधरि धन्य दिन आज सफलीगणु)
शान्ति जिन चन्द्र निज चरण कज शरण गत, तरणि, गुणधारि, भववारि तारी। कुमति जन विपिन जनि, कुमति धन व्रतनि तति, छितिनि शितधार तखार वारी ॥ शांति० ॥ १॥ एक भव पद उभय चक्रधर तीर्थकर, धारिया वारिया विधनसारा । सकल मद मारिया, विमलगुण धारिया, सारिया भक्त चंछित अपारा ॥ शांतिः ॥ २॥ हरिण लंछन धरा, वर्ण सुवरण करा, सुरवरा हित धरा गत विकारा। मोहभट धरणिघर गण हरण वज्रधर, कुमुद शिवचन्द्र पद रजनिकारा ॥ शांति० ॥३॥
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि मण्डल- पजा
|| काव्य ॥
मलिल० ॐ ह्रीं श्रीं प० श्रीमत् शान्ति जिने० ॥
१९३
1
॥ सप्तदश श्रीकुन्थ जिन पूजा || ॥ दोहा ॥
मतरम जिनपर दीवसम, मझि भवसागर जाण । भक्ति युक्त नितपूजिये, लहिये अमल विनाण ॥
|| ढाल ||
(तर्ज- अरिहन्त पद नित ध्याइये )
कुथु जिणंद गुण गाइये || चारि० || मन चंछित फल पाइये रे । प्रभु समरण लय लाइये || वारि० ॥ भविभ तजि शिप जाइये रे ॥ कुंधु ॥ १ ॥ भन जलगत निज आतमा || वा० ॥ करुणा उर घरि ताइये रे । चरणकरण उपयोगिता || वा० ॥ ग्रहण करण कुं न्याइये रे || वा० || कु० ॥ २ ॥ ए प्रभु दर्शन जीवने ॥ वा० ॥ अनुमन रसनो दाइये रे । वर शिवचन्द्र विमल वधे, ॥०॥ दिन दिन शोभ सवाइये रे || कु० ॥ ३ ॥
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमन्कुथु जिने० ॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४.
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ अष्टदश श्रीभरनाथ जिन पूजा ।।
___- ॥ दोहा ॥ जिन अठारमो ध्याइये, भविजन चित्त मझार । करण तीन इक कर मुदा, प्रतिदिन जय जयकार ।।
॥राग वसन्त ॥ (तर्ज-संग लागोही आवे, कुग खेले तोसु होरी रे) .
नित विमल भक्ति से, अर जिनसे नित रमिये रे ॥ ॥ नित० ॥ निजगुण जिनगुण तुल्य करणकु, चंचल चित हय दमिये रे ॥ नि० ॥ १ ॥ सुमति युवति संयम उर धरिके, कुमति नारि संग गमिये रे। नि० ॥ अनुभव अमृत पान करणते, विषय विकृति विष वमिये रे ॥ नित० ॥२॥ जिनवर संग रमणं दव अनले, पंक सघन चन धमिये रे। कहे शिवचन्द्र जिनेन्द्र रमणसे, भववनमें नहीं भमिये रे ॥ नि० ॥३॥
. ॥कान्य ॥ सलिल० ॐ हीं श्री प० श्रीमत् अर जिने० ॥ । उनविंशति श्री मल्लिजिन पूजा ।।
॥दोहा॥. .. . . उगणीसम जिन चरणकज, भमरहोय लयलाय । सेवे तसुभवि भमरता, अगणित दुरित विलाय ॥
15
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मण्डल- पूजा || ढाल ||
(तर्ज- संभव जिन सुसकारी रे वा० )
1
मल्लि जिणंद उपकारो रे ॥ वाला मल्लि० ॥ हा रे वाला, चारो जाऊ चार हजारी रे || वाला मल्लि० || कुंभ नरेश्वर गगनांगण में सहस किरण अनवारी रे || वाला म० ॥ १ ॥ पूर्व भन पमित्र नरिन्द्र प्रति, बोधिसिन्धु भवतारी रे वाला । वेदत्रयो चिरही तनु धार्यो, सकल सघ सुखकारी रे || वाला मल्लि० ॥ २ ॥ सकल कुशल हरि चंदन सरुार, नंदन वन अनुकारी रे वाला । संघ चतुर्विध भूरि सवरगण, प्रणव चन्द्र मनुहारी रे ॥ वाला मल्लि० ॥ ४ ॥
॥ काव्य ॥
सलिल' ॐ ही श्री प० श्रीमत्मल्लि जिने० ॥
2
॥ विंशति श्रीमुनिसुव्रत जिन पूजा ॥
॥ दोहा ॥
१६५
11
पद्मोत्तर वर पद्मनद, गत पर पद्म समान । विंशतितम. जिन पूजिये, केवल लच्छी निधान ॥
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत् पूजा-संग्रह ॥ राम गरखो || (तर्ज-सुण चतुर सुजाण, परनारी सुप्रीति कबहु नहीं कीजिये ) सुनिसुव्रत जिनेन्द्र सुनिजर घरी मुझपर वर दर्शन दीजिये । प्रभु दरश प्रीति निरुपाधिकता, करिये लहिये शिव साधकता | तब तुरत मिटे शिव बाधकता ॥ ० ॥१॥ अमृत में साध्य पणो विलसे, प्रभु दर्शन साधनता उलसे । तद् मुझने साधकता मिलसे ॥ मु० ॥ २ ॥ भिन्नाधि करणता यदि विघटे, एकाधिकरणता यदि सुघटे । तद् मुझे शिव साधकता प्रगटे || सु० ॥ ३ ॥ एकाधिकरणता मुझ करिये भिन्नाधिकरणता परिहरिये । शिवचन्द्र विमल पद वरिये ॥ सु० ॥ ४ ॥
१६६
॥ काव्य ॥
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमतमुनिसुव्रत जिने० ॥
॥ एकविंशति श्रीनमि जिन पूजा || ॥ दोहा ॥
अंतर वैरी नमाविया, तब लहियुं नमि नाम | भविजन-ए प्रभु - पूजर्से, खरीये चंछित काम ॥
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऋषि-मण्डल- पूजा
|| ढाल ||
( तर्ज - हम आये है शरण तिहारे, तुम प्रभु शरणागत तारे ) श्रीनमि जिनवर चरण कमल में, नयन भमर युग
धरिये रे । तिण किय गुण मकरद पानसे चेतन मद मत करिये रे || वारि चेतन० || श्री नमि० ॥१॥ एह चरण कज अहनिश विकसे, परकज निशि कुमलावे रे | वा० प० ॥ ए न चले बलि तुहिन अनलसे, अपर कमल चल जावे रे || वा० श्री० ॥ २ ॥ ए पद कज गुण मधुरस पीवत, जीन अमरता पावे रे || वारि० || अपर कमल रस लोभी मधुकर, कजगत गज गिल जावे रे || वा० श्री० ॥ ३ ॥ परकज निजगुण लच्छिपात्र है, पदकज संपद् देवे । वार्ते पद शिवचन्द जिणिदके, अहनिशि सुरनर सेवे रे ॥ वा० श्री० ॥ ४ ॥
॥ काव्य ॥
सलिल० ॐ ह्रीं श्रीं प० श्रीमत्नमि जिने० ॥ ॥ द्वाविंशति श्रीनेमि जिन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ चानीमम जिन जगगुरु, ब्रह्मचारी - विख्यात । उण च चन्द्रत से tortu मिट जाते ॥
-
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ राग रामगिरी॥ (तर्ज-गान लूहे जिन मन रंगसु रे देवा) नेमि जिणंद उर धारिये रे ।। बाला| विषय : कषाय निवारिये रे ॥ वा० ॥ वारिये हां रे वाला वारिये । ए जिनने न विसारिये रे ॥ १ ॥ जलधर जिम प्रभु गरजता रे ॥ वा० ॥ देशना अमृत बरसता रे ॥ वा० ॥ देसना० ॥ वरसता हां रे वाला वरसता, भविक मोर सुनि उलसता रे ॥ २ ॥ समवसरण गिरि पर रखा रे॥ वा० ॥ भामंडल चपला वह्यारे ॥ वाला चपला वह्या ॥ हां रे च० ॥ सुरनर चातक उमद्या रे॥३॥ बोधिनीज उपजावियो रे ।। वा० ॥ भवि उरक्षेत्र वधावियो हां रे ॥ वा० वधावियो ॥ भविक मुगति फल पापियो रे॥४॥
॥ कान्य ।। सलिल चं० ॐ हीं श्री प० श्रीमत्नेमि जिने । ॥ त्रयविंशति श्रीपार्श्व जिन पूजा ॥
॥दोहा॥ अश्वसेन नंदन सदा, वामोदर खनि हीर। लोक शिखर शोभे प्रभु, विजित कर्म बड़वोर ।।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६६
पि-मण्डल-पूजा
|| राग.कहरवो ॥ (तर्ज-पान तेरा विधुआ वाजे) पास जिणंदा प्रभु मेरे मन वसीया ॥ पा० ॥ मेरे मन० ॥ शिवकमलानन कमल विमल कल, तर मकरद पान अति रसिया ॥ पास जि० ॥१॥ वामानन्दन मोहनी मूरत, सकल लोक जनमन किय वसीया ॥ पास जि० ॥ परम ज्योति मुखचन्द विलोकित । सुरनर निकर चकोर हरसिया ।। चकोर ह० ॥ पास जि० ॥२॥ अंजनगिरि तनु दुति जिन जलधर, देशना अमृतधार वरसिया ॥ धार० ॥ पास जि० ॥३॥ पीय करि भवि चिरकाल तिरसिया । मुगति युवति तनु तुरत फरसिया ॥ पास जि० ॥ कुमुद सुपद शिवचन्द्र जिणदनी । पारीजाउ मन मेरो अतिहि उलसिया ॥ पास जि० ॥ ४ ॥
॥कान्य ॥ सलिल' ॐ हीं श्री प० श्रीमत्यार्थ जिने० ॥ ॥ चतुर्विंशति श्रीवीर जिन पूजा ॥
॥दोहा॥ वर हल्वाकु कुल केतु सम, त्रिसलोदर अवतार ।' ए प्रभुनी नित कीजिये, विविध भक्ति सुसकार ।।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ राग धन्याश्री ॥
(तर्ज-तेज धरण मुख राज) चरम वीर जिनराया ॥ हां रे॥ जिनराया। मेरे प्रभु चरम वीर जिनराया। सिद्धारथ कुल मन्दिर ध्वज सम, त्रिशला जननी जाया। निरुपम सुन्दर प्रभु दर्शन तें, सकल लोक सुख पाया ॥ मेरे० ॥ १॥ वाम चरण अंगुष्ट फरसतें सुरगिरिवर कंपाया। इन्द्रभूतिगणधर मुख मुनिजन, सुरपति चंदत पाया ॥ हां रे मेरे० ॥ २ ॥ वर्तमान शासन सुखदाया, चिदानन्द घनकाया। चन्द्र किरण गुण विमल रुचिर धर, शिवचन्द्र गणि गुण गाया ॥ हां रे मेरे० ॥ ३ ॥ वरसनंद मुनि नाग धरणि मित, द्वितीयाश्विन मनभाया। धवल पक्ष पंचर्चाम तिथि शनियुत, पुरजय नगर सुहाया ॥ मे० ॥ ४ ॥ श्रीजिनहर्ष सूरीश्वर साहिब, वर खरतरगच्छराया क्षेमकीर्ति शाखा खूषण मणि, रूपचन्द्र उवझाया ॥ मे० ॥ ५ ॥ महापूर्वजसु भूरि नरेश्वर, वंदे पद उलसाया। तासु शिष्य वाचक पुण्यशील गणि, तसु शिष्य नाम धराया । मे० ।। ६ ! समयसुन्दर अनुग्रही ऋषिमंडल, जिनकी शोभ
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०१
ऋषि-मण्डल-पूजा समाया । पृज रची पाठक शिवचन्दे, आनन्द संघ वधाया ॥ मे० ॥ ७॥ सलिल० ॐ ही श्री प० श्रीमवार जिने० जल०॥
॥ स्नग्धरावृतं ॥ दुरिस्फार विश्नोत्कट करटि घटोत्याटन स्पष्ट जाग्रद । वीर्य प्राग भार चंचत् कुशल हरिदरी जित्वरी दुर्मताना । ससारापार सिन्धुत्तरण तरतरी भक्ति माजामजस्त्र । भन्यानां ब्रह्म पद्मप्रवण मधुकरी शकरी शंकरी सा ॥ १ ॥ लोकालोक प्रलोकास्पलित विमल सद्दर्शन ज्ञान भानुः। श्रीमज्जनेश्वरीय त्रिभुवन विभुताप्तिश्चतुर्विश-तिश्च । श्रीसिद्धानंत नाथालय विशदलसत् सर्व लोकाग्र माग | प्रसादान प्रदेशे जगति विजयते बैजयती जयती ॥ २ ॥
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण्डित कपूरचन्दजी कृत
॥ बारह व्रत पूजा॥ ।। प्रथम समकित व्रत दृढ़करण जल पूजा ।।
॥दोहा॥ व्रत वारे आदर करी, पूजा तेर विधान । आनन्दादिक संग्रही, सप्तम अंग प्रधान ॥
॥ ढाल ||
॥ राग सरपदो॥ (तर्ज-ज्योति सकल जग जागती हां रे अइयो जा.)
ज्योति विमल जग झलहले हां रे अइयो झलहले ए शासनपति जिनचन्द, त्रिकरण प्रणमन करि नमू॥ वीर चरण अरविंद ।। वी० ॥१॥ न्हवण १ विलेपन २ वासनी ३ हां रे० मालं ४ दोवंच ५ धूवणियं ६, फूल ७, सुमंगल ८ तंदुला ६ ए ॥ हां रे० ॥ अमलं दप्पणंच १० नेवज्ज ११, ॥२॥ ध्वज १२ फलवृन्द १३ ए मेलिये, हां रे अ० ॥ पूजा त्रिदश प्रकार । व्रत ग्रहि अणुक्रम अरचीये, जगपति जगदाधार ॥३॥ शिवतरु सुख फल स्वादनो, हां
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२०३ रे अ०, दायक गुणमणि खाण ॥ कुशल कला कलना थकी, प्रगटे परम निधान ॥ ४ ॥
॥दोहा॥ समकित व्रत धुर आदरो, मेटो निजमन मर्म । दूर थकी ए परिहरी, कुगुरु कुदेव कुधर्म ॥
॥राग रामगिरी ॥ (तर्ज-गात्र लहे। जिन मनरंग रे देवा ) धुर समकित चित में धरो रे बाल्हा, भव भय दुसदल परिहरो। परिहरो, हां रे वाल्हा प० । शिवरमणी पर लीजिये ॥ १॥ वीर जिनेसर चंदिये रे वाल्हा, जिम चिरकाल सु नंदिये । नदिये, हो रे बाल्हा नं ॥ कुमति दुरति सर कीजिए ॥ २॥ चरण करण गुणमणि निलो रे वाल्हा, जगजन तारण सिरतिलो |सिरतिलो, हां रे० सि० ॥ सदगुरु चरण नमीजिये ॥ ३ ॥ जिन भापित श्रुत सागरो रे वाल्हा, मेद विविधविध आगरो। आगरो, हां रे० आ० । श्रवण जुगल-कर पीजिए || जिनसासन जिनधर्मनो रे वाल्हा, राग दलन वसु कर्मनो, हां रे० क० । कुशल कला ग्म पीमिरे ||५||
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०४
वृहत् पूजा-संग्रह
॥दोहा॥ सकल करम दल मल हरण, पूजा धुर जलधार । जगनायक जिन तुङ्गनी, उर धर भगति उदार ॥
॥राग झिझीटी॥ (तर्ज-निरमल होय भन के प्रभु प्यारा, सव) जिनवर न्हवण करण सुखदाई, छूटे जनम मरण दुखदाई | जि० ॥ ए टे॥ खीरजलधि गंगोदक मांहे, अमल कमल रस सरस मिलाई ॥ जि० ॥ १॥ निरमल सकल परम तीरथ जल, मणि युत कंचन कलस भराई ॥जि० ॥ २ ॥ या जिनजीके न्हवण करणते, भव भय दुखदल दाघ समाई ॥ जि० ॥३॥ द्रव्य भाव विध समकित फरसे, ते नर नरक निगोद न जाई ॥ जि. ॥ ४ । याते भविजनके दुख नासे, कपूर कहे सुर होत सहाई॥ जि० ॥ ५ ॥
॥काव्य ॥ परमलंकृत संस्कृतश्रद्धया। स्नपति योजिनचन्द्रमिमंमुदा ॥ भवभयं परिमुच्य सदोदयं भजति सिद्धिपदं सुखसागरं ॥ १ ॥ ॐ हीं श्री परमात्मने अनन्तानंत ज्ञान शक्तये जन्म जरा मत्यु निवारणाय श्रीमत्समकितत्रत दृढ़करणाय जलं यजामहे स्वाहा ॥
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२०५
॥ द्वितीय प्राणातिपात विरमणव्रत चंदन केशर विलेपन पूजा ॥ || STET ||
प्राणातिपात विरमण व्रते, छंडो जंतु विनाश | इणसु शिवसुख ना मिले, हिंसा दोष विलास | ॥ उल्लालो ॥
तिहां दर्शनाण सुचरण अणसण | धीर वीरज जानिये । तप इम सकलाना सिद्धि गज-वसु, पणतिवार सुठानिये || अतिचार चार निवार इणपर, तुर्य गुणपद मानिये । गुण पंचमो तिमथूल प्रत्याख्यान मान वखाणिये ॥ १ ॥ ॥ राग चरखो ॥
(तर्ज- हम छाड चले बन माघो, राधा ) भविजन जीवदया व्रत धारो, सम परिणाम संभारो रे ॥ भ० || ढेर || अपराधी पिण जीव न हणिये, मासे जगदाधारो रे । देशविरतधर ने पिण भाख्यो, विन अपराध न मारो रे || म० ॥ १ ॥ - गो गज सेंधव महिसादिकने, बंधन वध न विचारो रे । कीजे न अवयन छेद निकाले, जलचारो न विसारो रे | ॥ भ० ॥ २ ॥ कोडी
}
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
वृहत् पूजा-संग्रह
कुञ्जरने सम गिणिये, सुख दुख जोग विकारो रे । थावर स पंचेंद्रियादिकनो, होय रहिये हितकारो रे ॥ भ० ॥ ३ ॥ ए व्रत रत चित जे नर जगमें, सुर नर गण मन प्यारो रे । तेहिज लोभ महाभट मार्यो, सकल करम परिवारो रे || भ० ॥ ४ ॥ थूल थकी ए व्रत जे पाले, ते लहे शिवसुख सारो रे । कुशलकला कलनाकर प्रगटे, अनुभव रंग उदारो रे || भ० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
भव दव दाघ सवे मिटे, पूजो परम दयाल | भावठ भंजन सुखकरण, दूजी पूज रसाल ॥ ॥ राग घाटो ॥
( तर्ज - जिनराज नाम तेरा, हो रा० )
पूजो जिनेन्द्र प्यारा, हो तारो रे विकट भव- जलसे ॥ हो० ॥ टेर ॥ हांरे घनसार चंदन वासे, हांरे सुकुरंगना
S
भिजासे । दुख नारकादि नासे ||
हो ता० ॥ १ ॥ घसि लूकडादि मेली, नाना सुगंध मेली, शिव देन कर्म ठेली || हो ता० ॥२॥ पूजा सदा रचावो, पर भावनापि भावो, शिव सौधसों समावो || हो ता० || ३ || विधि भाव द्रव्य
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२०७
धारो, हिंसा कुदोष वारो, प्रभु नाम ना विसारो
|| हो ता० ॥४॥ तज पाप भार फंदा, शिवशंकलाप कदा,
1
साधे कपूरचंदा || हो ता० ॥ ५ ॥
॥ काव्य ॥
अमल कुकुम केशर मिश्रितैश्चति यो घनसार सुचन्दनैः । जिनपतेर्युग पादसमर्चनं, स हरते भवदाघम सवरम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीपरमा० प्राणातिपात विरमणत्रत ग्रहणाय चदनं यजामहे स्वाहा |
तृतीय मृषावादविरमण व्रत वासक्षेप पूजा ॥ दोहा ॥
मृपात्याग व्रत दूसरो, कुमति दुरवि हरतार |
4
भविजन भावे आदरो, शिवतरु फल दातार ॥
वसन्त ॥
w
"
॥ राग वसन्त
(तर्ज- सब अरति मथन मुदार धूपं )
सुण भविक नर धर ' दुतियं व्रत मन, मृषावाद न
बोल रे, वाल्दा मृषा० ॥ टेर ॥ मृपावाद कुवाद शेखर, कुजसवाद न ढोल रे, 'वाल्हा कुज० सु० ॥ १ ॥ सकल शिनशख धामधरवि, ढकण राह निटोल रे । शिवपुर
f
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
वृहत् पूजा संग्रह नगर पथि शबर सरिखो, अरति व्यापन घोलरे ॥ वाल्हा अर० सु० ॥ २ ॥ निपट कूट कलाप करिने, पर गुप्त मत खोल रे । ऋण विधौ धन धान्य निकरे, कपट कूट न तोल रे ॥ वाल्हा कप० सु० ॥ ३ ॥ कूट लेख कुशाख भरिने, रचय मा डमडोल रे। अन्य शिरसि कलंक धरिने, चरित छांनु न बोल रे। वाल्हा चरि० सु० ॥४॥ वसुनरेसर वृथा रचिने, लह्यो कुगति कचोल रे। द्वितीय व्रत रस राग भाखी, कुशलसार विमोल रे ॥ वाल्हा कु० सु० ॥५॥
॥दोहा॥ जगदाधार जिनेन्द्रने, पूजो वास रसेण । शिव वनिता वस कीजिये, पूजा त्रयतमएण ॥
॥ राग गरयो॥ (तर्ज-भवि चतुरसुजाण परनारीखें, प्रीतड़ी कबहु न कीजिये ) ___ भवि भाव घरी भव सागर निसतारक जिन पति सेवीये ॥ भवि० ॥ टेर॥ बावनचन्दन खंडन करिये, तेहमा वलि कुङ्कम रस भरिये, मृगमद परिमलता अनुसरिये ॥ भ० ॥ १॥ कंकोल सुवासित वलि कीजे, तिम विविध
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
बारह व्रत पूजा
J
कुसुम रसकस दीजे, ए चरण विधि निज वशे कोजें ॥ भ० ||२|| इम वास रसे जे जिन पूजे, तिणसे सवि करम सबल घुजे, सुख संपत्ति जाय न घर दूजे ॥ भ० ॥ ३ ॥ सुर किन्नर नर शासन धारे, चिन समय सह सकट वारे, ए पूजन मन वछित सारे ॥ भ० ॥ ४ ॥ विमला कमला सनला पावे, जे प्रभु गुणगण भावन भावे, इन चन्दकपूर सुजस गावे ॥ भै० ॥ ५ ॥ -
4
॥ काव्य ॥
-मृगमदावरण मिति, स्वरास "सुचदनसस्कृतं ॥ विधति यो जिनपूजन मजमा, स लमते निभृति किल वामः ॥ ॐ ह्रीं श्रोपर - मृपात्रादत्याग व्रतधारणाय वासक्षेप यजामहे स्वाहा । .
॥ चतुर्थ अदत्तादान विरमणव्रत पुष्पमालपूजा ||
|| STET ||
त्रयमव्रत हित्र मिलो, भासे जगत जिनद | स्तेय करण मंत्र सुख हरण, अष्ट कर्मदलद || ॥ राग सोरठ ॥
Sury
·
हीरेवाला, पर धन हरण गर्मण करो, घरि त्रिकरण शुद्ध, विलास ए ॥ -हां हो रे घाला, ए मंजल
1
7
20
1
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
वृहत् पूजा-संग्रह
जलघर समो, वलि समकित वृन्द विनाश ए ॥ व० ॥ १ ॥ हां हो रे वाला, कनक रजत मणि धातुनो, जल, थल खज पशु पटकूल ए ॥ ज० ॥ हां हो० इम तनु थूल जगत भस्या, लही सकल पदारथ मूल ए || ल० ॥ २ ॥ हां हो० कुमति दुरति रमणी तणो, छे सदन ए चोरीनो कर्म ए ॥ छे० ॥ हां हो० विपद जलधि पिण जाणिये, सचपल थह नाशे धर्म ए ॥ स० ॥ ३ ॥ हां हो० ए व्रतः सुरतरु सारिखो, शिवसुख फल देन उदार ए ॥ शि० ॥ हां हो० ॥ कुशल कला युत कीजिये, लहीये भवजलनो
पार ए ॥ ल० ॥ ४ ॥
॥ दोहा ॥ पूज चतुर्थी मालनी, करिये भक्ति वसेण । मोह तिमिर भर उपसमे, प्रगटे बोध खिणेण ॥
॥ राग खंभायची ||
( तर्ज - भव भय हरणा, शिव सुख करणा, सदा भजो ) भविजन पूजो जिन ग्रीवा धरी, वर फूलन की माला, मैं वारी जाउं व० ॥ ए पूजन दुरगति घर छेदी, विरचे शिव सुख शाला || मैं वा० विर० भवि० ॥ १ ॥
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२११ चंपक मरुक तिलक चपेली, पाडल लाल गुलाला ॥ मैं० पा० ॥ विमल कमल परिमल मदमाता, न तजे अलि मतवाला मैं० न० मवि० ॥२॥ जाइ दमण जूही कोरटक, मालती मरुक रसाला | मैं० मा० ॥ ऐसे पंच वरण कुसुमे करि, माल रचन परनाला ॥ मैं० मा० भवि० ॥३॥ ए माला पूजन करो नाशे, कोटि करम दुख जाला | मैं को० ॥ सुमति सुरति अनुभव वलि प्रगटे, त्रासे कुमति कुचाला | मैं० त्रा० भवि० ॥ ४ ॥ ए विधि सवर द्वार विकासे, पाप सदन मुख ताला | मैं० पा० ॥ कपूर कहे प्रभु चरण शरणमें, मगलमाल विशाला ॥ मैं० म. भवि०॥
|| कान्य ।। सरसमुद्गर चपकपाडले। मरुकमालति केतकीसस्कज॥ विधिविगुफ्य जिनं परिपूजयेत स्रजमजस्र मनंत सुसेच्छुकः ॥ १॥ ॐ ही श्री पर० अदत्तादान मोचनाय पुष्प माल यजामहे स्वाहा ॥४॥
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
वृहत् पूजा-संग्रह
|| पंचम मैथुन विरमण व्रत दीपक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ व्रत चौथे मैथुन तजो, भजो भविक भगवान । - शीलाराधन योग से, लहिये शर्म वितान ||
॥ राग सोरठ ॥
- (तर्ज-कुद किरण ससी ऊजलो रे देवा )
:
मन वच काया थिर करी रे वाला, कलुष कुशील. निवारो रे आछो । ऐह नरक रमणी तणी रे वाला, शोदर अति हितकारो रे आछो ॥ १ ॥ नृ-सुर पशु सहु जानो रे वाला, विषय कलित बहु दोषे रे आछो । ते परिहारीने थिर रहो रे वाला, निज द्वारा संतोषे रे आछो ॥ २ ॥ लंकापति नरके गयो रे वाला, ए मैथुन रसः धार रे आछो । एहने तजकर के लह्या रे वाला,
शीलरतन जतने
+
जीव सकल सुख सार रे आछो || ३
||
1
धरो रे वाला, तस दूषण सत्र छंडी रे आछो । कुशल कला करिने लहो रे वाला, शिवदुख माल प्रचंडी रे आछो ॥ ४ ॥
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाह व्रत पूजा २१३ . . .. ॥दोहा॥ . . "; दीपक पूजा पंचमी, करे सकल दुख नाश 1.; लोकालोक विलोकने, प्रगटे बोध प्रकाश ॥ .
॥ राग वरवो देश में ॥ (तर्ज-केसरियाने जहाजको लोक तिरायो) __ भाव धरी दीपक पूज रचानो, याते शिवसुख सपति पावो । मा० ॥ रक्तपीत सितपर्ण विचित्रित, सूतनी बाट वणावो । गो घृत माहि अधिकतर करिने, शुभ मन दीप जगावो । मा० ॥ १ ॥ दीपकने मिश मनमंदिरमें ज्ञानको दीप जगागो । जडता तिमर कलाप हरीने, मगलमाल वधामो ॥ भा० ॥२॥ अरति हरण रति दायक जग में, ए पूजन मन भागो। सुरनर पाय नमे ततषिण ही, यातें नरक न जागो || भा० ॥३॥ अनुभव भाव विशाल करीने, आवमसू लय लावो। कपूर कहे भविजनसे प्रभुके, पर गुणगण जस गावो || भा० ॥ ४ ॥
कान्य ॥ आत्मप्रबोधैंकविवर्धनाय । जाड्याधकारप्रयमर्दनाय । भय प्रदीप कर भक्ति मोवायनर्जताया
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१४
वृहत् पूजा-संग्रह ॐ हीं श्रीपरमात्मने अनंतानंत० मैथुनपरिहरणाय दीपं यजामहे स्वाहा । ॥ षष्ठम परिग्रह विरमण व्रत धूप पूजा ॥
॥ दोहा ॥ भवि कीजे व्रत पंचमे, सकल परिग्रह मान । ए मोहादिक सबरनो, भूधर दुखनी खाण ॥
॥राग वसन्त ॥ (तर्ज-अतुल विमल मिल्या, अखण्ड गुणे) सकल भविक भस्या, विमल गुणे वाल्हा, मान परिग्रहनो करो ए ॥ सकल० ॥ टेर ॥ वज्र समान ए सम गिरि भेदन, दोष दिवसपति वासरो ए । स० ॥१॥ धन कण वसन गवादिक पशुनो, धातु निकर तिम जाणिये ए। इत्यादिक नव भेद विधाने, दशवकालिक भाणीये ए ॥ स० ॥ २ ॥ एहने मूल थकी जे हरे नर, तेहने मोक्ष मिले सही ए। सुचिरकाल गृहवास वसे जे, तेहने देशविधे कही ए ॥ स० ॥३॥ नरक निवास इणे विन पाम्यो, मम्मण सेठ ते भापिये ए। भविजन ए व्रत भावथी
लो, कुशल कला निज दाखिये ए || स० ॥ ४ ॥
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
यारह व्रत पूजा
२१५ ॥दोहा॥ छठी पूजन धूपको, धूपो जिनवर अंग। 'कुसुरमि करम तणी हरे, दायक शिव सुखचंग।
॥राग देशाख वा ठुमरी ॥ (तर्ज-प्यारी छवि वरणो न जाया थारे मुखडारी हो वारीराज) __ऐसी विध पूजन, भाई दिल धार, धूपधुम धनसार धार करी ॥ टेर ॥ या भव भीम वारि सागरमें, तरण तरंडक तरल विचार || ध० ॥१॥ चदन देवदारु वलि अवर, मृगमद गंधवटी धनसार ॥ धू० ॥२॥ ऐसे सुरभि द्रव्य बहु मेली, तिणमें सेल्हारस न विसार ॥धृ०॥३॥ मणियुत कचन धूपदानमें, विमलानलयो करी सुप्रचार ॥ धू० ॥४॥ कपूर करत नुतिया जिनपूजा, मविजन गणकी तारणहार ॥ धृ०॥ ५॥
॥ काव्य ॥ नानासुगन्ध वसुनिर्मितसारधूप । चाकर्पित भ्रमरपृन्तमभिहि येन ॥ श्राश्रये विधिनिरस्परिशालभक्त्या । धूपेज्जिनाधिपतिनं शिवदमुदाय ॥ १ ॥ ॐ हो श्रीपर०
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
वृहत् पूजा-संग्रह || सप्तम दिशिपरिमाणव्रत पुष्प पूजा ॥
. . . दोहा।। . . . . छट्टो व्रत दिशमानको, गमनागमन निवार । अकुशलता सवि उपसमे, श्रेय संपजे सार ।।
॥राग गयो ।। (तर्ज-सिद्धाचल मंडग स्वामीरे) श्रीशिवसुख संपति परिये रे, भव भय दुख वारण करिये रे। कर दिशिपरिमाण जे चरिये ।। रसीला, भाव विमल दिल धरिये रे, वाला धरिये तो समरस भरिये ॥ र० भा० ॥१॥ अध ऊर्ध्व ने तिरछि वखाणो रे, दिशि विदिशिने तेम प्रमाणो रे, ए छे संकट जलधिनो राणो ॥ २० भा० ॥२॥ ऐमां गमनागमन निवारो रे, ओ छे कुमति दुरति भरतारो रे, इक चक्री लह्यो दुख भारो ॥ २० भा० ॥३॥ ए व्रत शिवसाधन चंडो रे, तुमे भक्जिन एह न खण्डो रे, कहे कुशल कला नित मंडो ॥र० भो० ॥ ४ ॥
॥दोहा॥
भवियण पूजा सातमी, कीजे भक्ति विशाल । ससुरभि नाना जातना, विमल कुसुम भरथाल ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
॥ राग धन्याश्री ॥
(तर्ज- कबहु मे नीके नाथ न घ्यायो ) प्रभुजीकी फूले पूजन सारो, प्र० ॥ टेर ॥ श्रीजिनजी के चरण कमलमें, अलि समता गुण धारो ॥ प्र० || १ | चपक कुंद गुलाब केवडा, पारधि नाग कलारो । जासु दमण वासति मोगरा, पाडल लाल मंदारो ॥ प्र० ॥ २ ॥ इम नानाविध कुसुम घटाकर, भाव विमलजल झारी । तो लहिये भविजन ध्रुव करिने, अचिर थकी भव पारो ॥ ० ॥ ३ ॥ व्रतधर फूल कलाप रुचिर ग्रहि, पूजत जे जग तारो || कपूर कहत जिन चरण शरण लहि, करम सकल दल मारो ॥ प्र० ॥ ४ ॥
२.१७
आ
॥ काव्य ॥
गंधामलादि गुण लक्षणलक्षितवें पुष्पोत्करैर सिलगुचित चंचरीकः । ससेवयेद्विविध जाति समुद्भवैयौं । जैनेश्वरं व्रजतिसोद्यचिराच्छिवना ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्री पर० दिशिपरिमाण व्रत ग्रहणाय पुष्पं यजामहे स्वाहा । - ॥ अष्टम भोगोपभोग विरमण व्रत अष्टमंगल पजा ॥ ॥ दोहा ॥
7
जगनायक पद कमलमें, धरिये करि मन भृङ्ग । भोग अने उपभोगना, ए सहु व्रत गिरिशृह्न ||
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
वृहत् पूजा-संग्रह भक्तात्मा परिढोकयेद्र चिपरः सोधनजनाशयेत् । भित्ते दुर्गति भूधरंच लभते स्वर्गादि मोक्षाश्रयं ॥२॥
ॐ ह्रीं श्रीपर० भोगोपभोग व्रत उपदेशकाय अष्टमंगलं यजामहे स्वाहा ॥ ॥ नवम भनर्थदंड विरमण व्रत अक्षत पूजा !
॥दोहा॥ भवि ए व्रत अष्टम धरो, अनरथदंड विचार । पाप चिरंतन उपशमे, प्रगटे पुण्य प्रचार ।।
॥ ढाल || (तर्ज-सगुन सनेही साजन श्रीसीमंधरस्वाम)
त्रिकरण शुद्ध निसुण भवि अनरथ दंड विचार, समकित सुभटनो गंजन भंजन संवर द्वार। मनमथ बोध विकाशक शास्त्र पठन अधिकार, मुख भ्र हग तनुथी करे, भंड कुचेष्टा-गार ॥ १॥ हास्य थकी बलि कुवचन भाषण मुखर प्रबंध, ऊखल मूसल घरटादय अति धरण दुरंध, स्नान समे जल तेल अधिकतर अप्रति-बंध,* विन कारण ॐ इसके बाद रत्नसार में यह पाठ है :पाप विधाना देश प्रकाशन दूपण खंध। सरस वस्तु धृत पात्र मात्र विन छादन ठान । धरण करण सुविवेक विकल तिम दाना दान ।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
चोरत्र पूजा
२२१
पट काय विराधनमें दुखदेव ॥ २ ॥ इङ्गालादिक करण
पंचोत्तर दशविध
कॅरावण सकल विधान, उदर भरण कर्मादान । इम सहु अनरथ करम अवर पिण दुखनी साणं, व्यर्थपणे मॅनमान्या छेदे पुन्य प्रधान ॥ ३ ॥ उणकर पूर्वे केड गया नर सकट धाम, व्रत ग्रहीने रहिये वन लहिये शिव सुख ठाम ए व्रत तणो भवोदधि तारण तरण प्रकाम, कुशल कला नित करतां प्रगटे अभिनव साम ॥ ४ ॥ --
Tren
॥ दोहा ॥
● नवमी श्रीजिनराजनी, पूजा परम
- विमलाक्षत भरि भाजने, भविजन करे ॥ राग पीलू ॥
1 वर्ज -अन तो धारयो मोहि चहिये जिनदराय राम भरो० ) श्रीजिनवरजीकी सेना सारे, मो भवभय इस दूर निवारे || श्री० || | || तदुल बिमल सकल गुण मंडित, सहित दोपरहित उर धारे। कचन पात्र भरि जिन आगे सटित दोपरहित उर धारे। कंचन पात्र भरि जिन आगे ॐ हिंण विकया पर 'विपरीत विचार विधान स्यादिकरण रसग कीरादिक पाउन वान ।
T
*
#
विलास ।
1
प्रकाश ॥
t
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
बृहत् पूजा-संग्रह
ढोकन बुद्धि प्रबल सुविचारे || श्रीजि० ॥ १ ॥ या पूजन जन तन मन रंजन, गंजन कुगति कुबोध विदारे । सबल करम नग भेदनहारो, सघन भवोदधि पार उतारे || श्रीजि० ||२|| सुमति सानुभव आण मिलावे, ते पिण पद शिवशर्म समारे । पीन महोदय धार भाव धरी चन्दकपूर सनूर निहारे श्रीजि० ॥३॥
॥ काव्य ॥
यो खंडजाति गुणवृन्द समन्वितानि । ना ढोकये-द्विपुल निर्मल तंदुलानि || कर्म्मावलिं टति छेद तिसज्जिनाग्रे । सो ऽसौभजेच्छिवमुखं सुतरामनन्तं ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीपर० अनर्थदंड समूलं मोचनाय अक्षतं यजामहे स्वाहा |
|| दशम सामयिक व्रत पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
नवमो नवनिधि जाणिये, सामायक व्रत सार । सुर जेहनी आशा करे, सुरतरु सम दातार ||
|| ढाल ||
(तर्ज - आय रहो दिल बागमें, हो प्यारे जिनजी ) सामायिक व्रत पाल रे, भविक जन सामा० ॥ टेरे ॥
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२२३
त्रिकरण त्रिकयोगे इक मुहरत, निरतिचारे चाल रे ॥ भ० ॥ सा० || १ | गृह व्यापार तजीने शुभ मन, धरि निरवद्य विसाल रे | म० ॥ सा०||२|| मन वच वपु प्रणिधान असेवन स्मृति विहीनता टाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ३ ॥ द्वात्रिंशत दूषण परिहरिने, पचम गुण घर झाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ४ ॥ इम धनमित्र तणी पर सीझो, कुशल कला परनाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥ दशमी दर्पण पूजना, कीजे श्रावक शुद्ध । सुर पादप शम शकरण, हरण पाप संक्रुद्ध ॥ || राग कालिंगडो ||
(तर्ज- नेमप्रभुजी सु कहज्यो जी म्हारा ) जिन पूजनमे रहिये रे, म्हारा जि० । मन वछित फल लहीये रे, म्हा० जि० || टेर || कंचन मणिरतनेकर जडियो, वर दरपण कर गहीये। जिनवर सनमुख दाखन विधि, सकल करम वन दहिये रे, म्हा० जि० ॥ १ ॥ प्रभुजीकी सेना सत्र सुखदाई, भाव भक्ति उर चहिये । शिव वनिता तुम प्रेम विलघे, अपर अधिक किम कहने
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२४
वृहत् पूजा संग्रह रे म्हा० जि० ॥ २ ॥ निजकशरीर प्रमाद वशे करि, भव दल भीति न सहिये। शुभ मन समकित वीर संग ले, चंदकपूर निवहीये रे || म्हा० जि० ॥३॥
॥काव्य ॥ रुचिर निर्मल दर्पणदर्शनं । विनयभृध्रिदयकिलकारये। जिनपतेरचिराद्भवसंगम । स च निरस्य भजेच्छिवमंजसा ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री पर० सामायकव्रतग्रहण द्दढ़करणाय दर्पणं यजामहे स्वाहा । || एकादश देशावगाशिक व्रत नैवेद्य पूजा ।।
॥दोहा॥ दशमो व्रत हिव भविय णा, धारो धरि वरभाव । संसारार्णव गहिरनो, तारण वरतर- नाव ।।
॥ ढाल ॥ (तर्ज-सिद्धाचल गिरि भेट्या रे, धन भाग्य हमारा)
श्रद्धा धर' मन भाजे रे, धन पाप तिहारा ॥ श्र० ।। टेर ॥ विमलसकल शुभ विनय धरीने, गुरु मुखे वचन हजारो । ए व्रत सुन्दर दिल धरो भविजन, देशावकाश
*च्छिवदेव्यश
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२२५ विचारा रे ॥ घ० ० ॥१॥ द्रव्यानयन प्रेक्ष प्रयोगे, शब्द रूप अनुसारा। पुद्गल प्रेक्षण प्रभृति सफलना, तजिये दूपण धारा रे ॥ घ० श्र० ॥२॥ परमोत्कृष्ट जघन्य प्रकारे, प्रत्याख्यान प्रचारा । सहु व्रतनो आगमन ए व्रतमें, गुण मणिरयण भण्डारा रे ॥ घ० श्र० ॥ ३ ॥ कर्म कपाय हरीने छेदे, चउगति गेह विहारा। अजरामर धन दे लयो निरमल, कुगल कला करि सारा रे ॥ १० श्र० ॥४॥
॥ दोहा॥ एकादशमी पूजमे, विविध माति नैवेद्य । मेल करो* जिनराजनी, दायक सुख निरवद्य ॥
॥राग कल्याण ॥ (तर्ज-तेरी पूजा वणी हे रसमे । हो ते० ) सेवा सारो श्रावक जिन चरणे ॥ हो से० ॥ टेर ॥ मोदक लपनश्री वरवर, शिता सुरस धृत झरणे । मुक्तचर विद्वादिक बहुतर, नैवेद्य नानावरणे ॥ हो से० ॥ १ ॥ रयणांकित कचन भाजन भरि, मन वच तनु थिर करणे ।
ॐ धरी जिन आगले
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
રર
वृहत् पूजा-संग्रह करि ढोकन विधि एरम विनय धरि, रहिये नित प्रभु
शरणे ॥ हो से० ॥ २ ॥ दुखदल नाशन या पूजन विधि, निति विशद मुख भरणे। चंदकपूर कहत भविजनके, कलिमल माला हरणे ॥ हो से० ॥ ३ ॥
॥काव्य ॥ धवलधाम शिताप्पि समुद्भव । विमल भक्ति धरावित कपुर । र्जिनपते विदधाति विपूजनं । स लभते शिवशं अवशन्नकैः ॥ १॥ ॐ हीं श्रीपर० देशावगाशिक व्रत दृढ़ करणाय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ॥ II द्वादश पौषध व्रत ध्वज पूजा ॥
॥दोहा॥ व्रत पौषध इग्यारसो, भावो भविक विधान । ध्यावो ज्यू द्रुत संहरे, प्राकृत कर्म वितान ॥
॥ढाल ॥ (तर्ज-इण सरवरियारी पाल, ऊभा दोय राजवी म्हारा ला० )
सविजन भाव विशाल, प्रमाद निवारिये म्हारा लाल ॥०॥ टेर ॥ पोसह व्रत चित मांहि, विनय धर धारिये ॥ म्हा० वि० ॥ ते पिण दुविध प्रकार, चतुर न विसारिये
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२७
वारह व्रत पूजा म्हा. च० ॥ प्रति वासर प्रति पर्व, सजे तिम सारिये ॥ म्हा० स० ॥ १॥ पडिलेहण धुर धार, सफल किरिया करो ॥ म्हा० स०॥ परिठावण विधिपाद, दयाधर आदरो ॥ म्हा० द० ॥ पटकाया संघट्ट तजीने सचरो ॥ म्हा० त० ॥ अचपल थड पच्चसाण, विविध मन संभरो ॥ म्हा० वि० ॥ २ ॥ वलि सहु दूपण टालिने, पाप निऊदिये ॥ म्हा० पा० ॥ चौगति च्यार कपाय, करम दल छदिये ॥ म्हा० क० ॥ भवोदधि तारण तरण, सुगुरु पद दिये ॥ म्हा० सु० ॥ कुशल कला दल माल, करी चिरनंदिये ॥ म्हा० क० ॥३॥
॥दोहा॥ द्वादशमी ध्वज पूजमे, घोपण देई अमार | धरिये द्वादश भावना, तरिये भरजल पार ।।
॥राग देशास ॥
(तर्ज-कुवजाने जाद् डारा) प्रभुजीसे प्रीत लाना, करि वन पूजन विधाना हो ॥ प्र० टेर ॥ जोयण सहसमान मणि मंडित कंचन दंड रचाना हो० ॥ प्र० ॥१॥ पच वरण युत वसन पताका, अधिवासित लहकाना हो ॥ प्र० ॥२॥ ढकनाद
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
वृहत् पूजा संग्रह करि तीन प्रदक्षिण, रोहण विधि मन भाना हो ॥ प्र० ॥३॥ या विधि सकल करम रिपु दारण, ज्योतिमें ज्योति समाना हो ॥ प्र० ॥ ४ ॥ जगतारण श्रीजिन दरसणसे, चन्दकपूर लुभाना हो ॥ प्र० ||५||
॥काव्य ॥ भव्याति ध्वजवरैःससुभैः सलीले, जैनेश्वरंकनकदंडयुततःससोभैः। कर्मारिवन्दजयछद्म समन्वितैर्यो । वै सो भजेच्छिदिवादिसुराज्य लक्ष्मीः ॥१॥ ॐ हीं श्रीपर० पौषध व्रत दृढ़करणाय ध्वजं यजामहे स्वाहा । ॥ त्रयोदश अतिथि संविभाग व्रत फल पूजा ।।
॥दोहा॥ द्वादशमो व्रत सुख फलद, साधु दान सनमान । अजराभर पद संपजे, शालिभद्र अनुमान ॥
॥राग कजली ।। (तर्ज-मेरो मन मोह्यो माई, आनन्द झीले, आ०)
साध दानव्रत भवि हृदय धरो, हृदय धरो रे भाई हृदय धरो।सा०॥ व्रत संयमगत परलिंगीने, पडिलाभन मति रिजु न करो ॥ रिजु० भा० सा० ॥१॥ जिनमत मुनिवर चरण
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
२२६
नमीजे, असनादिक देई सुकृति वरो || सु० भा० सा० ॥ २ ॥ वलि पचातिचार निवारी, परम विरतिना विघन हरो || वि० मा० सा० ||३|| श्रीश्रेयांस ने चंदननाला, अनुमाने पद निरृत्ति वर्ग || नि० मा० सा० || ४ || कुशल कला मुनिशाल करोने, भाजल सागर झटति तरो ॥ भ० भा० सा० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
फल दल पूजा तेरमी, भरि भाजन कमनीय | भविक रचो भगवंतनी, भन विषधर दमनीय ॥ ॥ राग ख्याल ॥
(तर्ज- लोभी नेना रे, लोभी नेना हो ४० ) लोभी सेणा रे लोभी सेणा हो पूजन के लो० ढेर || पूजन विधि प्रभुकी दिल घर ले; धिर कर मन तनु वैणा ॥ हो० पू० ॥ १ ॥ श्रीफल पूगी वीजपूर वर, आम्र कदली फल लेणा ॥ हो पू० ॥ २ ॥ हम नानाफल गहि प्रभु आगे, भरि भाजन घर देणा ॥ हो पू० ॥ ३ ॥ भक्ति विमल सुचित थर मनमें, प्रभु समरण दिन रेणा । ॥ हो पू० || ३ || कपूर कहे प्रभु पद पकजमें, पट्पद भए युग नेणा || हो० पू० ॥ ५ ॥
1
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ कलश ॥
हाँ हो यश धारा, हां हो यश धारा, प्रभुजीका वचन अमृत यशधारा ॥ ३० ॥ टेर ।। सुरनर मुनि तिरियण वन सिंचन, बचन सजल धन झारा ॥ हां हो ८० प्र० ॥ विक्रमपुर श्रीत्रिशला नंदन, जिनवर त्रिभुवन प्यारा । द्वादश व्रत पूजन विधि पभणी, भरियण गण हितकारा ।। हां हो हि० प्र० ॥१॥ गुरु खरतर जिनचंद्रसरियर, राजे विगत विकारा। श्रीमति साधृतिरादि कलितके, धरि मन वचन' अगारा ॥ हां हो अ०प्र० ॥२॥ संवत रस त्रिक निधि रात्रीकर, (१६३६) सासाश्विन मनुहारा । धवल पक्ष प्रति-पद तिथि शोभन, रजनीपति सुत वारा हाँ हो सु० प्र० ॥३॥ श्रीजिनरलसरि शाखा थर, पाठक पद विस्तारा। रूपचंद गणि चरण कमलमें, कुशलसार मधुकारा ॥ हो हो म०प्र० ॥ ४ ॥ अपर नाम करि चंदकपूरा. रचि जिनपति नाति सारा । कुशलनिधान प्रवर मुनिवरकी, प्रेरणया सुविचारा ॥ हां हो सु० प्र० ॥५॥
१ शुचिवच भारा । २ लक्ष्मी प्रधान ।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
बारह व्रत पूजा
॥कान्य ॥ ___ जयाम्रादिफलवजैः ससुरसैं गधादिभिमिश्रितै, नूनं द्रन्यरुनुम्द वैश्च विधिना कुर्यात्प्रभोरर्चन ॥* सोभक्त्यास्मनवश्रजोत्कर निरा सकृत्य सद्य लभोच्छमस्वर्गतरोरकसुसफलागार पर निर्मल ॥ १ ॥ ॐ ही श्रीपर० अतिथिसविभाग व्रतशोधनाय फल यजामहे स्वाहा ।
ॐ भक्त स प्रभु पूजनक निरता भूयोपि भूयोलमे।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा॥ || प्रथम च्यवन कल्याणक पूजा !!
॥दोहा॥ आदि जिनंद नमी करी, आदि जिनेसर राय । कल्याणक पूजा रच, सिमरी शारद माय ॥१॥ च्यवन१ जन्म दीक्षा३ अली, चौथा केवल४ नाण । पंचम पंचम गति कही, ए पांचो कल्याण ॥२॥ उत्तम जन गुण गानसे, उत्तम गुण विकसंत । उत्तम निज संपद मिले, होवे भवको अंत ॥३॥ समकित प्राप्ति से कही, भव संख्या निर्धार । आदिनाथके तेर हैं, नेमिनाथ नव धार ॥४॥ पार्श्वनाथ भव दश कहे, शांतिनाथ भव बार । सात वीस भव वीरके, तिग तिग शेष विचार ॥५॥ प्रभु कीर्तन से होत है, निश्रेयस पद सार । तिण श्री आदिनाथका, सुन्दर यह अधिकार ॥६॥ अष्ट द्रव्य पूजा प्रति, पूजन का विस्तार । . द्रव्य भाव पूजा करी, होवे भव निस्तार ॥७॥
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३३
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पृजा
॥मालकोश ॥ समफित आनंट कंद मविक जन स० । अचली ॥ समकित विन नही ज्ञान चरण है, भापे श्री जिनचद ।। भविक जन स० ॥१॥ देव गुरु और धर्म की श्रद्धा, समकित गिवतरु कंद || भनिकजन स० ॥ २ ॥ देव नहीं जस दोष अठारां, गुरु निनथ मुनींद ।। भनिकजन स० ॥३॥ अरिहत भापित धर्म दयामय, काटे भर भर फंद ॥ भविकजन स० ॥ ४ ॥ समकित आतम लक्ष्मी प्रगटे, बल्लभ हर्प अमट । भविकजन स० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥ पश्चिम महा विदेहमें, खिती पट्ट मझार । सार्थवाह धन नामसे, बसे धनद अस्तार ॥१॥ एक समय ले सार्थको, गमन किया परदेश । व्यापारी निज काजको, भूले नही लपलेश ॥२॥ मारगमें वरसा हुई, रुका सार्थ इकठोर ।। द्वीप सरीसा हो गया, फिरे नीर चउ ओर ॥३॥
(तर्ज-देशी केसरिया थासु) जग साचा सार्थप, सार करेरे निज सार्थ की।
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३४
वृहत् पूजा-संग्रह
अंचली ॥ द्रव्य भाव साप दो कहिये, पहला जग उपकारी । वीतराग दूजा सार्थप भत्र, अटवी पार उतारी रे ॥ ज० || १ || एक दिवस निशि चरम समयमें, सार्थप चिंता व्यापी । अति दुःखी है कौन सार्थमें, देऊ झट दुःख कापी रे ॥ ज० || २ || हा हा अन्न अभावे समजन, कंदमूल फल खावें । धर्मघोष सूरि आदि मुनि, हाथ जरा भी न लावे रे || ज० ॥ प्रात समय गुरु पासे आके, चरणे, सीस नमाने | हाथ जोड़ अपराध खसावे, सुनि देखी शुभ भावे रे || ज० || ४ || आतम लक्ष्मी संपद कारण, सुनि गण ध्यान में लीना । देख देख धन सार्थप आतम, वल्लभ हर्ष भरीनारे ॥ ज० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥
धर्मघोष गुण गण गणी, धर्मलाभ के साथ । उपदेशी शांत्वन करे, सार्थनाथ सुनिनाथ ॥ १ ॥ विनति कर सुनि रायको साथ हुआ धनसार । दोष रहित शुभ भावसे, देवे घृत आहार ॥ २ ॥ ( तर्ज - लेली लेली पुकारे वनमें )
धन्य दान देवे दातार, करे निज आतम उद्धार । दान सर्व गुण गुणों की खान, देवे जिनवर भी जस मान
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा २३५ । ध० ॥ १ ॥ दान शील तपो भाव मेदे, धर्म चार प्रकार अखेदे। कहे जिनवर जग हितकारी, सेवे सुरनर अमरी नारी ॥ ३० ॥ २ ॥ तप शील भाव करे करता, हित दान उभय अघ हरता । तिण दान धुरि अधिकार, अभयादि पांच प्रकार ।। ध० ॥ ३ ॥ अभय दान सुपात्र दो सार, अनुकपा पुण्य प्रचार । यशोवाद उचित फलकारी, संसार करे ससारी ॥ ३० ॥ ४ ॥ घृत दान सुपाने देवे, बोधि वीज सुकृत फल लेवे। धन काल करी युग्म थावे, आतम लक्ष्मी वल्लभ हर्पावे ॥ ३० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ।। उत्तर कुरुमें पालके मिथुन आयु धन जीव ! सौधर्म सुख भोगवे, दान सदा सुख नीव ॥१॥ च्यपके गध समृद्ध मे, पश्चिम महा विदेह । नाम महावल अपनो, शतनल नरपति गेह ॥ २ ॥ मंत्रि वचन दीक्षा ग्रही, कर अनशन अनगार । काल करी ईशानमें, सुर ललितांग कुमार ॥ ३ ॥ अंत समय नदीश्वरे, शाश्वत जिन कर सेव ! शुभ भावे शुभ तीर्थमें, काल करी ततखेव ॥ ४ ॥
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ पनीहारी की चाल ॥ - पूर्व विदेह पुष्कलावती म्हारा बालाजी, लोहार्गल पुरधाम वालाजी । सुवर्णजंधनृप सुत हुओ म्हा० । वज्रजंघ शुभ नाम वा० ॥ १॥ श्रीमती पूर्वभव प्रिया म्हा०, पत्नी हुई तस सार वा० । पितृदिया शुद्ध न्यायसे म्हा०, पाले राज्य उदार वा० ॥ २ ॥ सागरसेन युनिसेन मुनि महा० । केवल ज्ञान उदंत वा० । सुनकर बंधु जानके म्हा०, मनमें अति उलसंत वा० ॥३॥ दीक्षा लेनी ठानके म्हा०, दंपती सूते रात वा० । विष प्रयोगसे पुत्रने म्हा०, मार दिये-मायतात वा० ॥४॥ उत्तर कुरु युगलिक हुए म्हा०, एकसे अध्यवसाय वा० । काल करी दोनों जने म्हा०, सौधर्मे सुर थाय वा० ॥ ५ ॥ धर्म बिना नहीं जीवको म्हा०, अन्य शरण संसार चा० । आतम लक्ष्मी पामिए म्हा०, बल्लभ हर्ष अपार बा० ॥६॥
॥दोहा॥ जंबूद्वीप विदेहमें, क्षिति प्रतिष्ठ मझार । वैद्यसुविधि सुत नामसे, जीवानंद विचार ॥ १ ॥ महिधर केशव तीसरा, नाम गुणाकर जान । चौधा पूरण भद्र है, सुवुद्धि पंचम मान ॥ २ ॥
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३७
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा
एक दिवस घर वैद्य के मित्र मिले छः साथ | देखे आए गोचरी, मुनि करुणाके नाथ ॥ ३ ॥ महिधर जीवानदको कहे रोगी मुनि देह | औषध करना योग्य है, जन्म सफल स सनेह ॥ ४ ॥ ॥ ठुमरी ॥
(तर्ज- जावो जावो नेमि पिया - देशी ) मुनि महाराज सेवा शिव सुख खानीरे। मुनि महाराज शिन सुख खानी महानद पद दानीरे मुनि० अंचली ॥ मित्र पटू आवे भावे, बावना चंदन लावे, रतन कंवल तेल लक्षपाक आनीरे सुनि० ॥ १ ॥ मुनि रोग दूर कीनो, निजातम कीनो पीनो । मूल्य देने आए सेठ, आपण पिछानीरे मुनि० ॥ २ ॥ वणिक जना दीनो, वैयावच्च फल लीनो । धन्य भात वारा तुम, धन्य ए जवानीरे मुनि० || ३ || मूल्य नही मैंने लेना, चरणमें चित्त देना । लिया धार टार दिया, जग जानी फानीरे मुनि० ॥ ४ ॥ चंदन काल बेची, निज धन साथ सेचीं । चैत्य अरिहत कियो, भक्ति वंत प्राणी रे मुनि० || ५ || पड मित्र दीक्षा लीनी, आत्म लक्ष्मी चश कीनी । वल्लभ हर्ष मन, सुनि सेवा मानी रे नि० ॥ ६ ॥
"
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥दोहा॥ आराधी चारित्रको, द्वादश कल्प सधार । आयु सागर दोय बीस, भोग लियो अबतार ॥६॥ पुक्खलबइ विजये हुओ, बज्रसेन नृप जात । बननाम पुण्डरीक्रिणि, जास धारिणी मात ॥२॥ वैद्य जीव ए जालिए, महिधर वाहु सान। जीवसुबाहु सुद्धिका, पीठ गुणाकर जान ॥३॥ महापीठ चौथा सहो, पूर्णभद्रका जीव । ए पांचो बांधव हुए, सुयशा केशव जीव ॥४॥ राजपुत्र अति नेहसे, वज्रनायके साथ । विचरे पूर्व संबंधसं , जिस यति यतिपति नाथ ॥५॥
॥पील ॥ जिनवर नाम करम परमारे, जिनवर तीरथ जग वरताले ॥ जि० अंचली ॥ वज्रसेन लिन समय को जानी, वज्रनाभको राज्य अलाये। लोकांतिक वचने प्रभु वर्षी दान देई दालिद्र हटावे ॥ जि० ॥१॥ दीक्षा लंइ प्रभु विचरन लागे, वज्रनाभ निज राज्य चलावे । वज्रसेन प्रभु केवल पावे, वज्रनाभ चक्री तक थावे ॥ जि० ॥२॥ क्रमसे
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा
२३६ प्रभु चरणोंमें दीक्षा, वज्रनाभ आदि सब पाव । तप-जप ध्यान प्रभावे सनही, निज आतमको उच्च वनाचे ॥ जि. ॥ ३ ॥ वीस थानक तप अधिका सेसी, वज्रनाभ जिन नाम उपावे। आतम लक्ष्मी बल्लभ हर्षे, एक मनांतर जिनपर था जि० ॥४॥
॥दोहा॥ सयम निर्मल पालके, पूर्व लास दस चार । अनशन कर सपने किया, अन्तिम नाक विहार ॥शा देव आयु पूरण करी, सागर तेरां वीस । भरते जंबूद्वीपके, अतरिया जगदीस ॥२॥ अवसर्पिणिके तीसरे, आरे शेष विचार । पक्ष नवासी पूर्व सह, लक्ष अमी अरु चार ॥३॥ चौथे बहुल आपाढकी, उतरापाढा तार। नामि नृप स्त्री उदरमें, मरुदेवी असतार ॥४॥
॥ देशी वणजाराकी ॥ तीर्थकर जग उपकारी, अवतरिया आनंदकारी ॥ अंचली ॥ सर्वार्थ सिद्धसे चविया. HTI I
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४२
वृहत् पूजा संग्रह
समीर प्रसाररे जिन० || ४ || वस्त्र सुगंधमय पानी वर्षा, उच्छ्वास मेदिनी धाररे जिन० ||५|| आतम लक्ष्मी जिन
वर महिमा, वल्लभ हर्प अपाररे जिन० ||६||
॥ दोहा ॥
तीर्थकरके जन्मको अवधि नाणसे जान |
,
आय नमे सुत मातको, करती स्वात्म पिछान ॥१॥ छप्पन दिशा कुमारिका, जिन जनु महिमा काज | आवे रीति अनादिकी, प्रथम बाद सुरराज ॥२॥ (तर्ज - श्री चंद्रप्रभ भगवान )
1
मिली दिशा कुमारी आय, जिन जन्म महिमा करे ॥ अंचली ॥ अधो लोककी आठ कुमारी, सूतिका घर करके तैयारी । अशुचि योजन मध्य निवारी, नमन करी गुण गाय जि० ॥ १ ॥ उद्ध लोककी आठ कुमारी, गंधोदक वर्षा रज टारी । पांच वरण फूलोंकी भारी, वृष्टि करे सुखदाय जिन० ||२|| आठ आठ रुचक दिग चारे, दर्पण भारी पंखा कर धारे । चामर निज निज कार समारे, गाती निज दिशि ठाय जिन० ||३|| चार विदिशिकी चार कुमारी, गुण गाती दीपक कर धारी । रुचक द्वीपसें चार पधारी, नमती जिन जिनमाय जिन० ||४ || काटे अंगुल छोरके चारी, नाल विवर करी उसमें डारी । वज्र रत्न भरी विवर
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा २४२ निवारी, दूर्वा पीठ बनाय जिन० ॥५॥ पूर्व दक्षिण उत्तर दिशि वीनो, कदली घर देवीने कीनो । दक्षिण जिन जिन मात करीनो, मर्दन तैल सहाय जिन० ॥६॥ पूर्व सिंहासन स्नान करावे, पूजी वसन भूपण पहरावे । उत्तर घर दोनों पधरावे, चंदन होम कराय जिन० १७॥ रक्षा पोटली बांधी हाथे, आसीस दे घर लावे साये। आतम लक्ष्मी नाथ सनाथे, वल्लभ हर्प मनाय जिन० ॥८॥
॥दोहा ।। कपे आसन इन्द्रको, ए ही अनादि चाल ! अवधिज्ञाने जानके, वदे इन्द्र दयाल ॥१॥ सिंहासन को त्याग के, सात आठ पद जाय । नमन करी स्तवना करी, हरिण गमेपि बुलाय ॥२॥ कहे आदेश करो प्रभु, जन्म महोत्सव हेत। घट सुघोष बजाय के, सनको किये सवेव ॥३॥ कतिपय जिनवर रागसे, कतिपय इन्द्र नियोग। कतिपय देवी प्रेरणा, कतिपय मित्र सुपोग ॥४॥ नाना वाहन भावना, नाना रूप सुमाव । शक्र समीपे आयके, पास कीया प्रस्ताव |
(तर्ज-मानमदमन से परिहरता) शचीपति जन्मोल करता। कर अभिषेक जिनंद
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
वृहत् पूजा-संग्रह शचीपति । जन्मोत्सव करता ॥ अंचली ॥ पालक नाम 'विमान बैठ सुर साथमें संचरता। जन्म थान आकर वज्री निज पांच रूप धरता ॥ कर० ॥ १ ॥ एक रूप जिन ग्रही दो पासे चामर दो करता। एक छत्र पाछल आगल एक वज्र ग्रही चरता ॥ कर० ॥ २ ॥ मेरु महीधर चउसठ सुरपति स्नान मिली करता। विधिसे पूजन करके प्रभुके चरननमें परता ॥कर० ॥ ३॥ जननी पासे प्रभुको धर कर इन्द्र हुकम करता । द्वात्रिंशत कोटी रत्नोंसे जम्भक पर भरता ॥ कर० ॥ ४ ॥ पूर्णरूप जन्मोत्सव करके आत्म लक्ष्मी वरता। नंदीश्वर उत्सव कर चल्लभ हर्ष सदन चरता ॥ कर० ॥ ५ ॥
काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ॥ श्रीमदर्हते जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥ २ ॥
॥ तृतीय दीक्षा कल्याणक पूजा ।।
॥दोहा॥ जागी माता देखके, पूजन पुत्र सुअंग । रोम रोम हर्षित भई, अति आनन्द अभंग ॥१॥ नाभिराय निज पुत्रका, नाम ऋषभ भगवान । धरते गुणयुत देखके, साथल ऋषभ निशान ||२||
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा २४५ कुल थापन वज्री करे, वंश थापना साथ । राज्य स्थापना प्रभु हुई, निर्जर पतिके हाथ ॥३॥ लग्नविधि प्रभु साचवे, और उचित सब नीत ।' 'समये प्रथम जिनंदके, इन्द्र करे यह रीत ॥४॥ इन्द्र किये व्यवहारको, देख देख सब लोग। निज निज कारज साधने, करन लगे उद्योग ॥५॥
लावणी ॥ (तर्ज-सग नर परनारी हरना) ऋपम प्रभु सब जग बस कीना। किये बहु उपकार जगतमें कर्त्तापन लीना ऋ० ॥ अचली ॥ सिखाया शिल्प पांच प्रभुने । कुम्भकार१ स्थकारर चित्रकृत३ तंतुवायष्ट विभुने । पांचमा नापितका सहिए। क्रमसे मेद अनेक हुए जग कर्म विविध लहिए । कला नरनारीकी कहिए । युगला धर्म निगारिया, किया जगत उपकार। स्वामी शिक्षासे हुवा, दक्ष लोक नर नार। सफल जग उपकारी जीना ॥ किये बहु उपकार० ॥ १ ॥ उमर छः लाख पूर्व जानो। भरतादिक सतान सुपुत फल गृहस्थ तरु मानो। हुए नृप लास पूर्व वीसे। पूरन प्रयसठ लाख चलाइ राज्य नीति ईसे । परम्पर आज जगत दीसे । एक दिवम
उammu का
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४६
वृहत् पूजा-संग्रह
किये बहु
विचारे खास | अहो जग विषयनमें लीना ॥ 'उपकार० || २ || अरे धिग मोह फसे प्रानी | राग द्वेष वश जन्म गमा देवे नर अज्ञानी । क्रोधसे नाश करे प्रीति । मान विनयका नाश नाश मायासे मित रीति । लोभसे चलती नहीं । नीति काम सुभट वश जीव हा !, जाने नहीं निज रूप अरघट घटी के न्यायसु, क्रिया करे अक्कूप चिंतत इम चित्त हुआ खीना ॥ किये बहु उपकार० || ३ || प्रभु वैराग्य से भीना । त्यागन कर संसार चरण लेने में चित दीना । बुलाई राज्यसभा भारी । -आशय अपना सुनाय भरतको राज्यासन धारी । बनाया विनीता अधिकारी । राज्य भाग सबको दिया, पुत्र बाहुबलि आद । उचित विधि सब साधके, कियो धर्मको जाद | / प्रभुने वर्षीदान दीना ॥ किये बहु उपकार० ||४|| प्रभु हैं स्वयंवुद्ध धोरी । तो भी अनादि रीत लोकांतिक आए कर जोरी । नमन करी वाणी मधुर बोले । जग उपकारी नाथ नहीं कोइ जगमें तुम तोले । जो मारग
।
+
शुद्ध धर्म खोले । धर्म तीर्थ वरताइए, आतम लक्ष्मी हेतु । धर्म सदा भवि जीवको, भवसागर में सेतु । धर्म वल्लभ - चीना || किये बहु उपकार० || ५ ||
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन
. Home
a naman- HILDREAMRomamBLAZEERSEEDEDEForma-marw
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा
॥दोहा॥ एक कोड अड लाखका, रोज दिये प्रभुदान । रकनको करते धनी, एक वर्ष का मान ॥१॥ अते वरसीदानके, सुरपति सह परिसार । दीक्षा उत्सव भारसे, करते यह आचार ॥२॥ चतर यदि तिथि अष्टमी, उतरासाढर तार । ग्रहण कियो संयम विभु, त्यागन कर ससार ॥३॥
(त-दिन जीके बीते जाते है) प्रभुदीक्षा लेने जाते है, जाते हैं होते हैं प्रभुदीक्षा० । अचली ॥ नगरी विनीतासे प्रभु निफसी, सिद्धार्थ वनमें आते हैं ॥ प्र० ॥ १॥ बचन विभूपा त्याग अशोके, देव दुष्प प्रभु पाते हैं ।। प्र० ॥ २ ॥ चउमुष्टि किया लोच प्रभुने, सुरपति शेप रसाते हैं | प्र० ॥ ३ ॥ केशनही सुरपति भक्ति से, क्षीरसागर पधराते हैं |प्र०॥४॥ छठ तप सिद्ध नमन करी प्रभुजी, पाप योग चोसिराते है। प्र० ॥ ५ ॥ मनपर्यव उत्पन्न हुओ तप सुर-सुरपति गुण गाते हैं । प्र० ॥ ६॥ आतम लक्ष्मी वल्लभ हर्षे, हरि नदीश्वर जाते हैं। प्र० ॥ ७ ॥
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ चतुर्थ केवलज्ञान कल्याणक पूजा || ॥ दोहा ॥ इस अवसर्पिणि कालमें हुए प्रथम अनगार । आदिनाथ जिन साथमें, कच्छ आदि परिवार ॥१॥ पृथ्वी तल पावन कियो, कीनो उग्र विहार । एक वरस ऋजु कारणे, मिलियो नहीं आहार ||२|| विचरते आए विभू, गजपुर नगर मकार | बाहुबलि सुत सोमप्रभ, करते राज्य उदार ॥३॥ भाग्यवान तस पुत्र है, श्री श्रेयांस कुमार | देख प्रभु निज पूर्व भव, जान्यो सब अधिकार ||४|| इक्षुरस प्रति लाभके, कीनो मारग दान | वरसी तपका पारणा, कियौ ऋषभ भगवान ||५||
( तर्ज - धन धन वो जगमें नर नार )
धन धन श्री श्रेयांस कुमार प्रवृत्ति दान कराने वाले ॥ अं० ॥ शुद्ध चित्त वित्त दियो दान, शुद्ध पात्र ऋषभ भगवान । फल पायो जस नहीं मान, प्रभु जग तरन तरानेवाले ॥ धन० ॥ १ ॥ हुओ पंच दिव्य परकास, अक्षय तृतीया दिन खास । मिले जन श्रेयांस आवास, अनुमोदन फल पाने वाले || धन० ||२|| निर्दोष अन्न जल
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा २४६ नाथ, देवे भवि जो निज हाथ । उतरे झटपट भव पाथ, प्रभुके ध्यान लगानेवाले ॥ धन० ॥ ३ ॥ श्रेयांस दियो उपदेश, समझे तब लोक अशेप । विचरे भू पीठ जिनेस, करम जंजाल मिटानेवाले ॥ धन० ॥ ४ ॥ सहते परिपह भगवान, विचरे सम सहस प्रमान । आतम लक्ष्मीको न दान, हर्ष वल्लभ जिन पानेवाले ॥ धन० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ पुरिम तालमें अन्यदा, आए ऋपम जिनंद । वट नीचे प्रतिमा रहे, तप अष्टम आनन्द ॥१॥ कमधनको जालके. ध्यानानलसे नाथ। फाल्गुन यदि एकादशी, केवल नाण सनाथ ॥२॥ आशन कपे इन्द्रका, आवे सुर परिवार । समवसरण रचना करे, जिन शासन जयकार ॥३॥ सिंहासन बैठे विभू, पूर्व दिये उपदेश । तीन दिशि प्रति निंवमें, मेद नहीं लपलेश ॥४॥
॥होरी ॥ (तर्ज-हरि आवत ये करजोडी ) जगत उपकार करनको, प्रभुवाणी चदे सुखकारी ॥ अचली || चार जातिके देवने मिलकर, समवशरण रच्यो भारी। द्वादश पर्पद गह तिग मोहे, मन मोहे प्रभु
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
वृहत् पूजा-संग्रह
माता तिवारी |
उपकारी । भवोदधि पार उतारी, प्रभु वाणी वदे सुखकारी ||१|| देश विरति अरु सर्व विरति दो धर्म कहे हितकारी । साधु साधवी श्राद्ध श्राविका थापे तीर्थ प्रभु चारी । रत्न त्रयके अधिकारी, प्रभुवाणी वदे सुखकारी ॥ २ ॥ नित्य प्रति अति सोग धरंति, मरुदेवी भरतजी साथ लिये वहां आए, देख मोह दियो जारी । -गये शिव माता पधारी, प्रभुवाणीं वदे सुखकारी ॥ ३ ॥ कच्छ महाकच्छ दो विना सघरे, तापस आए विचारी । प्रभु के चरणमें शरण ग्रहण करो, आतम निज लियो तारी । वारी जाउं चार हजारी, प्रभु वाणी वदे सुखकारी ॥ ४ ॥ - पुण्डरीक प्रमुखा प्रभुकीना, चउरासी गणधारी । आतम -लक्ष्मी प्रभुता प्रगटी, वल्लभ हर्ष अपारी । जयो जिनवर जयकारी, प्रभुवाणी व सुखकारी ॥५ ॥
॥ काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ॥
श्री आदिजिन सर्वज्ञाय जलादिकं यजामहे स्वाहा ||४ || ॥ पंचम निर्वाण कल्याणक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ द्वादशगुण जिनमें वसे, अतिशय जिन चउतीस । वाणी
ரா
नि ॥०॥
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूना २५१ भू पावन करते विभु, आए सिद्ध गिरिंद । समवशरणमें चैठके, दे उपदेश जिनन्द ॥२॥ 'पुण्डरीकको उपदिशे, ऋषभदेव भगवान | होगा क्षेत्र सुभावसे, समको पद निर्वान ।। ३ ॥ जिन वानी मानी करी, रहे सहित परिवार । अष्ट करमको चुरके, पहुंचे मोक्ष मझार ॥ ४ ॥
त्य कराया भरतने, शत्रुञ्जय गिरिराज । पुण्डरीक पडिमा युता, थापे श्री जिनराज ॥५॥
॥सोरठ॥ (तर्ज-कुब जाने जादु ढारा) प्रभु आदिनाथ सुखकारा, किया जगजीवन उद्धारा ॥ प्र० ॥ अ० ॥ आदिनरेसर आदि जिनेसर, आदि मुनीसर धारा । आदि तीर्थ प्रवर्तक कहिए, आदि ऋपम अवतारा ॥प्र० ॥ १॥ नाना देशमें विचरे जिनजी, पोधि दान दातारा । तीन लाख साघी गण सोहे, मुनि चउरासी हजारा ।। प्र० ॥ २ ॥ तीन लाख पचास हजारा, श्रावक सुव्रत कारा। पांच लाख चउपन्न सहस्सा, श्रानिका चित्त उदारा ॥ प्र० ॥३॥ चउ विह सघ धर्म में जोडी, जिम लौकिक व्यवहारा । दीक्षा समयसे लास
S
a
man
mer
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५२
बृहत् पूजा-संग्रह
जानी प्रभु तीरथ, अष्टापदको सधारा । आतम लक्ष्मी निज ऋद्धिसे, वल्लभ हर्ष अपारा ॥ प्र० || ५ || ॥ दोहा ॥ अष्टापद गिरि ऊपरे, दश हजार मुनि साथ |
भक्त चतुर्दश तप कियो,
अनशन दीनानाथ ॥१॥
सुन आए चक्री वहां,
भरत भरत भरतार |
आए सुर परिवार ||२||
आसन कंपे इन्द्र भी अवसर्पिणि अर तीसरे, पक्ष नवाशी शेष | त्रयोदशी वदि माघकी, अभिचि तार विशेष ||३|| वासर पूरव भागमें पर्यकासन धीर । ध्यान शुक्ल वल कर्मको, नष्ट करे वड वीर ॥४॥ कर्म अभावे आतमा, सिद्ध परं पद जास | अजर अमर अज नित्यता, सादि अनंता वास ॥५॥ ॥ धनाश्री ॥
पूजन सुर तरुकंद जिनंद पद पूजन सुर तरुकंद ॥ अंचली || नाभिनंदन परदुखभंजन, रंजन सुरनर वृन्द ॥ जिनंद० || १ || प्रभु निर्वाण महोत्सव कारण, आए चउसठ इंद || जिनंद० || २ || प्रभु संस्कार स्थान में सुखर, रयण मय शुभ करंद || जि० ||३|| नंदीश्वर शाश्वत प्रतिमोत्सव, करी हरि हर्प धरंद || जि० ||४|| प्रभु संस्कार निकट भ्र
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री आदीश्वर पंचकल्याणक पूजा २५३ वलमें, चैत्य करावे जिनद ॥ जि० ॥५॥ चउवीस जिनपिंच थापी भरतजी, तन मन अतिविकमन्द ॥ जि० ॥६॥ बदन कमल कांन्ति प्रभु निरसी, हसभरतहुलसद ॥ जि० ॥७॥ आतम लक्ष्मी प्रभुता प्रगटी, वल्लभ हर्प अमद । जि०|८||
॥ कलश ॥
(रेखता) प्रमुश्री आदि जिनराया, कल्याणक पांच शुभ भावे । आराधे जो भवि प्रानी, अपुनरावृत्ति फल पावे ॥२॥ सिद्धाचल१ आबूर मेत्राणा३, जघडिया४ काची५ देलवारा६ । अचलगढ कांगडा८ कुल्पाकद , माणक१० स्वामी आनदकारा ॥२॥ घाणेरा११ कोरटा१२ नाडुलाई१३, अयोध्या१४ और पुरिमताला राणकपुर१६ राजनगर१७ दीपे, केसरियानाथ१८ उपरियाला१६ ॥३॥ इत्यादि तीर्थ नगर ग्रामे, प्रभुश्री आदि जिनदेवा । कल्याणक पूजना काजे, करी रचना प्रभु सेवा ॥४॥ नगर शिवगजसे चलके, आयो सघ नाथ धूलेवा। करी करुणा कृपासागर, दीजे फल आपकी सेना ॥५॥ मुखी गोमराज हसाजी, सकल परिवारके सगे। करी यात्रा कराई है, निकाली सघ अति रगे ॥६॥ सतावीस२७साधु साधविया, उणत्तर६६ साथ सघ आवे । केसरिया नाथके दर्शन की महानतको पावे ||9|| मपित
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४
वृहत् पूजा संग्रह
सुनि७ अंक चंद्राब्दे१ (१६७७), मधु दशमी सुदि सारी । करी यात्रा शशिवारे, हुओ आनंद अति भारी ||८|| दिवस महावीर जयंतीका, त्रयोदशी चैत्र गुरुवारे । आतम लक्ष्मी केसरिया में, पूरण चल्लभ हर्प धारे ॥६॥ तपागच्छ नाम दीपाया, श्री विजयानंद सूरिराया । विजयलक्ष्मी गुरुदादा, विजय श्री हर्ष गुरु पादा ||१०|| लघु तस शिष्य वल्लभने, स्तवे श्री आदि जिन भावे । कारण छद्मस्थ स्खलनाका, मिच्छामि दुक्कडं थावे ॥११॥ ॥ काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ॥
श्रीआदि जिनपारंगताय जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥ ५॥
事
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमद् विजयवल्लभसूरि विरचित
॥ श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ शांतिनाथ जिन सोलमा, शांतिकरण सुखदाय | नमन करी स्ववना करू, सिमरी शारद माय ॥ १ ॥ विजयानद सूरीशके, चरनकमल मन लाय । शातिनाथ पूजा रचू, हेम सूरि सुपसाय ||२||
कल्याणक जिनदेवके, पच अनादि रीत । च्यवन१ जनम२ व्रतरे ज्ञान है, पचममोक्ष पुनीत ॥३॥ समकित से भव जानिये, अतिम भव निसान | इस कारण अरिहंतके, वर्णन भव परमान ॥४॥ शाविनाथ अरिहतके, द्वादश भाव विस्तार | द्वादशमे भव मानिये, कल्याणक अधिकार ||५|| नदीश्वर उत्सव करे, प्रति कल्याणक इन्द | श्रावक तिम शुभ भावसे, पूजे
श्री जिनचंद ॥६॥
क्षत६ फल ७ सार ।
जलर चदन र सुमर धूपसे४ दीपा शचि नैवेद्य मिलायके, पूजा अष्ट प्रकार ॥७॥
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
वृहत पूजा संग्रह (तर्ज सारंग-कहरवा-समकित आतम गुण प्रगटाना)
तीर्थंकर पद जाऊं बलिहारी ||अंचली०॥ तीर्थ करे तीर्थंकर कहिये, तीरथ श्री संघ चार प्रकारी ॥ तीर्थकर ॥१॥ चारों गतिमें जीव विलक्षण,+ तीर्थकर पदके अधिकारी ॥ तीर्थकर० ॥ २ ॥ उत्कृष्टा पुण्योदय होवे तीर्थंकर शुभ नास. उचारी | तीर्थकर० ॥३॥ कल्याणक जिनदेवके करते, सुर सुरपति उत्सव अत्ति भारी ॥ तीर्थकर० ॥ ४ ॥ नाम थापना द्रव्य भावसे, तोर्थ कर सेवे नर नारी ॥ तीर्थकर० ॥ ५ ॥ चौतीस अतिशय पैंतीस वाणी, प्रगटे अरिहंतके गुण वारी ॥ तीर्थकर० ॥ ६ ॥ आतम लक्ष्मी संपदा प्रगटे । होवे वल्लभ हर्ष अपारी ॥ तीर्थकर० ॥७॥
॥ दोहा॥ पहला भव श्रीपेणका१ युगल२ दूसरा जान । स्वर्ग प्रथम३ है तीसरा, अमिततेज४ चउ मान ॥१॥ पंचम दशमें५ स्वर्गमें, अपराजितई बलदेव । अच्युतपति भव सातमें, अष्टम भव नरदेवटार॥
+ तीर्थंकर होनेवाला जीव चारों गति में अन्यान्य उस-उस __गति के जीवों से स्वाभाविक ही विलक्षण होता है । * नरदेव-चक्रवर्ती राजा।
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा २५७ अवेयक नरमे भवे, दशम मेघरथ१० राय । तीर्थकर शुभ नामको, वांधे जिनपद दाय ॥३॥ अंतिम११- स्वर्ग एकादशे, द्वादशमे१२ अवतार । हेमचद्रगुरु भाखिया, शांति चरित विस्तार ॥४॥ समकित सबका मूल है, ज्ञान चरण आधार । तीनों जन पूरण मिले, तब होवे भवपार ॥५॥
(तर्ज वनजारा की-श्रीसुविधि जिनंद सुसकारी)
हुये निजगुण समकित धारी। आतम शांति सुखकारी ॥ अंचली ।। श्रीपेण रतनपुर राजा, नीतिमंदों शिरताजा, अभिनदिता तस नारी। आतम शांति० ॥१॥ इंदुपेण निन्दुषेण नामा सुत दो नृपमन अमिरामा, कला यौगन क्यमें धारी। आतम शांति० ॥२॥ पुण्योदय सुगुरु पाया, उपदेश सुनी सुसदाया, लिया सममित मिथ्या टारी ॥ आतम शाति० ॥३॥ एक दिन दोनों भाई चन मे, लगे लड़ने ईर्षा मनमें, वेश्या, कारण अवधारी। आतम शांति ॥४॥ दोनों अभिमानी पलिया, -अन्तिम स्वर्ग सर्वार्थसिद्ध नाम का २६वां देवलोक ।
कौशाम्बी नगरी की रहनेवाली 'अनंतमतिका' नाम की वेश्या । कोशांची नगरीका राजा'चल' नाम उसकी श्रीमती नामकी
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
वृहत् पूना-संग्रह नहीं एक भी हठ से चलिया, श्रीपेण हुओ दुखी भारी। आतम शांतिः ॥ ५॥ राणी संग राजा विचारी, मृत्यु दिलमें गिरधारी, कियो जहर प्रयोग लाचारी। आतम शांति ॥ ६॥ आतम लक्ष्मी प्रभु हर्षे, सिमरी उत्तर कुरु? वर्षे हुये२ युगल रूप नर नारी | आतम शांति० ॥७॥ राणी से उत्पन्न हुई 'श्रीकांता' नाम कन्या थी । कन्याको उमरलायक हुई समझकर राजा बल ने बड़ी ऋद्धिसहित श्रीपेगराजा के पुत्र इन्दुलेग के स्वयंवर में भेजी थी। 'अनंतमतिका' नाम की वेश्या भी उस प्रसंग में वहाँ साथ में आई थी. जिसको देखकर मोहित हुये दोनों भाई आपस में उसकी प्राप्ति के निमित्त लड़ने लगे। पिता ने बहुत कुछ समझाया परन्तु एक भी अपने दुराग्रह से पीछे नहीं हटा। आखिर श्रीपेगने लाचार हो, मारे शर्म के जहरवासित कमलको सूधकर अपने प्राणों की आहुति कर दी।
१ जंबूद्वीपांतर्गत 'उत्तरकुरु' नाम के युगलियों के क्षेत्र में।
२ श्रीपेगराजाकी 'अभिनंदिता और 'शिखिनंदिता दो रानियां थी । अभिनंदिता के जीव का संबंध श्रीषेण के जीव के साथ श्रीशांतिनाथस्वामि के अन्तिम भव पर्यन्त रहा है, इसलिये अभिनंदिता के जीव का खास वर्णन पूजा में लिया गया है । वाकी यूं तो राजा श्रीपेण के साथ दोनों ही राणियों ने और एक 'कपिल' नाम के दासी पुत्र की स्त्री 'सत्यभामा नाम की ब्राह्मणी, जिसको धोखे में कपिल को ब्राह्मण पंडित समझकर उसके पिता ने
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
॥दोहा॥ लडते दोनों भ्राता को विद्याधर कहे आय । थिर चित्त हो दोनों सुनो, बात कहूँ सुखदाय ॥१॥ लडते हो जिस कारणे, सो तुम भगिनी होय। ज्ञानी विन नहि जीरको, बोध करे जग कोय ॥२॥ नाम १ विजय पुस्सलाई, विद्याधर आवास । पुरि आदित्यामापति, नाम कुण्डली सासः ॥३॥ सती अजितसेना भली, राणी तस सुत जान । मणि कुण्डली मुझ नाम है, कुल जाती परधान ॥४॥ प्रभुवदनको एक दिन, गया: अमितयश पास। निज पूरख भव पूछके, पूरी मन की आस ॥५॥ विवाही थी। पीछे पर्दा ग्युल जाने से विरक्त होकर दीक्षा लेने की इच्छा से राजा की रागी के पास पुत्रीवत रहती थी उसने एवं चारों ने विषप्रयोग से प्राण त्याग दिये और चारों ही युगलिकपने पदा हुये। जिनमें श्रीपेश और अभिनदिता पुरुप-स्त्री रूप पैदा हुये। दूसरा जोडा शिसिनंदिता पुस्प और सबमामा स्त्रीपने पैदा हुए।
१ जीप महाविदेह सीता नदी के उनर नटपर । २ यंताढय पर्वत। ३ पुण्टरिमिगी नगरीमे।
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-लेली लेली पुकारे वनमें ) । प्रभु अमितयशा फरमाना, सुन मणिकुंडली जगभाया। नहीं पार किसीने पाया, जिसने पाया उसने छिपाया ॥प्र०॥१॥ वीतशोक१ रत्नध्वज राजा, चक्रवर्ती गरीब निवाजा। कनक श्री हेमामालिनी रानी, सती शीलवती पतिमानी ॥०॥२॥ पुत्री कनकश्री कनकलता थी, एक दूसरी पद्मलता थी। हेममालिनी पुत्री पद्मा, लियो संयम बनी गुण सद्मा ॥ प्र० ॥३॥ दैवयोग एक एक दिन वेश्या, देखी आयी अशुभ मन लेश्या। बनू ऐसी तप परभावे, मरके देवी सुधर्मे थावे ॥०॥४॥ जीव कनकधी दान प्रभावे, वना मणिकुंडली तूं भावे । कनक पद्मलता इस भावे, इंदुषण विंदुषेण थावे ॥ प्र० ॥५॥ पद्माजीव वेश्या हुई भारत, करे निजपर सबको गारत, इंदुषेण बिंदुषेण भाई, करते हैं उस हेतु लड़ाई ॥ प्र० ॥६॥ प्रभु मुखसे सुनी यह बात, युद्ध रोकने आयो भ्रात। पूर्व भवकी मैं तुमरी माता, भगिनी गणिका वस धाता॥
१ पश्चिम पुष्करवरद्वीप शीतोदा नदी के दक्षिण किनारे सलिलावती नाम के विजयमें 'वीतशोक' नाम का नगर का राजा 'बल्लध्वज'।
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा २६१ प्र० १७॥ मोह विलसित सारा ससार, समझो सोचो करो निरधार । राग द्वप मोहको त्यागो, आतम लक्ष्मी मुनि पथ लागो || प्र० ॥८॥
॥दोहा॥ धिक धिक हम पशुतुल्यको, इम बोले दो भ्रात । गुरुसम हम समझाइया, धन्य पूर्व भर मात ॥१॥ छोर१ सकल ससारको, धर्म रुचि गुरुपास । चार सहस नृप साथमें, व्रत लीनो सुसरास ॥२॥ शुक्ल ध्यान दावानलें, कर्म काप्टको जार । सिद्धि नगर वासा किया, आवागमन निवार ॥३॥ आयु युगल पूरण करी, स्वर्ग सुधमें जाय। काल करी नरलोकमें स्थनू पुरभैर आय ॥४॥ अर्फ३ कीर्ति सुत ऊपनो, ज्योतिर्माला पेट । अमिततेज अभिधा धरे, मात पिता दुस मेट ॥५॥ १ इन्दुपेग बिन्दुपेग दोनों भाई। २ भरतक्षेत्र वताढय पर्वत रथन् पुरचनचाल नाम का नगर ।
३ ज्वलनजटी विद्याधरपुत्र अर्ककीर्ति की स्त्री ज्योतिर्माला की कूस से श्रीपेण का जीव पुनपने पैदा हुआ जिसका नाम अमिततेजा रखा।
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-लावणी देश-त्रिताल-सिद्धाचल तीरथनाथ )
आतम गुण समकित सार जगतमें जानो, समकितसे निर्मल ज्ञान क्रिया सब मानो ॥ अंचली ॥ शुद्ध देव गुरु शुद्ध धर्म तत्व हैं तीनों, अथवा नव तत्त्व कहे जिनदेवके चीनो। है जीव१ अजीवर पुण्य३ अरु पाप पिछानो, आस्रव५ संवर और बंध७ निर्जरा८ ठानो। नवमा है मोक्ष स्वरूप कहे जिनरानो ॥ समकितसे० ॥ १॥ समकित परभाव श्रीषेण जीवको कहिये, शोडष जिन शांतिनाथ शांति पद लहिए। चौथे भव नाम अमिततेजा तस नारा, नारायण पुत्री ज्योतिप्रभा गुण भारी । शिखिनंदिता श्रीषेण पूर्व भव मानो ॥ समकितसे० ॥२॥ रविकीर्ति पुत्री सुतारा भामा थावे, अभिनंदिता नारायण पुत्र कहावे । श्रीविजय नाम शुभ मात तातने दीनो, जस लग्न सुतारा संग तातने कीनो। इम चारोंका संबंध
x श्रीपेग के भव में शिखिनंदिता नाम की श्रीपेग की जो दूसरी राणी थी उसका जीव, त्रिपृष्ट नाम के वासुदेवकी स्वयंप्रभा नाम की राणी की कूखसे पुत्रीपने पैदा हुआ जिसका नाम ज्योतिप्रभा रखा गया, वह अमिततेजा के साथ विवाही गई।
ॐ सत्यभामा का जीव ।
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा विचारी जानो ॥ समकितसे० ॥ ३ ॥ अर्ककीर्ति छोरी राज्य हुतो अनगारी, करे अमिततेज अब राज्य न्याय अनुसारी। भ्राता त्रिपृष्ट वियोग सोग हलधारी१ हुओ साधु कर श्रीविजय राज्य अधिकारी । प्रगट्यो निज आतम केवल ज्ञान सजानो ॥ समकितसे० ॥ ४ ॥ विद्याधर अशनिघोष कपिल अवधारो, हरी नार सुतारा कीनो कपट विस्तारो । आखिर संग्रामसे भाग शरण बलर लीनो, श्रीविजयामिततेजा ने पीछो कीनो। ज्ञानी मुनिने पूरव संबंध वखानो । समकितसे० ॥ ५ ॥ श्रीपेण अमिततेजाको प्यारे जानो, अभिनदिता श्रीविजयराज को मानो। शिखिनंदिताको ज्योति प्रभा दिल धारो, सत्यमामा नाम सुतारा जीव ये चारो। विद्याधर अशनिघोप कपिल अभिधानो ॥ समफितसे० ॥६॥ अशनि३ माता वहाँ आई सुतारा लेके, मुनि चरणी दोनों भावसे मस्तक टेके । उपदेश सुनि मुनि त्याग दिया ससारा, लिया सयम अपने
१ अचल नाम का वलदेव । २ अचल बलदेव विलनानी मुनि के शरगमे अशनिघोप विद्याधर श्री विजयराज और अमिततेजा के प्रताप को न सहनकर समाम को छोड भागकर आ गया, पीछे ही पीछे श्री विजयराज और अमितेजा भी वहा ही आये।
३ अशनियोप।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४ . वृहत् पूजा संग्रह . आप किया निस्तारा । आतम लक्ष्मी वल्लभ मन अति हर खानो । समकित्तसे० ॥ ७ ॥
॥दोहा॥
मुनि उपदेश प्रभावसे, शांत हुये सब छेक१ । अशानिने२ संयम लिया, नपति साथ अनेक ॥१॥ स्वयं प्रभा श्रीविजय की, माता तज संसार । शुद्ध भाव संयम ग्रही, निज आतम उद्धार ॥२॥ श्रीविजयामिततेजने, अणुव्रत लीना धार। नमन करी मुनिराजको, पहुँचे नगर मझार ॥३॥ विधिसे श्रावक धर्मको, आराधी दो राय । राज्य देश निज पुत्रको, आप हुये मुनिराय ॥४॥ श्रीविजयामिततेज दो, अनशन कर सनिदान । निर्निदान३ क्रमसे बने, प्राणत४ कल्प विमान ॥५॥
१ छेक-चतुर । २ अशनिघोष ।
३ श्रीविजय राजपिने अपने पिता त्रिपृष्ट वासुदेव की अमृद्धि को याद करके आप वासुदेव वनने का नियाणा किया था इस लिये 'सनिदान' नियाणावाला और अमिततेजा ने नियाणा नहीं किया था इसलिये 'निनिदान' नियाणा विनाका ।
४ प्राणत कल्प दशमा देवलोक ।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
२६५
( तर्ज पील्लू -- अथवा गिरिवर दर्शन विरला पावे ) जिनपर वचन जगत हितकारी, निज निज भाव करण अधिकारी || अ० || कर्माधीन जीव जग फिरता, नाना रूप धरत ससारी । कर्म रहित आतम निजरूपे, सत चित आनद रूप विहारी ॥ जिन० ॥ १॥ पूर्व विदेहे रमणी विजयमें, शुभ नामा नगरी शुभकारी । स्विमित सागर नृप राणी वसुन्धरा, कुख अमिततेजा अवतारी ॥ जिन० ॥२॥ गज१ वृपर चांदर सरोवर४ पूरण, देखे सुपने राणीने चारी । पूछा पतिको नृप कहे देवी, सुत होगा उत्तम हलधारीx || जिन० ||३|| पुत्र हुआ दिया नाम पिताने, अपराजित रूप लक्षण भारी । देखत दिलमें हर्ष मनावत, मात पिता सज्जन नर नारी ॥ जिन० ॥ ४॥ नाम अनुधरा दूसरी राणी देखत सुपना शयन मकारी । केसरी १ लक्ष्मी२ सूर्य३ कलश४ फुन, सागर५ रतन जलन ७ महोहारी || जिन० ||५|| पतिको कहती प्रेमसे राणी, सुपने देसे मात उदारी । क्या होगा फल नाथ कहे नृप, विष्णु सुत होगा नलकारी ॥ जिन० ॥६॥ स्वर्गसे जीव श्री विजयका व्यपके, आया गर्भ में पुण्य आधारी । समये पुत्र हुओ अति सुन्दर, नाम
1
* कंटो X
----
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह अनंतवीर्य अवधारी ॥ जिन० ॥७॥ राम कृष्ण दोनों बडभागी, विद्या यौवनके हुये धारी। आतम लक्ष्मी हर्ष अनुपम, वल्लभ उत्तम जन बलिहारी । जिन० ॥८॥
॥दोहा॥ स्तिमितसागर नृप एकदा, मुनिसे सुन उपदेश । अनंनवीर्यको नप बना, आप लियो मुनिवेश ॥१॥ मूलोत्तर गुण साधता, तप तपता मुनि इंद। अंत विराधक दैववश, हुआ बना चमरीद ॥२॥ राम कृष्ण दो न्याय से, करे पिताका राज । विद्याधर सहवाससे, सीखे विद्या बाज ॥३॥ एक दिवस नारदमुनि, आया पर्षद माह । नाटकी दासी तानमें, ख्याला किसीने नाह ॥४॥ रोष करी चलता हुआ, गया दमितारि पास । शोभा चेटीकी करी, हुई दमितारी नाश ॥५॥
१ बर्वरी और किराती नाम की दो दासी गीत नाटकादि कला में अति कुशल थीं, जिस वक्त नारदजी अनन्तवीर्य और अपराजित दोनों भाइयों की राजसभा में आए उस वक्त वहाँ उन दोनों दासियों का संगीत हो रहा था, इस कारण किसी ने उधर ख्याल नही किया, जिस पर नारदजी विगड़ पड़े।
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
- श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा
(लावणी-चाल सग नर परनारी हरना) करमकी वात जगत भारी, किये करम फल पाय शुभाशुभ, जग सब नरनारी ॥ क० ॥ अचली ॥ करम फल निज निजका पाना, मीठा हो वा कटक बिना किये नहीं फल नाना। निमित्त मातर परको जानो, भोजन किया खराब चुरा उडकार भी तस मानो। थान सब रीति यह ठानो । नारद दामी दो बने, दमितारिके निमित्त । होणहार ही होत है, होणी आवे चित्त। मांगता दासी दमितारि ॥ किये करम० ॥१॥ इतने दासी मांग कीनी, भेजेंगे कर सोच चलो आज्ञा विष्णु दीनी । सलाह कीनी दोनों भाई, कीजे विद्या सिद्ध प्रथम पीछे सब चतुराई । करी सिद्ध विद्या अपनाई । दूत दुबारा आगया, दीनो तस समझाय । विद्यावल दासी बने, राम कृष्ण दो भाय । गये सग द्त सबरदारी ॥ किये करम० ॥ २ ॥ देखके दमिवारि मनमें, सोचे रूप अपूर्व अहो इन दोनोंके तनमें । करण नाटक आज्ञा दीनी, दोनोने कर रग अपूरव समा मूढ कीनी । धार ससार सार लीनी। सुश हो दमितारि कहे, सुनो हमारी वात। सिखलाओ नाटक कला, पुत्री मुझ दिनरात । कनकधी होवे हुशियारी ॥
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७०
धृहत् पूजा-संग्रह तुम०॥१॥ न्याय नीतिसे राज्प चलाते अत्याचार निवार । पर उपकार करनमें सूरे धन धन तुम अवतार ॥ तुम० ॥ २ ॥ विरता माता कुखसे उपनी सुमति कन्या सार । बलभदर जस तात कहावे बार बार बलिहार ।। तुम० ॥ ३ ॥ धर्म पसाय स्वयंवर मंडप बोध दियो सुरी आय । मात पिता परिवारकी आज्ञा लेकर संयम पाय ॥ तुम० ॥ ४ ॥ कर्म खपाई मोक्ष सधाई सुमति हुई भव पार | अनंतवीर्य वियोगसे मनमें अपराजित दुख धार ॥ तुम० ॥ ५ ॥ धिक संसार असार विचारी नप संग सोल हजार । जयंधर गणधर चरनोंमें त्याग दियो संसार ॥ तुम० ॥ ६॥ आतम लक्ष्मी कारण संयम पारी अनशन धार। द्वादश स्वर्ग पति सुरवल्लभ उपनो हर्प अपार ॥ तुम्० ॥ ७॥
॥दोहा ।। नरकायु पूरण करी, दो चालीस हजार । अनंतवीर्य वैताठ्यकी, उत्तर श्रेणि सार ॥ १ ॥ नगर गगनवल्लभ पति, मेघवाहन भूपार । मेघमालिनी कूखसे, मेघनाद अवतार ॥ २ ॥ १ सुरी-देवो जो समति कन्या की पूर्व जन्म की बहिन थी।
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७१
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा यौवन वय राजा हुओ, दो श्रेणी भरतार । विद्यावल मेरु गिरि, सिद्धायतन जुहार ॥ ३ ॥ शाश्वत जिन वदन लिये, आयो सह परिवार । पूर्व सहोदर देसके, जाग्यो स्नेह उदार ॥ ४ ॥ बोध दियो हरि भाडको, करो त्याग संसार । मानलियो गुरुवचन सम, मानी अति उपकार ॥ ५ ॥
(तर्ज वसन्त होई आनन्द बहार) धर्म सदा जयकाररे भवि धारो हियेमें । धारो हियेमें सारो जिये में, धर्म सदा जयकार रे भवि०॥०॥ अमरगुरु नामा मुनिरे, आये करत विहाररे ॥ भवि० ॥ १ ॥ मेघनाद विद्याधरे रे, लीनो सयम भार रे ॥ भवि० ॥२॥ एक दिवस मेरु गिरि रे, लायो ध्यान उदाररे भवि०॥३॥ अश्वग्रीव नंदन अरिरे, पूरव भव अनुसाररे । भवि० ॥४॥ दैत्य हुओ भटकत भवरे, वैर मुनिपर धाररे ॥ भवि० ॥ ५ ॥ कष्ट दिये दिये कई जातकैरे, सहन किये अनगाररे ॥ भवि० ॥ ६॥ आतम लक्ष्मी हर्पसेरे, मुनि अनशन अवधाररे ॥ भवि० ॥ ७ ॥ अच्युत सामानिक हुओरे, वल्लम हर्ष अपाररे । भवि ॥ ८॥
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ दोहा ॥
अष्टम भव जिन शांतिका, सुनिये चित्त लगाय ।
अवतार ।
अच्युतपति पद भोगके, अपराजित पूर्व विजय मंगलावती, रत्नसंचया पुरि क्षेमंकर नरपति, योग क्षेमके रत्नमाला राणी सती, तस कूखे पंदरमा १ सह वज्रके, चउद सुपन अवधार ॥ ३ ॥ राणी पूछे रायको नाथ कहो फल आप | होगा सुत चक्री तुझे वज्री २ सम परताप || ४ || जन्म समय सुत तातने, कियो उत्सव अभिराम । वज्र सुपनके स्वालसे, दियो वज्रायुध नाम ||५|| (तर्ज-सीया राम भजो मन मेरा )
।
धन्य वज्रायुध अवतारा, जिने समकित हढ़तर धारा ॥ धन्य०॥ अंचली || यौवन वय वज्रायुध धारी, पाली सकल कला हुशियारी, मात पिता संबंधी विचारी, लक्ष्मीवती विवाही नारी || प्रभु० ॥ जीव अनंतवीर्यका व्यवके अच्युत कल्पसे आवे, लक्ष्मीवती कुक्षी सुक्तिमें मुक्ताफल सम थावे | सूचित सुन्दर स्वप्न अनुपम समय सुत फल पावे, १ - राणी रत्नमालाने वज्र सहित १५ स्वप्न देखे । २ वज्री - इन्द्र |
२७२
सुखदाय || १ ||
नाम |
धाम ॥२॥
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा २७३ सहसायुध ठवी नाम महोत्सन विधविध तात करावे । यही रोति सब समारा ॥ धन्य बनायुध अवतारा ॥२॥ यौवनश्य कलावान कहायो, दादा दादी दिलमें सुहायो, नृपपुत्री कनकधी करायो, आनद मगल मग्न समायो । प्र० ॥ तिसकामी सुत हुवा अनुपम शतालि नाम धराया, बैठे एक दिन सत्र परिवारे क्षेमकर महाराया। ईशानेंद्र देवसमामें वज्रायुध गुण गाया, चित्रचूल सुर माने नाही लेन परीक्षा आया। जग दुर्जन यह अधिकारा || धन्य वज्रायुध अवतारा ||२|| नास्तिक मतिसे सुर प्रश्न कीनो, समकित में वज्रायुध लीनो, उत्तर सुरको यथारथ दीनों तू प्रत्यक्ष विरोध में मीनो । प्र० ॥ सुद ही अपने ज्ञानमे देसो पूर्व भव क्या कीता, सुकृत जिसका फल वैभव यह सुरभवका है लीता । पूरख भव थे ना तुम इस भव देन जीव है जीता, इस भव परमा उमय लोक है सिद्ध वचन यह गीता । कहे जिनपर महगणधारा ॥ धन्य वज्रायुध अवतारा ॥३॥ चित्रचूल कहे धन्य बलिहारी, भवजल गिरतो लीनो उगारी, चिर मिथ्यात्व में दीनो विसारी, दीजे समकिन मुम उपकारी ॥ प्र० ॥ वनायुधने समकित दीनो सुर महे अति हरखाना, किंकर हूँ मैं तुमरा स्वामी
१८
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
वृहत् पूजा संग्रह
अवसर याद कराना। नमन करी आभूषण देई पहुँचा देव विमाना, सुरपति संमुख भावे कीना वज्रायुध गुणगाना | होवे गुणी गुणिजन गुण भारा || धन्य वज्रायुध अवतारा ||४|| इन्द्र कहे सुन सुरखर प्यारे, धन्य है वो जो समकित धारे, आप तरे औरोंको तारे, वज्रायुधमें गुण हैं अपारे । प्र० । क्षेमंकर जिन केवली होके होंगे तोरथ स्वामी, चक्री होगा तब वज्रायुध चक्ररत्नको पामी | पंचम भवमें पंचम चक्री शांतिनाथ अभिरामी, आतम लक्ष्मी तीर्थंकर पद सेवा आतमरामी । होगा वल्लभ हर्ष अपारा || धन्य वज्रायुध अवतारा ||५||
1
॥ दोहा ॥
ऋतु वसंत में एक दिन, जलक्रीडा के हेत । वज्रायुध वापी गयो, अंतेऊर समेत ॥ १ ॥ दमितारि अरि पूर्वका देवर हुओ वहां आय । वज्रायुधको देखके पूर्व चैर मन लाय || २ || मारणकी इच्छा करी, सपरिवार कुमार | वापी ऊपर डारियो, पर्वत एक उखार ॥३॥
१ वापी - वाव - बौडी 1 २ दमितारी प्रतिवासुदेवका जीव चिरकाल संसार में परिभ्रमण करता हुआ इस समय विद्युद्दष्ट्र नाम का देवता हुआ था ।
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
निज बल तोड पहाडको, वज्रायुध बलवान | चापि वाहिर आइयो, तोडी सुर अभिमान ||४| इस अवसर नढीसरे, हरि१ यात्रा मन धार । नमन विदेहजर जिनकरी जाता देस कुमार ॥५॥
२७५
(वरवा - करवा चाल धन धन वो जगमे )
धन धन वज्रायुध नग्नाथ, जाऊ तुम चरनन पर वारी ॥ अचली || तुम हम भन हो नरनाथ, पंचम भव शांतिनाथ । बनोगे नर३ और तीरथ नाथ, नमन करु चरनन वार हजारी ॥ घ० ||१|| गयो हरि निज स्वर्ग मफार वज्रायुध नगर पधार | किया क्षेमकरने विचार, राज्यका वज्रायुध अधिकारी ||६० ||२|| समये लोकांतिक आय, विनचे क्षेमकर पाय । लेड़ दीक्षा तीर्थ चलाय, करो उपकार जगत उपकारी ॥६०॥३॥ दियो प्रभुने वार्षिकदान, लियो सयम अति सनमान । कियो प्रगट केवलज्ञान, करी क्षय घातीफर्मको चारी ॥ घ० ||४|| वज्री वज्रायुध साथ, उपदेश सुनी जगनाथ । भावे नमी जोरी हाथ, गये निज धाम अतुल मुखकारी ॥०||५|| आतम लक्ष्मी सुपताय,
१२ महाविदेह के तीर्थ को । ३ नरनाथ - चक्री और तोर्घनाथ तीर्थपर ।
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह क्षेमंकर श्रीजिनराय विचरे भविजन हर्षाय, करी वल्लभ जिनराज दिदारी ॥ ३० ॥ ६ ॥
॥दोहा॥ वज्रायुध चक्री बन्यो, विजय कियो छै खंड । न्याय सहित पालन करे, प्रजा नहीं कर दंड ॥१॥ यौवराज्य स्थापन कियो, सहस्रायुध कुमार । बैठो एक दिन पर्पदि, साथ सकल परिवार ॥२॥ डरतो१ विद्याधर युवा, शरणे आयो राय । पीछे मारनको कई, आये दिये समझाय ॥३॥ सबने संयम ले लिया, क्षेमकर जिन पास । कर्म खपी मुक्ति गये, हो गई पूरण आस ४॥ वज्रायुध सुत सुत भलो, कनकशक्ति शुभ नाम । संयम लेइ मुक्ति गयो, पायो आतमराम ॥२॥
१ एक दिन चक्रवर्ती राजा वज्रायुध अपने मातहतके राजा सामंत और मंत्री मंडल आदिके साथ सभा में बैठे हुए थे इतनेमें एक युवा विद्याधर कांपता हुआ आकाशसे नीचे उतरा और वत्रायुध की शरण में आया। उसके बाद ही ढाल तलवार हाथ में लिये एक विद्याधरी और गदा हाथ में लिये हुए एक विद्याधर भी आ पहुंचे।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा (माढ दादरा-मेरे गमका तराना यह तर्ज घाल-हिमाचल धारा)
जिनवर हितकारी अति उपकारी नमिये चार हजार । प्रभु आनंदधारी जय जयकारी, जाऊं बलिहारी नमिये वार हजार ॥ अ० ॥ क्षेमकर प्रभु आवियारे, सुन वज्रायुध राय । साडयर शुद्ध भावसेरे, आय नमे प्रभु पायरे ।प्रभु०। ॥१॥ शुभ भावे प्रभु देशनारे, सुन सयम मन धार । राजा राणी पुत्रोरे, साथ हुओ अनगाररे ।। प्रभु० ॥२॥ सहन करत उपसर्गकोरे, करता उग्र विहार । तप तपता कड जातकेरे, निज आतम उद्धाररे । प्रभु०॥३॥ सहस्रायुध सुन आवियारे, पिहिताश्री गणधार | कर्णामृत सुनो देशनारे, लीनो संयम भाररे ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ सहस्रायुध मुनि विचरतारे, बज्रायुध मिला आय। पुन पिता दोनों मुनिरे, विचरे माध सदायरे ॥ प्रभु० ॥ ५॥ पदरमे देवलोकमे रे, उपने अनशन पाल । आतम लक्ष्मी संपदारे, यल्लम हर्प निहालरे । प्रमु० ॥६॥
१ चार हजार मुकुट वध राजा, चार हजार रागिया और सान सौ पुत्रों के माथ यमायु र चार्तिने श्री क्षेमंकर तीथंकर के परनोंमें दीक्षा धारण की।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
हत् पूजा.
२७८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ दोहा ।। पुंडरकिणी नगरी भली, राजा घनरथ सार । प्रियमति और मनोरमा, दो तस सुन्दर नार ॥१॥ ग्रैवेयक पूरण करी, वज्रायुध निज आय१ । प्रियमति उदरे आवियो, मेघ सुपन दरसाय ॥२॥ सहस्रायुध रथ स्वप्नसे, मनोरमा उर धार । समये सुत दो ऊपने, आनंद हर्ष अपार ॥३॥ नाम मेघरथ ठानियो, प्रियमति सुत अभिराम । मनोरमा सुत धारियो, दृढ़रथ सुन्दर नाम ॥४॥ यौवन वय शादी२ हुइ, नंदिषेण घनसेन३ । तनय मेघरथ जानिये, दृढ़रथ सुत रथसेन ॥५॥
(तर्ज-कुबजाने जादू डारा) धन्य धनरथ नृप अवतारा, जिने सार लिया संसारा ॥ धन्य० ॥ अं० || एक दिन पुत्रप्रपुत्र सहित नप, अंतेउर परिवारा । नाना विनोद करत उसवेरा, गणिका वचन उचारा ॥ धन्य० ॥१॥ देव मेरा यह कुर्कुट जिसके, कुर्कुटसे जाय हारा। लाख सुनैये देऊ उसको, सच्चा प्रण है म्हारा ॥ धन्य० ॥ २ ॥ राणी मनोरमाने मंगवाया,
१ आयु । २ शादी-विवाह-लान । ३ मेघसेन ।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा २७६ क्रीडा कुफुट सारा । दोनों युद्ध करत आपसमें, देवत खूप प्रहारा | धन्य० ॥ ३ ॥ कहे धनरथ दोनोंमें कोई, जीतेगा नही प्यारा। प्रश्न मेघरथ १ उत्तर धनरथ, पूरव भर विस्तारा ॥ धन्य० ॥४॥ स्वयं युद्ध हैं तो भी आये, लोकांतिक अधिकारा। मेघरथको राज्य दिया प्रभु, हढरथ युवराज धारा ॥ धन्य० ॥ ५ ॥ वापिफदान देह लेड दीक्षा, घाति करम विडारा। आतम लक्ष्मी केवल पायो, वल्लभ हर्प अपारा ॥ धन्य० ॥ ६ ॥
॥दोहा॥ देवरमण उद्यानमें, राजा प्रियासमेत । इक दिन नाटक देसता, चंठा आनद देत ॥१॥ आयो इस अवसर वहां, एक पुरुप सह नार । प्रिय मित्रा ने पूछियो, दे उत्तर भरतार ॥२॥ विद्याधर विद्याधरी, अमित वाहन भगान | दर्शन करी आये यहाँ, भाग्यमान गुणवान ॥३॥ १ राजा पनरथ ने कहा इन दोनों में से किसी एक का भी जय या पराजय न होगा। इस बात को सुनकर मेघरथ ने प्रश्न किया कि, पिताजी ! इसका क्या कारण है ? तव तीन ज्ञान के धत्ता राजा धनरथ ने पूर्व भव सम्बन्ध विस्तार से वर्णन किया ।
२ एक दिन मेघरथ राजा अपनी प्रियमित्रा रागी सहित
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
..
वृहत् पूजा-संग्रह राज्य पुत्रको सौंपके, धनस्थ जिनवर पास । लेइ दीक्षा खपी कर्मको, पावेंगे शिववास ॥४॥ नमन मेघरथको करी, दोनों गये निज धाम । देवरमणसे मेघरथ, आयो अपने ठाम ॥५॥
( लावनी-नेमजी की जान बड़ी भारी) . जगतमें जिनवर जयकारी, धरम जिनवरका सुखकारी ।। अंचली० ॥ दोष अष्टादशके त्यागी, प्रभु नहीं द्वषी नहीं रागी। धरम जग उनका फरमाया, सही है सच्चा सुखदाया। वीतराग जिनदेव है, नामका नहीं विचार । अरिहंत जिन शिव विष्णु विधाता, राम महेश गोपार । चाहे हों हरि हर गिरधारी, जगतमें जिनवर जयकारी ॥१॥ धरम साधु श्रावक कहिये, सर्वविरति साधु लहिये । देवरमण नाम के उद्यान में अशोक वृक्ष के तले बैठा हुआ सुन्दर संगीत-नाटक देख रहा था। इतने में वहां हजारों भूतों ने आकर राजा को खुश करने के लिये बड़ा भारी नाटक करना शुरू किया। उनका नत्य हो ही रहा था, कि एक विमान आसमान से नीचे उतरकर मेघरथ राजा के पास आया विमान में सुन्दराकृति एक पुरुप स्त्री सहित वैठा हुआ था । इनको देखकर प्रिय मित्रा ने अपने पति से पूछा कि हे नाथ ! ये कौन हैं ? और यहां किस कारण आये हैं ? राजा ने उसका खुलासा किया।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८१
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
देशनिरति श्रावक साधे, निरंतर आतम गुण वाधे । मेधस्थ पौपध धारके, बैठो पौपधागार | जिनपर धर्म सुनावत साथी सुनते हृपे अपार । नमोनित जिननर अनगारी, जगतमें जिनपर जयकारी ||२|| कांपता पारापतर आके, गिरा गोदीर चक्कर साके । बोलता गदगद ३ नसानी, निशानी शरणागत प्रानी । पीछे ही भट झपट के, आयो पसी बाज । कथनी अपनी सबही सुनावन, लागो मेघरथ राज । कतर अरज करी जारी, जगतमें
जिनपर जयकारी ॥ ३ ॥
कबूतर -
शरणा तो ले लिया है चाहे मारो या उगारो ॥ अंचली० ॥ तुम धर्मके हो धोरी, सुनो अर्ज एक मोरी । न गुनाह कोई किया है, चाहे मारो या उगारो ॥ श० || १ || हो प्राणका भी जाना, आश्रितको नचाना | तुम धर्म कह दिया है, चाहे मारो या उगारो ||
श० ॥ २ ॥
राजा
(तर्ज- पूजन तो हो रहा है )
-
चस
स धर्म मुहिया है चाहे मानी या न मानी
१
2
कबूतर । सोले मे । ३ इसके भरता ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ अं०॥ भय कुछ न कर तूं प्रानी, करनी में रक्षा ठानी। जबतक मेरा जिया है, चाहे मानी या न मानी ।। वस० ॥३॥
वाज~
____ मैं भी शरण लिया है, चाहे मानो या न मानो ॥ अं० ॥ राजन् यह भक्ष्य मेरा, देना है धर्म तेरा। दया दान मानिया है, चाहे मानो या न मानो ॥ मैंभी० ॥४॥ दया धर्मी तुम कहाओ, मुझको न क्यों बचाओ । कहना मैं कह दिया है, चाहे मानो या न मानो।। मैं भी० ॥५॥ राजा
शिर जावे तो जावे, मेरा दया धरम ना जावे ॥६०।। दया बिना कोई धरम नहीं है, धर्मका मूल कहावे || मेरा० ॥१॥ दया के कारण ऋषि मुनि तापस, वन में ध्यान लगावे ।। मेरा० ॥२॥ शिर जावे तो जावे, मेरा सत्य धरम ना जावे ॥ अं० ॥ सत्यसे धर्म परीक्षा होवे, जग जय सत्य मनावे ॥ मेरा सत्य० ॥३॥ सत्य प्रभाव जगजन सज्जन, सतियोंके गुण गावे ॥ मेरा सत्य० ॥४॥ सिर जावे तो जावे मेरा क्षात्र धरम न जावे ।। अं० ॥ सच्चा क्षत्री वो है जगमें, शरणागतको बचावे ॥ मेरा क्षात्र० ॥५॥ मैं नहीं
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रो शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
२८३ दंगा शरणे आया, परलो क्यों नहीं आवे ॥मेरा क्षात्र०॥६॥ सच्चा धर्मी उमको कहिये, धर्म लिये मर जावे ॥ मेरा आत्म धरम ना जावे ॥ ७॥
(तर्ज-लावणी) जगत में जिनपर जयकारी, धरम जिनपर का मुखकारी || अंचली।
माज
___ याज कह सुन राजन् प्यारे, कहा मेरा क्यों नहीं धारे। पचाया पारापत जैसे, बचाओ मुझको भी वैसे । मरवा हूँ मैं भूप से, दया करी मुझ तार | दे दो भक्ष्य मेरा मोहे जल्दी, होगा अति उपफार | कहाते तुम उपकारी । जगतमें जिनपर जयकारी ||४||
गग आया नहीं में देना, यदि तमाम ही है देना । कतर मम अपना देऊ, शरण वत्सल में हो लेऊ । इम कही मगवाई तुला, दीनो कबूतर धार! काट काट निन देवी दीनो, मार न कोनो विचार । देगियो पागा भारी। जगत में जिनपर जपकारी || ५ || अतुल TETT TET T
reformir i TT AT
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
वृहत् पूजा-संग्रह
हाहाकार करते, दुःख दिल अपने में धरते। मायावी कोई देव है, पक्षी न इतनो भार । विन कारण क्यों नाश करत हो, अपने आप विचार । प्रगट हुओ देव चमत्कारी | जगतमें जिनवर जयकारी ॥ ६ ॥
देवता -
( तर्ज - इस कलयुग में लाखों गुरु हैं हुये ) इस दुनियां में लाखों करोड़ों हुये शाह तुमसा तो कोई मगर न हुआ । खुदको रहमकी खातिर किया कुवां, तुमसा और किसीका जिगर न हुआ || इस०||अं० ॥ तेरी इन्द्रने जो सिफ्त की स्वर्ग में, सुनकर मुझसे न बिलकुल सही वो गइ | आया तेरा मैं लेने यहां इमतिहां, मुसा और कोई वेकदर न हुआ | इस० || १ || लाया जोर था जितना मेरे में सभी कार आमद न हुआ जरा
,
भी यहां । तुमने धार लिया करना परका भला, इसलिये तुम कुछ भी असर न हुआ | इस० ॥ २ ॥ ॥ दोहा ॥
धन्य धन्य तुम धन्य हैं, धन्य मात अरु तात । धन्य जन्म तुम सफल है, धन्य धन्य दिनरात ॥१॥
(तर्ज - लावणी - जगत में जिनवर जयकारी ) स्तुति करता नमता राजा, गया कर देव स्वर्ग
+
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
२८५
साजा । पूछिया? कारण परिवारा कहा पूव भव विस्तारा | पारापत और वाज दो, सुन पूरव भन आप । नमन करत आतम धन्य मानत करता मनमें ताप । करी अनशन सुरपर धारी | जगतमें जिनवर० ॥ १ ॥ ॥ दोहा ॥
वाज कबूतर जीवका, याद करी वृत्तात । प्रशम बीज वैराग्यको, पायो अवनीकात ॥ १ ॥ अष्टम तप उपसर्गको, सहन परीपद हेतु । धीर वीर सम मेरुके, कायोत्सर्ग समेत ||२||
१ जब देवता - " पूर्व भव के वर से युद्ध मे तत्पर इन दोनो पक्षियों को देस इनके शरीर मे अधिष्ठाता होकर परीक्षा लेने के निमित्त हे सत्पुरुष । मने जो कुछ आपको काट दिया मेरे उस अपराध को क्षमा कर" इत्यादि कहता हुआ राजा को राजी करके स्तुति करता हुआ चला गया, तब चकित होकर सामतादि परिवार ने राजा मेघरथ को पृछा - हे स्वामिन् । ये बाज और कनूतर पूर्व जन्म में कौक थे ? इनका पारस्परिक धेर क्सि निमित्त
1
से
हुआ ? और यह देवता पूर्व भव से कौन था ? इसने बिना ही किसी अपराध के इतनी माया फैलाकर आपको प्राणति कष्ट मे क्यों ढाला ? इसके जबाव मे राजाने पूर्व वृतांत सुनाया ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
वृहत् पूजा संग्रह
खडे समाधि ध्यानमें, देख इन्द्र ईशान । मन वच काया शुद्धिसे, नमन करत भगवान ॥ ३ ॥ नमन किया किसको विभो, खुद ही तुम हो नाथ । इन्द्र कहे नृप मेघरथ, नाथ अनाथ सनाथ ||४|| भावी जिन हैं ध्यान में, नमन कियो कर जोड | ध्यान चलाया ना चले, इन्द्र सुरासुर कोड ||५|| (लावणी - माराठी ऋषभजिनंद विमलगिरिमंडन ) चित्तसमाधि आधि व्याधि द्वारे सब संसारारे, ध्यान समाधि दृढ़कर धारे धन्य जग वो नर नारारे ॥ अं० ॥ ईशान इन्द्र करी महिमाको सुन इन्द्राणी उचारारे, आवेगी हम उसको चलाकर क्या मानव इतवारारे ॥ चि० ॥१॥ इम कहती आई भूमिपर ला रहीं जोर अपारारे, अंत हार गई क्षमा याचती राजा पौषध पारारे ॥ चि०||२|| आये विचरते घनरथ अर्हन् वंदत नृप परिवारारे, सुनी उपदेश हुआ वैरागी प्रभु चरणी चित धारारे || चि०॥३॥ मेघस्थ दृढ़रथ दोनों भाई नृप सह चार हजारारे, सातसौ पुत्र साथ में संयम लीना आत्म उदारारे ॥ चि० ॥ ४ ॥ सहन करत उपसर्ग परीपह समिति गुप्ति भंडारारे, विविध अभिग्रह तप एकादश अंग ज्ञान अवधारारे ॥ चि० ||५||
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८७
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा वीस धानक सेनी मेघरथने तीर्थकर पद सारारे । निकाचितपने प्राप्त किया शुभ आनद मंगलकारारे ॥ चि० ||६|| सखारथ सिद्ध उपने दोनों मुनि अनशन निरधारारे । आतम लक्ष्मी हर्प अनुपम वल्लभ जय जयकारारे ॥ चि० ॥ ७ ॥
॥ दोहा ॥ भरत क्षेत्र कुरु देश में, गजपुर नगर सुठाम । विश्वसेन नृप घर सती, अचिरा राणी नाम ॥१॥ एक दिवस पुण्य योगसे, राणी आधी रात 1 सुखशय्यामे देखती, चउद सुपन महा जात ॥२॥ भादरसा वदि सातमे, शशि भरणीके योग | ससारथ सिद्धसे च्यवी, आयु पूरण भोग ॥३॥ जीव मेवरथ जानिये, अचिरा उदरे आय । पुत्रपने पैदा हुआ, पूरण पुण्य जागी अचिरा सुपनको याद करी राजा पासे जायके, सुन्दर वचन उचार ||५||
क्रमवार ।
पसाय ॥४॥
(तर्ज- आशायरी नृपभ प्रभु भनजउ पार उतार ) सुपन फल कहिये नाथ विचार सुपन० ॥ जंचली ॥ पाधि व्याधि गोच फिकर नहीं, नहीं है तनमें विकार |
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
वृहत् पूजा-संग्रह सुखशय्या आनंदसे देखे, सुपने दस और चार ।।सुपन०॥१॥ गज१ वृपर केसरी३ लक्ष्मी४ देवो, फूलमाला५ श्रीकार । चंद्र६ सूर्य धज८ कुंभा पदमसर१०, रत्नाकर११ . जलवार ॥ सु० ॥ २ ॥ देव विमान१२ रतनकी राशि१३ निर्धूम अग्नि१४ झार। इन सुपनोंका क्या फल होगा, कहिये मुझ भरतार ॥ सु० ॥ ३ ॥ सुन हर्षित नृप कहे सुन देवी, सुपन अति मनोहार। सुत होगा तुझ तेज प्रतापी, तीर्थकर सुखकार। सुनो सुनो सुपने मंगलकार, सुपने मंगलकार ॥ सु० ॥ ४ ॥ अथवा होगा छै खंड स्वामी, चक्री रतन चउद धार । अचिरा बोलो एवं भवतु, नाथ वचन सतकार ।। सु० ॥ ५ ॥ आतम लक्ष्मी हर्षे मनाती, पति आज्ञा अनुसार । अपने शयनागारमें पहुँची, वल्लभ हप अपार ।। सु० ॥६॥
। काव्यम् ।। गर्भस्थोऽपि च संस्तुतो हरिगणैर्जातस्तु हेमाचले, सद्भक्त्या सुरनायकैः शुचितरैः कुम्भाम्बुभिः स्नापितः । दीक्षाकेवलबोधपर्वणि महानन्दाप्तिकाले सुरः सबोधाप्तिकृतेऽचितो जिनवरः श्री शांतिनाथोऽत्रतात् ॥१॥
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा २८६ ॐ ही श्री परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्मजरामृत्युनिवारणाय श्रीपरमेष्ठिने जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥१॥ || द्वितीय जन्मकल्याणकपूजा ||
॥दोहा॥ देव गुरु और धर्मको, यातचीत परधान | जागरणा रानि करी, पालन सुपन निदान ॥१॥ प्रातःकाल बुलायके, नैमित्तिक समुदाय । विश्वसेन फल पूछिया, राणी सुपन सुनाय ॥२॥ नैमित्तिक कहे नरपति, सुनो हमारी वात । चउद सुपन हैं देखती, जिन चक्रीकी मात ॥३॥ इस कारण सुत होयगा, तीर्थकर महाराज । अथवा चक्री होयगा, राजवश शिरताज ॥४॥ दान मान सनमानसे पडित किये विदाय । राणी अपने गर्भकी रक्षामें चित्त लाय ॥॥
(तर्ज ठुमरी जाओ जाओ नेमि पिया) धन्य जिनराज जनपद शांति दातारे ॥ धन्य० ॥ अचली || गर्ने प्रभु आये जन, रोग कुरुदेश तर। नाना
१ जनपद देश।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
वृहत् पूजा-संग्रह जात पात दुख नर नारी वातारे१ ॥ धन्य० ॥१॥ विविध उपाय कीने, पुण्य किये दान दीने। दुई नहीं तो भी भाग्यवश सातारे । धन्य० ॥२॥ गर्भ प्रभाव जानो, पुण्य भी प्रबल मानो। एकदम सारा जनपद शांति पातारे । धन्य० ॥३॥ प्रभु परताप सानी, अवधि नहीं ज्ञानी जानी। पावे नहीं पार गणपति गुण गातारे धन्य०॥४॥ आत्मलक्ष्मी स्वामी थावे, अनुपम हर्ष पावे। वल्लभ परमपद मुक्तिसुख रातारे ॥ धन्य० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ आवे जिन जब गर्भमें, कंपे आसन इन्द । अवधि ज्ञानसे देखके, नमन करे जिनचंद ॥१॥ आते भक्ति भावसे, नमन करत जिन मात । ज्ञापन करते स्वप्नफल, तीर्थकर तुम जात ॥२॥ इम कही उत्सव कारणे, नंदीश्वरमें जाय । आठ दिवस पूजारचे, शाश्वत श्रीजिनराय ॥३॥ सुर सुरपति निज थानमें, जावे हर्ष मनाय । राजा भी निज शक्तिसे, नव नव ठाठ बनाय ||४|| माता गर्भ प्रभावसे, दिन दिन तेज लहंत । धन्य जाति कुल धन्य है, अक्तरिया अरिहंत ॥५॥ १ बात समूह ।
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
(तर्ज सोहनी ढ ूढ फिरा जगसारा )
जनमत जिन सुखकारा, सुखकारा भविजन कीजे अर्चना ॥ अं० ॥ गर्भसमय पूरण जय होवे, शुभ ग्रह शुभदृष्टि से जोवे । ऊचपना लिये धारा, सुसकारा भविजन कीजे अर्चना | जनमत० ॥ १ ॥ जेठ वदि तेरस सुखकारी, भरणी साथ निशाकर १ धारी । जनमे जिन जयकारा, सुखकारा भविजन की अर्चना || जनमत० ॥ २ ॥ मात • पुत्र दुःख दोनों न पावे, तीर्थंकर स्वभाव प्रभावे । त्रिभुवन होवे उजारा, सुखकारा भविजन कीजे अर्चना ॥ जनमत० ॥ ॥ ३ ॥ नारक भी उस क्षण सुखी थावे, आनंद मगल लोक मनावे | शुभमें शुभ अधिकारा, सुखकारा भविजन, कीजे अर्चना | जनमत० ॥ ४ ॥ मृग लंछन कांचन छवि प्यारी, आतम लक्ष्मी जाउ बलिहारी । वल्लभ हर्ष अपारा, सुखकारा भविजन कीजे अर्चना || जनमत० ॥५॥
1
।
|| काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ||
श्रीमदर्हते जलादिकं यजामहे स्वाहा || २ ||
१ चंद्र |
२६१
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
बृहत् पूजा-संग्रह ॥ तृतीय दीक्षाकल्याणक पूजा ।।
॥दोहा॥ अवधि ज्ञानसे जानके, जन्म जिनेश्वरराय । रीति अनादि अनुसरी, दिशाकुमारी आय ॥१॥ उरध अधो चारो दिशा, आठ रुचक परमान । चउचउविदिशामध्यकी, घट पंचाशत५६ जान ॥२॥ करके निज निज कार्यको, क्रमसे सह परिवार ।। जिन जिनजननीको नमी, करती जय जयकार ॥३॥ आसन कंपे इन्द्रका, अबधिज्ञान विचार । जिन जन्मोत्सब कारणे, आवे जन्मागार ॥४॥ मात नमी प्रभुको ग्रही, गयो सुमेरु आप। इन्द्र सभी हाजर हुये, जिनवर पुण्य प्रताप ॥५॥ - (तर्ज ठमरी-लागी लान कहो कैसे छूटे०)
प्रभु पूजन सुखकारा भविजन, भवजल पार उतारारे । प्रभु० ॥ अंचली ।। चउसठ सुरपति सुरगिरि ऊपर, करे अभिषेक उदारारे । इक अभिषेके कलश अड जाति, जानो चउसठ हजाररे ॥.प्र० ॥१॥ चंदन पुष्प आदि सब विधिसे, पूजन नाना प्रकारारे । आरात्रिक कर प्रभुके आगे, स्तोत्र पवित्र उचारारे ॥प्र० ॥ २ ॥ इम पूरण कर जन्म
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६३
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा महोत्सव, अपना आप सुधारारे । लाकर प्रभुको जननी पासे, धार किया नमोकारारे ।। प्र० ॥ ३॥ रत्न स्वर्ण महावृष्टि कीनी, गजपुर नगर मझारारे। कर्त्तव्य अपना करके मधवार आठमेर द्वीप सधारारे ।। प्र० ॥४॥ सुर सुरपति सन मिल नदीश्वर, किया उत्सम अधिकारारे। आतम लक्ष्मी प्रभु पूजन कर, वल्लभ हर्प अपारारे ॥ प्र० ॥ ५ ॥
॥दोहा ॥ सुर पूजित निज पुत्रको, देसी अचिरा मात । रोम रोम हर्पित भई, धन्य धन्य मुझ जात ॥१॥ विदित किया परिवारने, विश्वसेन महाराय । दान देइ उत्सव किया, पुत्र जन्म होय ॥२॥ रोग शांत किया गर्भमें, इस कारण शुम नाम । तात दियो शाति प्रभु, शाति शातिको धाम ॥३॥ तीन बान धारी प्रभु, योग्न वय जर पाय । मात पिता तम हर्पसे, पाणिग्रहण कराय ॥॥ विश्वसेन देड पुत्रको, राज काज लियो साध । शातिनाथके राज्यमें, नाम नहीं अपराध || १ इन्द्र, २ नदीश्वर।
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
वृहत् पूजा संग्रह
( तर्ज - अवतो पार भये हम साधो ) दीक्षा उत्सव करे सुखकारी, सुर सुरपति मिल चार प्रकारी || दी० ॥ अंचली ॥ सरखारथ सिद्ध से चत्री आयो, रथ जीव हुओ अवतारी । शांति प्रभु सुत नाम दियो शुभ, चक्रायुध निज सम अधिकारी || दी ० || २ || क्रमसे षट खंड साधी प्रभुने, चक्री पद लीनो अब धारी । अवधिज्ञान से समय को जानी, कीनी संयम लेन तैयारी ॥ दी० ॥२॥ लोकांतिक आ अरज गुजारें, अपनी अनादि रीति विचारी । नाथ तीरथ वरताओ जगमें, होवे जिन शासन जयकारी || दी० || ३ || वरसी दान देह प्रभु दीनो, चक्रायुध को राज्य आचारी । चक्रायुध सुरपति मिल कीनो, दीक्षा उत्सव आनंद भारी || दी० || ४ || जेठ वदि चौदस भरणी शशी, छठ तप कीनो सिद्ध नमोकारी | शांति प्रभु दीक्षा कल्याणक, साथ हुए नृप एक हजारी || दी० ॥ ५ ॥ नंदीश्वर जा उत्सव कीनो, दीक्षा कल्याणक मनोहारी | आतम लक्ष्मी प्रभु पूजम से, होवे वल्लभ हर्ष अपारी || दी० ॥ ६ ॥
|| काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ॥ अशान्तिजिननाथाय जलादिकं यजामहे स्वाहा ||३||
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पंचकल्याणक पूजा || चतुर्थ केशलज्ञानकल्याणकपूजा ||
॥दोहा॥ शांति प्रभु संयम लियो, शुद्ध हुए अनगार। मनपर्यव तम ऊपनो, ज्ञान अनादि चार ॥१॥ मंदिरपुर परमान्नसे, पारणा प्रभु अवधार । पांच दिव्य सुरवर किये, सुमित्र नृप आगार ॥२॥ अनासीन निर्मम प्रभु, मूलोत्तर गुण धार । शयन रहित निःसग हो, करते उग्र विहार ॥३॥ समिति गुप्ति धारी प्रभु, निश्चल मेरु समान । धर्म ध्यान तत्पर विभु, सहसारन उद्यान ॥४॥ गजपुर नगर पधारिया, शातिनाथ भगवत । ग्राम नगरमे विचरते, बार मासके अत ॥५॥
(तर्ज-थइ प्रेमवश पातलिया) प्रभु ध्यानकी बलिहारी, भरसागर पार उतारीरे ॥अचली।। नदिवृक्षतले प्रभु छठकी, तपसा ध्यान लगायो । सप्तमसे अष्टमसे आयो, सित? ध्यान प्रथम पद चारीरे ॥१॥ नवमे लोम कपायको सक्षम, करके दशमे आये।
१ शुक्ल ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६६
वृहत् पूजा-संग्रह सूक्षम संपराय कहावे, क्षय मोह करण अधिकारीरे ॥ प्रभु० ॥ २॥ मोहके क्षय होने से पहुँचे, क्षीणमोह गुणठाने । तस अंतसमय शुक्ल ध्याने, पद दूसरे होय विहारीरे ॥ प्रभु० ॥३॥ मंत्र प्रभाचे जिम विष अहिका, देहसे दंशमें आये। इस ध्यानले तिम मन थावे, अणुमात्र विषय अवधारीरे ॥ प्रमु० ॥ ४ ॥ अग्नि जिम अन्य काष्ट अभावे, आप शांत हो जावे। तिम विषयांतर के अभाचे, स्वयमेव शांत मन धारीरे ॥ प्रभु० ॥ ५॥ ध्यानाग्निसे घाति करमका, नाश प्रभुने कीना । उज्वल केवल धरलीना, धन्य शांतिनाथ जयकारी रे ॥ प्रभु० ॥ ६ ॥ पोष सुदि नवमी भरणी शशी, शांति शांतिके धामी । आतम लक्ष्मी पद पामी, वल्लभ मन हर्ष अपारी रे ॥ प्रभु० ॥ ७॥
[ जिनसे ऊपर की तर्ज (चाल) न गाई जावे उनके लिये और खास करके पंजाबियों के लिये यही ढाल कव्वाली में रखी है। दोनों में से जिनकी जो मर्जी होवे गा सकते हैं, क्योंकि मतलब दोनों का एक ही है। हाँ यदि अधिक उत्साह होवे और दोनों ही गाना चाहें तो बड़ी खुशी से गा सकते हैं। ]
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
॥ कवाली ॥ प्रभु श्रीशांति जिन तुमने, लगाई ध्यानकी धारा । होवे धारा वही जिसको, वही हो जावे भव पारा ॥ अंचली ॥ तरु नंदितले छठकी तपम्या ध्यानमे लीना । क्षपक श्रेणी लगे चढने सातसे आठ पगधारा ॥ प्रभु० ॥१॥ प्रथम पद ध्यान चौथेका, जोर जस स्थान नवमेमें । लोभ को सूक्ष्मतस्करके, दशम गुणस्थान स्वीकारा || प्रभु०॥२॥ गारमे स्थान जा पहुंचे, करी क्षय मोहको जडसे । क्षणे अन्तिम द्वादशके, दूसरा पाय उजियारा ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ जहर ज्यूं मत्रसे अहिकार डकमें देहसे आवे | ध्यानसे त्यू विषय अणुमें, होतहे मनका सचारा || प्रभु० ॥ ४ ॥ अमाये अन्य काष्ठोंके, अनलर ज्यू शांत हो जाता । स्वयं मन शांत त्यू होता, विषयसे होत जब न्यारा ॥ प्रभु० ॥ ५ ॥ अनल शुभ ध्यानसे घाति, करमको भस्म फरदीना। हुओ प्रभु जान केरल है, लिया निजरूपको धारा ॥ प्रभु० ॥६॥ तिथि सुदि पोपकी नवमी, निशाकर३ वास भरणीमें। आत्म लक्ष्मी प्रभु पाये, वल्लभ मन हर्प नही पारा ॥ प्रभु० ॥ ७ ॥
१ अहि - मर्प। २ अनल-अग्नि। ३ निशाकर-चंद्र
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
वृहत् पूजा-संग्रह
तीन दिशा प्रतिरूपको
थापे व्यंतर देव ।
ध्वजा पुर एव ॥ ३ ॥
भामंडल पीछे रचे, चक्र सुनि१ सुरनारी२ साधवी अग्नि १ कूण अवधार । ज्योति१ भवनर व्यंतरः सुरी, नैरितर कूण विचार ॥४॥ ज्योति १ भवनर व्यंतर ३ सुरा, वायव३ कूण मकार । सुर१ नर२ नारी३ कूणमें, ईशाने४ श्रीकार ॥५॥ | ( मालकोश - त्रिताल )
प्रभु शांतिनाथ उपदेश देत, सुने भव्य जीव भव तरण हेत || प्रभु || अंचली || दुर्लभ भव मानवको पायो, धर्म करे तो हो सुखदायो । शुद्ध करी निज आत्म खेत । प्रभु० ॥ १ ॥ क्रोध मान मायाको विसारे, लोभ कषाय को दूर निवारे । इन्द्रिय जय मन धार लेत ॥ प्रभु० ॥२॥ इन्द्रिय जय विन निष्फल जानो, काय क्लेश यम नियम वखानो | राग द्वेष तज देत चेत | प्रभु० ॥ ३ ॥ चक्रायुध सुनी प्रभु मुख वानी, राज्य देह सुत हुओ मुनि ज्ञानी ।
8 - प्रभु समवसरण में पूर्वाभिमुख बिराजते हैं, अन्य तीन दिशा में व्यंतर देवता प्रभु के प्रतिबिंव स्थापन करते हैं, प्रभु के प्रभाव से वे भी प्रभु के समान ही दीखते हैं ।
x - धर्मचक्र और इन्द्र ध्वज प्रभु के आगे ही होते हैं ।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शांतिनाथ पंचकल्याणक पूजा
३०१
आतम लक्ष्मी
दीक्षा पैंतीस नृप समेत ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ प्रभु गण ईशा, चक्रायुध आदि छै तीसा । वल्लभ हर्प है
शिवसकेन || प्रभु० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥
लाख वरस जिन आयुके, व्रत मंडलिक कुमार | चक्रवर्त्ति मिल चारके, प्रति पणवीस १ हजार ॥१॥ एक वर्ष वर्ष छद्मस्थका, शेप केवली धार । भूमडलमें विचरते, हुआ प्रभु परिवार ||२|| साधु चासठ र सहस हैं, साधवी कमरे शत चार । श्रावक दो लख ऊपरे, नानो नपति४ हजार ||३|| सहस तिरानवे श्राविका, तीन लास सह जान | चार कल्याणक गजपुरि, समेतशिसर निखान ॥४॥ अन्त समय जानी प्रभु, आये शिखर गिरींद | नवसौ
साधु सगमे अनशन कियो जिनन्द ||५|| ( तर्ज - न छेरो गारी दूंगीरे भरने दो मोहे नीर ) शांति प्रभु अनशन कीनोरे बलिहारी धीर वीर । शांति० ॥ अंचली ॥ अनशन कीनो प्रभु जानी, सुर सुरपति
१ - २५०००, २ ६२०००, ३६१६००, ४-२६००००, ५-३६३००० १
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
वृहत् पूजा संग्रह अवधि ज्ञानी । आये निज कारज मानी रे। बलिहारी धीर वीर ॥ शांति० ॥१॥ मासांते जेठ की काली, तेरस भरणी शशी भाली । मन वाक योग कियो खाली रे। बलिहारी धीर वीर ॥ शांति० ॥ २ ॥ शुक्लध्यान तीसरा जानो, चौथे शेलेशी मानो। लघु अक्षर पांच प्रमानो रे । बलिहारी धीर वीर ॥ शांति० ॥३॥ अवशिष्ट कर्म क्षय कीना, पद मोक्ष निजातम लीना। हुआ जनम मरण भय खीनारे । बलिहारी धीर चीर ॥ शांति० ॥४॥ आतम लक्ष्मी प्रभ धारी. दियो आवागमन निवारी। कल्याणक उत्सव भारीरे । बलिहारी धीर वीर ॥ शांति ॥५॥ निर्वाणोत्सव सुर करके, पूजन शाश्वत जिनवर के। गये नंदीश्वर चित धरकेरे। बलिहारी धीर वीर ॥ शांति० ॥६॥ करके उत्सव सुर जावे, आतम लक्ष्मी फल पावे । वल्लभ मन में हर्षावरे । बलिहारी धीर वीर ॥ शांति० ॥७॥
॥ काव्यम् मंत्रश्च पूर्ववत् ॥ श्रीशान्तिजिनपारंगताय जलादिकं यजामहे स्वाहा ॥५॥
(धन्याश्री) पूजन शिवतरु कंदी, श्रीशांति जिन पूजन- शिवतरु
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री शातिनाथ पचकल्याणक पूजा ३०३ कदी ॥ अंचली ॥ शांन्ति जिनेश्वर जग-परमेश्वर, जग शान्ति हुलमदी ।। श्रीशांति० ॥१॥ च्यवन१ जन्मर दीक्षा३ अरु केवल४ , मोक्ष५ परम सुख नंदी ॥ श्रीशांति० ॥२ ॥ तीर्थकरके पाँच कल्याणक,उत्सव करे सुर बन्दी ॥श्रीशांति. ॥३॥ तिम श्रावक उत्सव करे भावे, समकित सार गहंदी ॥ श्रीशान्ति० ॥ ४ ॥ तपगच्छगगनमें दिनमणि सरीखा, सरि श्रीविजयानदी ॥ श्रीशाति० || प्रथम शिष्य श्री लक्ष्मी विजयजी, कुमति कुपंथ निकदी । श्रीशान्ति०॥६॥ तस शिष्य मुनि श्री हर्ष विजयजी, मुनिजन हर्ष अमंदी ।। श्रीशान्ति० ॥७॥ तस लघु किंकर मदमति अति, वल्लभविजय कहदी । श्रीशान्ति० ॥८॥ शक्ति नहीं पिण भक्तिके वस, जिन गुण कथन करदी | श्रीशान्ति ॥६॥ सवतशशी शर५ चेद४ युगलर है, प्रभु श्रीवीर जिनंदी । श्रीशान्तिः ॥१०॥ आतम निधिः कर२ शशी? वसु८ जाता१६, विक्रम सालसुहदी | श्रीशान्ति० ॥ ११ ॥ कार्तिक सुदि एकादशी जगमे, देव प्रमोध कहदी ॥
४ दिनमणि- सूर्य । - वीरसवत् २४५१, आत्म संवत् २६, विनम सवत् १६८१ ! 8 माता-ज्ञाताधर्मक्या अध्तयन १६ ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
वृहत् पूजा-संग्रह श्रीशान्ति० ॥१२॥ शुक्रवार सिद्धयोग कहावे, रचना पूरण हुदी । श्रीशान्ति० ॥ १३ ॥ लाभपूर लाहोर नगरमें, चौमासा आनंदी ॥ श्रीशान्ति० ॥१४॥ कुचर मास्तर धोराजी वासी, विनती सफल लहंदी ॥श्रीशान्ति० ॥१५॥ आतम लक्ष्मी हप अनुपम, वल्लभ मन विकसंदी ॥ श्रीशान्ति० ॥ १६ ॥ भूल चक मिच्चामि दुक्कड, सनमुख शान्ति जिनंदो ॥ श्रीशान्ति० ॥१७॥
ANS.
.
rot
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य श्री मनिकृपा चन्द्रसूरि विरचित
॥ श्रीगिरनार तीर्थ पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
स्वस्ति श्री मगलकरण, थभणपास जिनद । प्रणमी पदपंकज सदा, प्रभुना धरि आनंद || १ || तीरथ जगमांहि घणा, तेहमां अठे विशेष | शेत्रख रेवत गिरि वरु, वर्णन करू हमेरा ॥२॥ || दोहा सोरठा ॥
सोरठ देश सोहामणो, सहुदेशा सिरदार तेमाहि तीरथ प्रगट, श्रीगिखिर गिरनार || ३ || कल्याणक जिहां त्रपथया, दीक्षाज्ञान निर्वाण । नेमिजिणंद बसाणिये, यावत्र कुल नम भाण || ४ || पूजा रचूं गिरिराजनी, मनमां धरि अति सत । पूजानी विधिमेलनी, भाव
अधिक उलस || ५ ॥
॥ ढाल ॥
(तर्ज- पूर्वमुग्न सावनं करिदर्शन पायनम् )
पूर्वमनी शुचियई शुद्ध अनुभा लई, करघरि कलम शुचिल उदारम् हारे अइओ शुचि जलउदार ॥ १ ॥
J
२०
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
बृहत् पूजा-संग्रह
पहिर खीरोदकं बांधि मुहकोशकं, धूपवाशित सदोत्तरीय सारं || हारे अ० स० || २ || गंगासिंध्वादिना खीरसागरतणा, तीर्थजल औषधी मिश्रकीजे ॥ हां० अ० मि० ॥ ३ ॥ आठ जातीतणा । कलश भरी सुरगणा स्नात्र प्रभुनी रचे सुर गिरीन्हे ॥ हांरे० अ० सु० ॥ ४ ॥ इम भविभावकरि शुद्ध समकित धरि जिनतणी पूजा करो चित्त धारी || हरे अ० चि० ||५||
मंत्र — ॐ ह्रीं श्रीपरमात्मने अनंतानंत ज्ञान शक्तये गिरिनार गिरो श्रीनेमि - जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा || ॥ द्वितीय केसर चंदन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
नेमिजिणंद दिणंदसम, शिवसुख तरुनोकंद । रेवतगिरिवर मंडणो, पूजनकरो अखंड ||१|| घसकेशर मृगमदवलि, बावनचन्दन संग | अम्बर घनसार मेलवी, करो विलेपन अंग ||२|| ॥ रागनी भैरवी ॥
विलेपन करिये, प्रभुजीके अंग ॥ वि० ॥ जिनवरको तनुं फरसन सेती, पामेजिन गुण संग || वि० ॥ १ ॥ पारस
-
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगिरनार तीर्थ पूजा ३०७ फरसत लोहा कंचन, तिम होवे कीटक भृङ्ग ॥ वि० ॥२॥ शिवादेवी अगज हो प्रभु, श्यामवरण धु ति चग ॥ वि० ॥३॥ चरण युगल कच्छपसम प्रभुना, कर पकज जल सग ॥ वि०॥ ४ ॥ वदनचन्द्र अकलकित कीनो, भाल अर्ध शशि अग ॥ वि० ॥ ५ ॥ निलोत्पलसम नेत्रयुगल फुनि, कामराग थयो भंग ॥ वि० ॥ ६॥ केशरचन्दन मृगमद अम्बर, प्रभुपूजो मनरंग ॥ वि० ॥ ७ ॥ मंत्र-ॐ हीं श्रीपर०.. • केशरं चन्दन यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ तृतीय पूजा जिनवरतणी, करे भविक उजमाल । फूल सुगधी लेइने, चाढे भरि भरि थाल ॥ समवशरणमां सुरकरे, पुष्पवृष्टिधरिभक्ति । तिमश्रावक शुभ भावथी, पूजा करे यथाशक्ति ।
॥ रागनी वृन्दावनी सारंग ॥ प्रभु अरचा रचो मिल भविजना। नाना-विधना फूल सुगधी, लेई तुम थावो इकमना ॥ प्रभु० ॥१॥
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
वृहत् पूजा-संग्रह त्रिकरण योगकरी प्रभुपूजो, चितधरी शुभ भावना ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ च्यारनिक्षेपे जिनवर जाणी, मनमन्दिर में लावना ॥प्रभु०॥३॥ अनुयोगद्धार आवश्यकसूत्रे, वेदनिक्षेप सुहावना ॥ प्रभु० ॥४॥ ठवणा समवसरण तिहुं दिशिमां, प्राची भाव कहावना ॥ प्रभु० ॥ ५ ॥ द्रव्येजिनवर श्रेणिक पाहा, नाम ऋषभादि सुहावना ॥ प्रभु० ॥६॥ इमविधि प्रभुकी भक्ति करीये, शमरस अमृत श्रावना ॥ प्रभु० ॥७॥ कृपा करिने साहिब मुझने, कीजे कृतार्थ पावना ॥ प्रभु० ॥ ॥ ८ ॥ मंत्र--ॐ ह्रीं श्री पर०... पुप्पं यजामहे स्वाहा ॥ || चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ यादव कुलनो चन्दलो, ब्रह्मचारी शिरमोड । वावीसमा जिनवरतणी, पूजा करो कर जोड ॥१॥
॥ सोरठा ॥ अगर चन्दन घनसार, सेल्हारस मांहि मेलिये। मृगमद अम्बर सार, धूपघटा करिपूजिये ॥२॥
॥ रागनी सोरठ॥ . सेवोभविने जिणंद सुखकारा, करि धूप धूम मनुहारा।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगिरनार तीर्थ पूजा
३०६ सेवोभवि० ॥ गिरिनार गिरि मंडण दुख खंडण, भविजन कीयसुधारा । कर्म प्रपल दलदाह करनमिस, धूप दहो सुविचारा | सेवोमवि० ॥ १॥ सौरी पुरमें जन्म प्रभुनो, समुद्र विजय कुल माणा। शिमादेवी उदर शुक्ति मुक्ताफल, चित्रानक्षत्र बसाना ॥ सेवोमवि० ॥२॥ च्यवन जन्म कल्याणक प्रभुना, सौरीपुरमे जाना । गिरनार गिरि पर सहसा वनमें, दीक्षाग्रही सुख खाना ।। सेत्रोमवि० ॥३॥ चौसठ इन्द्र करे उछरगे, जिन सेवा मनुहारा। कृपा चन्द्र ए प्रभुने जानो, निश्रेयस दातारा ॥ सेवोमवि०॥४॥ मंत्र-ॐ ही श्री पर०....''धूपं यजामहे स्वाहा ॥ ॥ पंचम दीपक पूजा ॥
॥ दोहा ।। पांचमी पूला दोपनी, प्रकटे ज्ञान उद्योत । करो भविक जगनायनी, मन वांछित सुसहोत ॥१॥ शिवादेवीनो लाइला, अतुल वली वडवीर। श्यामसलुणो नाइलो, नेमिनाथ सुसमीर ॥२॥
रागनी कल्याण || अहो प्रमु पूजा रचो चित चगे॥ अहो० ॥ रेवत गिरि पर नेमि जिनेश्वर, केरल लदो मुखसगे ॥ अहो प्रभु०
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१०
बृहत् पूजा संग्रह
॥ १ ॥ व्यार निकायके सुरसुरी मिलके, त्रिगडो रचे अतिरंगे || अहो प्रभु० || २ || समवसरण में राजे प्रभुजी, देशना दे भवभंगे || अहो ० || ३ || साधु साधवी वैमानिक देवी, अग्निकूण उमंगे || अहो० ||४|| ज्योतिषि भवनपति व्यन्तर सुरी, रहे नैरित जिन संगे || अहो ० || ५ || वायव विदिशे एहिज देवो, जिनवाणी सुणे रंगे || अहो० ॥ ६ ॥ वैमानिकसुर मानव-स्त्रीजन, ईशान दिशिमें संगे || अहो० ॥ ७ ॥ वारपर्षदा जिनवाणीसुण, मगन हुवे मन रंगे || अहो० ॥ ८ ॥ गोघृत भरि मणिपात्र अनूपम, दीपक करो मन चंगे || अहो० ॥ & ॥
मंत्र — ॐ ह्रीं श्री पर०
दीपकं यजामहे स्वाहा ॥
॥
॥ षष्ठम अक्षत पूजा ॥ दोहा ॥
अक्षत अक्षत लेईने, स्वास्तिक रचो विशाल | ज्ञानादिकत्रण पुञ्ज थी, पामो मंगल माल ॥१॥ राजीमतीको छोड़के, नेमि चढ्या गिरनार । रथनेमि राजीमती, लीधो संयमभार ॥२॥ ॥ रागनी माड ॥ नेमिजिन पुजो तो सही, प्रभु रैवतगिरि सिणगार ।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगिरनार तीर्थ पूजा
३११
नेमि जिन० || आंकणी || उत्तनशालि प्रमुख बहुअशन,
चाढो तो सही । अक्षयसुख कारण जगतारण, जिनपर
1
1
शरता ग्रही || प्रभु || १ || आधेय थी आधार अनोपम, जगमे सोभ लही । श्रीगिरनार नेमि फरशनते, कीर्तिव्याप रही ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ भरत नरेश्वर सघ लेई ने, शेत्र जे यात्रा लही । चैत्य निर्माण पण नवीन करीने, रेवत मार्ग ग्रही || प्रभु || ३ || स्वर्णगिरि पर नेमि जिणंदना, मणि कनकादि मयी । देरासर नवीन रचीने, नेमिनी पडिमा ठही || प्रभु० ॥ ४ ॥ क्रोड देवसे ब्रह्मेन्द्र आयो, भरतनो मुजस कही । पहिलो उद्धार प्रथम चक्रिनो, एम अनेक लही || प्रभु० || ५ || गिखिर मंडण नेमि जिनेश्वर, मेटो भाव लही । सिद्धि सौध चढवा मनरगे, सोपानपक्ति कही || प्रभु० ॥ ६ ॥
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीपर०
अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
ܩܕ
-
॥ सप्तम नैवेद्य पूजा || ॥ दोहा ॥
सातमी पूजा साचवे, श्रावक शुचि शुभभावे । भांत भाव नैवेद्यना, थाल भरि भरि लावे ||१||
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
वृहत् पूजा संग्रह नेम नगीना नाथने, आगल धरो मन रंग। अक्षय सुख वरवा भणी, पूजा करो चितचंग ॥२॥ (तर्ज-लूहर सारंग -रामत रमवा में गई थी)
नेमि जिनेसर पूजीये, एतो खतगिरिनो रायो हे माय ॥नेमि०॥ समवशरणमें वेसिने, एतो वचनामृत वरसायो हे माय । भव्य हृदय भूसींचाने, एतो वोध वीज निपजायो हे माय । नेमि० ॥१॥ मेघध्वनि जिम गाजता, एतो संघ चतुरविध ठायो हे माय। देश विदेशमा विचरतो, शिवमारग दरसायो हे माय । नेमि० ॥ २ ॥ सेजे गिरिवर फरशने, एतो गिरनार नाथ कहायो हे माय । अढार सहस वाचंयमी, एतो वरदत्तादि गणरायो हे माय ॥ नेमि० ॥ ३॥ चालीस सहस्त्र श्रमणी भली, एतो यक्षणी प्रमुख सुहायो हे माय । एक लाख गुणोत्तर सहस, एतो श्रावकनो समुदायो हे माय ॥ नेमि० ॥४॥ प्रण लक्ष अढार सहस वली, एतो सुजश श्राविका पायो हे माय । भोज्यपदारथ थी प्रभु पूजी, एतो अनाहार नाम कहायो हे माय ॥ नेमि० ॥ ५ ॥
मंत्र-ॐ ही श्री पर....."नैवेद्य यजामहे स्वाहा ॥
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगिरनार तीर्थ पूजा ३१३ ॥ अष्टम फल पूजा ॥
॥ दोहा ॥ परम पुरुष परमातमा, परमानन्द प्रधान । परमेश्वर प्रभु पूजिये, परम विज्ञान निधान ॥१॥ अष्टमी पूजा जिन तणी, अष्टमी गतिदातार । फल पूजा करो भावसु, जिम लहो सुख अपार ॥२॥
॥रागणी काफी त्रिताल ॥ उज्जयंत गिरिगुण गावो, तुमें मणिमाणिकसे वघावो || उज्जयंत० ॥ नेमि जिनेसर जगअलवेसर, मन मंदिरमा लावो । जिनवर चरणनो शरण ग्रहीने, समरणमा लयलावो ॥ मणिमा० ॥१॥ तीर्थपति बावीसमा स्वामी, नेमि निरंजन ध्यावो । भविक जीव सुखकारण तारण, जिनदरशन मन भावो ॥ मणि ॥२॥ दोय मेद दरशनना जाणो, शुद्धशुद्ध स्वभावो । शुद्ध दरशनथी निज गुण प्रकटे, आतम गुणहुलसावो । मणि० ॥३॥ काल अनादि भवनमे भटकता, कर्मरिषु गण दहयो । कृपाकरी मुज दरशन दीजे, अनुभव अमृत पावो ॥ मणि० ॥ ४ ॥ नाना जातीना फल लेईने, आगल प्रभुजीने ठागो । कृपाचंद्र फल पूजासे यह मनमाछित फल पायो । मणि० ॥ ५ ॥ ___ मत्र-ॐ ह्रीं श्री पर०" " फल यजामहे स्वाहा ॥
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१४
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ नवम ध्वज पूजा || ॥ दोहा ॥
नवमी ध्वजनी पूजना, लावो जिन दरवार | सधवस्त्री लेई करी, करे प्रदक्षिणा सार || १ || धवल मंगल गातां छतां, वाजित्र विविध प्रकार | कैलाश गिरिना शिखरपर, आरोपो सुविचार ||२॥
( तर्ज राग श्री - जिनगुणगाणं श्रत अमृतं )
ध्वजपूजन करो सुख सदनं || ध्वज ० || सहस योजन दंड मनोहर, सुवरणमय जनमन हरणं ॥ ध्वज० ॥ १ ॥ किकिणी रणकत शब्द मनोहर, दिव्यध्वनि श्रवणं ॥ ध्वज० || २ || एक हजारके अष्ट ऊपर वलि, सोहे पताका पंचवरणं ॥ ध्वज० ||३|| मनमोहन ए ध्वज निरखीने, भविने परमानन्द करणं ॥ ध्वज० || ४ || इण गिरिके पटनाम सुहंकर, नन्दभद्र गिरिसुखकरणं || ध्वज ० ||५|| अपाढ सुदी अष्टमी दिनकीनो, शिवरमणीको कर ग्रहणं ॥ ध्वज० ||६|| पांचसे षट् त्रिंशत मुनि साथै, सादिअनन्त स्थितिवरणं ॥ ध्वज० ॥ ७ ॥
मंत्र — ॐ ह्रीं श्री पर० ध्वजं यजामहे स्वाहा ॥
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीगिरनार तीर्थ पूजा ३१५ - - -- ॥ दशम अष्ट मंगल पूजा ॥
- - ॥दोहा॥ दशमी मंगल पूजना, अष्ट मंगल लिखसार । रजतना तदुल लेईने, अखंड उज्वल मनुहार-॥१॥ पुष्पवृष्टि करें सुरगणा, पंचवर्णा सुविशाल ।
योजन भूमडल प्रमित, पूजो जगत दयाल ||२|| । । (तर्ज-पास जिनदा प्रमु मेरे मन वसिया)
चालो भविकजन यात्रा करिये, यात्रा करिशिव संपदा वरिये ॥ चालो० ॥ जीर्णदुर्गना चैत्य जुहारी, तलहहिये जड़ रानि रहिये ॥ चालो० ॥ १॥ श्रेणीसोपान चढी शुभ भावे, नेमिजिनदको ध्यान जो धरिये ॥ चालो० ॥ २ ॥ प्रथम हूँ कमें बिम्ब प्रभुना, अद्भुत आदि प्रलय मन धरिये ॥ बालो० ॥३॥ मेरुवसी पमुहा जिनमन्दिर, निरस निरस भवि मनमा ठरिये ॥ चालो० ॥४॥ यहां अनेक जिनचैत्य नमीने, बीजी टूक जिनचरणकुं करिये ।। चालो० ॥ ५॥ रथनेमिजीको दरस सरसकरी, तृतीय शिखर शासन सुरि सरिये ॥ चालो० ॥ ६ ॥ चौथी नेमिवीर जिनेसर, पंचमी टूक नमी दुख हरिये ॥ चालो० ॥७॥ सहसाबन जिनचरण नमीने, चैत्यप्रवाडको इनपरि करिये ॥
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
वृहत् पूजा-संग्रह
चालो० ॥ ८ ॥ गजपद कुडनो नीर लेईने, स्नात्रमहोत्सव करि सुख वरिये || चालो ० || १ || मंगल पूजनारिष्ट निवारक, कृपाचन्द्र शिवपद अनुसरिये || चालो० ॥ १० ॥ अष्टमंगलं यजामहे स्वाहा ॥
मंत्र — ॐ ह्रीं श्रीपर०
॥ कलश ॥
॥ रागनी धन्याश्री ॥ प्रभुजीको सुयश अम्बरघन गाजे । रैवतगिखिरको प्रभु मंडण, नेमिजिनन्द विराजे । तीर्थपतिना गुणगावंतां, रसना सफल कहाजे || प्रभु० ॥ १ ॥ श्री खरतरगण नायक लायक, जिन चारित्र सुरिराजे । गिरनारगिरिनी स्तवनाकीनी, श्रीसंघभक्तिने काजे ॥ प्रभु० ॥ २ ॥ पंचतीर्थनी रचना रंगे, कीनी भविक हितकाजे । दरशन देखत अनुभव प्रकटे, जिमसाक्षात गिरि ठाजे ॥ प्रभु० ॥ ३ ॥ भगवद्द अंगे लालबाग में, सांभल्यो संघ सुकाजे । मुंबई बंदर रहिचोमासो, संपूरण हित काजे ॥ प्रभु० ॥ ४ ॥ सम्बत उगनोसे उपर बहोत्तर, पोष धवल भृगु छाजे । दशमीदिन गिरिना गुण गाया, भावभले सुसमाजे ॥ प्रभु० ॥ ५ ॥ श्री जिनकीर्त्तिरत्न शाखाधर, युक्ति अमृतगुरुराजे | कृपाचन्द्र जिनस्तवना कीनो, निजगुण निर्मल काजे ॥ प्रभु० ॥ ६ ॥ इति श्रीगिरनार तीर्थ पूजा ।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य श्री मज्जिन हरिसागर सूरीश्वर शिष्य
श्री कवीन्द्र सागरोपाध्याय विरचित ॥श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा॥
॥ मंगल पीठिका दोहा ॥ ॐ अहं ज्योतिर्मयी पुरुपादानी पास । दर्शन वन्दन पूजना, करी प्रकट सुखराश ॥ १॥ शिव सुस फल वृद्धि करें, श्रीफलवृद्धि पास । गुरु तीर्थ के शरण में, पाउ परमप्रकाश ॥ २॥ प्रभु गुण साधन रूप हैं, निज गुण साध्य विशेष । साधक साधन योगते, साधे साध्य हमेश ॥३॥ पर सगी यह आतमा, पाया असुस अपार । परमातम सगी हुआ, सुख सागर अधिकार ॥ ४ ॥ प्रतिमा के परकाश में, प्रभुपूजा सुविधान । सम्यग्दर्शन हो सही, परमातम गुण थान ॥ ५॥ ॥ प्रथम च्यवन कल्याणकपूजा ॥
॥दोहा॥ सम्यग्दर्शन आदि दे, प्रभु के दश अवतार । राग द्वेप ससार फल, वीतराग शिव सार ॥१॥
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
वृहत् पूजा-संग्रह
(तर्ज-पंछी बावरिया) __प्रभु जीवन अवधारो, विवेकी नर नारी। राग द्वेष तज डारो, विवेकी नरनारी ॥टेर॥ कमठ कुटिल रत विषय विकारे, भाई मरुभूति को मारे । तजो विषय विष भारी, विवेकी नरनारी॥०॥१॥ राजा अरविन्द भाव विचारें, साधु हो निजकाज सुधारें। साधु बनो अधिकारी, विवेकी नरनारी ॥ प्र० ॥२॥ मरुभूति मर होता हाथी, अरविन्द साधु संत संगाथी । समकित पाया पाओ, विवेकी नरनारी ॥ प्र० ॥ ३॥ कुर्कुट सांप कमठ हो डसता, मरुभूति गज को परवशता। महामोह को देखो, विवेकी नरनारी ॥ प्र० ॥ ४ ॥ हाथी शुभध्याने सुर लोके, पहुँचा रहता भाव अशोके। बनो सदा शुभ ध्यानी, विवेकी नरनारी ॥ प्र० ॥ ५ ॥ कमठ सांप दावानल में जल, गया नरक में पाप करम बल । तजो पाप दुखकारी, विवेकी नरनारी ॥ प्र० ॥६॥ मरुभूति चौथे भव राजा, किरण वेग हो साधु सुकाजा । करो सुकाज उदारा, विवेकी नरनारी ॥प्र०॥७॥ कमठ नरक निकला अहि होता, किरणवेग को डश खुश होता। करम राज बलिहारी, विवेकी नारीनारी ॥ प्र० ॥ ८॥
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३१६
॥दोहा॥ करम बड़े बलवान है, जो हैं पुद्गल रूप । कर्म योग हारे अरे, बडे बडे नर भूप ॥
(तर्ज-वावडा धीमो पडजारे) करम पल जीते जिन ज्ञानी, विजयी श्रीजिनदेव चरण कज पूजो भवि प्राणी ॥ टेर || बारहवें सुरलोक गये वे किरणवेग योगी। कमठ सरप मर हुआ नरक पंचम में दुस भोगी ॥ क० ॥१॥ छठे मरुभूति हुए नृप वननामनामा । क्षेमकर जिन सदुपदेश हों साधु मुगुणधामा । क० ॥२॥ कमठ हुआ मर भील बाण से साधु प्राण हरे। वचनाम मध्यम ग्रंयक सुर मुख भोग करे ॥ १० ॥३॥ मरा भील बह गया सातमी नरके दुख भोगे। पुण्य पाप कृत्त करम उदय सुख दुख पद परलोगे। क० ॥४॥ अष्टम भव में स्वप्न चतुर्दश सूचित हो चक्री । स्वर्णाष्ट्र गुमनाम प्रकति जिनकी थी अपकी । फ० ॥ ५॥ पीस स्थानक महा, तपस्पा कर मातम शोधी । तीर्थफर पद नाम फर्म गुम पाँधा अविरोधी ।। क० ॥६॥ नरक निम्ल यह फमठ सिंह हो पी फो मारे। मर फर भी हो गये अमर, प्राणव मुख अधिकारे । कर | ७ कमठ नारकी
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२०
वृहत् पूजा-संग्रह हुआ अधम, यह पुण्य-पाप खेला। करो पुण्य को तजो पाप को दो दिन का मेला ॥ क० ॥ ८ ॥
॥ दोहा ।। चढ़ते पड़ना जगतमें, होता है आसान । पड़ चढते जो आतमा, होते हैं भगवान ॥१॥
(तर्ज-कांटो लाग्यो रे करमन को मोसे० ) करम के कांटों को दें तोड़, दौड़कर पूजा जो करते । मिटे मरण भय हुए अभय जिन पूजा जो करते ॥ टेर ॥ लगे करम का कांटा तब तो, बड़े बड़े पड़ते । कांटे के आंटे से निकले, जन ऊँचे चढ़ते ॥०॥१॥ दशम देवलोके मरुभूति, जीव देव रचते । शाश्वत जिन प्रतिमा पूजा कर, पापों से बचते ॥ क० ॥२॥ अव्रत था जीवन में फिर भी, व्रत लिप्सा धरते। महाव्रती साधु-सन्तों की, सेवा ये करते ॥ क० ॥३॥ अपने उज्जवल भावी में, अति पुष्ट भाव भरते । भोग रहे थे भोग योग पर, मन में आदरते ॥ क० ॥ ४ ॥ कीचड़ में हो कमल वढे जल, से पर अलग रहे । महा भोग को करे भाव, निर्लेप सदैव वहे ॥ क० ॥ ५॥ इन्द्र नाम दुश्च्यवन च्ववच का, भारी दुख भरते । छह महीनों पहिले से ही
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३२१ सुर जीते भी मरते ॥ क० ॥ ६॥ पर तीर्थकर जीव च्यवन का दुख नहीं धरते। मरने को मंगल गिनते पद अजर अमर परते ॥ क० ॥ ७ ॥ च्यवन मरण-निर्वाण मरण कल्याणक अनुसरते । हरि कवीन्द्र प्रभु च्यवन कल्याणे जय जय जय करते ॥ क० ॥ ८॥
॥शाल विक्रीडितम् ॥ ___ सम्यक्त्वाप्ति भवाभवे नामके यो देवलोका उच्युतः, प्राप्तो यो दशम भवं प्रभुवरः कल्याण-कल्पद्रुमः भव्यानां फल वृद्धि कारकवरो वाराणसीश गृहे, सद्रव्यैः प्रयजामहे तमनिशं श्रीपार्चपरमेष्ठिनम् ।
ॐ हीं श्रीं परमात्मने अनन्तानन्तज्ञानशक्तये जन्म जरा-मृत्यु-निवारणाय श्रीपार्श्वनाथ परमेष्ठिने जलादि अष्टद्रन्यं यजामहे स्वाहा। || द्वितीय जन्म कल्याणक पूजा ॥
।दोहा ॥ धन नगरी वाराणसी, धन अश्वसेन नरेश । धन वामा रानी सती, पाये प्रभु परमेश ॥१॥ (तर्ज कर रे कर रे कर रे कररे-राग काफी) भर रे भर रे भर रे आनन्द आतम में नित भर रे ।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२४
बृहत् पूजा-संग्रह
।
हरि कवीन्द्र ऐसे, करो भवि पूजा वैसे। प्रभु पूज कर अवि, पाओ भवि पारा रे ॥ पा० ८॥
॥दोहा॥ पोष वदी दशमी पुनित, जनमे श्री भगवान । सुख प्रकाश फैला तभी, हुआ जगत कल्यान ॥१॥
(तर्ज - चन्दा प्रभु जी से ध्यान रे० ) आज आनन्द अपार रे, प्रभु जन्म महोत्सव । जन्म महोत्सव, हरे दुख भव दव ॥ आ० ॥टेर ॥ गर्भवती सती आमामाता, पूर्ण दोहद थी, थी सुख साता । पूर्ण समय जय कार रे, प्रभु जन्म महोत्सव ॥ आ० ॥१॥ छप्पन दिग कुमरी मिल आवे, सुती करम सुख साज सजावे। उत्सव विविध प्रकार रे, प्रभु जन्म महोत्सव ॥ आ० ॥२॥ चौसठ इन्द्र अवधि ज्ञाने, प्रभु जन्मोत्सव सुरगिरि ठाने । ले जावे जगदाधार रे, प्रभु जन्न महोत्सव आ०॥३॥ तीर्थोदक जल कलश भरावें, केसर चन्दन फूल मिलावे । औषधि नैक प्रकार रे, प्रभु जन्म महोत्सव ॥ आ० ॥ ४ ॥ सुरपति सुरगिरि से प्रभु लाते, माताजी को शीश नवाते। होत उदय दिनकार रे, प्रभु जन्म महोत्सव ॥ आ० ॥५॥ अश्वसेन राजा कर पाते, दश दिन उत्सव ठाठ रचाते । घर
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३२५ घर मंगलाचार रे, प्रभु जन्म महोत्सव ।। आ० ॥ ६ ॥ नाग दिसा था निशि अधिकारी, गर्भ महावम से अधिकारी । नामी पार्श्व कुमार रे, प्रभु जन्म महोत्सव
आ०१७॥ हरि कपीन्द्र जपो प्रभु पारस, भर जावे जीवन में समरस | हो आतम उद्धार रे, प्रभु जन्म महोत्सव || आ० ॥ ८॥
॥शाईल-विक्रीडितम् ॥ गर्भस्थ विनयावनम्र वपुपा, शक्रोऽनमयमुहा, यज्जन्मावसरे सुसं त्रिभुवने पुर्ण-प्रकाशो ऽभवत् । यज्जन्मोत्सव मात्म तारण कृते पुर्वन्सुरा मन्दरे, अर्ह पार्श्वजिनं यजामह हह द्रन्यः शुभैः सर्वदा।
ॐ ही श्री परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय श्री पार्श्वनाथायाहते जलादि अरद्रव्यं यजामहे स्वाहा। ॥ तृतीय दीक्षा कल्याणल पूजा ।।
॥दोहा॥ शारद सित परा दूज के, चन्द्र रूप भगवान ! जन मन के उत्साह सह, बढते पुण्य-प्रधान ॥१॥
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२६
वृहत् पूजा संग्रह (तर्ज-मृषभ प्रभु भवजल पार उतार ) दरस मन हरप भयो भारी पाये पास कुमार दरस मन हरप भयो भारी टेजन जन के मुख निकसत वानी, प्रभु हैं प्राणाधार । चन्द चकोर मोर बादल ज्यों, त्रिभुवन तारणहार । द० ॥१॥ मति श्रुत अवधि ज्ञानी स्वामी, जन्म समय जयकार । अंगुष्ठामृत पान पुष्ट, कमनीय कला अवतार ॥ द० ॥ २ ॥ बाल कुमार किशोरावस्था, पार करें भगवान । जीवन साथी प्रभावती नृप, कन्या हुई प्रधान ॥ ६० ॥ ३ ॥ एक अनादि प्रभु रूप के, जो नहीं थे अवतार । विकसित मानवता से जिनमें थी प्रभूता साकार ।। द० ॥४॥ करुणा कोमलता भावों में, रही वीरता संग। नव कर नीलवरण तन सुन्दर, श्याम सलोने अंग द ०||५|| जनम जनम संस्कार सजाते, जीवन में नवरंग। संस्कारी थे प्रभु जीवन में, अजब निराले ढंग ॥ द०॥६॥ अश्वसेन वामा रानीसुत, पारस पारस रूप। सतसंगी जन लोहा होता, सुवरन सहज सरूप ॥ द० ॥ ७ ॥
॥दोहा॥ हुआ विरोधी कमठ शठ, वह भी ब्राह्मण पूत । जनम दरिद्री जगत ठग, नाम मात्र अवधूत ॥ १॥
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३२७ (तर्ज-अज्ञानी जीते मरते हैं दिन कारण वेगात )
अज्ञानी ऐमा करते हैं, ज्ञानी की गत ओर ॥ टेर ॥ चार दिशामें आग लगी हो, उपर धूप कड़ी । बीच बैठ जो तपे वही, पंचाग्नि तपस्या बड़ी ॥ अ० ॥ १ ॥ कमठ हठी शठ ब्राह्मण होता घर दारिद्रय भरा। जगपूजा निज उदर निमित्त साधु वेश धरा || अ० ॥ २ ॥ लोक चोक मर दर्शन सातिर दोडा दौड़ करी। प्रभु पारस मों साथ पधारे, दिलमें दया भरी ॥ अ० ॥ ३ ॥ नाग देव योगी। लकड़ मे तेरे देस जले। हिंसा युतु यह योग तपस्या,
से कहो फले १ ।। अ० ॥ ४ ॥ योगी कहता तुम क्या जानो, घोडे पडे घुमाओ। योग अगम है इसमे अपना क्यों तुम समय गुमाओ || अ०॥५॥ नाग यगल अधजला प्रभु लक्कड से तुरत निकालें । परमेष्ठी पर मत्र सुना, योगी! पासण्ड हटा ले ॥ ३० ॥ ६ ॥ धरणेन्द्र पदमावती होते, प्रभु पारस पदसगी। पिपधर विप को अमृतरुरता, प्रभु करणी थी चंगी । अ० १७|| मटा फोड़ हुआ लस अपना, मगा मट अभिमानी । असुर मेव माली मर होता, मन में दुश्मन जानी ॥ २० ॥ ८॥
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥दोहा॥ पारस ऋतु वसन्त में. चित्रित नेमि वरात। देखें भाक्ति हो गये, वैरागी विख्यात ॥१॥
(राग भैरवी तर्ज-तू मेरा आधार प्रभुजी०)
संयम से होगा वेड़ा पार ॥ सं० ॥ टेर ॥ लोकान्तिक सुर विनती करते, जय जय जगदाधार। संयम ले स्वामी उपदेशो, भव्यातम उद्धार ॥ सं० ॥ १॥ सुरपति नरपति महा महोत्सव, आश्रम पद उद्यान । चार महाव्रत धारें स्वामी, देय संवत्सर दान || सं० ॥ २ ॥ पौष वदी ग्यारस दिन धन धन, गंगा काशी देश । मात पिता धन वे जन धन धन, जिन पाये परमेश ॥ सं० ॥३॥ तेला तपधारी प्रभुजी तब, पाये चौथा ज्ञान । नर शत तीन हुए सह दीक्षित, देव दुष्य परिधान ॥ सं० ॥ ४ ॥ प्रभु दीक्षा कल्याणक उत्सव, सुरवर ठाठ अपार । नंदीश्वर जा मंगल पूजा, पाठ सुभाव विचार ॥ सं० ॥ ५॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान सहित हो, जो संयम स्वीकार । अव्रत आश्रय टलते टलता, चार गति संसार ॥ सं० ॥ ६ ॥ कर्म निर्जश सहज निपजती, होता केवलज्ञान । अपुनभव भावी जीवन फिर, ज्योती रूप महान ॥ सं० ॥७॥
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा
३२६
सुख-सागर भगवान प्रभु परमातम पारसनाथ | हरि कवीन्द्र संयम पथ साथी, फार्ले मेरा हाथ ॥ सं० ॥ ८ ॥ ॥ शार्दूलविक्रीडितम् ॥
त्यक्त्वा राज्य रमां प्रियां सुपरमां देवासुरैर्वन्दिता, सम्बुद्धः स्वयमेव यः सह शतैः पुम्भिस्त्रिभिर्दीक्षितः । सम्यग्दर्शन शुद्धये सुविधिना सद्भाव सम्पादितैः, सद्रव्यैः प्रयजामहे प्रतिदिनं श्री पार्श्वनाथं जिनम् ।
ॐ ह्रीं श्रीं परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जग मृत्यु निवारणाय श्री पार्श्वजिननाथाय जलादि अष्ट द्रव्यं यजामहे स्वाहा |
|| चतुर्थ केवलज्ञान कल्याणक पूजा || ॥ दोहा ॥
ग्राम नगर पुर विचरते, श्री प्रभु पारसनाथ । आतम गुण आराधना करते सयम साथ ||१||
( गजल तर्ज - विना प्रभु पास के देसे० ) निजातम ध्यान की महिमा, कहो क्या दूसरा जानें १ | सुधा पी ओर ने तो रस, कहो क्या दूसरा जार्ने १ || ढेर || परम योगी प्रभु पारस, विचरते योग मस्ती में । प्रभु की योग मस्ती को, कहो क्या दूसरा जाने ||
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
वृहत् पूजा-संग्रह नि० ॥ १॥ न अपना या पराया था, जगत उनके लिये सारा । आत्मवत् भावना उनकी, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ २ ॥ तजी निज देह की चिन्ता, रहे रत आत्म चिन्तन में । प्रभु के आत्म चिन्तन को, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ३ ॥ समिति गुप्ति अनुत्तर थी, अपूरव साधना उनकी । प्रभु की साधना विधि को, कहो स्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ४ ॥ तपस्या पारणा प्रभु ने, किया धन सेठ के घरमें । सुरों ने की महा महिमा, कहो क्या दूसरा जाने ॥ नि० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ प्रकृति धातु उपसर्ग से, पलटे अपना रूप । प्रभ प्रकृति पलटी नहीं, सहिमा यही अनूप ॥१॥
(तर्ज-जगत में नवपद जयकारी० लावणी) विचरते पारस व्रतधारी, सदा सुख दुख में अविकारी ॥ टेर ॥ देहकी ममता थी त्यागी, सुरतियाँ आतम में लागी। मोहकी महिमा थी भागी, ज्योतियाँ जीवन में जागी । कुण्ड सरोवर तीर पर, स्वामी धरते ध्यान । वनगज निज कर 'पूज कर, पाया अमर विमान । कली कुण्ड तीरथ अवतारी, विचरते पारस व्रतधारी ॥ १ ॥ कादम्बरी
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा
३३१ अटवी प्रभु आये, द्वेप मन असुर कमठ छाये । डराने प्रभु को मन भाये, सिंह और साप रूप लाये। प्रभु सागर गभीर थे, थे मेरु समधीर । डरे नहीं डर वह गया, था फूटे तकदीर ॥ कमठ शठ क्रोध अधिक धारी, विचरते पारस व्रतधारी ॥ २ ॥ घनाघन उमड उमड आये, विजलियाँ कडक २ जाये । मुसल धारा जल बरसाये, जगत सर जलमय हो जाये । प्रभु ध्यान में लीन थे, वह उपसर्ग मलीन । समता तामस की लगी, होडा होड प्रवीन । तीन दिन यों वीते भारी, विचरते पारस व्रत धारी || ३ | नाक तक जल चढता आया, ध्यान प्रभु मनमें था छाया । नागपति आसन कपाया, अमधि से प्रभु को लख पाया। धरणेन्द्र पदमारती, आये भक्ति अपार । निजकधे प्रभुको लिये, सेवा भाव विचार । मानते जीवन जयकारी, विचरते पारस व्रतधारी ॥ ४ ॥ कमठ को माया जल जानी, नागपति आग हुए वानी । बोलते सुनरे अभिमानी, धूलक्यों करता जींदगानी । अजा कृपाणी न्याय से, क्यों मिटता है कीट। प्रभु सताये जाय ना, तू जायेगा पीट । लगा ले अरे फरम कारी, विचरते पारस व्रत धारी ॥ ५ ॥ डरा वह भाया नत होता, करम अपने से हत होता। हृदय से
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
वृहत् पूजा-संग्रह आंखों से रोता, विरोधी मन मल को धोता। चरण शरण प्रभु का लिया, मन का मिटा विरोध । भव भव का दुःख खोगया, पाया आतम वोध । अन्त वह होगा शिवचारी, विचरते पारस व्रत धारी ॥ ६ ॥ शत्रु या मित्र भले होना, सामने जन उत्तम होना । लोह भी हो जाये सोना, नीच संग खोना ही खोना । धरणेन्द्र पदमावती, करते प्रभु गुण गान । गये स्वयं निज धाम को, अहिछत्र वह धाम । हुआ तीरथ धन बलिहारी, विचरते पारस व्रत धारी ॥ ७॥
॥दोहा॥ त्यासी दिन छमस्थ में, रहते श्री भगवान । चैत वदी मिति चौथ को, पाये केवल ज्ञान ।
(तर्ज-नाचत सुर इन्द चन्द०)। धारंत प्रभ आत्म ध्यान, ज्ञान हितकारी ॥ टेर ।। अनुक्रम गुणठान चढ़े, घाति करम काट कढ़े। आतम पद पाठ पढे, बेला तप धारी ॥ धा० ॥ १॥ धातकी सुवृक्ष तले, विशाखा सुचन्द्र बले। लोकालोक सर्वकले, केवल ज्ञान धारी ॥ धा० ॥२॥ प्रातिहार्य प्रकट आठ, समवशरण पुण्य ठाठ । दुःख गये दूर नाठ, शुप्रभावकारी ॥धा० ॥३॥
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३३३ सागर सुखों के नाथ, देते अशरण को साथ। पकड हाथ पार करे, भव समुद्र भारी ॥ धा०॥४॥ हरिकवीन्द्र धन्य धन्य, जीवन वह पुण्य जन्य । आतमा अनन्य तीर्थ, था प्रभु चारी ॥ धा० ॥ ५॥
___ (शार्दूलविक्रीडितम् ) आत्म ध्यान-तपो-बलेन भगवानावारकं कर्म यो दूरी कृत्य निजान्मना सुपरितः सर्वज्ञभावं श्रितः। लोकालोक-विलोकन-प्रकथन-प्रौढप्रतिष्ठा गुणः सद्रव्यैः प्रयजामहे सविधि त सर्वज्ञपार्श्व प्रभुम् ।
ॐ हीं श्री अहं परमात्माने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये श्री पार्श्वनाथ सर्वज्ञाय जलादि अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा । ॥ पंचम निर्वाण कल्याणक पूजा ॥
॥दोहा॥ समवशरण में बैठ कर, स्वामी दें उपदेश । आत्म धर्म आराधते, मिटता मूल कलेश ॥१॥
(तर्ज-माला फटे रे जाला जीयका) भव्यातम तिरते प्रभु के तीरथ में आतम ध्यान से ॥टेर ॥ अश्वसेन नृप वामा राणी, प्रभावती गुणसाणी। प्रभु उपदेश महाव्रत धारी, हुए साधु गुण ठाणी रे ॥
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४
वृहत् पूजा-संग्रह भ० ॥ १ ॥ शुम आदिक दश गणधर होते, प्रभु प्रवचन परचारी। द्वादशांग गणिपिटक प्रणेता, दर्शन दर्शनकारी रे ।। अ० ॥२॥ स्यादवाद सर्वोदय कारण, प्रभुवाणी अधिकारी। आतम भावी जन होते हैं, परमातम पद धारी रे ॥ भ० ॥ ३ ॥ सर्व विरतिधर देश विरतिधर, अनगारी सागारी । दुविध धरम धारक हो होते, भवपारी नरनारी रे ॥ भ० ॥ ४ ॥ कनक कमल पद कमल धारते, ग्राम नगर पुर स्वामी। आलोकित करते प्रभु विचरे, त्रिभुवन अन्तर्यामी रे ॥ ५० ॥ ५ ॥ तीस वरस घर वास रहे प्रभु त्यासी दिन छद्मस्था । सात दिवस नवमास गुनतर, वर्ष केवलावस्था रे ॥ भ० ॥६॥ शत-वीं पूर्णायु जीवन, जीना जिनने जाना । जीयो जीने दो ओरों को, प्रभु आदर्श महाना रे ।। भ० ॥ ७॥
॥दोहा॥ श्री समेत गिरि ऊपरे, प्रसु अन्तिम चउमास । ठाया शिवपाया वहीं, धन तीरथ वह खास ॥१॥
(तर्ज-पास जिनंदा प्रभु मेरे मन बसिया) तीर्थकर प्रभु पार्श्व सांवरिया, नाथ विराजे समेत शिखरिया । तीन तीस साध प्रभु साथी, एक मास अनशनवर
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक पूजा ३३५ धरिया ॥ ती० ॥१॥ चन्द्र विशाखा योगी होते, श्रावण सुद आठम शिव परिया ॥ ती० ॥२॥ प्रभु निर्माण हुआ सुर आये, सेद हरप दोनों दिल भरिया ॥ ती० ॥ ३॥ कल्याणक उत्सन सुर रचते, जय जय जय प्रभु तारण तरिया ॥ ती० ॥ ४ ॥ शिवगामी सामी नही आयें, भव में भव सागर निसतरिया ॥ ती० ॥ ५ ॥ एकान्तिक आत्यन्तिक सुख में, ज्योति सरूप अनन्त गुण
॥ ६ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु कारण कर्ता, धन जो अपना आत्म उधरिया ॥ ती० ॥७॥
॥ शार्दूल विक्रीडितम् ॥ कृत्वा कर्मचय क्षयं सयमथो गत्या शिवं सर्वथा, ससार पुनरेति नो जिनपतिः सिद्धश्च बुद्धश्च यः। तं ज्योतिर्मय मात्म-तारणकने निक्षेपितान्तर्मनः सद्रव्यः प्रयजामहे प्रतिदिन श्री पार्चपारंगतम् ।
ॐ ही श्री परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय श्री पार्यपारंगताय जलादि अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा।
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह
( तर्ज - लघुता मेरे मन मानी० )
भवि ! रमो प्रभु जीवन में, जीवन आनन्द भवन में रे ॥ भ० || टेर० || पहिले भव श्रीनयसारा, नय विनय सार गुण धारा । मार्गानुसारि उदारा रे, ग्राम चिन्तक जन हितकारा ॥ भ० || १ || वर काष्ट हेतु वन जावे, खाउ मैं खिलाकर भावे | जो मिलें अतिथि अविकारा रे, तो मानूं धन अवतारा ॥ भ० || २ || पथ भूले साधु पधारे, सन्मुख नयसार सिधारे । विन बादल वृष्टि समानारे, धन सन्त मिले सुखदाना ॥ भ० ॥ ३ ॥ शिष्टाचारी पद वन्दे, दे भात पानी चिर नन्दे । हो सत्संगी सुखकारी रे, सम्यग्दर्शन अधिकारी ॥ भ० ॥ ४ ॥ कृत अतनु कर्म तनु करणं, कर यथा प्रवृत्ति करणं । निज भाव अपूव लावे रे, जड़ चेतन भेद उपावे ॥ भ० ॥ ५ ॥ मुनि द्रव्य मार्ग तब पाये, नयसार भाव पथ आये । जब पुण्य कमल है खिलता रे, सुरभित आतम रस मिलता ॥ भ० ॥ ६ ॥ भव गिनती समकित करता, गति शुक्ल पक्ष अनुसरता । समकित सुखसागर सीरारे, सेवो भगवान सुधीरा ॥ भ० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र धन नरनारा, भव्यातम समकित धारी । पूर्जे प्रभु समकित हेतु रे, शिवपथ भव जल निधि सेतु ॥ भ० ॥ ८ ॥
३३८
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
पी महापौर यामी पूजा
३३६ ॥ शाईल पिकीडितम् ॥ यो कल्याण पदं कपाथिदपि नो स्वम्मिन्यास्मिनसचिन्, गोदा प्रौद दद्वात्म वीर्य बलवान् पर्यो न्यारं यया । त कल्याण निधि सय परफले समाग कस्तुम, गदाणे जगतां प्रभु जिनपति श्रीवईमानं यने ॥ १ ॥ *ही श्री अं श्री महावीर सामिने आदि प्रदाय यजामहे म्वाहा। ।। द्वितीय श्री तीर्थकर पद सूचन पूजा ।।
॥दोहा॥ नप प्रमाण मग पदा, जिनवागन जपान। मिकाले निकोकम, पनो जिन गाना { मापार भागानगरमगर भागे
विान नाराहार बार प्रभु पूना पारी । महिन भाराम मालारा है।।
गरे अपर मुर नोक में, हे माना! नामा निनिस हो, ने मार प्रार। पुन माग FARदिनसमा मात
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४०
वृहत् पूजा-संग्रह
|
पुत्र मरिचि गुण धाम । ऋषभ प्रभु उपदेशर्ते ले दीक्षा अभिराम | करमगति विकट विकारी है । त्रिभुवन० ||२|| मरिचि हन्त ! दीक्षा तर्जे, धरें त्रिदण्डी वेश । समवशरण बाहिर रहे, दे मुमुक्षु उपदेश । कई भन्यातम तारी हैं || त्रिभुवन० ॥ ३ ॥ यहाँ तीर्थ पति जीव क्या है ? कोई हे
,
नाथ | भरत प्रश्न प्रभु से करें, सविनय जोड़े हाथ । प्रभु भाषे अधिकारी हैं | त्रिभुवन० ॥ ४ ॥ वासुदेव चक्री तथा, अन्तिम तीरथनाथ । होगा मरिचि भावि में, पदवी पुण्य सनाथ | भरत वन्दे अधिकारी हैं | त्रिभुवन० ||५|| दादा तीर्थकर हुए, चक्री है मम तात । तीर्थकर चक्री अधिक, वासुदेव हू जात | वाह मेरी बलिहारी है ॥ त्रिभुवन० || ६ || सुखसागर संसार में, जो होंगे भगवान । कर्म बलीने कर दिया, उनपर प्रतिविधान । करम बल कुटिल अपारी है | त्रिभुवन० ॥ ७ ॥ कर्म काट कर जो हुए, करके आत्म विकास । हरि कवीन्द्र पूजो वही, शासन नायक खास । पूज्य पूजा उपकारी है | त्रिभुवन० ||८||
|| काव्यम् ॥ यो ऽकल्याण पदं ०
ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्री महावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा |
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर स्वामी पूजा ३४१ ॥ तृतीय कर्म महिमा सूचन पूजा ।।
॥दोहा॥ प्रपल बला है कर्म की, ज्ञानी रहें अलीन । ज्ञानी की पूजा करो, करें कर्म-मल छीन ॥१॥ (तर्ज-छोटे से बलमा मोरे आंगने मे गुल्ली खेलें)
वीर प्रभु भगवान पूजा आनन्दकारी। कर्म अमान प्रधान, शिवपद दें अधिकारी || टेर ।। कर्म फसे बलवान, निर्मल है नरनारी। मरिचि महा गुणवान, थे पर कर्म विकारी ॥ वी० ॥ १॥ चारित्र मोह प्रभाव, दीक्षा त्यागी पहिले । बाद असाता योग, मिथ्यामति विसतारी ।। वी० ॥ २ ॥ साधु न पूछे सार, निस्पृह ये अणगारी । शिष्य बनाउँ मै मुख्य, आज्ञा सेनाकारी ॥ वी० ॥ ३ ॥ आया कपिल कुमार, साधु धर्म बताया । मेजा प्रभुजी के पास, नहीं पा सका अनारी ॥ वी० ॥ ४ ॥ कपिल को शिष्य विशेष, स्वार्थ हित कर डाला । उत्मन भाषण भोग, भीपण बहु संसारी ॥ वी० ॥ ५ ॥ करम भरम भय मेद, सेद भावीवश होते । मरिचि गये ब्रह्म लोक, परिव्राजक गतिधारी ॥ वी० ॥ ६ ॥ कर्म महा विकराल, जड हैं जगमें किन्तु । चेतन के सहयोग, देते दुःख अपारी ।।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
वृहत् पूजा-संग्रह वी० ॥ ७ ॥ सुखसागर भगवान, जिनहरि पूज्य प्रभु की। पूजा कवीन्द्र करो भाव, अकर्मक पद दातारी ॥ वी० ॥८॥
॥ काव्यम् ॥ यो ऽकल्याण पदं० ॐ हीं श्रीं अहं श्री महावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा। || चतुर्थ श्री वासुदेव पद प्राप्ति पूजा ॥
॥दोहा॥ पुण्य पाप दो रूप हैं, कर्म शुभाशुभ भाव । पुण्य रूप पूजा करो, उत्तरोत्तर गुणदाच ॥ १॥
(तर्ज-करम गति टारी नाहिं टरे) प्रभु की पूजा पुण्य भरे, पाप सन्ताप हरे ॥०॥टेर॥ उस उस कर्म उदय से मरिचि, पाकर विविध विधान । छह परिव्राजक छह सुर भव कर, भोगे पुण्य प्रधान ॥ प्र० ॥ १ ॥ सतरहवें भव राजगृही में, विश्वभूति शुभ नाम । कपट देख झट साधु होते, ज्ञान तपो गुण धाम । प्र० ॥ २ ॥ देख विरोधी हँसी मुनीश्वर, हन्त ! निदान करें । तप फल हो आगामी भव में, मारूं तुझे अरे ॥ प्र० ॥ ३ ॥ अष्टादश भव महाशुक्र में अद्भुत लील करे । सुतापति पोतन पुर नृप घर, सात स्वप्न अवतरे ।। प्र०॥४॥
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर स्वामी पूजा
३४३ वामुदेव पहिला त्रिपृष्ट वह, अचल बन्धु वलदेव । पूर्व विरोधी सिंह हनन कर, सफल निदान करेन ॥ प्र० ॥ प्रति केशव अश्वग्रीव विजय से, जय वरमाल वरे । शण्यापालक गीत निनोदी, सीसा कान भरे ॥ प्र० ॥ ६ ॥ नमस्य को नहीं दोप-रोप फल, किन्तु निकट सरे। मुख सागर भगवान प्रभु पद में, सब अन्त करे । प्र० ॥ ७ ॥ हरि कीन्द्र जन भन्य प्रभु से, प्रभुता सहज परे । दीपक मे दीपक प्रकटे ज्यों, अन्धकार टरे । प्र० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ यो ऽकल्याणपदं० ॐ दी श्री अहं श्री महावीर स्वामिने जलादि अष्ट. दन्यं यजामहे स्वाहा। | पंचम चक्रवर्ती पद प्राप्ति पूजा ॥
|| टोहा।। उच नीच व्यवहार से, कर्म रूप व्यबहार ।
निश्चय से परमात्म पद, पूजो गित निकार ॥१॥ (राग मान-भोनामर म्यामी पन्तरजाती तारी पारम नाय)
निन फर्म मुधागे नित निग्धागे, प्रभु पूजा नपकार ॥ नि० ॥ ॥ कमी का मंमार है यह, गुप दुग फर्म रिपसा अन्तमान गति त्रिप मप्तम, नाक में दंग
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
बृहत् पूजा-संग्रह अथागरे । नि० ॥ १ ॥ इकवीसम भव सिंह हुए वह, हिंसक जीव विशेष । वाइसम भव चौथी नरके, पाये दुःख कलेश रे ॥ नि० ॥ २ ॥ लघु भव बीच किये कई आखिर, पा नर जन्म उदार । सुकृत कर्म उपार्जन कीना, भोग महाफल सार रे ॥ नि० ॥ ३ ॥ अवर विदेहे मूका नगरी, पुण्य विराजित देश । राय धनंजय धारिणी राणी, सुत प्रिय मित्र विशेष रे ॥ नि० ॥ ४ ॥ चौद महास्वपनों से सूचित, चौदह रत्न-निधान । चक्री प्रियमित्र पावन गुणमय, परमाश्चर्य प्रधान रे ॥ नि० ॥ ५॥ चक्रवतीं पद भी है चञ्चल, जान तजे भव भोग। संयम साधन सावधानता, धारें आतम योग रे ॥ नि० ॥ ६ ॥ अन्तमें अनशन आतमयोगी, तेइसम भव जान । चौइसम सप्तम सुर लोके, सुर सुख भोग महान रे ॥ नि० ॥ ७॥ हरि कवीन्द्र सुकीर्तित वन्दित, शासनपति महावीर । ध्यावो सेवो भविजन ! भावे, मानो धन तकदीर रे ॥ नि० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ यो ऽकल्याण पदं० ॐ हीं श्रीं अर्ह श्री महावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर स्वामी पूजा
॥ षष्ठम तीर्थकर पदाराधन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ तीर्थंकर पद साधना, तीर्थङ्कर पद देत । तीर्थङ्कर पूजा करो, सहज सिद्धि सकेत ||
(तर्ज- प्रभु धर्म नाथ मोद्दे प्यारा जगजीवन० ) भवि । पूजो परमाधारा, तीरथ पद तारणहारा । पाओ भन सिन्धु किनारा, तीरथपद तारण हारा || ढेर || सरिवा जल जैसे पहता, देवायु थिर नहीं रहता । व्यव पचवीसम भन सारा, पाये नर जन्म उदारा ॥ भ० ॥ १ ॥ छत्राया नगरी भारी जीतशत्रु नृपति अधिकारी । भद्रा कुखे अवतारा, श्रीनन्दन नाम कुमारा ॥ भ० ॥ २ ॥ वल तेज रूप गुणवाना, राज्यादिक सुस अधिकाना । पोट्टिल सूरि गणधारा, वन्दे आनन्द अपारा ॥ भ० || ३ || गुरु नोध सुधारम पीना, हिरात भाव विहीना | अंतर आतम अधिकारा, लें धन सयम मुखकारा ॥ भ० ॥ ४ ॥ अरिहन्तादिक उपयोगे, सुविहित साधन विधियोगे । चीन स्थानक मुखकारा, आराधे भाव अपारा ॥ भ० ॥५॥ कर्मों से जग जमाया, जिन नाम कर्म शुभ पाया । लाख वर्ष निरन्तर धारा, तप मास खमण नलिहारा ॥ भ० ||६||
३४५
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
वृहत् पूजा-संग्रह वन्दों नन्दन मुनि राया, अंतिम अनशन शुभ ठाया। प्राणत सुरलोक सिधारा, पुण्योदय अपरंपारा || भ० ॥७॥ हरि कवीन्द्र शासन स्वामी, होंगे जिननायक नामी । प्रभु महावीर चितधारा, भवि बोलो जय जय कारा ॥ भ० ॥ ८ ॥
॥काव्यं ॥ यो ऽकल्याणपदं० ॐ हीं श्रीं अहं श्रीमहावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा।
॥ सप्तम च्यवन कल्याणक पजा ॥
॥दोहा॥ च्यवन दुःख जिनको न था, वे भावी भगवान । च्यवे दशम सुरलोक से, पूजो हो कल्यान ।
(तर्ज-माला काटे रे जाला जीवका० ) दुख को नहीं जाने आतम भावे थिर हो जो आतमा ॥टेर ॥ प्राणत नामक देव लोक से, आयु स्थिति कर पूरी । च्यवन कल्याणक होते प्रभु ने, मेटी भव शिव दूरी रे ॥ दु० ॥ १ ॥ जंबूद्वीपे दक्षिण भरते, माहणकुण्ड सुनयरे । प्रभु अवतरे हस्तोत्तर में, देवानन्दा उयरे रे ॥ दु० ॥ २ ॥
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर स्वामी पूजा नीच गोत्र कर्मोदय था पर, जीवन पुण्य प्रधाना । चौद सुपन लसती वह माता, जय जय च्यान कल्याना रे ॥ दु० ॥३॥ लसे सुधर्माधिप इन्द्र यह, घटना अवधिज्ञाने । शकस्तप से करे चन्दना, निज जीवन धन जाने रे ।। दु० ॥ ४ ॥ इन्द्रादेशे हरिणगमेपी, देव दिव्यगति आवे । हस्तोत्तर में गर्भहरण कर, कल्याणक प्रकटावे रे ।।दु० ॥५॥ नीवगोत्र कर्म क्षय होते, जग-कल्याण निकेतु । ब्राह्मण से क्षत्रिय कुल आये, महावीरता हेतु रे । दु० ॥ ६ ॥ क्षत्रिय कुण्ड नगर नृप सिद्धा,-रथ पटराणी त्रिशला। चौद सुपन लखती प्रभु पावे, महासती मति विमला रे ॥ ८० ॥ ७ ॥ कल्पसूत्र में भद्रबाहु प्रभु, जीवन घटना योधे । हरि-कनीन्द्र आराधक जन, निज जीवन गुण परिशोधेरे ॥ दु० ॥ ८ ॥
काव्य ।। यो ऽकल्याणपदं० ॐ हीं श्रीं अहं श्रीमहावीर स्वामिने जलादि अष्ट द्रन्य यजामहे स्वाहा। ॥ अष्टम जन्म कल्याणक पूजा ।।
॥ दोहा ॥ प्रज्ञा प्रजापति विवुधमुस, दिव्य स्वप्न फल जान । भने मुदितमन जनमते, भाग्यवान भगवान ॥१॥
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५०
वृत् पूजा-संग्रह
विधि योग करे, कर्म खातमा हो जी ॥ ६० ॥ ३ ॥ शूलपाणि चण्डकोशिया हो जी, कांइ संगमसुर गोवाल, कान खीला भरे हो जी । सुर नर तिर्यच का सहे हो जी, कां प्रभु उपसर्ग महान, महातप आदरे हो जी ॥ ध० || ४ || महा अभिग्रह धारते हो जी, कोई चन्दना पुण्य प्रभाव, प्रभु पारणो करे हो जी । साधिक बारह वर्ष में हो जी, प्रभु छदमस्थ रहे अप्रमाद, नींद ने वोसिरे हो जी || ध० || ५ || वैशाख सुद दशमी दिने हो जी, कोई हस्तोत्तर शुभ योग, घाती कर्म मिट गये हो जी । केवल ज्ञान सुदर्शने हो जी, प्रभु देखें लोकालोक, अर्ह पद पाये हो जी || ६ || स्याद्वाद प्रवचन सुधा हो जी, पी समवशरण में जीव, अमरपथ पागये हो जी । गौतम गणधर आदि में हो जी, श्रीसंघ चतुर्विध थाप, तीरथपति होगये हो जी ॥ ध० ॥ ७ ॥ देश सरव व्रत साधना हो जी, कोई साधक साध्य विचार करें भवि आतमा हो जी । हरि कवीन्द्र करें वन्दना हो जी, जो जन जिन दर्शन आराध, बने परमातमा हो जी ॥ ध० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् || यो कल्याणपदं०
ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्रीमहावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा |
1
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री महावीर स्वामी पूजा
३५१ ॥ दशम निर्वाणपद प्राप्ति पूजा ॥
॥दोहा॥ सुख दुस कर्ता आतमा, ओर निमित्त अनेक । वीर प्रभु उपदेश यह, दर्शन जैन विवेक ॥१॥
(तर्ज-झण्डा ऊँचा रहे हमारा) शासन पति की जय हो जय हो। वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ टेर ॥ आतम को समझ सो ज्ञानी, वीर प्रभु की पावन वानी। जो जाने वह ही निर्भय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ १ ॥ क्षत्रिय कुण्डमें जनमें स्वामी, थे त्रिभुवन जन के हितकामी । उनका शासन सदा हृदय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ २ ॥ अपकारी के थे उपकारी, भक्त अभक्तों के हितकारी । जिनसे जीवन सदा अभय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ ३ ॥ स्त्री शुद्रों को मार्ग बताया, साम्यभाव सत रूप जगाया। दुसियो पर जो रहे सदय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥४॥ श्रेणिक को आतम समझाया, अत्रत रहते भी अपनाया। जिन दर्शन से परम उदय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ ५ ॥ वर्ष बहुत्तर आयुष पाये, काती अमावस सिद्ध कहाये । गौतम स्वामी मोह
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
वृहत् पूजा संग्रह
विजय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ||६|| मोक्ष भूमि पावापुर धन धन, जिससे ज्योति पाते जन जन । प्रवचन उनका प्रमाण नय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ||७|| सुखसागर भगवान हमारे, ज्योतिर्मय जग के उजियारे । हरि कवीन्द्र विशेष विनय हो, वीर प्रभु की जय हो जय हो ॥ ८ ॥
॥ काव्यं ॥ यो ऽकल्याणपदं ०
ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह श्रीमहावीर स्वामिने जलादि अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा |
॥ कलश ॥
॥ दोहा ॥
होता है निर्वाण जब, घड़ी न बढ़ती एक । वीर प्रभु फरमान से, इन्द्र किया विवेक || १ ||
(तर्ज- अवधु सो योगी गुरु मेरा - आशावारी ) प्रभुजी आप शरण हम आये || ढेर || प्रभु निर्वाण हुआ सुनते ही, गुरु गौतम दुख पाये । विलापात करते यों बोले, छोड़ हमें क्यों सिधाये ॥ प्र० ॥ १ ॥ जाना था तो दूर न करना था, हमको हे स्वामी । पूरी हो न सके ऐसी यह, पड़ी हमारे खामी ॥ प्र० || २ || गौतम
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५३
श्री महावीर स्वामी पूजा गौतम कौन कहेगा, कौन रहेगा साथी। फोन हरेगा मेद भरम सब, हम हैं हाय अनाथी । प्र० ॥३॥ वीर वीर करते यो गौतम, निज आतम लय लाये । में हूँ मेरा ओर न कोई, केरल ज्ञान उपाये ॥ प्र० ॥ ४ ॥ सुखसागर भगनान परमपथ, गामी अन्तरयामी । महावीर प्रभु गौतम स्वामी, सविनय सदा नमामि || प्र० ॥ ५ ॥ दो हजार वारह सवत में बीकानेर दीवाली। महावीर पूजा यह गाते, हुई आतम सुसियाली ॥ प्र० ॥ ६॥ श्रीजिन हरिगुरु दिव्य दयामय, बोध बुद्वि दातारी। वर्तमान आनन्द गुणाधिप, अनुशासन अधिकारी ॥ प्र० ॥ ७ ॥ करीन्द्रसागर पाठक प्रभु गुणा, कीर्तन जय जयकारी सम्पग्दर्शन ज्ञान विकासी, हो नित मगलकारी ।। प्र०॥८॥
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनाचार्य श्रीमज्जिन हरिसागर सूरीश्वर शिप्य श्री कवीन्द्रसागरोपाध्याय विरचित
॥ रत्न त्रय पूजा॥ || मंगल पीठिका ॥
॥ दोहा॥ सुख सागर भगवान जिन, हरिपूज्येश्वर आप । आतम परमातम भजो, मिटे मोह सन्ताप ॥ १ ॥ दुख को हम चाहें नहीं, नित चाहें सुख सार। पर दुख ही दुख पा रहे, कारण कौन विचार ॥ २ ॥ क्या सुख होता ही नहीं १, क्या दुख जीव सुभाव १। क्या कोई दुख देत है ? क्यों यह बने बनाव ? ॥ ३ ॥ औषध से दुख ना मिटे, मिटे न धन जन योग। आतम धर्माराधते, हो दुख मूल वियोग ॥ ४ ॥ अपनी अपनी आतमा, का उपयोग विचार । जो पोचे पावें सही, वे सुख अपरम्पार ॥ ५ ॥ मृगमद मृग ढूंढ़त फिरे, पर ना पावे लेश । भटक . भटक वह मर मिटे, केवल पावे क्लेश ॥ ६ ॥ मैं मैं मैं करता फिरे, पर ना जाने भेद । खटिक घरे बकरा यथा,
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
रत्नत्रय पूजा
३५५ मर भर पावे खेद ॥ ७॥ पुण्य योग पाया यहां, दर्शन जैन प्रधान । यहाँ सहज सुख सिद्धि का, पाया विशद विधान ॥ ८ ॥ सम्यग्दर्शन शुद्ध हो, ज्ञान चरण निस्तार । जनम मरण भव दुख का, रहे न लेश विकार ।। ६ ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान मय, चरण रत्न ये तीन । मोक्ष मार्ग साधक गुणी, साधे भाव अदीन ॥ १०॥ परम गुणी जिनराज हैं, स्मारक निजगुण रूप। दर्शन बन्दन पूजना, करो भविम गुण भूप ॥ ११ ॥
(तर्ज राग धनासिरी तेज तरणि मुस राजे )
भाव रतन दातार, पूजो रे भवि वीवराग पद सार ॥ टेर।। राग आग ललता जन जीवन, पावा दुख अपार ॥ पूजो० ॥ वीतराग पद सेन सुधारस, अनहद आनन्दकार ॥ पूजो० ॥ १ ॥ राग-द्वप की गांठ खुलेगी, ज्योतिर्मय जयकार ॥ पूजो० ॥ जीवन होगा पावन जगमें, अजरामर अविकार ॥ पूजो० ॥ २ ॥ आप पूज्य प्रभु पूजा न चाहे, पर पूजक आधार ॥ पूजो० ॥ द्रन्य भारविध पूजो मविजन, गुरु आगम अनुसार ॥ पूजो० ॥३॥ नल चन्दन कुसुमादिक द्रव्ये, आठ अनेक प्रकार आपूजो०॥ सम्पग्दर्शन गुण तर प्रगटे, झान चारित श्रीकार || पूजो० ॥४॥
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह पुण्य योग प्रभु दर्शन पायो, आतम गुण अधिकार ॥ पूजो० ।। हरि कवीन्द्र करो गुण कीर्तन, हो जावो भव पार ॥ पूजो० ॥ ५॥ || सम्यग् दर्शन पद पूजा ||
॥दोहा॥ तत्त्वारथ श्रद्धान है, सम्यग्दर्शन भाव । वह प्रकटो मेरे लिये, प्रभु पद पुण्य प्रभाव ॥१॥ होती चित्त प्रसन्नता, प्रभु पद पूजा योग । पाउं गृण गाउं यहां, मिटे महा भव रोग ॥२॥
(तर्ज-अवधू सो जोगी गुरु मेरा आशावरी)
प्रभु से करम भरम मिट जाय ॥ टेर ॥ काल अनादि उलटि गति मति, सुलटी सहज उपाय। चाह नहीं धन धाम धरा की, सेवा प्रभु की सुहाय ॥ प्र० ॥ १॥ सुरमणि सुरतरु अधिक प्रभु हैं, वांछित पद वरदाय । दूर दारिद्रय हुआ हुई मेरे, सेवा की यह आय ॥ प्र० ॥२॥ सम्यक मिश्र मिथ्या तीनों, मोहनी मूल विलाय । सम्यग्दर्शन पाया मिटते, दर्शन मोह अपाय ॥ प्र० ॥ ३॥ आतम रूप अनादि अपना, भूल रहा भरमाय । आज
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
रत्नत्रय पूजा
३५७ किया निर्मल निश्चल वह, प्रभु पद सेव अमाय ॥ प्र० ॥४॥ मिटे अनन्तानु चन्धी ये, कलुपित चार कपाय । हरिकनीन्द्र प्रभुपद कृपया, जीवन ज्योति जगाय ॥ प्र० || ५ || ॥ दोहा ॥
शका आतम रूप की, मिट ते मन से आज । परमातम पद पा लिया, पाया सुखद स्वराज ॥१॥ कांक्षा जडता सग की, आज हुई निर्मूल । आतम गुण रमणीयता, प्रकटी शिव अनुकूल ॥२॥ (तर्ज - सुअप्पा आप विचारो रे० )
प्रभु से पायो दरशन दान, मिट गयो मोह अज्ञान || प्रभु || || मानु धन दिन धन घड़ी मेरी, धन जीवन परमान | मिटी विचिकित्सा अन सब ही हो गये सफल विधान || प्र० || १ || आरोपित सुन्दरता जडकी, असत अशिव पहिचान । सत्य तथा शिव सुन्दर गायो, आतम रूप महान ॥ प्र० || २ || भाव अनातम दूर हुआ अन, पाया आतम ज्ञान । कर्ता कर्म करण कारक सन, हो गये आतम थान || प्र० ||३|| क्षायिक भावे क्षायिक समकित, ग्रन्थी मेद निदान । प्रभु की प्रभुता निज जीवन में, त्रिभुवन तिलक समान || प्र० || ४ || शम सवेगी हो निजेंदी,
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
वृहत् पूजा-संग्रह
अनुकम्पा परधान । हरि कवीन्द्र आस्तिक आतम गुण, अमृत कीनो पान ॥ प्र० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥ निश्चय से व्यवहार से, एक अनेक सरूप | निजगुण समकित रत्न को, पाते हैं गुण भूप ॥१॥ दीपक से दीपक यथा, लट भँवरी के न्याय । आतम हो परमातमा, समकित शुद्ध उपाय ॥२॥
( तर्ज - अम्विका विरुद वखाने हो० )
जिन शासन का सार यही है, जिन शासन का सार । समकित रत्न उदार यही है, जिन शासन का सार ॥ जिन दर्शन तें दर्शन प्रकटे, जिन निक्षेप चार। चारों सत्य बतायें स्वामी, ठाणांग ठाण विचार || यही० ॥ १॥ आचारांगे दुय सुखंधे, निरयुक्ति निरधार । तीरथ दर्शन वन्दन पूजन, दर्शन भाव आधार || यही० ॥ २ ॥ दर्शन मूरति श्री जिन मन्दिर, जिन प्रतिमा अधिकार | पंच कल्याणक भाव प्रकटते, हो दर्शन अधिकार || यही ० ||३|| आनन्दादिक परम उपासक, भाव प्रतिज्ञा धार | जीवन पावन सुविहित विधि से हो समकित साकार || यही० ॥ ४ ॥
I
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
रल जय पूजा
३५६ सुखसागर भगवान के दर्शन, करते आद्रकुमार। हरि कवीन्द्र श्रेणिक अम्मड सम, हों अहं अवतार ।। यही० ॥५॥
॥दोहा॥ अहं सिद्ध स्वरूप ये, आतम विकसित भाव | होते हैं मन्यात्म में, दर्शन पुण्य प्रभाव ॥१॥ राग द्वेष अरि नाशते, चन्दन पूजन योग । होते अई आतमा, स्वयं सिद्ध उपयोग ॥२॥
(तर्ज-हा केसरियों कामण गारो) हां आतमा अरिहत होता, सम्यग दर्शन भावमें परिणत जन होता रे। आतमा अरिहंत होता ॥ टेर ।। नमो अरिहंताण पद रटते, भन भावी सन भाव विघटते । कटते करम कलेश लेश दुख का नहीं होता रे ॥ आ०॥१॥ अरिहंत पद के आराधन से, भान अरि के सहज निधन से। धन जीवन हो जाय आय शिन सुखका होता रे मा०॥२॥ अरिहंत अत सिद्ध हो जाते, अपुनर्भव शिव पदवी पाते । जहाँ नहीं यमराज, राज अपना ही होता रे ॥ आ०॥३॥ सम्यगदर्शन गुण अविकारी, प्रभु पद आराधक अधिकारी। सुखसागर भगवान ज्ञान गुण उन को होता रे |आ०॥४॥
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
वृहत् पूजा-संग्रह
हरि कवीन्द्र आतम दर्शन हो, परमातम सम्यग् दर्शन हो । चंदन पूजन योग भाव उपयोगी होता रे || आ० ॥ ५ ॥ || हरिगीत छन्दः ॥ तच्चार्थ के श्रद्धान से, हो भव्य सम्यग्दर्शनं, आधार उसका एक है, निज आत्म रूप सुदर्शनम् । दर्शन न आँखों का यहाँ है, हृदय दर्शन दर्शनं,
जिनदेव दर्शन से मुझे हो, दिव्य सम्यग्दर्शनम् ॥ मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त
--
सम्यग्दर्शन शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय सम्यग्दर्शन प्राप्तये अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ।
॥ सम्यग् ज्ञान पद पूजा || ॥ दोहा ॥
सब संसारी जीव में, होता है संज्ञान | पर जो जाने आपका, उनका सम्यग्ज्ञान ॥१॥ आप रूप है आमा, पर कर्मों के योग । भूल सदा गति चार में, भोग रहा दुख भोग ॥२॥ बकरी टोले में रहा, सिंह बाल निजरूप | लखते सिंह पराक्रमी, हो जाता वन भूप ॥३॥ वैसे ही यह आत्मा, परमातम पद योग । आतम ज्ञानी हो करे, भव दुख भाव वियोग || ४ ||
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
रल य पूजा
३६१ (तर्ज-चित हरस धरी अनुभव रगे वीस परम पद सेविये)
नित ज्ञानी की, सेना दे सुख मेवा आतम ज्ञान का ॥ टेर ॥ परमातम पूरण ज्ञान कला, पद पूजा से जीवन सफला । मिट जाय अनादि करम बला, नित ज्ञानी की० ॥ १ ॥ प्रद्वप नहीं अपलाप नहीं, मात्सर्य नहीं अन्तराय नहीं। आसातन अरु उपघात नहीं, नित ज्ञानी की० ॥ २ ॥ आश्रय मिटते सवर होता, ज्ञानावरणी क्षय भी होता । ज्ञानोदय जीवन में होता, नित ज्ञानी की० ॥३॥ है ज्ञेय रूप संसार सभी, उसमें यह अपना रूप कमी। दीसे हो सम्यग्ज्ञान तभी, नित ज्ञानी की० ॥ ४ ॥ सुख सागर पद भगनान मिले, हरि कवीन्द्र कीवित ज्ञान खिले । फिर मोह महादृढ़ दुर्ग हिले, नित ज्ञानी की० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ ज्ञानी के सतसग से, होता आतम ज्ञान । जडविज्ञानी जाव का, मिटता है अभिमान ||२|| पट कुट्यादिक आवरण, से ज्यों सूर्य प्रकाश । तरतम भावे होत है, ज्ञान प्रकाश विकास ||२||
(त-प्रभु धर्मनाथ मोहे प्यारा जग जीवन) पूजो ज्ञानी जिन जयकारी, दें ज्ञान परम उपकारी
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
वृहत् पूजा-संग्रह
|| टेर || जन आराधक अधिकारी, तज भेद अभेद विहारी । क्रमशः मति श्रुत अनुसारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें || १ || आतम परमातम होता, जब पूर्ण ज्ञान गुण . होता । मीमांसक मति गति हारी,
।
पूजो ज्ञानी जिन
अगोचर भावी, गुण
1
जय कारी || दें० || २ || यह अगम ज्ञान है पूर्ण प्रभावी । पाते जन जो अधिकारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें० || ३ || नय निक्षेपा विस्तारें, अनुयोग विशेष विचारे । हो यह प्रमाण पद धारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी ॥ ० ॥ ४ ॥ मति श्रुत अवधि मनज्ञानी, केवल सर्वज्ञ विधानी । हरि कवीन्द्र ज्ञानी बलिहारी, पूजो ज्ञानी जिन जयकारी || दें० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥
॥
ज्ञान स्वपर अवभासकर, होता है सुप्रमाण । आराधन से आतमा, हो अनन्त गुण खाण || एक देश व्याख्यान से, होता नय विज्ञान | सर्व देश व्याख्यान से, हो प्रमाण गुण ज्ञान ||
(तर्ज - कवाली - तेरा तो हो चुका हूँ )
नय से प्रमाण से हो, जन आत्म ज्ञान धारी । आतम गुणामिरामी, ज्ञानी सदा नमामि || टेर || जो जानते हैं
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६३
रत्न त्रय पूजा
जगको, वह धूल जानकारी । जो जानते स्वपर को, ज्ञानी सदा नमामि || आ० ॥ १ ॥ पचास्तिकाय में
जीवास्तिकाय महिमा | होती है ज्ञान द्वारा, ज्ञानी सदा नमामि || आ० ॥ २ ॥ जड रूप द्रव्य सारे, हैं जीव एक चैतन | गुण ज्ञान ज्योति पूरन, ज्ञानी सदा नमामि || आ० || ३ || आनन्द धाम आतम, तम तोम से रहित हो । ज्ञान प्रकाश होते, ज्ञानी सदा नमामि || आ० || ४ || गाते हरि कवीन्द्र गुण ज्ञान आत्मा का । परमात्म भाव पूरण, ज्ञानी सदा नमामि ॥ आ० ॥ ५ ॥ ॥ दोहा ॥
ज्ञान रतन अनमोल का, जतन को मतिमान | पिन तोले वाली नही, वाणी ज्ञान प्रधान ॥१॥ ज्ञान भरी वाणी सुधा, वर्षा भगवान | पीते भविजन भाव से, अजर अमर गुणठान ||२|| (तर्ज- कोरो काजलियो ।
यह पाया पुण्य प्रधान शासन जैन का, नित सेनो चतुर मुजान शासन जैन का || टेर || ज्ञान रतन अनमोल है, जो है चिन्तामणि रूप || शा० ॥ १ ॥ आराधक साधक सभी, हो जाते त्रिभुवन भूष ॥ शा० || २ || अज्ञानी
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
वृहत् पूजा-संग्रह समझे नहीं, समझेगे समझनहार || शा० ॥ ३ ॥ पड़ दर्शन में देख लो, है त्रिभुवन तारणहार ।। शा० ॥ ४ ॥ जीव अनन्ते प्रभु अनन्ते, का नित करे विधान ॥शा०॥५॥ आतमगत करतापणे, का देता बोध महान ||शा० ॥६॥ कर्याकार्य विचारणा, का जिससे होत विवेक ॥ शा० ७॥ स्वावाद सर्वोदयी, यह शाश्वत शिव-पथ एक ||शा० ॥८॥ सम्यग्दर्शन-ज्ञान से, जो हो आतम सम्बन्ध ।। शा० ॥६॥ हरि कवीन्द्र तो हो गई, वह सोने वीच सुगन्ध ॥ शा० ॥ ८ ॥
॥ हरिगीत छन्द ॥ संसार को जाना न जाना आतमा को धूल है, वह जानकारी जान लो बस मूल में ही भूल है । निज आतमा को जानना परमात्म पद का मूल है, वह दिव्य सम्यग्ज्ञान हो भव शूल भी सब फूल हैं।
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने अनन्तानन्त सम्यग्ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय अष्ट द्रव्य यजामहे स्वाहा।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
रल अय पूजा
३६५ । सम्यग चारित्र पद पूजा ।।
॥दोहा॥ आतम दर्शन प्रकट हो, आतम का ज्ञान । चरण आतमा के प्रति, मोक्ष मार्ग विज्ञान ॥ १ ॥ ये तीनों ही सत्य हैं, ये तीनों शिव रूप । तीनों सुन्दर भाव है, ओर सभी भवकूप ॥२॥ पर द्रव्यों की रमणता, जहाँ न होवे लेश ।। केवल आतम रमणता, रहे न होवे क्लेश ॥ ३॥ हिंसा हो न असत्य हो, हो न अदत्तादान । मैथुन ममता हो नही, व्रत ये पाच महान ॥४॥ सुव्रतधारी आतमा, स्वयं युद्ध अवतार।
परमातम होवें सही, पूलो विधि विस्तार ॥ ५ ॥ (तर्ज फलींगडा-क्यों रलता संसार तीर्थ है तेरे तरने को)
अशरण शरण सरूप चरण, पा भर वन भटको ना ।।टेर सम्यग्दर्शन ज्ञान सुलोचन, देस करो आतम आलोचन, घलो चाल जजाल जाल मे जीवन पटको ना ।। अ० ॥१॥ सुगुरु सुदेव सुधर्माराधो, आवम से परमातम साधो । हो परमातम आप पाप, दुर्गति में लटको ना || अ० ॥ २॥ देश सर्व चारित्र दुविध है, सामायिक आदि पच विध हैं। आराधक के लिये रहे फिर, करम को सटको ना ||३०||३||
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
वृहत् पूजा-संग्रह बनो अहिंसक आतम हेतु, भव सागर तारक यह सेतु । वैर भाव हो शान्त अभय भव, भय में अटको ना ॥१०॥४॥ हरि कवीन्द्र बोले अतिहरसे, उत्तरोत्तर गुणठाणा फरसे, दिव्य चरण पा भरो विषय विप, अन्तर घटको ना ॥अ०॥५।।
॥दोहा॥ आठ रूप है आतमा, चारित्रातम खास । आठ कर्म चय रिक्त हो, हो चारित्र प्रकाश ॥१॥
आचारज पाठक मुनि, घर चारित्राचार । - पंचाचार विचार से, परमेष्ठी अधिकार ॥२॥ (तर्ज-धन धन ऋषभ देव भगवान युगला धर्मनिवारण वाले)
सुखी होते हैं वे नर नार, आत्म संयम धन पाने वाले । नहीं जन मन रंजन का काम, निशदिन रहते जो निष्काम । नहीं निंदा स्तुति से आराम, आतमा में नित रमने वाले ॥ सु० ॥ १ ॥ हृदय में पहिले लेते तोल, बोलते सच्चा मीठा बोल। नहीं रहती है उनमें पोल, सहज सक्रिय नवजीवन वाले ॥ सु० ॥२॥ धरते हैं परमातम ध्यान, ज्ञान-विज्ञान आत्म परधान । जिन्हें जीवन में न है अभिमान, त्याग वैराग बढानेवाले ॥ सु० ॥ ३॥ तजते विषयों को विष मान, सजते सतसंगी सुविधान ।
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
रत्न अय पूजा
३६७ परम चारित्र धर्म एलान, जगत को सदा सुनाने वाले ॥ सु० ॥ ४ ॥ लेते नहीं अदत्तादान, दिया लेते पाते अनिदान । उनका हरि कपीन्द्र गुण गान करें, धन संयम जीवन वाले। सु० ॥ ५॥
॥दोहा ॥ भोग रोग सम जानते, करते योगाभ्यास । निन्दा विकथा त्याग कर, भर से रहे उदास ॥१॥ सागर सम गभीर जो, मेरू सम जो धीर। महावीर संसार के, पहुंचे अन्तिम तीर ||२|| (तर्ज-भीनासर स्वामी अंतरजामी तारो पारसनाथ)
पूजो व्रतधारी हो अधिकारी त्रिभुवन तारणहार । रहते ब्रह्मचारी नित अविकारी जगमें जय जयकार | टेर॥ नवविध ब्रह्म सुगुप्ते गुप्ता, शील रतन रखवाल | कलुपित काम कुसंग न करता, हरता जग जजाल रे॥ पू० ॥१॥ दिन में रात में एक अनेक में, सोते जागते आप। पाप रहित जीवन हो जिनका, वे सच्चे माँ बाप रे ॥ ३० ॥२॥ द्रव्य क्षेत्र और काल भाव से, नित रहते सावधान | जड़ चल जगकी जूठन जानें, पुद्गल द्रव्य विधान रे ॥पू०॥३॥ शन्द रूप रस गन्ध विषय में, रहवे आप अलीन ! आप अपाप रहें
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
वृहत् पूजा-संग्रह
सुविहित खरतर विधि आचरणा, सुखसागर भगवान का शरणा | कर तूं प्रकट प्रचार रे मनवा || तीन० ॥ ३ ॥ जिन हरिसागर सद्गुरु कृपया, आनन्दसागर सूरि सदया । बीकानेर मकार रे मनवा || तीन० || ४ || कवीन्द्र पाठक तीन रतन की, पूज रची निज आत्म जतन की । घर घर मंगलाचार रे मनवा || तीन० ॥ ५ ॥ दोहजार बारह संवत में, विजया दशमी पावन दिन में । जीवन जय जयकार रे मनवा || तीन० || ६ || अजित जिनेश्वर अन्तर्यामी, चरण कमल को नित्य नमामि । सम्पूर्ण सुखकार रे मनवा || तीन० ॥ ७ ॥
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीजिन हरिसागर सूरीश्वर शिष्यरत्न कविवर ___ श्री कवीन्द्रसागरोपाध्याय विरचित ॥ चौसठ प्रकारी पूजा ॥
॥ पूजा विधि ॥ शुभ मुहूर्त मे जल यात्रा चढा कर तीर्थादक लाना चाहिये। अष्ट कर्म निवारण हेतु रंगीन चावलों से मण्डल बनाना चाहिये। आठ पांखुडी सफेद चावलों से भरनी चाहिये। कमल की रेखायें पाँच वर्णी चावलों से बनानी चाहिये। रक्त गुलाल से श्री सिद्ध भगवान के आठ गुणों को प्रत्येक पाँखुडी मे क्रमशः आलेसित करने चाहिये । मन्त्र पद ऐसे लिसने चाहिये
१ ॐ ही अनन्त ज्ञान गुणिभ्यो नमः । २ॐही अनन्त दर्शन गुणिभ्यो नमः । ३ ॐ हीं अनन्त सुख गुणिभ्यो नमः । ४ ॐ ही अनन्त चारित्र गुणिभ्यो नमः । ५ ही अक्षय स्थिति गुणिभ्यो नमः । ६ ॐ हीं अमूर्त गुणिम्यो नमः । ७ ॐ हीं अगुरूलघु गुणिभ्यो नमः । ८ ॐ ही अनन्त वीर्य गुणिभ्यो नमः ।
Ye Ye ge ge
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
वृहत् पूजा-संग्रह मध्य गोल कणिका पीत वर्ण के चावलों से भरनी चाहिये। यहाँ सोने चांदी का आठ शाखाओं वाला एक सौ अट्ठावन पत्तों वाला पेड़ बनवा कर चढ़ावं। इस कर्म वृक्ष के काटने के लिये एक सोना चाँदी का बना कुल्हाड़ी कर्म वृक्ष की जड़ों में रखना चाहिये।
समवशरण में त्रिगड़े में भगवान श्री महावीर स्वामी की प्रतिमा स्थापन कर। अखण्ड दीपक ज्योति जगाचं । धूप करें। भगवान के अभिषेक के लिए उत्कृष्ट चौसठ कुमार कुमारिकायें मध्यम आठ कुमार कुमारिकार्य और जघन्य एक कुमार कुमारी स्नानादि से शुद्ध पवित्र वस्त्र पहने हुए होने चाहिये। आठ दिन तक वहीं प्रत्येक कर्म निवारण के लिए अष्ट प्रकारी पूजा पढ़ाई जानी चाहिए। प्रतिदिन नये नये नैवेद्य नये नये फल फूलों का उपयोग करना चाहिए।
आठ दिन तक प्रभु भक्ति, गुरु भक्ति, साधर्मी भक्ति करनी चाहिए। रात्री जागरण, प्रभु गुण कीर्तन, सिद्ध पद का ध्यान, यथाशक्ति तपश्चर्या करते हुए करना चाहिए। यथाशक्ति याचकों को दान देना चाहिए। इससे भव भवान्तरों में बँधे आठ कर्मों का प्रचूर मात्रा में क्षय होता हैं । नवमें दिन उस कर्म वृक्ष को महोत्सव पूर्वक जिन मन्दिर में चढ़ा देना चाहिए।
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
पहले दिन ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा पढार्वे ॥ ज्ञानावरणीय कर्भ निवारण पूजा॥
॥ मंगल पीठिका ॥
॥ दोहा॥ ॐ अहं परमातमा, श्रीफलवृद्धि पास । जिन हरि पूज्य सदा नमू , तारक तीरथ खास ॥१॥ मिथ्यात्वादिक हेतु से, आतम से जो काम । किया जाय बन्धन वही, कर्मरूप भर धाम ॥२॥ सन्ततिरूप अनादि है, सादि कर्म विशेष । कर्मरूप ससार है, रहता यही कलेश ॥३॥ भाव अकर्मक हो गये, वीतराग परमेश । वीतराग आराधना, हरती कर्म कलेश ॥४॥ आराधन के भेद भी, गुरुगम सुने अनेक । । तप कर प्रभु पद पूज़िये, द्रव्य भाव सनिवेक ॥५॥ कर्म तिमिर हर है यहाँ, तपपर ज्योति विशेष । कर्म निवारण तप करो, पूजो प्रभु हमेश ||६
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
वृहत् पूजा-संग्रह
आठ आठ दिन कोजिये, यथाशक्ति तप सार । सरल अशठ भावे भविक, प्रकटे गुण अविकार ||७||
कर्म वृक्ष शाखा जहाँ,
धाति अघाती आठ । कटते होवे ठाठ ||८||
उत्तर प्रकृति पत्र हैं,
सुवरन सुन्दर कीजिये, तप कुठार वर भाव । ज्ञान सहित प्रभु पूजिये, प्रकटे पुण्य प्रभाव ॥६॥ पूजा कर्म विशेष से, कटता कर्म कलेश । कांटे से कांटा यथा, पूजा करो हमेश ||१०|| जल चन्दन कुसुमादिये, अष्ट द्रव्य विधियोग | प्रभु पूजा से होत हैं, भव भय भाव वियोग ॥११॥
॥ प्रथम जल पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
जल रस अमृत भाव से, पूजा करो हमेश | रस अमृत प्रकटे मिटे, जीवन ताप कलेश ॥१॥ जीवन में जड़ता भरी, उसे बहा दो दूर | 'जल पूजा प्रभु की करो, पाओ सुख भरपूर ॥२॥
( तर्ज आशावरी - अवधू सो जोगी गुरु मेरा ) अर्ह पद अधिकारी पूजो, शासन पति सुखकारी । महावीर उपकारी पूजो, परमातम पद धारी ॥० ॥ टेर ॥
a
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३७५ नन्दन भव में बीस पदों के, आराधक अधिकारी। प्राणत स्वर्गे च्यवन कल्याणक, प्रभु का मगलकारी ॥ पू० ॥ १ ॥ देवानन्दा गर्भ विराजे, व्यासी दिन अवतारी । हरिणगमेपी इन्द्रादेशे, निजकर्तव्य विचारी | पृ० ॥ २ ॥ गर्भ हरण कर त्रिशला कूखे, लावे धन बलिहारी। ऊँच गोत्र कल्याणक भूमि, त्रिभुवन तारणहारी ॥ १० ॥३॥ चैत सुदी तेरस दिन उत्तम, जिन जनमे जयकारी। जिन महोत्सव सुरपति करते, समकित दर्शनधारी ॥ पू० ॥ ४ ॥ राज रमणी सुख भोग त्याग कर, तीस वरस में भारी। सयम ले तप कर्म सपाये, केवल कमला धारी | पू० ॥ ५ ॥ शासन वांया शिव पाया, जो हो गये भवपारी, आतम माचे प्रभु को पायें, धन धन वे नरनारी ॥ पू० ॥ ६ ॥ हम संसारी भव में भटके, प्रभु है शिव संचारी । कैसे दर्शन पायें ? गुरु गम, आगम के अनुसारी ॥ ५० ॥ ७ ॥ प्रभु अनन्त ज्ञान के स्वामी, बोध वीज दातारी हरि कवीन्द्र भक्ति जल सींचो, हो अनन्त विस्तारी ॥ पू० ॥८॥
|| काव्यम् ॥ लोकेपणाति ति वृष्णोदयमारणाय, सद्बोधिधीज
र
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह जनितांकुर बर्द्धनाय । स्वान्तर्मलापनयनाय यजामहे श्री, वीरं विशेष गुण भाव जलेन अक्तया । ___मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने अनन्तानन्त सम्यग्ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समूलोच्छदाय श्रीवीरजिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा। || द्वितीय चन्दन पूजा ||
॥दोहा॥ ज्ञानावरणी कर्म से, रुकता आतम ज्ञान ।
आंखों पर पाटा लगे, कैसे होवे भान ॥१॥ होता है अज्ञान में, भव भावी सन्ताप । प्रभु पद चन्दन योगते, मिटे मिले सुख धाप ॥२॥
(तर्ज-माला काटे रे जाला जीवका) गुण ज्ञान हमारा कर्मा ने रोका काटो कर्म को। शासन पति प्रभु की पूजा कर पाओ आतम धर्म को ॥ टेर ॥ ज्ञान अनन्ता है आतम में, जड़ कर्मों ने घेरा। अज्ञानी याते देता है, चौरासी लख फेरा रे ॥ गुण० ॥१॥ भाव असाव नहीं होता है, और अभाव न भावा । यात आतम का नहीं मिटता, चेतन मूल सुभावा रे ॥ गुण
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३७७ ॥ २ ॥ अक्षर ज्ञान अनन्त माग में, कर्म अनावृत रहता। इस कारण आतम गुण चेतन, नित्य निरन्तर बहता रे ।। गुण० ॥ ३ ॥ आतम चेतन कर्म ये जड़ हैं, सन्तति संग अनादि । जड़ संगी चेतन भव भटके, होती है पखादी रे ।। गुण० ॥ ४ ॥ कस्तूरी नामि रहती है, मृगदढ़े कहीं ओरा। क्यों अज्ञानी आतम ददे, निज सुख को पर ठोरा रे ॥ गुण० ॥५॥ देव गुरु सतसगी आतम, अपना रूप पिछाने। सुखसागर भगवान बने वह, नित चढ़ते गुणठाने रे । गुण० ॥ ६॥ करम करम का काट करेंगे, कर्म आराधक ठानो । पूज्य पुरुप पद पन्दन पूजन, द्रव्य भाव से ठानो रे ।। गुण० ॥ ७ ॥ पूज्य न चाहे परकुत पूजा, पूजारी गुणकारी । हरि कनीन्द्र प्रभु चन्दन पूजा, पाप ताप संहारी रे ॥ गुण० ॥ ८॥
काव्य । पापोपतापशमनाय महद्गुणाय, दुर्योध भावि भव रोग निवारणाय | आत्म प्रमोद करणाय यजामहे श्री, वीरं विशेष गुण चन्दन सद्रसेन । ___ मत्र-ॐ ही अहे परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समलोच्छदाय श्रीगीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे साहा ।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७८
वृहन् पूजा-संग्रह
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ काल अनादि कर्म वश, मुरझाया जो ज्ञान । ज्योतिर्मय प्रभु दरशर्ते, फूले फूल समान ॥१॥ विकसित आतम ज्ञान से, परमातम परधान । पद पाओ पजो यथा, फूलों से भगवान ||२|| (तर्ज - प्रभु धर्मनाथ मोहे प्यारा )
जिन दर्शन पावन पावे, मन कुसुमकली खिल जावे । मति ज्ञान सुगन्ध बढ़ावे, जो प्रभु पद कुसुम चढ़ावे ||टेर | आतम जड़ रस में जब लों, सति ज्ञान आवरण तत्र लों । मति अज्ञानी दुख पावे, जिन दर्शन ज्ञान उपावे ॥ जि० ॥ १ ॥ समरण संज्ञा पुद्गल की, चिन्ता रहती पर कल की । पर घर तज निज घर आवे, परमातम पद प्रकटावे ॥ जि० ||२|| व्यंजन अर्थावग्रह से, प्रभु दर्शन गुण संग्रह से । ईहा अपाय इक धारा, आतम गुण ज्ञान संभारा || जि० ॥ ३ ॥ क्षय उपशम मिश्रित भावे, तरतमता ज्ञाने आवे । अट्ठाइस भेद विचारे, मति ज्ञानी गुण विस्तारे || जि० ||४|| विनयादिक चार प्रकारी, मति आतमपद अधिकारी । हो जिन पद पूजा ठावे, पद पूज्य निजी प्रकटावे ॥ जि० ॥ ५ ॥
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा
३७६
जिन प्रतिमा जिन सम देखें, मति ज्ञान उन्हीं का लेसे । कुतर्क करी बात बनावें, मिथ्या मन मैल सनावें ॥ जि०॥६॥ कारण से कारज होता, कारण से जगता सोता । कारण पद प्रभु अधारो, कर दर्शन काज सुधारो ॥ जि० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र आतम भावे, गुण गार्वे गुण को पावें । प्रभु पूज कुसुम वर दावे, जीवन विकास हो जावे ॥ जि० ॥८॥
|| काव्य ॥
चञ्चत्सुपञ्चर वर्ण विराजिभिर्वै, सद्गन्धिभिश्च विशदै: सुविकास शीलैः । स्वान्तर्विकास- विधये हि यजामहे श्री, वीरं विशेष गुण पुष्प वरैः समन्तात् ॥
मन्त्र — ॐ ही अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा । ॥ चतुर्थ धूप पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
मति पूर्वक श्रुत ज्ञान हो, श्रुत के भेद अनेक । गुरु गम श्रुत संयोगर्ते, प्रकटे परम विवेक ॥२॥
परम विवेकी आतमा, उर्ध्वगमन धूप पूज प्रभुकी करें, द्रव्य भाव
हित सार | सुविचार ||२||
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८२
बृहत् पूजा-संग्रह
जगाया ॥ पू० ॥ १ ॥ द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे, अवधि ज्ञान बताया। दीपक सम तरतमता योगी, क्षायोपशमिक सुझाया || पू० || २ || अनुगामी बर्द्ध मान प्रतिपाती, सेतर छह भेद गाया । रूपी द्रव्य को जाने अवधि, ज्ञानावरण विलाया ॥ पू० ॥ ३ ॥ सुरनारक भव प्रत्यय अवधि, सुर प्रभु पूजा रचाया । सम्यग्दर्शन निर्मल होते, उतरोत्तर शिव पाया ॥ पू० ॥४॥ लब्धि- प्रत्यय नर तिर्यचे, भेद असंख्या दिखाया । सम्यगदर्शन अवधिज्ञानी, मिथ्या विभंग कहाया || पू० || ५ || अवधि द्रव्य अनन्ता देखे, लोक असंख्य लहाया । काल असंख्या भाव अनंता, रूपी विषय विधाया || पू० || ६ || परमावधि होता शिव गामी, निश्चय यह मन भाया । सुख सागर भगवान की सेवा, मेवा दे सुखदाया || पू० ||७|| हरि कवीन्द्र सुपातर मनमें, प्रभु पद स्नेह भराया । तन्मय वृत्ति दीपक ज्योति परमातम लख पाया ॥ पू० ॥ ८ ॥
॥ काव्यं ॥ सम्पूर्ण सिद्धि शिवमार्ग सुदर्शनाया, नन्तात् कर्म तमसां परिभेदनाय । दिव्य प्रकाश करणाय यजामहे श्री, वीरं विशेष गुण दीपक दीपनेन ।
मन्त्र — ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३८३ जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा।
॥ षष्ठम भक्षत पूजा ॥ क्षत विक्षत आवम हुआ, द्रव्य भाव मन योग। प्रभु अक्षत पूजा करो, हो अक्षत उपयोग ॥१॥ द्रन्य भाव मन योग को, प्रभु पद अक्षत धार । मन पर्यायी ज्ञान का, नर पावे अधिकार ॥२॥
(तर्ज-कोयल टहुक रही मधुवन मे०) तन मन अक्षत प्रभु पूजन कर, जन जीवन अक्षत गुण धर रे ॥ टेर ॥ तन आश्रित मन की गति चंचल, करता यह प्रतिपल चर भर रे । परमातम पद ध्यानालम्बन, सहज समाधि स्थिरता वर रे ॥ त०॥१॥ निज मन पर्यायों पर संयम, धर मनपर्यवज्ञानी हो नर रे। नर क्षेत्रे सर सज्ञी चिंतित, जानें रूपी द्रव्य प्रकर रे ॥ त० ॥२॥ साधारण ऋजुमती जाने, विपुलमती अति निर्मलतर रे। छ8 से वारह गुण थानक तक, इसकी रहती है खबर रे ॥ त० ॥ ३॥ मन पर्यव ज्ञानावरणी को, काटे जग जो साधु प्रपर रे। दीक्षा लेते ही मन पर्यव, ज्ञानी होते तीर्थकर रे ॥ त० ॥ ४ ॥ तीर्थंकर की
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह पूजा करते, भव सागर होता सुतर रे। अकपट भावे आतम अर्पण, पूजन होता शिवसुख कर रे ॥ त० ॥ ५ ॥ पूजक जन जग पूज्य बने हैं, प्रभु पूजा सत्य शिव सुन्दर रे। जन्म मरण मिटता है उसका, फर्ता नर हो जाय अमर रे॥ त० ॥ ६ । ज्ञानी की सेवा ज्ञान बढावे, ज्ञान विना नर होता खर रे । ज्ञानावरणीय कर्म विपाके, दूर दूर रहता निज घर रे । त० ॥७॥ च्यवन कल्याणक जन्म कल्याणक, दीक्षा कल्याणक उत्सव पर रे । हरि कवीन्द्र अक्षत विधि दर्शन, चन्दन पूजन आनन्द कर रे । त० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ कृत्वाक्षतैः सुपरिणामगुणैः प्रशस्तं, सत्स्वस्तिकंलघु चतुर्गति वारकं च। आत्माक्षतोत्तमगुणाय यजामहे श्री, वीरं वराक्षन गुणैक विशेष भावम् ।
मन्त्र-ॐ हीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा। - ॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥दोहा॥ जड़ चल जग जूठन सभी, पुद्गल रूप अनेक । भोगे सुखकी भूख ना, मिटा हुआ अतिरेक ।।
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ३८५ प्रभु गुण अमृत जो मिले, भूख दुःख हो दूर। प्रभु पद में नैवेद्य धर, चाहूं वही हजूर । (तर्ज-तुम चिघन चन्द आनन्द लाल तोरे दर्शन० )
प्रभु गुण अमृत धाम, श्याम तोरे शासन में सुख भारी || श्या० ॥ टेर ॥ पुद्गल सोचा पुद्गल रोचा, पुद्गल से हो विकारी ॥ श्याम० ॥ आतम मूल भूल अपनी से, भर भटका हो मिखारी ॥ श्याम० ॥१॥ उलटा कारण उलटा कारज, होता सगत सारी ॥ श्याम० ॥ ज्ञानावरण बढा अज्ञानी, आतम दुस अपारी ॥ श्याम० ॥ २ ॥ घोर घटा घन की जब छाये, छिप जाता तिमिरारि ॥ स्याम० ॥ वायु वेग बढ़े धन हटते, प्रकटे ज्योतिधारी ॥ श्याम० ॥ ३ ॥ आतम सर्व प्रदेश अबाधित, ज्ञान भरा अविकारी ॥ श्याम०॥ कर्मों का परदा हटने से, ज्योति सरूप उदारी ॥ श्याम० ॥४॥ केवल ज्ञान कला प्रफटेगी, क्षायिक भाव प्रकारी ॥ श्याम० ॥ पुद्गल संगी तर्क विचारे, मीमांसक मति हारी || श्याम० ॥ ५॥ जन होता भगवान अनंते, भगवान हैं जयकारी ॥ श्याम० ॥ आतम सत्ता अपनी अपनी. दर्शन जैन विचारी || श्याम
२५
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
बृहत् पूजा-संग्रह ॥ ६॥ धर नैवेद्य प्रमुपद पूजी, मांगे हो अधिकारी ॥ श्याम० ॥ परमातम ज्ञानामृत भोजन, की कर दो दातारी ॥ श्याम० ॥ ७॥ द्रव्य कारण है भाव का होता, यातें द्रव्योपचारी ॥ श्याम० ॥ आतमपद अर्थी प्रभु पूजे, हरि कवीन्द्र जयकारी ॥ श्याम० ८॥
॥साव्यम् ॥ प्राज्याज्य निर्मित सुधामधुर प्रचारै, नैवेद्यवस्तु विविध विधिनोपढोक्य । नित्यं बुभुक्षित पद क्षतये यजामहे श्री, वीरं निजात्म परमामृत दायक तम् ॥ ६ ॥ ___मन्त्र-ॐ हीं अहं परमारमने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म सम्मूलोच्छेदाय श्रीवीरजिनेंद्राय नैवेद्यं यजामहे स्वाहा ।
॥ अष्टम फल पूजा ॥
॥दोहा॥ शिव सुख फलदाता प्रभु, पूजो फल धर भेट । कर्ममूल कारण कटे, पाओ सुख भर पेट ॥ १॥ फल प्रभुजी चाहें नहीं, प्रभु नाम यह त्याग । त्यागी वैरागी बने, वीतराग महाभाग ॥ २ ॥
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा
(तर्ज-दा सगीजी ने पेढा भावे )
आतमा शिवफल पावे, प्रभु पद में फल धार
आजादी |
|| आ० ॥ टेर ॥ करम संतति काल अनादि, वश चेतन सोई प्रभु पूजा शुभ कर्म कर्ममल दूर हटावे रे || आ० ॥ १ ॥ प्रभु पूजा में पाप बतावे, ज्ञानावरणी पाप उपावे । सत्ता बंध उदय ध्रुव तीनों ही हो जावे रे || आ० ॥ २ ॥ जीव विपाकी जडता धारे, अपरावर्तमान विचारे | आदिम नत्र गुण थानक तक नित बँधती जावे रे || आ० ॥ ३ ॥ ज्ञानावरण प्रकृति यह माती, देश सरव रूपे हो पाती । निज आतम गुण ज्ञान भाव को अरे मिटावे रे || आ० ॥ ४ ॥ आठ सात छह साथै बधे, ज्ञानावरणी सन अनुसधे । होते भूयहकार भयो भन गोवा सावे रे || आ० ||५|| कोडा कोडी सागर तीसा, ज्ञानाचरणी व विशेषा । तजो विराधक भाव अरे सद्गुरु समावें रे || आ० || ६ || परमातम पूना चित धारे, ज्ञानावरणी दूर निगरे | आराधक आत्म परमातम खुद हो जावे रे || आ० ॥ ७ ॥ सुख सागर भगवान हमारे, जीवन फल के हैं दाता रे । हरि कवीन्द्र घर दिव्य भाव जयनाद उचारे रे | आ० ॥ ८ ॥
)
३८७
3
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८८
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ काव्यम् || पीयूष पेशल रसोत्तम भावपूर्णे, दिव्यैफलैर्गुणमयै वर्लशालिभिश्च । भक्त्या समर्प्य विधिना प्रयजामहे श्री, वीरं सदाशिवफलाप्तिकृते समन्तात् ।
मन्त्र — ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्मजरा मृत्यु निवारणाय ज्ञानावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।
॥ कलश ॥
आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें
1
G
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
दूसरे दिन दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा पंढावे ॥दर्शनावरणीय कर्भ निवारण पूजा॥
[प्रारम्भ मे मगल पीठिका के दोहे पहले दिन का पूजा (ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ) से देखकर वोलें। प्रति पूजा में काव्य भी पहली पूजा के समान घोलने होंगे। मन्त्रों में कर्म नाम बदलना होगा।
मंगल पीठिका दोहा
पूर्वन
॥ प्रथम जल पूजा ॥
॥दोहा॥ वस्तु तच सामान्य का, जहाँ होता है वोध । दर्शन कहते हैं उसे, करे आत्म गुण शोध ॥१॥ प्रभु दर्शन निर्मल जले, निज मन मैल मिटाय। प्रभुपद जल पूजा करो, दर्शन गुण प्रकटाय ॥२॥
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
वृहन् पूजा-संग्रह
(तर्जं गजल - कुशल गुरु देव के दर्शन मेरा दिल होत है परसन )
सिले परमात्म पद दर्शन, घड़ी धन भाग वह जानो । अगर हो आत्मगुण दर्शन, घड़ी धन भाग वह जानो || टेर ॥ लगा है आवरण- पहरा, उसी गुण दिव्य दर्शन
||
पर । हटाया जाय उसको तो, घड़ी धन भाग वह जानो ॥ भि० || १ || प्रभु दर्शन प्रभु वन्दन, प्रभु पूजन के करने से। प्रकटता भाव गुण दर्शन, घड़ी धन भाग वह जानो || मि० || २ || तपोधन ज्ञानधन जीवन, सुजन विधि वरविधानों से । यहाँ पाते वहाँ पाते, घड़ी धन भाग वह जानो ॥ सि० || ३ || अचक्षु चक्षु दर्शन से, सदा जड़ भाव में रमते । बढ़ा भव भय हटे वह तो, घड़ी धन भाग वह जानो || Ho || ४ || अचक्षु चक्षु दर्शन में, करो संयम चनो योगी ।' प्रकट हो सत्य शिव सुन्दर, घड़ी धन भाग वह जानो || मि० || ५ || करें नर आत्म दर्शन वे, यहाँ भगवान होते हैं । करो पद बन्दना उनकी, घड़ी धन भाग वह जानो || सि० || ६ || जगत सत चेतना चेतन, अचेतन तज भजो चेतन । सहज में हो सुदर्शन भी घड़ी धन भाग यह जानो || मि०|| ७ || हमेशा हरिकवीन्द्रों ने प्रभु दर्शन
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा ३६१ के गुण गाये । रसोदय आत्म सुख पाये, घड़ी धन भाग वह जानो । मि० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् ॥ लोकैपणति तृष्णोदयवारणाय.
मन-ॐ ह्रीं अहं परमात्मने "दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्रायजल यजामहे स्वाहा । ॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥
॥दोहा॥ आतम दर्शन आवरण, क्षय उपशम हो भाव । जो प्रभुपद दर्शन करें, प्रकटे पुण्य प्रभाव ॥ १॥ प्रभु दर्शन चन्दन रसे, अर्चित चर्चित रूप । पाप ताप मिट जाय हो, जीवन शान्त सरूप ॥२॥
(तर्ज-सदा भजो ब्रह्मचारी में वारिजाउ) प्रभु दर्शन सुखकारा मैं वारिजाउंपा धन अवतारा ।। टेर || वावना चन्दन शीतल रगामी, पाप ताप दुस हारा मैं पारिजाउँ पाप० । चन्दन पूजा विधि आराधन, जिन आगम अनुमारा मैं वारिजाउ जिन० ॥ ३० ॥१॥ प्रभ द्वपी अपलापी घाती, वैरविधन आधारा मैं वारिजाउं वैर० । आसावन कर्ता को आश्रय, होता है दुख भारा मैं वारिजाउ होता० ॥ ७० ॥ २ ॥ आश्रम बन्ध हेतु होने
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६२
वृहत् पूजा-संग्रह से, कर्म बना प्रतिहारा मैं वारिजाउ कर्मः । दर्शन रोक लगाता हरदम, जीवन होता खारा मैं वारिजाउं जीवन० ॥ ५० ॥ ३ ॥ सत्ता बन्ध उदय होते हो, दर्शन का न सहारा मैं वारिजा दर्शन० । जड़ अभिमुख पाता जन जीवन, चारगति संसारा मैं वारिजाउं चार० ॥ प्र० ॥४॥ चक्षु अचक्षु अवधि केवल, दर्शनचार प्रकारा मैं चारिजाउं दर्शन० । आवरणे नहीं हो पाता है, दर्शन दिव्य विचारा मैं वारिजाउं दर्शन० ॥ प्र० ॥ ५ ॥ बहिरातम रहता है आतम, भूलभुलैयाकारा मैं बारिजाउं भूल भुलैया० । अंतर आतम फिर परमातम, पद न मिले अधिकारा मैं वारिजाउं पद० ॥ १० ॥६॥ पुण्योदय से दुर्गति हटते, सुर नर भव अवतारा मैं वारिजाउ सुर० । सद्गुरुगम प्रभु दर्शन पायो, चार निक्षेप प्रकारा मैं वारिजाउं चार० ॥ प्र०॥७॥ स्पाद्वाद सुन्दर प्रक्षु दर्शन, त्रिभुवन तारणहारा मैं चारिजाउंत्रिभुवन । पाया हरि कवीन्द्र गुण कीर्तन, गाया जय जयकारा मैं वारिजाउंगाया० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ पापोपतापशमनाय सहद्गुणाय०
मन्त्र-ॐ हीं अह परमात्मने "दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा
॥ तृतीय पुष्प पूजा || ॥ दोहा ॥
३६३
1
जीवन कुसुम विशेष को, प्रभु चरणे दो चाढ़ । आतम में परमात्म पद, दर्शन गुण हो गाढ़ || १ || कुसुम विकासी आतमा, कली कली खिल जाय । प्रभु दर्शन के योगतें, गुण सौरभ भर नाय ||२||
(तर्ज- चन्द्र प्रभु जिन चन्द्र नमो हितकारी रे० ) प्रभुपद कुसुम चढाओ, पुण्य बढ़ाओ रे नर चतुर सुजान । जीवन कुसुम कली विकसित हो जावे रे, सुजान ॥ टेर ॥ आँखों से प्रभुदर्शन चक्षु दर्शन रे, नर चतुर सुजान । प्रभुपद फरस हरस मन भरना भावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ १ ॥ प्रभु गुण रस निज रसना योगे गाओ रे, नर चतुर सुजान । गुण मुगन्ध जो पावे, बहु सुख पावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ २ ॥ प्रभु गुण कीर्तन श्रवण मनन लय लावे रे, नर चतुर सुजान | अचक्षु दर्शन यों पुण्य कमावे रे, सुजान ॥ प्र० || ३ || अवधि दर्शन सुरनर पशु भी पावे रे, नर चतुर सुजान । प्रभु दर्शन पा पावन पदवी भावे रे, सुजान ॥ प्र० ||४|| यो विकास होते जन केवल पाता रे, नर चतुर सुजान । भाग्यवान भगवान वही
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
वृहत् पूजा-संग्रह रन जावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ ५ ॥ दर्शन रोधक प्रकृति दूर हटावे रे, नर चतुर सुजान । मंजुल महिमा गुण सौरभ उपजावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ ६॥ ध्रुव वन्धी ध्रुव उदयी ध्रुव सत्ता की रे नर चतुर सुजान । देश सरव घाती का घात करावे रे, सुजान || प्र० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु चरणे कुसुम चढ़ावे रे, नर चतुर सुजान । कुसुम विकासी आतम भाव बढ़ावे रे, सुजान ।। प्र० ॥८॥
॥ काव्यम् ।। चंचत्सुपंचास्वर्णविराजिभित्र० सन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
॥ चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥ दोहा ॥ काल अनादि नींद का, आतम को है रोग। प्रभुपद धूप विधान हो, जागृत जीवन योग ॥१॥ धूप ऊर्ध्वगति को करे, अर्ध्वगमन अधिकार । प्रभु पद में वर धूप कर, चलो चारगति पार ||२|| (तर्ज-पूजो पार्श्वनाथ भगवान शरण सुख कारणा रे)
पूजो प्रभुपद धूप सुगन्ध, उर्च गति कारणारे । प्रकटे निजगुण भाव निरोग, परम सुख कारणारे ।। टेर ॥ आतम
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा ३६५ काल अनादि सोता, सोनेवाला निज धन खोता। निर्धन रोता फिरता होता, भव दुख मारणा रे ॥ पू० । १॥ निद्रा निद्रानिद्रारूप, प्रचलाप्रचला प्रचला चूप । स्त्याना नर्द्विका रूप अनूप, करे गुण हारणा रे || पू० ॥२॥ दर्शन आवरणे यह योग, पांचो निद्रा का भव रोग । मेटो धारो आतम योग, रोग परिहारणारे ॥पू० ॥३॥ छठे गुण ठाणे तक पांच, निद्रा करती गुण की खांच। उत्तम अप्रमाद गुण आंच, धुप गुण धारणा रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ यारहवें गुण ठाणे आप, निद्रा द्विक मिट जाता पाप | लगी तर वीतरागता छाप, करो सुविचारणा रे ॥ पू० ॥ ५ ॥ करम जड़ पुद्गल होता बंध, आतमा का रहता सम्बन्ध । क्रिया करते हो आतम अंध, न दर्शन सारणा रे ॥ ३० ॥ ६ ॥ पाया क्षय उपशममय भाव, प्रकटा आतम पुण्य प्रभाव । करके करम मूल में घाव, भगोदधि तारणा रे ।। पृ० ॥७॥ पूजो सुख सागर भगवान, करते हरि कनीन्द्र गुणगान । भाव दशांगी धूप निधान, पूज विस्तारणा रे ॥ ५० ॥८॥
| काव्यम् ॥ स्फूर्जल्गन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० ।
मन्त्र --ॐ हीं अहं परमात्मने “दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
ICE
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ पंचम दीपक पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
गुण दीपक प्रभु की सदा, दीपक ज्योति विधान । पूजा कर तमतोम को, मेटो चतुर सुजान ॥ १ ॥ प्रभु दर्शन ज्योति बिना, पथ नहीं पाया एक । दीपक पूजा आत्म-पथ, पाओ परस विवेक ||२|| (तर्ज- तुमको लाखों प्रणाम )
जगदीपक जिनराज प्रभु को लाखों प्रणाम । करूं सुदीपक धार प्रभु को लाखों प्रणाम || ढेर || करम दर्शनावरण उदय से, अन्धेरा सट गया हृदय से । खिन्न हुआभव भय से, प्रभु को लाखों प्रणाम || जग० ॥ १ ॥ नव प्रकृति भव में भटकावे, मिन दर्शन पद पद अटकावे | अ प्रभु पद आधार, प्रभु को लाखों प्रणाम || जग० ॥ २ ॥ बाहर दीपक अन्तर दीपक, ज्योत जगी मिथ्यातम जीपक । प्रभु दर्शन बलिहार, प्रभु को लाखों प्रणाम || जग० ॥३॥ युगपत दो उपयोग न होते, क्रमभावी जीवन में होते । प्रभु का ज्ञान प्रमाण, प्रभु को लाखों प्रणाम ||जग० ||४|| तर्क दलीलों से नित उपर, रहता है आतम गुण सुन्दर । अगम अगोचर रूप, प्रभु को लाखों प्रणाम || जग० ॥५॥
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा ३६७ दिव्य ज्ञान दर्शनमय होता, उपयोगी जीवन दुःख सोता। अधिक अधिक अधिकार, प्रभु को लाखों प्रणाम ।। जग० ॥ ६॥ सर्व द्रव्य प्रदेश अनन्ते, उनसे गुण पर्याय अनन्ते । ज्ञान अनन्तानन्त, प्रभुको लाखों प्रणाम ॥ जग० ॥ ७ ॥ सत्र द्रन्यों में आतम मुखिया, ज्ञान दरस गुण होता सुखिया। हरि कवीन्द्र नत भाव, प्रभु को लाखों प्रणाम || जग०॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ सम्पूर्ण सिद्धि शिवमार्ग सुदर्शनाया० ।
मन्त्र-ॐ ही अहं परमात्मने "दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छदाय श्री वीर जिनेन्द्राय दीपक यजामहे स्वाहा।
॥ षष्ठम अक्षत पूजा ॥
॥दोहा॥ अक्षत गुण स्वस्तिक रचो, चार गति हो चूर । प्रमु सन्मुस सस्तिक करो, भरोस्वस्ति गुणपूर ॥१॥ अक्षत उज्ज्वल सरलतम, भावों से भगवान । पूलो प्रणमो भविक जन, पावो पद कल्याण ॥२॥
(तर्ज-पछी वावरिया) प्रभु पूजो अविकारी, तिरो भर दुख दरिया । प्रभु शासन सुसकारी, वसो नर शिव पुरिया ॥ टेर ॥ चक्षु अचक्षु
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
वृहत् पूजा-संग्रह अवधिदरसन, धारी प्रभु पूजें चित परसन । केवल दरसन वरिया, वसो नर शिव पुरिया ॥ प्र० ॥ १ ॥ भक्तिमार्ग में नींद निवारो, जागृत जीवन व्रत चित धारो। कर प्रभु पूजन चरिया, वसो नर शिव पुरिया ॥ प्र० ॥ २ ॥ पंचम अंगे सती जयन्ती, सुपन जागरण प्रश्न करती। कर आतम जागरिया, बसो नर शिव पुरिया ॥ प्र० ॥३॥ जीव अजीवाश्रित आश्रम से, होता सम्बन्धित भव भव से। करो करम संवरिया, वसो नर शिव पुरिया ॥ प्र०॥३॥ प्रकृति स्थिति रस वन्ध प्रदेशा, होते होता आत्म कलेशा। चल्ध रूप निरजरिया, सोनर शिव पुरिया || प्र० ॥५॥ कारण वश किरियायें होती, बन्धन परिणति उनसे होती। सावधान निस्तरिया, बसो नर शिव पुरिया ॥ प्र० ॥६॥ दर्शन रोक हटे प्रकटे वह, प्रभु दर्शन आतम दर्शन सह । होते अजर अमरिया, यसो नर शिव पुरिया ।। प्र० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु दर्शन पाया, परमातम अक्षत गुण गाया। अक्षत गुण अधिकरिया, वसो नर शिव पुरिया ॥ प्र० ॥८॥
॥ काव्यम् ।। कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० ।
मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने 'दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा
॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
प्रभु आगे नैवेद्य घर, मांगू यह भव मे भूख रहे नही, भाव
मरो
मन मोदक मेरे प्रभु अमृत रूप अनूप | नैवेद्य पूजा भाव मे, चाहूँ शासत रूप ॥२॥ (तर्ज-- गिरवरिये रो वासी प्यारो लागे मोरा राजिंदा ) अमरापुर रो वासी प्यारो लागे म्हारा राजिंदा | भव वन वास म्हने अन खारो लागे म्हारा राजिंदा || || अहारक गुण ठाण सयोगी, समुद्घात मे राजिंदा । तीन समय तक सर्व आहारे, रहित अन्त मे राजिंदा || अ० ॥ १ ॥ भव्य नैवेद्य धरो प्रभु दरशन, ध्यान लगाओ राजिदा । ध्याता ध्याने ध्येय एकता, ज्योत जगाओ राजिंदा || अ० ||२|| पर्याप्ता सज्ञी पचेन्द्रिय, सब उपयोगी राजिंदा । छानस्थिक अन्तरमुहुरत मित, दर्शन भोगी राजिंदा ॥ अ० ॥ ३ ॥ केवल ज्ञान सुदर्शन होता, एक समय मिति राजिंदा | वह पाउ फल पा जाउ तब, सादि अनन्त थिति राजिंदा ॥ अ० ॥ ४ ॥ पर्याप्ता चउरिन्द्रि असन्नि, पचेन्द्रिय में राजिन्दा । चक्षु अचक्षु दर्शन दोनों होय उभय में राजिंदा
}
३६६
वरदान |
भगवान ॥१॥
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
४००
बृहत् पूजा-संग्रह । अ० ॥ ५ ॥ एकेन्द्रिय से तेईन्द्रिय तक, दर्शन होता राजिंदा । एक अचक्षु प्रभु दर्शन विन, खाते गोता राजिंदा ॥ अ० ॥ ६ ॥ प्रभु दर्शन पाया धन अपना, जीवन जानो राजिंदा । प्रभु दर्शन से पावन अपना, दर्शन ठानो राजिंदा ॥ अ० ॥ ७ ॥ प्रभु दर्शन पूजन में भावे नैवेद्य चाढो राजिंदा । हरि कवीन्द्र हो विजयी दर्शन, निज गुण गाढ़ो राजिदा ॥ ३० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ।। प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारैः ।
मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने.."दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
|| अष्टम फल पूजा ।।
॥दोहा॥ फल पूजा फल त्याग कर, करो सदा मनरंग। शिव सुख फल पाओ तभी, सादि अनन्त अभंग ॥१॥ फल से फल होता यहां, देखो वर विज्ञान । प्रभुपद भाव अमोघ फल, पूजो विनय विधान ॥२॥ (तर्ज माढ़-मरुधर म्हारो देश म्हांने प्यारो लागेजी)
म्हारे जीवन को आधार, प्रभुपद प्यारो लागेजी। जो है त्रिभुवन तारणहार, प्रभुपद प्यारो लागेजी ।।।।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा
४०१
वस्तुगत सामान्य रहे, रहे भान विशेषविशेष । दर्शन ज्ञान है बोध उन्हीका, करता दूर कलेश रे || पद प्यारो० ॥ १ ॥ मेद अभेदे वर्णित होता, स्यादवाद विचार । पूर्वापर सव मानापेक्षित, दर्शन पदनिर्धार रे || पद प्यारो० ॥ २ ॥ आज्ञा अपाय विपाक विचयस स्थान विचय धर्म ध्यान । जो कर पाते प्रभु पूजन में, पा जाते कल्यान रे || पद० ॥३॥ चौथे से सप्तम गुण थानक, तक होता धर्म ध्यान । प्रभुपद दर्शन वन्दन पूजन में होता विज्ञान रे || १६० ॥४॥ धर्मध्यान से शुक्ल सुलेश्या, होता शुक्ल सुध्यान। ध्यान पवन घन घोर घटा हो, दूर करम व्यवधान रे || पद० ||५|| शुक्ल ध्यान भी चार प्रकारी, पहिले के दो प्रकार । पूरवधर श्रुत केली धारें, दो केवल पद धार रे || पद० ॥६॥ ज्ञान को रोके दर्शन रोके, वह आवरण निकार, कर्म कहावें कर्म से काटो, तो हो बेडा पार रे || पद० ॥ ७ ॥ सुखसागर भगवान प्रभुपद, निज पद में अवतार । हरि naiद्र सफल विधिपूजो, पाओ शिनफल साररे ॥ १६० ॥८॥ || काव्यम् || पीयूषपेशलरसोत्तम भाव पूर्णैः० मन्त्र — ॐ ही अर्ह परमात्मने समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा । ( कलश अन्तराय कर्म निवारण पूजा से बोलें । }
दर्शनावरणीय कर्म
२६
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
तीसरे दिन वेदनीय कर्म निवारण पूजा पढ़ावे . ॥ वेदनीय कर्म निवारण पूजा ।।
[प्रारम्भ में मंगल पीठिका के दोहे पहले दिन की पूजा (ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा) से देखकर बोले, और अन्त में कलश आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश वोलें। प्रति पूजा में काव्य भी पहले दिन की पूजा के समान वोलने होंगे। मंत्र में कर्म नाम बदल कर बोलें।]
मंगल पीठिका दोहा .
पूर्ववत्
॥ प्रथम जल पूजा ॥
- दोहा ।। सुख दुख इस संसार में, होता कर्म विकार । समभावी हो भेट दो, पाओ पद अविकार ॥१॥ अविकारी भगवान हैं, - भक्ति भाव जल धार। पूनो:-पूजा से बनो, पूज्येश्वर अवतार ॥२॥
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेपनीय सर्ग निपाल पूजा ४०५ (गर्ग-राजार नियनों में पारर पमना)
होगा पार पार तू, प्रभु की सेवा कर भासे होगा पार पार तूं ॥टेर ॥ गुग्नर गति में मुखिपा हो, नारक तिरिम दुनिया हो । भूला ए गमार ॥प्रभु की०॥ १ ॥ मधु लिप्त सडग की धारा, साता व अनाताकारा | पाई मार मार तूं ॥ प्रमु को० ॥ २॥ मुर दाद माज के जमा, दुरा आग जलन के जैसा । अनुमर मार सार तूं । । प्रभु की० ॥३॥ मुसमें न फलते जाना, दुसमें न कमी घड़ाना । ममाधि धार धार तू ॥ प्रभु फी० ॥ ४॥ सम भार वीज विकसेगा, मुरझाया मन विहसेगा । नोड तार वार तूं ॥ प्रभु की० ॥ ५॥ वीरय जल फलशा भरके, प्रभु की पद पूजा करके । मन मल हार हार तूं ॥प्रभु की० ॥६॥ हे द्रन्य भाव का हेतु, मनसागर तारक सेतु । मन में धार धार तूं ॥ प्रभु की० ॥ ७ ॥ हरि कीन्द्र जय जय गाते, प्रभु पूजा ठाठ रचाते । मोचले बार बार तुं ॥ प्रभु० ॥ ८॥ " || काव्यम् ॥ लोऊपणातितृष्णोदय वारणाय० - "मन्त्र---ॐ परमात्मने '" वेदनीय
अजिल यजामहे
समृलोच्छेदीय .
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह
॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
जन मानस दुख दहकता, पाप ताप भरपूर । प्रभु चन्दन पूजा विधि, सहज समाधि सनूर ॥१॥ दुःख असातावेदनी, वश मन मूर्च्छा रोग । प्रभु चन्दन पूजा रसे, शान्त वढे शिव भोग ॥२॥
सुविहित
प्र० ॥ १ ॥
( तर्ज - थारी गई रे अनादि नींद० राग माढ ) प्रभु चन्दन पूजा योग, रोग मिट जाना है सही । निज शान्त समाधि विचार सार, सुख आना है सही || || प्राणभिसार प्रभु वैद्य मिले हैं, आराधो यही । विधि पथ्य विधान सदा शिव, साधो तो सही ॥ अब निदान निश्चित जीवन में आया है यही । पर को दुख देकर लेश आत्म सुख पाया है नहीं ॥ प्र० ॥ २ ॥ मूल भूल यह मिटी जीव को, जाना ही नहीं । दुख ही है दुख का मूल करम, छिटकाना है सही ॥ प्र० ॥ ३ ॥ पुद्गल संगी सुख में फूले, फिरना है नहीं । सम भावी होकर सार तत्व भव तिरना है सही ॥ प्र० ॥ ४ ॥ अनुकम्पा और अभयदान की, महिमा है यही । हो आतम शक्ति अनन्त कहीं भय होता ही नहीं ॥ प्र० ॥ ५ ॥
४०४
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदनीय कर्म निवारण पूजा ४०५ आचारांगे पर हिंसा को, अपनी ही कही। हिंसक को होता दुःख विपाके, देसो गह गही ।। प्र० ॥६॥ भाव अहिंसक प्रभु पूजा में, होता है सही । आतम परमातम रूप समझ में, आता है यही || प्र० ॥७॥ हरि कवीन्द्र नित नित आराधो, पूजा पुण्य मही। कर द्रव्य भाव से पूज्य बनोगे, मिथ्या है नहीं ॥ प्र० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ।। पापोपताप शमनाय महद्गुणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने "वेदनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दन यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ फूलों से पूजा करो, फूले जीवन वेल । गुण सौरभ की हो यहां, भारी रेल पेल ॥१॥ प्रम चरणों में फुलसा, जीवन अर्पण आप । कर दें भर दें पुण्यसे, हो न पाप सन्ताप ॥२॥ (तर्ज-जाओ जाओ अय मेरे साधु रहो गुरु के संग)
पूजो पूजो प्रभु फूल विकासे, होता आत्म विकास । पुण्य प्रकाश अविनाशी पद की, प्रकटेगी सुख राश टेर।। शिव में भर में सुख होता है, वेदनी कर्म अधात । पुण्य
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
वृहत् पूजा-संग्रह योगते साता बंधे, बन्धे पाप असात ॥ पू० ॥ १ ॥ छ8 गुण ठाने तक होता, सात असाता बन्ध । उपर में तेरह तक होता, केवल साता बन्ध ॥ पू० ॥ २ ॥ तेरहवें गुण ठाणे तक हो, उदय असाता सात । साता प्रकृति उदय आयोगी, शुण ठाणे विख्यात ॥ पू० ॥ ३ ॥ उदीरणा दोनों की होती, तक छडा गुण ठाण | साडी तेरह तक दो सत्ता, साता अंत मुजाण ।। पू० ॥ ४ ॥ तेरहवें गुण ठान परीपह, ग्यारह रूप असात। पर साता कर वेदें प्रभुजी, यह शासन की बात ॥ पू० ॥ ५ ॥ दुख को सुख में बदल सके यह, श्रीजिन शासन सार । गोवर को गुड़ कर देले की, शक्ति विशद विचार ॥ पू० ॥६॥ वनी विगाड़ें बात अज्ञानी, उनका उलटा दंग। विगड़ी बात बनार्वे ज्ञानी, करो सदा सतसंग ॥ पूजो० ॥ ७ ॥ दुख में परम सहायक होता, जिन दर्शन दृग रंग । हरि कवीन्द्र पाकर के उसको, जीतो जीवन जंग ॥ पू० ॥ ८ ॥
।। काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्च वर वर्ण विराजिभिः । · मन्त्र-ॐ हीं अर्ह परमात्मने वेदनीय - कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीरजिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
JK PO T
[*
वेदनीय, कर्म, निवारण, पूजा
॥ चतुर्थ धूप पूजा
॥ दोहा ॥
**
*
}
खेवें . धूप- दशाङ्गको, हरे हृदय दुर्गन्ध ।
1
3
॥
***
$
Ts
ร
·
४०५
T
:
}
1 वायु मण्डल शुद्धिसे, भगे पापं प्रतिबन्ध ॥ १ ॥
164 t
षु अन
पूजा धूप विशेषको करते पुण्य प्रसंग ।
1
प्रभु महिमा से आत्मा, परिचित हो हढरंग ||२|| (तर्ज-जाग जाग तू प्रभात काल भयो भ्रातरे ) करम करम से कटे मिटे सभी विकार रे । धूप धूम धार धार, प्रभु से सार रे ॥ धू०] || || प्रभु सेव आतमा, निमित्त चित्त धार रे । कर्त्ता कर्म : कारकों में, आतमा उतार रे || धू० || १ || प्रवाह से अनादि मे कर्म जाल फैल रहा दुःख महा, दे रहा कराल रे ॥ धू० ॥ २ ॥ कर विवेक नेक चेत, चेत आत्मा
काल, आतमा
1
--
अचेत ! | सेत गधे खा रहे तू सोच हो सचेत रे ॥ धू०
॥ ३ ॥ वेदनीय है आघात, किन्तु घास कर्म वात ।
}
J
अधिक अधिक होय जात, पेच नहीं आत रे ॥ धू० ||४|| तीस कोडा कोडि बन्ध, सागर उत्कृष्ट धन्ध | अन्ध भाप हो रहा है, वेदनी सम्बन्ध के || धू० ॥ ५ ॥ प्रभु चरण शरण पाय, आचरण शुद्ध ठाय । हो अमाय कुप
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
वृहत् पूजा-संग्रह
काय, ध्यान लय लाय रे || धू० ॥ ६ ॥ पुण्य सूत कात प्रभु पूज दिवस रात और
कात, बन्ध हो सदैव सात ।
देव लोक में अशोक,
कर न बात रे ॥ धू० ॥ ७ ॥ शाश्वत जिन धोक धोक । हरि कवीन्द्र लोक करें, कीर्ति
थोक थोक रे || धू० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ स्फूर्जन्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणैः० मन्त्र — ॐ ह्रीं अहं परमात्मने "वेदनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ।
...
|| पंचम दीपक पूजा || ॥ दोहा ॥
जगदीपक परकाश में, पुण्य पाप का भेद । कर पाओ पाओ तभी, भेद रहे ना खेद ॥१॥ प्रभु सन्मुख दीपक धरो, भरो हृदय में जोत । अंधेरा मिट जायगा, होगा जग उद्योत || २ ||
(तर्ज - झण्डा ऊँचा रहे हमारा )
पूजो श्री जिन जय जयकारा, दीपक भाव भरो अविकारा || टेर || जग दीपक की ज्योति विचारा, भव सागर का मिला किनारा | झटपट होगा अव निसतारा
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
वेदनीय कर्म निवारण पूजा ॥ जो० ॥१॥ दुस को सुख माना संसारे, उसमें उलझे हो दुखियारे । चौरासी लख चक्कर मारा ॥ पूजो० ॥२॥ सुख में फूले भूले सामी, होकर केवल काम हरामी । जीवन में छाया अन्धियारा ॥ पूजो० ॥३॥ उपशम श्रेणि साता बधे, गिरना होता करम संबंधे। देव हुए जहँ भोग अपारा ।। पूजो० ॥ ४ ॥ सरवारथ सिद्ध हो देवा, आतम परमातम समरेवा । अनुपम उनका है अधिकारा ।। पूजो० ॥५॥ प्रभु गुण समरण कीर्तन करते, द्रव्य माव अरचन आचरते। अंत रूप उनका संसारा ॥ पूजो० ॥ ६॥ भव दुख को दुख जो नहीं माने, आतम परमातम पद ध्याने । उनका बजता विजय नगारा । पूजो० ॥७॥ हरि कवीन्द्र श्री प्रभु पद साधा, आतम सुस अब अन्यावाधा। अजर अमर पद हुआ हमारा ॥ पूजो० ॥८॥
| काव्यम् ॥ सम्पूर्ण सिद्धि शिवमार्ग सुदर्शनाया० ।
मन्त्र -ॐ ही अहं परमात्मने' · वेदनीय कर्म समूलीच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय दीपक यजामहे साहा।
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२
वृहत् पूजा-संग्रह अनादि भूल, लगा दुख भारी हो सांवरिया। दया करो हे गुणदरिया। दुख को मेटो सांवरिया ॥ टेर ॥ भर नैदेव को थाल धरूँ प्रभु आगे हो सांवरिया । त्याग भाव मय अनाहारता जागे हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ १॥ त्याग भावना त्यागी जीवन देता हो सांवरिया, वीतराग पद पूरण त्यागी होता हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥२॥ झूल गये रंग राग भूल गये छकड़ी हो सांवरिया । पुद्गल संगे पुद्गल परिणति पकड़ी हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ३ ॥ प्राणी अनुकम्माहित पुद्गल त्यागू हो सांवरिया। साधु सेवा लागू अमृत मांगू हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ४ ॥ सेवा मेवा देती सेवा करते हो सांवरिया। साता प्रकृति बंध उदय अनुसरते हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ५ ॥ साता प्रकृति पुण्य वन्ध से मिलते हो सांवरिया। दुर्लभ चारों अंग अंग में खिलते हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ६ ॥ मानवता पा श्रुतमें श्रद्धाधारी हो सांवरिया। संयम घर विचलं आतम अधिकारी हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र जन अगम अगोचर होता हो सांवरिया। परमातम पद पा करम मल खोता हो सांवरिया ॥ दया० पेट० ॥ ८॥
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदनीय कर्म निवारण पूजा
४१३
॥ काव्यम् ॥ प्राज्याज्य निर्मित सुधामधुर प्रचारै० । मन्त्र - ॐ ह्रीं अर्ह परमात्मने " वेदनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
॥ अष्टम फल पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
करो अमरफल के लिये, फल पूजा विस्तार । मिटे असावा फल मिले, साता शिव अनुसार ॥१॥ फल चाहो फल को धरो, प्रभु पूजा में सास । क्रिया कार्य साधक कही, ज्ञान क्रिया शिववास ॥२॥
(तर्ज-माला काटे रे जाला जीव का )
पूजन कर पाओ, साता मुस पाओ मेरी आत्मा || ढेर || कर्म वेदनी सात असाता, प्रकृति उभय अघाती । चन्ध उदय अभ्रच जो होती, सता ध्रुव कहलाती रे ॥ पू० ॥ १ ॥ कोडा कोडी सागर तीसा, स्थिति उत्कृष्टी होती । क्षय करके जीवन अपने मे, प्रकटा दो गुण ज्योति रे ॥ पू० ॥ २ ॥ पुण्य रूप से साता होती, सुर नर मे अधिकाई । पाप असाता विरि नारक में, होती है दुखदाई रे ॥ पू० ॥ ३ ॥ सुरगति में शाश्वत जिन पूजो, जिन
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१४ बृहत् पूजा-संग्रह कल्याणक योगे । उत्तम नर भव प्रभु पूजन कर, पुरण प्रभुता भोगे रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ प्रभु पूजा द्रुपी पापोदय, नरक महादुख पावे। परमाधासी क्षेत्र विपाके, रो रों समय वितावे रे ॥ ५० ॥ ५ ॥ भूख तृषा और पराधीनता, वध बन्धन तिर्यंचे। प्रकृति असाता. बँध जाती है, जीवन पाप प्रपंचे रे ॥ पू० ॥ ६ ॥ सात असाता क्षय कर होते अर्ह आप अयोगी। सिद्ध रूप होते हैं स्वामी, शिव सुख फल के भोगी है ।। पू० ॥ ७ ॥ सुख सागर भगवान परम गुरु, हरि पूज्येश्वर स्वामी। कवीन्द्र आतम शिव फल दाता, पूजो अन्तर्यामी रे ॥ पू० ॥ ८॥
|| काव्यम् ॥ पीयूषपेशल रसोत्तम भाव पूर्णैः ।
मंत्र-ॐ हीं अर्ह . परमात्मने वेदनीय कर्मसमूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।..
॥ कलश ॥ [आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें।]
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
rri
चौध दिन मोहनीय का निवारण पूजा पढ़ा ॥ मोहनीथ, कमें निवारण पूजा। . [ प्रारम्भ में मङ्गल- पीठिका के दोहे, पहले दिन की पूजा (भानावरणीय कर्म निवारण पूजा) से देख कर बोलें और अन्त में कलशे आठवे दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा.) के अन्त में प्रकाशित कलश योले । प्रति पूजा में काव्य भी पहले ठिन की पूजा के ममान हो बोलने होंगे । मन्त्र में कर्म नाम बदल
फर बोले।] - - । । । । . . , . , मंगल पीठिका के दोहे ...', ... . पूर्ववत् ।। . ..'
-|| प्रथम जल पूजा ।। । "
- - ॥दोहा।।- मोह महायलवान है, जीते सो जिन देव ।
जिन पूजा से जय विजय, होती है स्वयमेव ॥१॥
जल पूजा विधियोग से, अन्तर्मल मिट जाय।। । मोद महा तृष्णा इंटे, बोध बीज विकसाय ॥२॥
· · मित्र-मादा पा रहे हमारा०) । '
जो जल से जिन ! पूज करेंगे। पाप ताप मला दर हरेंगे ।। | मोह परम दल बल अतिमारी, जीते
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१६
वृहत् पूजा-संग्रह जिनवर जग जयकारी ।. जिनपूजा जय विजय वरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे॥ पा० ॥१॥ मोह करम मादक मदिरा सा, पुद्गल भोग विषय विष प्यासा । कर अभिलापा दुःख भरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे ॥ पा० ॥ २ ॥ दर्शन और चरण में होता, मोह अरे ! आतम गुण खोता। आतम अर्थी दूर टरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे ॥ पा० ॥ ३ ॥ श्रद्धा ठीक हुई जिसके पर, मनमें रहती शंका घर कर। समकित मोह न भव्य धरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे । पा० ॥ ४ ॥ साँच झूठ में भेद न जाने, मिश्र मोह खल गुड़ सम ठाने । ज्ञानी उसमें नहीं पड़ेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे ।।पा० ॥ ५ ॥ चेतन केवल जड़ अभिमुख हो, मिथ्या मोह न आतम सुख हो । सुजन सदा जड़ संग डरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे । पा० ।। ६ ।। दर्शन मोहे तीन प्रकारा, सद्गुरुगम कर विशद विचारा। आतम अपनी गति पकरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे॥ पा० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र जन दर्शन मोहे, नारक तिरि दुर्गति अवरोहे । समकित धर शिवगति विचरेंगे, जो जल से जिन पूज करेंगे ॥ पा० ॥ ८॥
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोहनीय कर्म निवारण पूजा ४१७ ॥ काव्यम् ॥ लोकपणाति वृष्णोदयवारणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "मोहनीय कर्म समृलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय जल यजामहे स्वाहा । | द्वितीय चन्दन पूजा ॥
॥दोहा॥ मोहनाग विप आग से, सन्तापित सब लोक । प्रभुपद चन्दन सरस रस, होवें भाव अशोक ॥१॥ मेदामेद विचार से, चन्दन होना आप।
प्रभुपद के सतसंग में, मिटे पाप संताप ॥२॥ (वर्ज-उठ जाग मुसाफिर भोर भया, अव रैन कहाँ जो त्०) ___ चन्दन पूजा के भाव भरो, खुद चन्दन रूप अनूप धरो। फिर मोहनाग विपसे न डरो, सुख सहज समाधि आप वरो ॥ टेर ॥ सित्तर कोडाकोडी सागर, उत्कृष्ट मोह थिति बन्ध कहा। हो सावधान उस को तोडो, भव भाव उदासी हो विचरो ॥ चं० ॥ १ ॥ इस मोह करम दुखदायी की, हैं आठ वीस प्रकृति जानो । मोहनीय तीन सोलह कपाय, नर नो कपाय सब दूर करो ॥ चं० ॥२॥ दर्शन चारित्र गुणों का घात, करे यह घाती मोह करम । जो तोड़ सकें जन धन्य धन्य, आदर बहुमान सदैव करो
२७
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ चं० ॥३॥ क्रोधादि अनन्तानुबन्धी, ये यावज्जीवन होते हैं । मिथ्यात्व इन्ही में होता है, उस को अब चकना चूर करो ॥ चं० ॥ ४ ॥ पर्वत रेखा साक्रोध मान, खम्भा पत्थर का सा होता। धन वंश मूलसी माया लोभ, कीरमची रंग का नाश करो ॥ चं० ॥ ५ ॥ जड़ चल जग जूठन पुद्गल की, ममता से आतम बहिरातम । जड़ चेतन भाव विवेक सार, अन्तर आतम पद आप धरो, ॥ चं० ॥ ६ ॥ तीर्थंकर कल्याणक विहार, भूमि तीरथ तारण हारे। तीर्थकर प्रतिमा के पावन, दर्शन से दर्शन प्राप्त करो ॥ चं० ॥ ७ ॥ नित हरि कवीन्द्र प्रभु दर्शन से, प्रभुता जीवन में प्रकटाओ । आतम गुण घाती मोह करम को, दूर दूर कर विघटाओ ॥ चं० ॥८॥
॥ काव्यम् ॥ पापोपतापशमनाय महद् गुणाय०
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने..."मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ पञ्च वरण के फूल से, प्रभु पञ्चम गतिमूल । - पूजो दर्शन योगते, मिटे अनादि भूल ॥१॥
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोहनीय कर्म निवारण पूजा ४४ अप्रत्याख्यानी तजो, चार कपाय विशेष । धारो प्रत्याख्यान को, सेमो देव जिनेश ॥२॥
(तर्ज जिन गुण गावत सुर सुन्दरी०) प्रभु दर्शन दुख दूर करे, दर्शन सुख भर पूर भरे ॥ प्र० ॥ टेर ।। फूल से पूजा श्री जिनवर की, फूल विकास विकास करे। चार कपाय अप्रत्याख्यानी, पुरुषारथ से दूर टरे । प्र० ॥ १॥ पृथिवी रेणा क्रोध कहा है, अस्थी सम है मान अरे। माया मेड सीग के जैसी, लोभ मुकढम रंग भरे । प्र० ॥ २ ॥ तियच गति मति कारण है ये, चतुर न इनको चित्त घरे। जीव विपाकी पाती मारे, जीव विवेकी मेद करें ।। प्र० ॥ ३ ॥ बंघ उदय पाये नमें गुण, थानक सत्ता अन्त करे। वह धन दिन अरसर यह होगा, अपायी हो हम विचरे ।। प्र० ॥ ४ ॥ ये कपाय अप्रत्याख्यानी, बारमास में निपत टरें। प्रति भामण सवत्सर यातें, जीवन पावन भाव भरे ॥३०॥५॥ अप्रत्यारयानी गुण ठाणे, अविरत सम्यग्दृष्टि घरे। मुरनर पदि सविशेष रूप से, प्रक्ष पूजा कर पाप हरे । प्र० ॥६॥ अप्रत्यारवानी प्रकृति ये, सघाति चति याते डरे। प्रभु पजा पर प्रससे सविनय, बसपापी घर दान बरे ॥प्र.
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२०
वृहत् पूजा-संग्रह - ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र कुसुम वर भावे, आतम पूर्ण विकास करे। उत्तरोत्तर गुण थानक फरसे, आतम पहुँचे आप घरे । प्र० ॥८॥
॥ काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्च वर वर्ण विराजिभिः ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
|| चतुर्थ धूप पूजा ||
॥दोहा ।। प्रभु सन्मुख धर धूप को, भावो एह विचार । करम धुआं उड़ते हुआ, गुण सुगन्ध विस्तार ॥१॥ प्रभु गुण पावन धूप से, धूपित आत्म प्रदेश ।
भाव निरामयता लहे, यहसद्गुरु उपदेश ॥२॥ (तर्ज-झट जाओ चंदन हार लाओ धुघट नहीं खोलुंगी)
धूप पूजा करो भवि भावे, करम धुआँ उड जावे । मोह कर्म कराल कीटाण, स्वयं सब मिट जावे ॥ टेर ॥ पूजा कर वर भाव से, करो पाप पच्चश्वान । प्रत्याख्यानी चौकड़ी, मेटो चतुर सुजान रे ।। करम० ॥१॥ प्रत्याख्यान कषाय से, सर्व विरति हो घात । ध्रुव वन्धी अध्रुवोदयी, फरमावे गुरु ज्ञात रे ॥ करम० ॥ २ ॥ धूली रेखा क्रोध
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोहनीय फर्म निवारण पूजा ४२१ है, मान काठ अनुरूप । माया हे गोमुत्रिका, संजन लोम सरूप रे ।। करम० ॥ ३ ॥ चार मास ये रह सके, अणुव्रत में अतिचार । नर मा कारण पाय के, झानी करते प्रहार रे ॥ करम० ॥ ४ ॥ ध्रुव सत्ता का ये रहें, नव गुण ठाणे नाश । क्षपक श्रेणिगत आवमा, पाता पुण्य प्रकाश रे ॥ करम० ॥ ५ ॥ साघु धर्म दशांग का, श्रावक धरते भाव । धूप दशांग सदा करें, आतम घूपन दाव रेकरम० ॥ ६ ॥ धूप घुओं ऊँचा चढ़े, चढ़े पुजारी आप । चरण शरण जिनराज की, लगी हृदय हो छाप रे । ॥ करम० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र जय जय करें, हो अमरापुर वास । धूप पूज प्रतिदिन करो, पाओ आरम विकास रे।। करम० ॥ ८॥
का-यम् ॥ रत्सुगन्धविधिनोग्रगति प्रयाणे० ।
मन्त्र-ॐ दी श्री अ६ परमात्मने ''मोहनीय कर्म ममूलोच्छेदाय श्रीगीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
{ पंचम दीपक पूजा ॥
॥दोहा॥ प्र भाव प्रकाशमय, तन्मय दीपक धार । दप भाव पूजा करो, मिटे एदय वम वार ॥
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
वृहत् पूजा-संग्रह
दीपक जैसे संज्वलित, संज्वलनात्म कषाय । अविवेकी जन जल मरे, ज्ञानी जन शिव जाय ||२||
(तर्ज- पंछी बावरिया )
1
दर्शन दीपक द्वारा, पाये प्रभु सांवरिया । मिध्या तम मिट जाये, पाये प्रभु सांवरिया || ढेर || दीपक संज्वलनात्म कषाये, आतम परमातम लय लाये । भव सागर संतरिया | पाये ० || १ || बंध उदय सत्ता रहती है, अनिवृत्ति परिणति बहती है । क्षपक श्रेणि संचरिया ॥ पाये० ॥ २ ॥ जल रेखा सम क्रोध मान है, नेत्र लता माया वितान है । अवले ही अनुसरिया || पाये० || ३ || हल्दी रंग सा लोभ खपाया, दश गुण ठाणे संपराया । क्षायिक भाव विचरिया ॥ पाये० ॥ ४ ॥ पन्द्रह दिन तक रहता आगे, वैमानिक गति होती सागे । यथाख्यात आवरिया || पाये० || ५ || चार चार की ये चौकड़ियाँ, गुण विकास में हैं हथकड़ियाँ । कार्टे आतम गुण दरिया || पाये० || ६ || प्रभु आगम दीपक की ज्योति, जो जीवन में सन्मुख होती। शिवपुर पंथ विहरिया || पाये० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र दीपक पूजा से,
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
__ मोहनीय कर्म निवारण पूजा ४२३ ज्ञान चरण गुण दिव्य उजासे । परमातम अनुसरिया ॥ पाये० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ सम्पूर्ण सिद्धि शिवमार्ग सुदर्शनाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा।
॥ षष्ठम भक्षत पूजा ॥
॥ दोहा ॥ अक्षत गुण धारी प्रस, अक्षत आगे धार । पूजा अक्षत भाव से, करो सुघर नर नार ॥१॥ अक्षत भरता पेट को, मिटती भूख अपार । गुण अक्षत आतम भरे, मेटे भव गति चार ॥२॥ (तर्ज-माला काटे रे जाला जीव का तन मन से फेरो)
अक्षय पद पावो, अक्षत प्रभु पूजो भविजन भाव से ॥ टेर ॥ कपाय सहचारी होते नन, नो कपाय जीवन में। दूर करो प्रभु पूजन करते, पूज्य बनो त्रिभुवन मे रे॥ अक्षय० ॥१॥ रोगमूल साँसी होती है, झगडे की जड हाँसी । करने वालों को लग जाती, मोह करम की फांसी रे ।। अक्षय० ॥२॥ जड़ अनुराग रति अरति वह, अप्रीति
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
वृहत् पूजा-संग्रह होती है । रति अरति करते आतस की, मिटी महा ज्योति है रे ॥ अक्षय० ॥ ३ ॥ अप्रिय घटना घट जाने से, या अनिय चिन्तन से । शोक प्रकटता उसे मिटाओ, परमातम पूजन से ॥ अक्षय० ॥ ४ ॥ अय मत पैदा करो अन्य को, मत निजमें भय खाओ । आतम भावे निर्भयता धर, अजर अमर पद पाओ रे । अक्षय० ॥ ५ ॥ घृणा निशरो तत्त्व विचारो, हो द्रव्यानुयोगी। आतम उपयोगी हो जाओ, परमातम पद सोगी रे ॥ अक्षय० ॥६॥बन्ध उदय उदीरण सत्ता, कर्म विपाक विचारो। हास्यादिक कुछ नहीं दीखें पर, महा भयंकर वारो रे । अक्षय० ॥७॥ भय कुत्सा ध्रुवबन्धी अध्रुव, बन्धी हास्पादिक है। हरि कवीन्द्र प्रभु ध्यान लीन हो, त्यागें धन्य अधिक हैं रे ॥ अक्षय० ॥८॥
| काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने..."मोहनीय कर्म समृलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा।
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोहनीय कर्म निवारण पूजा ४२५ ॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥ दोहा॥ भाव अवेदी श्री प्रभु, पूजो धर नैवेद्य । द्रव्यालम्मन भाव से, मिटे वेद का सेद ॥१॥ आप अवेदी आतमा, कर्म जनित हैं वेद ।
भावो ऐसी भावना, वेद रहे ना सेद |२|| (तर्ज-काटो लागो रे देवरिया मोसे संग चल्यो ना जाय)
काम यो कैसे जीत्यो जाय, काम यो कैसे जीत्यो जाय । प्रभु पद को धर ध्यान, काम यो ऐसे जीत्यो जाय ॥ टेर ॥ रसना लम्पट जन जीवन में, जहां तहां भटकाय । नैवेद्य त्याग लाग प्रभु पूजा, लम्पटता मिट जाय ॥ का० ॥१॥ सडन पड़न विध्वंसन भावी, पुद्गल बना शरीर । नव दश द्वारों से मल मरता, हम हैं वही अधीर ॥ का० ॥२॥ नहा धोकर कर टाप टीप, मुन्दरता दिखलाते । रोम रोम से झरता है मल, पर इम इठलाते ॥ का० ॥ ३ ॥ नर को नारी नारी को नर, प्यार परस्पर करते। पुद्गल से मिल जुल कर के हम, जीते भी हैं मरते ॥ का० ॥ ४॥ दिन अन्धा कोइ अन्धा राते, काम अन्ध दिन रात । नर नारी नपुंसक वेदी, खेद दुःख नित पात || का० ॥ ५ ॥ नवमे
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२८
वृहत् पूजा-संग्रह तीरथ तारण हार । तीरथ पति के तीर्थ में, मेटो मोह विकार ॥ कवीन्द्र करते जय जय कार, तीरथ से नित तिरनाजी नित तिरला । यो० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ।। पीयूष पेशल रसोत्तम भावपूर्णैः ।
मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने 'मोहनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।
॥ कलश ॥ [आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें।]
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
पाँचवे दिन आयुष्य कर्म निवारण पूजा पढ़ावें
|| आयुष्य कर्म निवारण पूजा ॥
"
[प्रारम्भ में मंगल पीठिका के दोहे पहले दिन की पूजा (ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ) से देखकर घोलें, और अन्त में कलश आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश वोलें । प्रति पूजा मे काव्य भी पहले दिन की पूजा के समान वोल्ने होंगे। मंत्र मे कर्म नाम बदल कर बोलें । ]
मंगल पीठिका दोहा पूर्वरत्
॥ प्रथम जल पूजा || ॥ दोहा ॥
जीवन कारागार सा, आयु करम सम्बन्ध | होता चार प्रकार से, चारगति प्रतिवन्ध ॥ १ ॥ पुरुषास्थ प्रभु की दया, प्रभु पूजा अधिकार । निज प्रभुता प्रकटे मिटे, भन्त्र भय कारागार ॥२॥
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
बृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-अवधू सो योगी गुरु मेरा) प्रभु पूजा अधिकारे आतम निज प्रभुता प्रकटावे ॥ टेर॥ कर्म महामल प्रति पल लगता, जल पूजा वह जावे । निर्मलता पाई प्रभुताई, शाश्वत निज सुख पावे ॥ आतम० ॥ १ ॥ जड़ चेतन दोनों की होती, स्थिति आयुष्य कहावे । आयु कर्म अघाती होता, चारगति पहुँचावे ॥ आतम० ॥२॥ समय समय में कारण योगे, सात करम बँधते हैं। ओधे काल अवाधा उदये, सुख दुख फल सँधते हैं | आतम० ॥३॥ जीवन के तीजे हिस्से जब, आयु कर्म उपाये। उसी समय में आठ करम का, बन्ध गुरु समभावें ॥ आतम० ॥ ४ ॥ आगामी भव आयुष्य बंधता, प्रति भव बस इकवारा । प्रायः पर्वतिथि में याते, धर्म करो सुखकारा ।। आतम० ॥५॥ भव भव में यों आयुष्य प्रकृति, हथकड़ियाँ पड़ती हैं। काटो इन को शिवपुर जाते, जो आड़ी अड़ती है ॥ आतम० ॥६॥ प्रति भव आयुष्य कम भोगते, काल अनन्त गमाया । प्रभु आगम जीवन अधिगम से, करम मरम समझाया ॥ आतम० ॥ ७॥ सुखसागर भगवान 'प्रभु 'पद, द्रव्य भाव
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयुष्य कर्म निवारण पूजा ४३६ जल धारा। पूजन जन कीरतियाँ गावे, हरि कवीन्द्र जयकारा ॥ आतम० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ लोकैपणाति तृष्णोदय वारणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने ' आयुष्य कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जल यजामहे स्वाहा ।
॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥
॥दोहा॥ भागति आयुप योग ते, हो जाती है कैद । प्रभु पूजो प्रभु आप हैं, इसी रोग के वैद ॥१॥ आधि व्याधि उपाधि के, त्रिविध ताप सन्ताप । प्रभु पूजा से हों नहीं, प्रभु पूजो अम आप ॥२॥ (तर्ज-म्हारो कागसियो पणिहार्या ले गई रे०)
पूजो चन्दन से, भव फन्द सभी कट जाय ॥ पूजो० ॥ टेर ॥ प्रभु चन्दन अनुरूप हैं, प्रमु तीन भुरन सिर भूप ॥ पूजो० ॥ आतम गुण उपयोग से, प्रभु दूर करें भर कूप ।। पूजो० ॥ १ ॥ अध्रुव बन्ध उदय सत्ता में, आयु कर्म सरूप ॥ पूजो० ॥ कैद रूप फाटो इसे, पद पायो आप अनूप ॥ पूजो० ॥ २॥ जीना मरना ये सभी है, आयुप के अधिकार ॥ पूजो० ॥ चाहो ज्यों होता नहीं,
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३२
बृहत् पूजा-संग्रह होता कर्मानुसार ॥ पूजो० ॥ ३ ॥ बाट निमित्तों से कटे, आयुष अपवर्तन नाम ॥ पूजो० ॥ इतर अनपवर्तन कहा, जो पाता पूर्ण विराम ॥ पूजो० ॥ ४ ॥ देव मनुज तिथंच में, आयु प्रकृति शुभ योग ॥ पूजो० ॥ नरक अशुभ आयुष्य का, हो अपने आप वियोग ॥ पूजो० ॥५॥ श्वांस न आयु हैं यहाँ, ये हेतु हेतुमद भाव ।। पूजो० ॥ प्रभु पूजा में श्वांस की, गति होती सहज सुभाव ॥ पूजो० ॥६॥ निश्चय नय घट बढ़ नहीं होती, घट बढ है नय व्यवहार ॥ पूजो० ॥ निश्चय वर व्यवहार उभयपद, जिन दर्शन चित धार ॥ पूजो०॥ ७ ॥ जिन दर्शन पाये बिना, यह आयुष्य यों ही जाय । हरि कवीन्द्र प्रभु दर्शने, हो आयु सफल सुखदाय ।। पूजो० ॥ ८॥
॥ कान्यम् ॥ पापोपताप शसनाय महद् गुणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने ... आयुष्य कर्म समलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ अहं पद अधिकार में, पूजातिशय विचार। हृदय कमल अर्पण करो, तज दो विषय विकार ॥१॥
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयुष्य कर्म निवारण पूजा
४३३
प्रभु पद कमल प्रभाव से, कमल प्रभा कमनीय । जीवन पूर्ण विकास मय, होता जन नमनीय ॥२॥ (तर्ज- प्रभु गल सोहे मोतीयन की माला श्याम कल्यान )
विकास को पाओगे करो प्रभु पूजा | विकास को पाओगे ||टेर || पूज्य की पूजा पूज्य बनावे, गिरते हुओं को तुरत उठावे | गुणी सग कर गुण आप उपाओगे || करो० ॥१॥ हिंसा करो मत, मत मूंठ बोलो, चोरी करो मत, विषय न तोलो । रौद्र ध्यान नरकायु निपाओगे || करो० ॥ २ ॥ अपने परायों से द्रोह करो ना, अपने परायों की घात करो ना | द्रोह घात नरकायु बढाओगे || करो० ॥ ३ ॥ साधु गुणी की निन्दा न करना, निन्दक जनका संग परिहरना । निन्दा कुमगे दुर्गति जाओगे || करो० ॥ ४ ॥ काम क्रोध मद मोह विकारा, दूर निवारो बनो अविकारा। सरकारी दुरा भार कमाओगे || करो० || ५ || मिध्यात्वे Tधता नरकायु, भांग पिये ज्यों बढता वायु । दुखदायी मिध्यात्व गमाओगे || करो० ॥ ६ ॥ सात गुण स्थानक तक सत्ता, नरकायु को आगे धत्ता । देते हुए निज शक्ति लगाओगे || करो० ॥ ७ ॥ नारक भी सम्पक्वी होते,
૨૮
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३४
वृहत् पूजा-संग्रह
पूव भव कृत पाप को धोते । हरि कवीन्द्र नरभव सुख
पाओगे || करो० ||
|| काव्यम् || चञ्चत्सुपञ्चवरवर्ण विराजिभिर्वै । सन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने "आयुष्य कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा । ॥ चतुर्थ धूप पूजा || ॥ दोहा ॥
G
धूप धरो उंचा चढ़ो, पाओ सुगुण सुगन्ध । रोग शोक व्यापे नहीं, सिटे पाप-दुर्गन्ध ॥१॥ प्रभु पूजा की भावना, आतम भाव प्रकाश । परमातमता प्रकट हो, जीवन ज्योति विकास ॥२॥
( तर्ज - लटपट छाइ नागर वेल करेलवा० ) भविक जन ! प्रभु आखातन टार । भविक जन प्रभु पूजन चितधार । भविक जन प्रभु आसातन टार || टेर || अर्हपद आसातना कह दुर्गति पद दातार । नरक और तिर्यचका कांड आयुष बन्धन कार ॥ भ० ॥ १ ॥ एक तीन सत दश कहे कांड सतरा और बाईस । तेतीस सागर आयु क्रम कांड नरके विश्वावीस || भ० || २ || हँस हँस होते पापसे कांड बंधते कर्म कठोर। रोते छुटकारा नहीं
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयुष्य कर्म निवारण पूजा ४३५ काइ उदय समय दुख दौर | भ० ॥ ३॥ दशविध होती वेदना काइ सुनते दुःस अपार । भोग समय हो क्या गति काइ जाने जगदाधार ॥ भ० ॥ ४ ॥ असुर निकायी देवता कांड पनरह परमाधाम । दुस देते जो भोगते कांइ वचन अगोचर ठाम || भ० ॥ ५ ॥ तिर्यंचायु को कहा काइ पुण्य रूप भगवान । पर बॅधता है पाप से कांइ होता दुःख की सान ॥ म० ॥ ६ ॥ प्रथम भूमि नोगोद की कांड, जीव अनन्तानन्त । व्यवहाराव्यवहारसे काइ मासे श्री भगमत || म० ॥ ७ ॥ एक शरीरे एकठा कांड भोगें दुःख अनन्त । हरि कवीन्द्र ज्ञानी करें कांइ उन दुःखों का अन्त ॥ भ० ॥ ८ ॥ __|| काव्यम् ॥ स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० ।
मन्त्र -ॐ हीं श्रीं अई परमात्मने "आयुष्य कर्म समूलीच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
॥ पंचम दीपक पूजा ॥
____॥दोहा॥ प्रभु दीपक पूजा करो, प्रकटे दीपक ज्ञान । भार अन्धेश ना रहे, जानो नकल जहान ॥१॥
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
वृहत् पूजा-संग्रह नरक निगोदी दुःख का, ज्ञानी करते अंत।
ज्ञानी की पूजा करो, हो सुख सिद्धि अनन्त ॥२॥ (तर्ज-करलो करलो रे थे भविजन प्राणी शिवसुख वरलो रे )
पूजन करलो रे ओ भविजन भावे हित सुख वरलोरे ॥ पूजन० ॥ टेर ॥ पूजा पाप निवारे प्रभु की, पूजा हित सुखकारी रे। आगम दीपक देख अहिंसा, पूजा प्यारी रे ॥ पू० ॥१॥ प्रभु मुद्रा अप लाप करे और, पूजा पाप बतावे रे। नरक निगोद भयंकर भव में, यह दुख पावे रे ॥ पू० ॥ २॥ एकेन्द्रिय वेइन्द्रिय जानो, तेइन्द्रिय भी प्राणी रे। चौरेन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यच, हैं दुख खाणी रे ॥ पू० ॥ ३ ॥ प्राण और पर्याप्ति-शक्ति, अरे अविकसित होती रे। तियचो में आत्म चेतना, रहती सोती रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ तिर्यञ्चायु बन्ध जिना गम, सास्वादन तक मानारे। उदय देशविरति सत्ता क्षय, साते ठाना रे ॥ ३० ॥५॥ स्वस्थ पुरुष इक श्वासोच्छवासे, साडी सतरा होते रे । क्षुल्लक अव यों भाव निगोदे, दुख मय होते रे ॥ पू० ॥६॥ तीन पल्योपम उत्कृष्टी स्थिति, पञ्चेन्द्रिय की भारी रे । प्रभु पूजा से पाप गति यह, दूर निवारी रे ॥ पू० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु पद पूजन से, नरक तिरि
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३७
आयुष्य कर्म निवारण पूजा भव टालो रे । प्रभुपद दर्शन वन्दन पूजन, शुभगति पालो रे ॥ पू० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् || सम्पूर्णसिद्धि शिवमार्ग सुदर्शनाय० । मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने "आयुष्य कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा ।
॥ षष्ठम अक्षत पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
सक्षत गुण अक्षत करण, पूजो अक्षत धार । अक्षत गुण होंगे प्रकट, सक्षत हो संसार ॥१॥ भाव द्रव्य से होत हैं, विना द्रव्य नो भाव | होते हैं बाजार में, द्रव्य देखकर भाव ॥२॥ (तर्ज- समुद्र के लाला हो गुण वाला, नेम नगीना तुम ही तो हो) अक्षत द्रव्य धरो प्रभु पूजो, द्रव्य बिना कोई भाव नहीं है । श्रीजिन शासन वासित आगम, द्रव्य भाव की जोड़ सही है || टेरे || गूढ हृदय निर्दय जन कोई, प्रभु पूजा विधि पाप कही है । शल्य सहित तिर्यञ्च का आयुष, बन्ध गति सविशेष गही है || अक्षत० || १ || नारक तिरि आयु स्थिति बन्धक, आश्रव टालो जो पाना नहीं है । किरिया से कर्म ओ कर्म से बन्धन, बन्धन से होता दुस ही है | अक्षत●
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
४३८
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ २ ॥ अल्प कपायी सदा सुखदायी, पर उपकारी प्रवृत्ति रही है। गुण ग्राहक वरदान रूचि शुचि, मानवता के हेतु यही है ।। अक्षत० ॥३॥ मानव में नव जीवन पावन, प्रभु गुण समता सहज रही है। कर्मों से आवृत होने से, आज जगी 'दिव्य ज्योति नहीं है । अक्षत० ॥ ४ ॥ चार गुणस्थानक नर आयुप, बन्ध स्थान की बात कही है। सत्ता उदये चौदह होते. केवल ज्ञान की खसि यही है ॥ अक्षत० ॥ ५॥ प्रभु दर्शन से दर्शन पाकर, पूर्व जो आयुष वन्ध नहीं है। मोक्ष न हो तो वैमानिक की, देवगति अति अद्भुत ही है || अक्षत० ॥ ६ ॥ प्रतिभव में एकवार ही बँधता, ऐसा कर्स तो आयुष ही है। प्रति पल बँधते कर्म सभी इन, कर्मों को शर्म जरा भी नहीं है ।। अक्षत. ॥ ७ ॥ आयुष कर्म की कैद कटे, अविनाशी शिवपुर राह यही है। हरि कवीन्द्र करो पुरूषास्थ, प्रभु पूजा सुविचार कही है ॥ अक्षत० ॥ ८॥
काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० । - मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने.."आयुष्य कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
आयुष्य कर्म निवारण पूजा
॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
जड कर्मों के जोग से, भारी लगती भूख । मिट मिट कर भी ना मिटी, यही यहाँ है दुःख ||१||
४३६
खड्डा पापी पेट का, भर जाये यह भाव । नैवद्य घर सांगु मधुर, दो प्रभु यही स्वभाव || २ || (तर्ज- हो उमराव बारी चोली प्यारी लागे महाराज ) हो परमात्मा की पूजा प्यारी लागे साधिकार । हो नैवेद्य पूजा करते जन हो जायें निर्विकार || टेर || ससारी सविकार है, चार गति विस्तार। जनम भरण कर कर थर्के, दीसे अंत न पार | हो परमात्मा के पद कमलों मे होगा बेडा पार || हो पर० ॥ १ । दुर्लभ नर भव पा लिया, चिन्तामणि अनमोल | प्रभु सेवा परिणत करो, सद्गुरुओं का चोल । हो आराधना मे अपनी शक्ति लगाओ चार चार || हो पर० ॥ २ ॥ साधन पूरे ना मिलें, ना शिव सिद्धि होय । वो भी प्रभु पद पूजते, निश्चय सुरगति होय । दो सुर लोक मे भी शासत श्री जिन पूजा अधिकार || ही पर० || ३ || जिन कल्याणक उन्मवे, विविध भक्ति चितधार । मेरु नन्दीश्वर करें, मुर जिन पूजा सार ।
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४०
वृहत् पूजा-संग्रह . हो भन्यातमा सम्यग्दर्शन के पाते संस्कार ॥ हो पर० ॥ ४ ॥ कचरा देव विमान का, हमें मिले जो आज । तो दारिद्रय रहे नहीं, सुर सम्पति अन्दाज। हो देवता प्रभु पूजें पूजा हित सुख कार । हो पर० ॥ ५ ॥ कम से कम देवायुका, वर्षे सहस दश मान। ज्यादा से ज्यादा कहा, तेतीस सागर जान । हो अन्त समये भोगी सुर सब भोगे दुःख मार ॥ हो पर० ॥६॥ अविरति मिट जाये मिले, हमें मोक्ष अधिकार । नर भव हम पायें करें, निज आतम उद्धार। हो देवता सम्यग्दृष्टि यों करते सद्विचार ॥हो पर० ॥ ७॥ बन्ध सुरायु सात तक, उदय चार तक योग । ग्यारह गुनठाने रहा, सत्ता का संयोग। हो हरि कवीन्दर प्रभु भक्तों की बोले जयकार ॥ हो पर० ॥ ८ ॥
। काव्यम् ।। प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारैः
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने.."आयुष्य कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
॥ अष्टम फल पूजा ॥
॥दोहा॥ प्रभु पूजा का पुण्य फल, हित सुख क्षेम विशेष । फल पूजा प्रभु की करो, हित सुख मिले हमेश ॥१॥
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
___ आयुष्य कर्म निवारण पूजा ४४१ साथ रहे इस लोक में, चले साथ परलोक ।
प्रभु पूजा का पुण्य फल, भरदे भाव अशोक ||२|| (तर्ज गजल-कहीं हँसना कहीं रोना इसी का नाम दुनिया है )
चतुर्गति दुःख फल हरणी, करो फल पूज जिनवर की। मिटे भव कैद शिव करणी, करो फल पूज जिनवर की ॥ टेर || नरक में दुख था भारी, न पाया नाथ का दर्शन । सुदर्शन प्राप्त करने को, करो' फल पूज जिनवर की ॥ च० ॥ १॥ गति तिर्यञ्च में केवल, भरा अविवेक था भारी। हिताहित ज्ञान पाने को, करो फल पज जिनवर की ॥च० ॥२॥ पड़ी पग पुण्य की चेडी, फंसे सुर भोग में हरदम । अगर स्वाधीनता चाहो, करो फल पूज जिनवर की ॥ च० ॥ ३ ॥ मिला है देव दुर्लभ तन, यहाँ नर जन्म जीवन में | रतन चिन्तामणि जैसा, करो फल पूज जिनवर की ॥ च० ॥ ४ ॥ उडाने काग को जैसे, न भोगों में खतम करना । सफलता प्राप्त करने को, करो फल पूज जिनवर की ॥ च० ॥ ५ ॥ प्रभु सुद वीतरागी हैं, न पूजा को कमी चाहें । अगरचे पूज्य होना हो, करो फल पूज जिनपर की ॥ च० ॥६॥ सुखों के दिव्य सागर हैं, प्रभु भगवान उपकारी। दुखों
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૪૨
वृहत् पूजा-संग्रह
को दूर करने को, करो फल पूज जिनवर की ॥ च० ||७|| अमर गणनाथ हरि पूजें, कवीन्द्र कीर्तियाँ गावें । सफल यश कीर्ति पाने को, करो फल पूज जिनवर की ॥
च० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् || पीयूष पेशल रसोत्तम भाव पूर्णैः ० । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने आयुष्य कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।
॥ कलश ॥
[ आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें । ]
Bre
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
छ8 दिन नाम कर्म निपारण पूजा पढावे ॥ नाम कर्भ निवारण पूजा॥ [प्रारम्भ मे मगल पीठिका के दोहे पहले दिन की पूजा (ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ) से देखकर वोलें, और अन्त में कलश आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा) के अन्त में प्रकाशित कलश वोलें। प्रति पूजा मे कान्य भी पहले दिन की पूजा के समान बोलने होंगे। मत्र मे कर्म नाम बदल कर वोलें।
मंगल पीठिका दोहा
पूर्ववत्
-- - || प्रथम जल पूजा ॥
॥ दोहा ॥ तीरथ जल से जो करे, तीर्थकर अभिषेक । करम मैल कट जाय हो, आतम गुण अतिरेक ॥३॥ जल पूजा मन मल हरे, होवे लोक ललाम । नाम काम अभिराम हो, परमातम परिणाम ॥२॥
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४४
वृहत् पूजा-संग्रह
"
( तर्ज - तन मन से फेरो माला, काटे रे जाला जीवका ) कमों के मल को हरती जल पूजा प्रभु की कीजिये । नाम करम नित रूप बनाता, यहाँ चितेरे जैसा। आतम आप अरूपी देखो, हो गया कैसा कैसा रे || क० ॥ १ ॥ नरक तिरि नर सुर गति चारों भटक भटक भरमाया । इक दो तीन चार पंचेन्द्रिय, जाती जोर जमाया रे ॥ क० || २ || औदारिक चैक्रिय आहारक, तैजस कार्मण जानो । आदि तीन के अंग उपांगा, अंगोपांग पिछानोरे ॥ ० ॥ ३ ॥ चन्धन संघातन शरीर के पांच पांच परकारा | लाख और दंताली जैसे, बंध ग्रहण करतारा रे || कु० ॥ ४ ॥ वज्र ऋषभ नाराच ऋषभ नाराच अर्ध नाराचा | किली छेवठा छह संघयणे, मारो मोह तमाचारे ॥ ६० ॥ ५ ॥ समचउरंस निगोह सादि और, कूप वाचना हुँडा । आतम योगी पुण्य उपावें, और पाप का कुण्डा रे || क० || ६ || वर्णगन्ध रस फरस बीस शुभ, अशुभ सभी कहलाये । आनुपूर्वी हय लगाम ज्यों, चार गति ले जाये रे || क० || ७ || चाल शुभा शुभ गति विहायस, जीव सभी की होती । हरि कवीन्द्र धन भाग गति मति, आतम अभिमुख होती रे ॥ क० ॥ ८ ॥
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा
४४५
|| काव्यम् || लोकँपणति तृष्णोदय वारणाय० । मन्त्र - ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने नाम कर्म
..
समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ।
॥ द्वितीय चन्दन पूजा || ॥ दोहा ॥
मलयाचल चन्दन सरस, क्षेत्र विशेषित भाव । प्रभु पद पावन क्षेत्र में, प्रकटे पुण्य प्रभाव ॥१॥ चन्दन गुण सन्ताप हर, हैं प्रभु आप विशेष । चन्दन से पूजा करो, मिटें करम के क्लेश ||२||
( तर्ज - अवधू सो योगी गुरु मेरा - आशावरी ) चन्दन पूजा करियें प्रभु की चन्दन पूजा करियें } पाप ताप परिहरियें प्रभु की चन्दन पूजा करियें || टेर || नाम करम की पिण्ड प्रकृतियाँ, चौदह उत्तर जानो । पैंसठ होती आतम अभिमुख, कर आतम पहिचानो || प्र० ॥ १ ॥ बन्धन पाँच कहे पनरा भी, सघाउन सहयोगी । वीस प्रकृतियाँ तन अन्तर्गत, समझें आतम योगी ॥ प्र० ॥ २ ॥ वर्णादिक भी मूल चार हैं, उत्तर वीस वताइ । कर्म विचार समास किया यों, सोला वीस घटाई ॥ प्र० || ३ || हैं प्रत्येक प्रकृतियाँ अड्डा, वीस विशेष प्रकारा ।
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४६
वृहत् पूजा-संग्रह
सड़सठ होती नाम करम की, प्रकृति समास विचारा || प्र० || ४ || विस्तारे छत्तीस मिलाते, होती एक सो तीन । आसक्ति तज नाम करस पर, विजयी होते प्रवीन ॥ प्र० ॥ ५ ॥ जीव विपाकी बस थावर त्रिक, सुभग दुभग चउ जानो । श्वास जाति गति तीर्थ विहायो गति अन्तर्गति ठानी ||प्र० ||६|| नाम थुवोदयी प्रकृति बारह, तनु चउ अरु उपघाता । साधारण प्रत्येक उद्योत, आतप युत परघाता ॥ प्र० ॥ ७ ॥ नाम कर्म की ये छत्तीसों, प्रकृति पुद्गल पाका । हरि कवीन्द्र समझ समझ कर ले लो शिवपुर
नाका ॥ प्र० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् || पापोपताप शमनाय महद्गुणाय० । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
कुसुम कली खिलती रहे, प्रभु चरणों को पाय । त्यों पूजन जन आतसा, अन्तर्गत खिल जाय ॥ १ ॥ कुसुम कली सुविकास में, सौरभ सुगुण विलास | परमातम परसंग में, अध्यातम गुण खास ॥२॥
...
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा
४४७ (तर्ज-भीनासर स्वामी अन्तर्यामी तारो पारसनाथ-माढ) ___ पूजो फूल विकासो, की की फांसी, काटे श्री भगवान । मिले पद अविनाशी, सहज विलासी, पूजक हो भगवान ॥ टेर ॥ प्रभु पूजा से पुण्योदय हो, होता है सुख सात । अन्य सवल को जो आपाते, प्रकृति हो परावात रे। पू० ॥ १ ॥ श्वासोच्छवास हो जीवन हेतु, आतप ताप प्रधान । सूर्य विमाने धरज पूजे, शाश्वत श्री भगवान २॥ पु० ॥ २॥ उत्तर वैक्रिय वारा मण्डल, में होता है उद्योत । न लघु न गुरु अगुरु लघु, शरीर हो सुख श्रोत रे। पू० ॥ ३॥ जो तीर्थङ्कर नाम कमा, त्रिभुवन जन सुख खाण । अगोपांग व्यवस्था करता, नाम करम निर्माण रे॥ ३० ॥ ४ ॥ अपने ही अगों से पीडित, होना है उपधात । आठों ये प्रत्येक वताये, नाम करम विख्यात रे ।। पू० ॥ ५ ॥ त्रस बादर पर्याप्ता प्रत्येक, स्थिर शुभ सुभग सुनाम | सुस्वर आदेय यश कीरति ये, उस दशका अमिराम रे । पू० ॥ ६॥ उस दशके से उल्टा होता, स्थावर दशक प्रमाण ! नाम करम क्षय होता आखिर, चौदश में गुणठाण रे । पू० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४८
वृहत् पूजा-संग्रह परमातम, आप अकास अनाम | अध्यातम भावे आराधो, सकुसुम पूज प्रमाण रे॥ पू० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्चवर वर्ण विराजिभिः ।
मंत्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
|| चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ अगर तगर चन्दन सरस, कस्तूरी घनसार । सेल्हारस वर कुन्दरू, करो धूप विस्तार ॥२॥ धूप धूम उँचा चढ़े, बढ़े सुयश वर भाव । प्रभु पद पूजा धूपकी, ऊरध गति स्वभाव ॥२॥
(तर्ज-तुम्हें नाथ नैया तिरानी पड़ेगी ) धूप से पूजा जो कर पाये, उर्ध्व गति वह सहज उपाये ॥ टेर | काल अनादि कारण योगे, श्री प्रभु दर्शन भाव वियोगे। थावर दशक पद जीव कमाये ॥धप० ॥१॥ पृथ्वी पानी आग पवन में, और वनस्पती के जीवन में। थावर पद सदगुरु समक्षावें ॥ धूप० ॥ २ ॥ सूक्ष्म नाम कर्मोदय हेतु, लोक भरा बहु दुःख निकेतु। ज्ञानी जन उपदेश सुनावे ॥ धूप० ॥ ३ ॥ निज पर्याप्ति पूरी न
।
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा
४४६ करते, और बीच में जीव जो मरते । अपर्याप्त विशेप कहाचे ॥ धूप० ॥ ४ ॥ जीव अनन्ते एक शरीरे, साधारण तरू जाति कही रे। नाम करम नवरूप दिखावे ॥ धूप० ।। ५ ॥ स्थिर नहीं होते अंग उपांगा, अथिर नाम का यही अडंगा । पुण्य योग थिर रूप उपावे ॥ धूप० ॥ ६ ॥ पाप रूप जो होता अशुभ है, ठीक लगे ना वह दुर्भग है। दुःस्वर स्वर जिसका न सुहावे ॥धूप० ॥७॥ वचन अमान्य अनादेय नामा, अपजश कारण हो दुख धामा । हरि कवीन्द्र न जो प्रभु ध्यावे ॥ धूप० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० ।
मन्त्र -ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने "नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
॥ पंचम दीपक पूजा ॥
॥दोहा॥ दीपक से प्रभु पूजते, दीपक गुण अभिराम । आतम हो परमातमा, पूजो करो प्रणाम ॥१॥ जहां पात्र तपता नही, स्नेह न होता नाश । वृत्ति जहां जलती नही, आतम दीप उजास ॥२॥ ,
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-उठो नी मोरे आतमरामा, जिनमुख जोवा जइये रे )
दीपक पूजा करिये भविजन, मव वन में न भटकिये रे। मोह तिमिर मिट जाये रे भविजन, दुर्गति में न लटलिये रे ॥ टेर ॥ त्रास पडे तब गति कर सकता, यह बस नाम कहाचे रे । विकलेंद्रिय पंचेन्द्रिय स हैं, धन जो प्रभु मुख पावे रे ॥ दी० ॥ १ ॥ स्थूल रूप जीवन में पाता, बादर नाम सुयोगे रे। जोर विपाकी होकर भी जो, पुद्गल में अभियोगे रे ॥ दी० ॥ २ ॥ पर्याप्ति शक्ति छह होती, आहारादि प्रकारा रे। लब्धि करण पर्याप्ता भावे, प्रभु पूजक जयकारा रे ॥ दी० ॥ ३॥ पृथक शरीरे पृथक जीव हो, वह प्रत्येक सुनामा रे। जिन दर्शन निज दर्शन करता, वह जीवन अभिरामा रे ॥ दी० ॥ ४ ॥ अंग उपांगे दृढ़ता होती, जो थिर नाम उपावे रे। नाभि से सिर तक सुन्दर शुभ, धन प्रभु दर्शन पावे रे ॥ दी० ॥ ५॥ ओरों को प्यारा होता है, सुभग महा बड़ भागी रे। जो रहता वेदाम जगत में, वीतराग पद रागी रे ॥ दी० ॥ ६ ॥ सुस्वर स्वर सब सुनना चाहें, वचन न जास उथापे रे । वह आदेय वचन प्रभु प्रवचन, धन जीवन में थापे रे ॥ दी० ॥ ७॥ हरि कवीन्द्र जश कीरति गावे,
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा प्रभु चरणे लय लावे रे। त्रस दश के परमातम दीपक, दिव्य ज्योति प्रकटावे रे ।। दी० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् । सम्पूर्ण सिद्धि शिव मार्ग सुदर्शनाय० ।
मन्त्र-ॐ ही श्री अहं परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीगीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा ।
॥ षष्ठम अक्षत पूजा ॥
॥दोहा॥ आप अरूपी आतमा, अक्षय गुण भण्डार । नाम करम रूपी हुआ, सक्षतपद आधार ॥१॥ सक्षत पद दूरी करण, अक्षत पूज विचार ।
प्रभु अक्षत पद योगते, अक्षत पद अधिकार ॥२॥ (तर्ज-श्री संभव जिन राजजी रे, ताहरु अकल स्वरूप० )
अक्षत पूजा कीजिये रे, अक्षय पद अधिकार । जिनवर जय बोलो, बोलो बोलो वारवार || जि० ॥ टेर ॥ साधारण गुण जीव का रे, जानो भाव अरूप ।। जि० ॥ साधारण गुण रोकता रे, नाम अघाति सरूप ॥ जि० ॥१॥ पुद्गल पाकी नाम की रे, प्रकृति के संयोग ।। जि० ॥ काम अनादि आवमा रे, वर्ण गध रस भोग ॥ जि० ॥२॥ कर्म सभी जड़ मूर्त हैं रे, पर नहीं दीखें खास ॥ जि०॥
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५२
वृहत् पूजा-संप्रह
नाम करम में सूर्तता रे, पाती पूर्ण विकास || जि० || ३ || यह शरीर संस्थान ये रे, ये संहनन प्रकार || जि० ॥ नाम करम के भेद ये रे, देखे सब संसार || जि० ॥ ४ ॥ पुण्य पाप प्रगट यहीं रे, सोचो समझो नेक ॥ जि० ॥ जिन दर्शन में ही किया रे, वर्णन कर्म विवेक ॥ जि०
॥ ५ ॥ प्रकृति पुद्गल पाकिनी रे, है संख्या छत्तीस || जि० ॥ नाम करम की ये सभी रे, तोड़े त्रिभुवन ईश ॥ जि० ॥ ६ ॥ प्रकृति सत्तावीस है रे, जीव विपाकी नाम ॥ जि० ॥ पुण्य पाप दो रूप में रे, भोगो आप अकाम ॥ जि० ॥ ७ ॥ शाह कमाता नाम से रे, चोर मरे निज नाम || जि० ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु पूजते रे, नाम काम अभिराम || जि० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् || कृत्वाक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
ओज लोम प्रक्षेप से, तीन प्रकार आहार | करता सब संसार है, विग्रह गति अनाहार ॥१॥
...
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा
भागी भूख ।
विग्रह गति पाई बहुत, पर नहीं प्रभु पूजो नैवेद्य से, मांगो मे दुःख ॥ २ ॥
४५३
( तर्ज- तीरथनी आसातना नवि करिये ० ) वीतराग जिननाथजी जयकारी । हांरे जयकारी जी उपकारी, हांरे शिवपुर वर पन्थ विहारी, हाँरे कर दो भव पार || वी० ॥ ढेर || महर नजर करो नाथ जी हम आये, हांरे पूरव कृत कर्म सताये । हांरे अब चरण शरण लय लाये, हारे नही ओर आधार || वी० ॥ १ ॥ नैवेद्य चरणों में घरें प्रभु तेरे, हारे रहे भूस हमें नित घेरे । हांरे देती लाख चौरासी फेरे, हांरे पद दो अनाहार || वी० ॥ २ ॥ वीस कोडा कोडि सागर स्थिति बोली, हांरे उत्कृष्टे भावे बोली । हांरे लघु अन्तर मुहुरत सोली, हांरे नाम कर्म विचार || वी० ॥ ३ ॥ मनमें कुटिलता धारते जो प्राणी, हांरे बोलें कपट भरी जो वाणी । हांरे काय चेष्टा शठता निशानी, हांरे आश्रत्र संसार ॥ वी० ॥ ४ ॥ अशुभ नाम आता सही दुसकारी, हांरे विपरीत है शुभ सुखकारी | हारे हेय अशुभ विशेष प्रकारी, हांरे ससार आसार || वी० ॥ ५ ॥ अशुभ नाम करमोदये नही पाया, हांरे वीतराग प्रभु जिन राया। हांरे नहीं पाया मोक्ष
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५४
वृहत् पूजा-संग्रह
उपाया, हांरे पाया दुख भार ॥ वी० ॥ ६ ॥ आज शुभोदय हो गया प्रभु सारी, हांरे पाया दर्शन जय जयकारी | हारे भव साया दूर निवारी, हारे निश्चय सितार || बी० || ७ || हरि कवीन्द्रों ने सदा गुण गाया, हारे जिन शासन सुखद सवाया । हारे योगावंचक विधि पाया, हांरे दूर कर्म विकार || वी० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् || प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधर प्रचारै० । सन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं जई परमात्मने नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय नैवेद्य' यजामहे स्वाहा |
॥ अष्टम फल पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
भव फल शिव फल जानकर, विशद विवेक विचार | प्रभु की फल पूजा करो, पाओ शिव फल सार ||१|| कर्म योग संसार फल, शिवफल धर्म विधान | धर्म मुख्य पद जगत में, सेटो श्री भगवान ॥२॥ ( तर्ज-पास जिनेसर पूजियें रे तीन भुवन सिरताज सलूणा ) सुख दुख फल संसार में रे, कर्म उदय अनुसार सलोना | पुण्ये सुख दुख पाप से रे, पुण्य करो प्रचार
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाम कर्म निवारण पूजा ४५ सलोना ॥ टेर ॥ पुण्य प्रथम विधि पूज्य की रे, पूजा विविध प्रकार ॥ स०॥ करना सुख भरना सदा रे, निज आतम भण्डार || स० सु० ॥ १ ॥ नाम करम ध्रुव वन्ध मे रे, वर्ण गन्ध रस स्पर्श ॥ स० ॥ तैजस कार्मण जानिये रे, प्रभु पूजा उत्कर्प ।। स० सु० ॥ २॥ अगुरु लघु निर्माण के रे, साथ रहे उपधात ॥ स० ॥ सावधान साधे सदा रे, माधक पुण्य प्रभात || स० सु० ॥ ३ ॥ अध्र व बन्धी नाम में रे, औदारिक क्रिय ॥ स० ॥ आहारक उपांग भी रे, वे तीनों सक्रिय ॥ स० सु० ॥ ४ ॥ सस्थान संघयणे कही रे, छह छह मेद विचार ॥ स०॥ पाँच जाती गति चार ये रे, दोय विहाय प्रकार || स० ॥ ५ ॥ चार आनुपूर्वी तथा रे, श्री तीर्थकर नाम ॥ स० ॥ सांसोभासे कीजिये रे, परमातम गुण ग्राम ॥ स० सु० ॥६॥ध्रुव उदयी अध्र वोदयी रे, गुरुगम बोध विशेष ॥ स०। प्रकृति स्थिति रसपातसे रे, मेटो करम कलेश ॥ स० सु०॥७॥ सुस सागर भगवान को रे, पूजो सफल विधान ॥ स० ॥ हरि कवीन्द्र सदा बनो रे, त्रिभुवन तिलक समान ॥ स० सु० ॥८॥
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह. ॥ काव्यम् ॥ पीयूष पेशल रसोत्तम भाव पूर्ण ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने ... नाम कर्म समलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।
॥ कलश ॥ [आठवें दिन की पूजा ( अन्तराय कर्म निवारण पूजा) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें।)
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
सातवें दिन गोत्र कर्म निवारण पूजा पढ़ावे ॥ गोत्र कर्म निवारण पूजा ॥
[ प्रारम्भ मे मंगल पीठिका के दोहे पहले दिन की पूजा ( ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ) से देखकर बोलें, और अन्त मे कलश आठवें दिन की पूजा (अन्तराय कर्म निवारण पूजा ) के अन्त में प्रकाशित कलश बोलें। प्रति पूजा मे काव्य भी पहले दिन की पूजा के समान बोलने होंगे। मंत्र में कर्म नाम बदल कर वोलें । ]
मंगल पीठिका दोहा पूर्ववत्
॥ प्रथम जल पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
रस जीवन अमृत कहै, जल को जल पूजा प्रभु की करो, करम कीच दे नीच भाव कटते रहें, जल धारा के
जल पूजा जिनराज की, पावन भाव
पण्डित लोक |
रोक ॥१॥
योग ।
प्रयोग ||२||.
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
४५८
वृहत् पूजा-संग्रह (तर्ज-सुन सुन आवत सोहे हांसी रे, पानी में मीन पियासी)
द्रव्य मात्र अधिकारी रे, रो जल पूजा मल हारी ॥ टेर ॥ नीच भाव काटे जल धारा, कीच कलंक दे टारी रे॥क० ॥ १ ॥ प्यास बुझाती ताप बुझाती, करे तृपति सुखकारी रे ॥ २० ॥ २ ॥ स जीबन्द अमृत पद देती, प्रभु शुण समताकारी रे ॥ १० ॥३॥ नीच गोन कर्मोदय कटता, प्रसु पद की बलिहारी रे॥०॥४॥च गोत्र गंगाजल घट ज्यों, पूज्य रूप अबतारी रे ॥ १० ॥ ५ ॥ मदिरालय मदिरा घट जैसे, नीच साव निवारी रे || क० ॥ ६ ॥ अम्मकार समगोत्र करम है, उंच नीच घट कारी रे ॥ ० ॥ ७॥ उंचता धारो नीचता द्वारो, हरि कपीन्द्र जयकारी रे ।। क० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ।। लोकेपणाति तृष्णोदय वारणाय० ।
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अह परमात्मने....' गोत्र कर्म न्समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ।
॥ द्वितीय चन्दन पूजा ॥
॥दोहा॥ "भले भुजंग लगे रहें, विष नहीं व्यापत अंग। यह गुण चन्दन को मिला, कर प्रभु पूजा संग ॥१॥
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा ४५६ काटो या पालो भले, चन्दन भरे सुगंध । चन्दन गुण अद्भुत वरो, प्रभु पूजा सम्बन्ध ||२||
(तर्ज दयानिध दीजें यह वरदान बनासिरि)
चन्दन पूज विचार करिये चन्दन सम आचार ॥ टेर ॥ जीते मरते उभय समय मे, सदा सुगन्ध प्रचार ।। क० ॥१॥ सग कुसंगी आन मिलो पर विप का हो न विकार ||क० ॥ २॥ धर्म-सुगन्धी जीवन पावन, उंच गोत्र अवतार ॥ क० ॥ ३ ॥ पत्थर सग रगड पाकर भी, चन्दन शीतल सार ॥ क० ॥ ४ ॥ पीसो घीसो चन्दन को पर, होगा रस विस्तार ॥ क० ॥ ५ ॥ गुण धारी चन्दन पाता है, प्रभुपद का अधिकार ॥ क० ॥ ६ ॥ सुख में दुख में सम रस अपना, नित जीवन निर्धार ।। क० ॥७॥ हरि कवीन्द्र सुचन्दन पूजा, भाव धरम दातार । फ० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ पापोपताप शमनाय महद्गुणाय० ।
मंत्र-ॐ ही श्री अर्ह परमात्मने "गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ कांटों में जीवन पला, पाया पर्ण विकास । इन फूलों का देखलो, सौरम सुन्दर हास ॥१॥ गुण में बँध कर फूल सब, हो जाते हैं हार । प्रम पजा से आप भी, पाओ यह अधिकार ॥२॥
(तर्ज-जमुनाजी में खेलें हरि राम लला०) फूलों से पूजो भाव भरो, जीवन में पूर्ण विकास करो ॥ फू० ॥ टेर ॥ कांटों में जीवन पलता है, कांटों का दुख मनमें न धरो ॥ फू० ॥१॥ कलियाँ खिल करके फूल वने, खिलना सीखो मन मोद अरो ॥ फू० ॥ २ ॥ रेशे रेशेमें सौरभ है, गुण सौरभ का विस्तार करो ॥ फू० ॥ ३ ॥ गुण में बँध फूल ये हार बने, जन हार वनो वर विजय बरो॥ फु० ॥४॥ भौंरों को ये रस देते हैं, जीवन रस दान विधान भरो॥ फू० ॥ ५॥ सब ठौर फूल शोभा पाते, पाओ शोभा वह काम करो ॥ फू० ॥६॥ उत्तम कुल फूल को जग चाहे, उत्तम कुल सीमा में विचरो ॥ फू० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र जीवन कुसुम कली, आतम अर्पण करते न डरो ॥ फू० ॥ ८ ॥
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा ४६१ । काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्चवर वर्ण विराजिमि ।।
मन्त्र-ॐ ही श्री अर्ह परमात्मने गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय पुष्प यजामहे स्वाहा ।
|| चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ पड़ कर भी जो आग में, जग को देत सुगन्ध । धूप जन्य जीवन करो, उघ गति प्रबन्ध ||१|| धूप धूम रंगी यनो, साधक साधु महान । प्रभु पूजा कर पूज्य पद, पाओ पुण्य प्रधान ॥२॥ (सर्ज-अवधू सो योगी गुरु मेरा आशावरी)
धूप पूल बड़ भागी करते धूप पूज धन मागी ।। टेर। धूप धूम रंगी जीवन जन, मार मुपायन भरते । प्रभु पद सगी होकर के जो, लोकोत्तम पद वरते ।। क० ॥१॥ धूप दशांगी धर्म दशांगी, जो जीवन आचरते । धूप धूम गति ऊर्ध्व दिशा में, गुण ठाणा अनुसरते ॥ क० ॥२॥ धूपालम्बी ध्यान दशाम, कर्म कीटाणु मरते । स्वस्थ मात्र अजरामर पदवी, सहजानन्दी घरते ।। क० ॥ ३ ॥ धूप धूम सौरम गुण धारी, प्रर पद पूजा करते। दुर्गति दूर
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६२
वृहत् पूजा-संग्रह
निवार समुन्नत, उत्तम कुल प्रति चरते || क० ॥ ४ ॥ जीव विपाकी गोत्र करम वश, नीच कुले अवतरते । पर ऊँचे कर काम हमेशा, ऊँच गोत्र अधिकरते | क० ॥ ५ ॥ हरिकेशी और चित्त संभूति, वन साधु पद वरते । छट्ट गुणठाणे अनुदय से, ऊंच गोत्र संस्करते || कु० ॥ ६ ॥ वीस कोडाकोडी सागर की, उत्कृष्टी स्थिति बन्धे । लघु अन्तरमुहरत की जानो, लागो धरम के धंधे ॥ क० ||७|| गोत्र करम सत्ता क्षय होती, चौदशमें गुण ठाने । हरि कवीन्द्र आतम परमातम, होता तन्मय ताने ॥ क० ॥८॥ || काव्यम् || स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
|| पंचम दीपक पूजा || ॥ दोहा ॥
जीवन भर जलता रहे, सींच सींच कर स्नेह | पर प्रकाश करता रहे, देखो दीपक एह ॥ १ ॥ दीपक पूजा में सभी, लाओ ऐसे भाव । स्वपर प्रकाशक आप भी, होंगे पुण्य प्रभाव ॥२॥
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा ४६३ (तर्ज-मन मोहनजी जगतात, वात सुणो जिनराजजी रे)
प्रभु पूजा में भर भाव, दीप जगाओ रे । प्रभु ज्योति से आतम ज्योत, सहज उपाओ रे ।। प्र० ॥ टेरे ॥ सदगुणियों से गुणराग, मन में धरना रे। निज गुण का भी अभिमान, आप न करना रे ॥प्र० ॥१॥ गुण द्वेष का लेश विशेष, क्लेश बढावे रे । गुणद्वप जो गुणठाण, ऊँचे चढ़ावे रे ॥ प्र० ॥२॥ नित ज्ञानी के सत संग, रग जगाओ रे । तत्व ज्ञान की पात उदात्त, अग लगाओ रे। प्र० ॥ ३ ॥ श्रुत धारी अनुभव योग, मार्ग यतावे रे। कृत कर्म महा भर रोग, दूर गमावे रे ॥३०॥ ४ ॥ बहु ध्रुव है दीन दयाल, टाल असातना रे। ऊँच गोत्र करम सम्बन्ध, होता धन धन रे । प्र० ॥ ५॥ न्याय धर्म करम अधिकार, हो सदाचारी रे। ऊँच गोन आचार विचार, हो सागारी रे ॥ प्र० ॥ ६॥ नीच गोत्र के आश्रय दूर, दूर निवारो रे। प्रभु पूजा में विधियोग, भाव विचारो रे ॥ १० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र दीपक पूज, हो उपयोगी रे। ऊँच गोत्र उदय विस्तार, हो सुख भोगी रे । प्र० ॥'प्र०८॥
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
૪૪
बृहत् पूजा-संग्रह
॥ काव्यम् || सम्पूर्ण सिद्धि शिव मार्ग सुदर्शनाय० । मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने गोत्र कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा । ॥ षष्ठम अक्षत पूजा !! ॥ दोहा ॥
भारी मूसल मार से, छिल जावे सब अंग । तब अक्षत संसार में, पाता है प्रभु संग ॥१॥ प्रभु संगी अक्षत पर्ने, अक्षय सुख भण्डार । अक्षत पूजा में भरो, यही भाव सुविचार ||२| ( तर्ज - तेरी सुमतिनाथ जय हो )
अक्षत पूजा प्रभु की करते, अक्षय सुख भण्डार होता । पूजा परमाधार प्रभु की, कर्ताजन भव पार होता || अक्षय० || ढेर || अक्षत गुण अधिकारी जन का, जीवन जय जयकार होता || अक्षप० || १ || पढ़े पढ़ावे जिन आगम को, निज आतम स्वीकार होता || अक्षय० ॥ २ ॥ निज पर आतम को स्वीकारा, तो हिंसा प्रतिकार होता || अक्षय० || ३ || आतम पथके अनुशासन में, गुण थानक विस्तार होता || अक्षय० ॥ ४ ॥ षड् दर्शन खण्डन मण्डन से, अक्षत गुण अविकार होता || अक्षय० ॥ ५ ॥
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा ४६५ जिन दर्शन विरहित हो उसका, जीना मरना भार होता ॥ अक्षय० ॥ ६ ॥ नीच गोत्र के संस्कारों से, दुख मय यह संसार होता ॥ अक्षय० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र तिरना हो उन को, जिन दर्शन आधार होता ॥ अक्षय० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतः सुपरिणाम गुणः प्रशस्तं० ।
मन्त्र--ॐ ही श्री अहं परमात्मने - 'गोर कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षत यजामहे स्वाहा । ___॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥दोहा॥ आहारक तेरह कहे, गुणठाण भगवान । औदारिक पुद्गल ग्रहण, है आहार विधान ॥२॥ नवेद्य पुद्गल रूप है, प्रभु चरणे दो चाद। ।
सागभार परिणाम गुण, अनाहार हो गाढ़ा (तर्ज-अब तो प्रमुजी का लेलो शरन-राग भैरवी)
नैवेद्य पूजा अति आनन्द || म०|| टेर ॥ आवम अर्पण प्रसु चरणों में, पूजा काटे कम्मों का फद ।। न० ॥१॥ पुद्गल ग्रहणे नीच गोर का, दो गुण ठाणे वक हो पंध ॥ ३० ॥ २ ॥ उदय पांच तक ही होता है, होता है भारी दुर द्वन्द ।। न० ॥ ३ ॥ प्रभु पर मंगति होते होगा, संघ
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
वृहत् पूजा-संग्रह गोत्र का सुखद सम्बन्ध ।। नै० ॥ ४ ॥ चौदहवें गुणठाणे तक ही, उंच गोत्र का उदय प्रबन्ध ॥ २० ॥ ५ ॥ सत्ता भी क्षय होती है वह, अगुरुलघु आतम निन्द ॥ नै० ॥ ६ ॥ पुद्गल साव चियोग प्रकटते, अनाहार पद परस आनन्द ॥ नै० ॥ ७॥ नैवेद्य पूजा कर नित मांगे, अनाहार पद हरि कवीन्द्र ॥ नै० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् ॥ प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारै ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने.."गोत्र कर्म समलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
॥ अष्टम फल पूजा ॥
॥दोहा॥ ऊंच गोत्र फल पुण्य का, ऊचे हों आचार । नीच गोत्र फल पाप का, नीचे हों व्यवहार ॥१॥ ऊंच गोत्र फल योग से, फल पूजा विस्तार । लोक शिखर ऊंचे बसो, जहँ सुख अपरंपार ॥२॥
(तर्ज-तुम तो भले विराजो जी सांवरिया)
पुण्य फल उंचा होता जी, प्रसु पूजा प्रभाम ॥ पुण्य० ॥ टेर ।। अध्र व बन्धी गोत्र करम फल, सादि सान्त कहा। बीज झबूके मोती पोना, जाने सो फल
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोत्र कर्म निवारण पूजा
४६७
पावे ॥ पुण्य० ॥ १ ॥ जीन विपाकी गोन करम यह, परावर्त मानी । नीच गोत्र को ऊंच करे धन, उसकी जिन्दगानी || पुण्य० ॥ २ ॥ ऊंच गोत्र में जनम लिया अन, फरो ऊंच कामा । दर्शन ज्ञान चरण अधिकारी, परणो शिनरामा || पुण्य० || ३ || होवे अगर गुण होन फोड जन, करो न अपमाना । नित्र गुण का अभिमान करो मत, यह भी दुखदाना || पुण्य० ॥ ४ ॥ कोई भी हों तीर्थंकर या, चक्रवर्ती राजा । कर्म अनघा उदय काल, फल पायेंगे वाज्ञा ॥ पुण्य० || ५ || नीच कहो मत कमी किसी को, खींच नीच रेखा । सदा सदाचारों का निज में, कर लेना लेखा ॥ पुण्य० || ६ || मुख सागर भगवान महोदय, जिन हरि पूज्य प्रधाना । निर्भय भाव जिनागम बोलें, निजका करो निदाना || पुण्य० ॥ ७ ॥ निजमें ऊंच बनो साथी को, ऊंच बना देना । दिव्य कवीन्द्र विजय फल पानो, कटं करम सेना || पुरप० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् ॥ पीयूष पेशल रमोत्तम भाव पूर्णः ० । मन्त्र - ॐ श्रीं अर्ह परमात्मने गोत्र कर्म मूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहं साधा |
॥ कन्ा ॥
...
(नाव निवारण बुषा ) के चन्द्र में प्रकाशित पत्रा दो।
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठवें दिन अन्तराय कर्म निवारण पूजा पढ़ावे || अन्वराय कर्म निवारण पूजा ॥
[ प्रारम्भ में मंगल पीठिका के दोहे पहले दिन की पूजा (ज्ञानावरणीय कर्म निवारण पूजा ) से देखकर बोलें। प्रति पूजा में काव्य भी पहले दिन की पूजा के समान वोल्ने होंगे। मंत्र में कर्म नाम बदल कर बोलें । ]
मंगल पीठिका दोहा पूर्ववत्
॥ प्रथम जल पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
भव जल तिरना हो यदि, जल पूजा लो धार । जल: तीर्थ जनता तिरे, तीर्थ तारणहार ॥१॥ द्रव्य भाव दो तीर्थ हैं, द्रव्यालम्बी भाव । तीर्थ मेटो भाव से, परमातम पद दाव || २ ||
Page #461
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा (तर्ज- तावडा घीमी पड़जा रे )
तीर्थ जल पूजा नित करियें, तिरना हो संसार सार, जिन पूजा चित धरिये || तीर्थ० || टेर ॥ विघन घना धन कर्म बना है, आश्रव अभियोगे, इसीलिये जड रूप जीव, दुर्गति में दुस भोगे || तीर्थ० ॥ १ ॥ आपा भूल फँसा जड पुद्गल, परिणामे चेतन । अनजाने मिध्यात्व भाव मय होता हृत जीवन || तीर्थ० ॥ २ ॥ जान भजो जिन देव तीर्थ में, ज्ञान विशद होता । जगजाता यह आतम हरदम, विषयों में सोता ॥ तीर्थ ॥ ३ ॥ परमारथ से क्यों डरो, डरो हिंसा को आचरते । साते पीते भोग कर्म मे महारंभ करते ॥ वीर्य ● ॥ ४ ॥ परमारथ का मूल कहा, सम्यक्त्व इसे धारो । परमातम पद पूज यातमा, अपना निर्द्धारो || तीर्थ० || ५ || आतम ध्यान पवन हटते हैं, विधन धनाधन ये । चढ़ जानें अभिराम आत्म गुण, ठाने नये नये ॥ वीर्य० ॥ ६ ॥ मारे मारे फिरो अरे! सोची हे भनि प्रानी १ । दुर्लभ नरभर मिला गुगुरुगम, सुन लो जिनवाणी || तीर्थ० ॥ ७ ॥ अन्तराय हो दूर आप हो, नित्र आम धन की हरि कीन्द्र जय यगे भगे, ज्योति ना जीवन की ॥ वी० ॥ ८ ॥
|
४६६
Page #462
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७०
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ काव्यस् ॥ लोकेपणाति तृष्णोदय वारणाय० ।
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने "अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ।
॥ द्वितीय चन्दन पूजा ।।
॥दोहा॥ जीवन चन्दन रूप हो, गुण सुगन्ध भर पूर । अपकारी उपकार कर, प्रभु पद पूज सनूर ॥१॥ चन्दन पूजा भावना, हरदम राखो आप। प्रभु पद तिलक विधालते, मिले मोक्षपद छाप ॥२॥ (तर्ज-कैसे कैसे अवसर में गुरु राखी लाज हमारी)
चन्दन पूजा करिये प्रभुकी, चन्दन पूजा करिये रे ॥ टेर ॥ जग वन्दन जिन चन्द चरण में, चन्दन पूजा करिये रे। कर्म निकन्दन द्वंद न रहते, आनन्द कन्द आदरिये रे ॥ चन्दन० ॥१॥ कर्म आठवां अन्तराय वह, होता पंच प्रकारा रे। निज में परमें और उभय में, होता है दुख भारा रे ॥ चन्दन० ॥२॥ अन्तराय देने पर पर को, उसके फल में भजना रे। अन्तराय फल निज को निश्चय, होता याते तजना रे ॥ चन्दन० ॥ ३॥ दान अगर देता हो कोई, उसमें रोक लगावे रे। तन से मन
Page #463
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा
४७१
f
से और वचन से, अन्तराप वह पावे रे || चन्दन० || ४ || कृपण कपीला दासी प्रातः, मुखदर्शन दुसयायी रे । नाम लियाँ रोटी रोजी में, हो जाता अन्तरायी रे || चन्दन० || ५ || अक्षय आवम गुण नहीं पावे, दान विधन करतारा रे । घाती करम अन्तराय निवारो, हो सुख अपरपारा रे || चन्दन० || ६ || प्रभुपद पूजा दान प्रसगे, अन्तराय कट जाता रे । सौभागी शुभनामी दानी, जग जिसका जग गाता रे || चन्दन० ॥ ७ ॥ आधि व्याधि उपाधि त्रिविध भव, पाप ताप नहीं होता रे । हरि कवीन्द्र प्रभु चन्दन पूजा, मिटे चार गति गोता रे || चन्दन० ॥ ८ ॥ ॥ काव्यम् ॥ पापोपताप शमनाय महद्गुणाय० । मन्त्र - ॐ दीं श्रीं अहं परमात्मने 'अन्तराय कर्म समृलोच्छेदाय श्रीपीर जिनेन्द्राय चन्दन यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
फूलों में रस हे भरा, फूलों भरी सुवास । फूलों से पूजो प्रभु, रस धासित हो सास ॥१॥ फूलों से कोमल अधिक, वज्र कठोर निशेष | अद्भुत जीवन फूल से, पूजो प्रभु हमेश ॥२॥
Page #464
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७२
वृहत् पूजा-संग्रह
( तर्ज - धन धन ऋषभदेव भगवान युगला धर्म निवारण वाले ) फूल से कोमल हैं भगवान्, हृदय करूणा रस भरने चाले । फूल से पूजो श्री भगवान, सुवासित चित को करनेवाले ॥ ढेर || प्रभु की पूजा लाभ अनन्त, लाभ अन्तराय का होता अन्त । अचिन्तन लाभ विषय भगवन्त, पूजो लाभ को लेनेवाले ॥ फू० ॥ १ ॥ नफा नित दीखे अपरंपार, टोटा लगता वारंवार । लाभ में अन्तराय । अधिकार, समझो लाभ को लेनेवाले || फू० || २ || दान से लाभ लाभ से दान, दोनों में है भाव प्रधान । विवेकी करलो अनुसन्धान, दान से लाभ को पानेवाले || फू० ||३|| अगर हो लाभ विधन का जोर, मिलती कहीं न उसको ठोर । बनते साहुकार भी चोर, करम चक्कर में आनेवाले ॥ फू० ॥ ४ ॥ जल थल नभ में काम अनेक, करलो होवे लाभ न नेक | सोचो कारण कौन विवेक, लाभ में लिप्सा रखनेवाले || फू० || ५ || देकर अन्तराय आनन्द, मानो तभी लाभ में फंड | होते होता है आक्रन्द, करम निश्चित फल देने वाले || ० || ६ || पाओ प्रभु पूजा का लाभ, जगती ज्योति है अभिताम । कहीं भी होता नहीं अलाभ, पुण्य फल हैं सुख देनेवाले || फू० ॥ ७ ॥ पुद्गल लामे
1
Page #465
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७३ रहो उदास, आतम लामे हो सुसराश । हरि कवीन्द्र पद अविनाश, सहज सुखसिद्धि पानेवाले ॥ ० ॥ ८॥
। काव्यम् ।। चञ्चत्सुपञ्चरर वर्ण विराजिमिः ।
मंत्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने "अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा ।
॥ चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥दोहा॥ उडे धुआं ज्यों धूप से, करम धुआं उडजाय । मोग किटाणु रूप में, रोग किटाणु नशाय ॥१॥ वायु मण्डल शुद्ध हो, मन पावन हो जाय । प्रभु की पूजा धूप से, करो सदा सुखदाय ॥२॥
(तर्ज-लक्ष्मी लीला पावे रे सुन्दर ) भोग रोग का मूल, भविक जन भोग रोग का मूल । यही अनादि भूल, भविक जन मोग रोग का मूल ।। टेर || प्रभु पूजा में भोग त्याग कर, योगी जन बन जावे। त्रिभुवन प्रभुता पूरण भावे, अध्यातम लय लावे ॥ भविफ० ॥१॥ एक चार उपयोग में आवे, सोही भोग कहावे। बार बार उपयोग में आवे, वह उपभोग
Page #466
--------------------------------------------------------------------------
________________
જ
वृहत् पूजा-संग्रह
लखावे ॥ भ० ॥ २ ॥ वर्ण गन्ध रस स्पर्श सभी ये,
,
।
पुद्गल गुण खासा | जब तक है संसारी जीवन, तब तक भोग की आशा ॥ भ० || ३ || खान पान रस भोग विघन से, अन्तराय बंध जाता । अन्तराय उदये मन वांछित, वस्तु जन नहीं पाता ॥ भ० ॥ ४ ॥ भोग के साधन सन्मुख होते, चाह हृदय में रहते । काम न होता होती अरुचि, परवशता दुख सहते || भ० ॥ ५ ॥ प्रभु पूजा अन्तराय निवारे, सुर नर सुख विस्तारे । सद्गुरु संग रंग अविनाशी, आत्म रमरणता धारे ॥ भ० ॥ ६ ॥ योग विधन प्रकृति कट जाती, योग निवृत्ति होते । आतम गुण रसणी गति उत्तम, मोती में मोती पोते ॥ भ० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र करो प्रभु पूजा, भोग विवन मिट जावे । आतम भोगी योगी जगमें, यश कीरति रति पावे ॥ भ० ॥ ८ ॥
sho
|| काव्यम् || स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० | मन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
Page #467
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७५ ॥ पंचम दीपक पूजा ।।
/ ॥दोहा॥ दीपर्क भावे दीपता, पूजो श्रीजिनराज । आतम गुण आसाद कर, पाओ सुखद स्वराज ॥१॥ रहन सहन उपभोग को, करदो प्रभु पद मेट । देता है पाता वही, यही नियम हे जेट ॥२॥ (तर्ज जाओ जाओ हे मेरे साधु रहो गुरु के संग)
फर दो कर दो प्रभु के चरणों मे उपभोगों का त्याग । भर दो भर दो अपने जीवन में परमातम अनुराग ॥ टेर ॥ जो देता है सो पाता है, हो जाता जग जेठ । बादल देखो उपर रहते, सागर देखो हेठ ॥ क० ॥१॥ उपमोक्ता उपमोग करें क्या १, साधन सीमित देस। इसीलिये झगड़े रगडे हैं, अन्तराय की रेख ॥ क० ॥२॥ सतोपी सुखिये रहते हैं, धरो हृदय सन्तोष । प्रभुपद पूजा में प्रकटेगा, बही भाव निर्दोष ।। क० ॥३॥ उपभोगों में फँसे देवता, दुख पाते भरपूर । अन्त समय छह महीने पहिले, मिट जाता है नूर ॥ क० ॥ ४ ॥ पुद्गल साधन उपमोगी की, सदा दुर्दशा जान । यहां वहां चारों गतियों मे, होता दुःख महान || क० | ५ || आतम गुण उप
Page #468
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७६
वृहत् पूजा-संग्रह भोगी निश्चय, हो जाता भगवान । प्रभु पूजा में पुद्गल त्यागो, पाओ आतम ज्ञान ॥ क० ॥ ६॥ भोग और उपभोगों से जो, रहते सदा उदास । जनम मरण कल्याण उन्हीं का, जगदीपक प्रकाश ॥क० ॥ ७॥ जग दोपक जिनदेव चरण में, दीपक पूजा एह । हरि कवीन्द्र परमातम ज्योति, दीपित होवे देह ॥ २० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ सम्पूर्ण सिद्धि शिव मार्ग सुदर्शनाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने अन्तराय कर्म समूलोच्छदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय दीपकं यजामहे स्वाहा ।
॥ षष्ठम अक्षत पूजा ॥
॥दोहा॥ अक्षत स्वस्तिक साधना, चार गति दे चूर । रत्न त्रय विस्तार से, हो शिव सुख भरपूर ॥१॥ अक्षत पद प्रभु पूजते, वीर्य विधन हो दूर।
सरल समुज्जवल भावसे, चमके आतम नूर ॥२॥ (तर्ज-सुणो चन्दाजी सीमन्धर परमातम पासे जावजो) ___ हो आतमजी परमातम पूजा नित कीजै भाव से ॥ टेर ॥ जो है अक्षत पद अविनाशी, शाश्वत सुख शिवपुर
Page #469
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७७ के वासी। हो कर अक्षतपद अभिलापी ॥ हो आतमजी० ॥१॥ कर पूज्यों की पूजा भक्ति, विकसित होती आतम शक्ति। फिर दर नहीं रहती मुक्ति ।। हो आतमजी० ॥२॥ शक्तित गुण अपना है जानो, अन्तराय लगा उस पर मानो ! भडारी जैसा पहिचानो । हो आतमजी० ॥३॥ प्रभु भक्ति शक्ति आचरना, क्षायिक भावे क्रम अनुसरना । शक्ति अनन्त अपनी वरना । हो आतमजी० ॥ ४ ॥ विषयों में शक्ति श्रोत बहा, जड में जड सा हो जीव रहा । इससे दुख पाया अरे महा ।। हो आतमजी० ॥५॥ परमातम भक्ति शक्ति लगे, कर्मों की सेना दूर भगे। अक्षत गुण परिणति सहज जगे। हो आतमजी० ॥६॥ हो सरल समुज्ज्वल भाव भरे, अक्षत गुण आतम में उभरे। आतम परमातम हो विचरे ॥ हो आवमजी० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र पुरुषारथ योगी, वीर्यान्तराय क्ष्य अनुयोगी । आतम होता आतम भोगी । हो आतमजी० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ कृत्वाऽक्षतैः सुपरिणाम गुणैः प्रशस्तं० ।
मन्त्र-ॐ ह्रीं श्रीं अहं परमात्मने 'अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा ।
Page #470
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७८
वृहत् पूजा-संग्रह ॥ सप्तम नैवेद्य पूजा ॥
॥दोहा॥ अमृत गुण नैवेद्य से, पूजो परम दयाल । आतम अमृत रस मिले, मिटे भूख जंजाल ॥१॥ भूखा सब संसार है, भूख भरा है दुःख । भूख मिटे भगवान से, भजो मिटे भव भूख ।।२।।
(तर्ज-अपनी करणी के फल सव पाया०) मिट जाय भरम, कट जाय करम अन्तराया। पूजो नैवेद्य से जिनराया। मिट जाय० ॥ टेर ॥ दान लाम भोग उपभोगी, वीर्य लब्धि पंच उपयोगी। जीव गुण हैं ये खास, घाती कर्मों के पाश दुखपाया ॥ पूजो० ॥ १ ॥ जीव गुण ये जड़गत होते, अतएव जीव खाता गोते । भटका चौरासी लाख, रही नहीं कोई साख भरमाया ॥ पू० ॥ २ ॥ ध्रुव बन्धी ध्रुवोदयी जानो, ध्रुवसत्ता को पहिचानो। देशघाती ये पंच, इनका भारी प्रपंच समझाया ॥ पू० ॥ ३ ॥ पांचों अन्तराय ये हैं पाप, अपरावर्तमान की छाप । जीव में हो विशाक, जैसे आमोंमें आक उपजाया ॥ पू०॥४॥ प्रकृति स्थिति रस ओ प्रदेशे, वन्ध चउविध बहुविध वेशे। सोचो कर्म विपाक, तोड़ो
Page #471
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७६ ताक ताक कर उपाया ॥ पू० ॥५॥ सागर कोडा कोडी तीस, बन्ध उत्कृष्ट कहे जगदीश । गुरुगम आगम सार, कर विवेक विचार हो अमाया ॥ पू० ॥६॥ दश गुणठाणा तक बन्धे, सत्तोदय बारह सन्धे । अन्त क्षायिक भाष, पुरुषार्थ प्रभाव जो जमाया ॥ पू० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र अन्तराय तोडो, आतम से आत्म जोडो। लन्धि पच प्रयोग, भम भाव वियोग सुख पाया | पू० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ प्राज्याज्य निर्मित सुधा मधुर प्रचारैः । ___ मन्त्र-ॐ ही श्री अहं परमात्मने । अन्तराय कर्म समूलोच्छेदाय श्री वीर जिनेन्द्राय नैवेद्य यजामहे स्वाहा ।
|| अष्टम फल पूजा ॥
॥दोहा॥ निज पूरन कृत करम फल, दुख भी हो सुख रूप । फल पूजा प्रभु की करो, फल मत चाहो चूप ॥१॥ प्रभु पूजा फल की कथा, कौन कहे विचार । यहां वहां चारों तरफ, हो सुख अपरंपार |॥ २॥ (वर्ज-मत मान परो अपमान करो जीवन जल वह जायगा)
प्रभु पूजा करो, प्रभु पूजा करो, आया विघन मिट
Page #472
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८०
वृहत् पूजा-संग्रह जायणा ॥ टेर ॥ साधु सताये जीव दुखाये, दुनिया में झूठे जाल रचाये । घोर विधन बन जायगा ॥ हां प्रभु० ॥१॥ हँस हँस के बांधेकरमों की बाधा। होगी उदय जब काल अबाधा । रोने से छूट नहीं जायगा ॥ हां प्रभु० ॥ २॥ हिंसा तजो तजो झूठ ओ चोरी, विषय तजो तजो ममता की मोरी । जीवन सफल हो जायगा ॥ हां प्रभु० ॥ ३ ॥ कुमति कुटिल हुसंग न करना, ज्ञानी गुरु सुतसंग विचरना। जीवन जंग जीत जायगा ॥ हां प्रभु० ॥ ४ ॥ अन्तराय यह कर्म अनादि, परंपरा हरे आतम आजादी। दर्शन करो हट जायगा । हां प्रभु० ॥ ५॥ प्रभु दर्शन दूर आप भगाता, प्रभु वन्दन वर वांछित विधाता। पूजन शिवफल पायगा ॥ हां प्रभु० ॥ ६ ॥ सुखों के सागर भगवान स्वामी, हरि पूज्य प्रभु अन्तरयामी । कर पूजा तु पूज्य बन जायगा ॥ हां प्रभु० ॥ ७ ॥ दिव्य कवीन्द्र प्रभु चरण शरण से, मुक्ति मिलेगी जन्म मरण से। परमात्म पद प्रकटायगा ॥ हां प्रभु० ॥८॥
॥ काव्यम् ।। पीयूष पेशल रसोत्तम भावपूर्णैः ।
मन्त्र-ॐ हीं श्रीं अहं परमात्मने 'अन्तराय कर्म समृलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा ।
Page #473
--------------------------------------------------------------------------
________________
अन्तराय कर्म निवारण पूना
कलश ॥
॥दोहा ।। समय समय में होत है, सात करम का बन्ध । आयु सहित हो आठ का, बन्ध दुःख अनुबन्ध ॥१॥ आठ करम कटते प्रकट, आतम गुण हो आठ । कर्म चूर तप कर वरो, आठ सिद्धि के ठाठ ॥२॥ (तर्जगायो गायो रे, महावीर जिनेश्वर गायो)
पायो पायो रे, धन 'शाशन जैन सपायो । टेर ।। शासनपति श्रीवीर जिनेश्वर, श्रीमुख से फरमायो । कर्म निवारण आत्म आठ गुण, यथाशक्ति तप ठायो रे ॥धन० ॥१॥प्रवचन सारोद्धार आचारे, सुविहित विधि समझायो । तप उद्यापन उत्सव पूजा, प्रमावना मन लायो रे ।। धन० ॥२॥ खरतर गण नायक सुस सागर, श्रीभगवान सुहायो। जिनहरिसागर सद्गुरु शरणे, गुरुगम गोध बढायो रे ॥ धन० ॥ ३ ॥ वर्तमान जिनभानन्दसागर, परीघर सुखदायो । आज्ञा रंगे भाव उमगे, परमातम गुण गायो रे ॥ धन० । ४ ॥ पास फलोदी गुरु' तीरथ में चौमासो घिर ठायो। दो हजार
Page #474
--------------------------------------------------------------------------
________________ 482 - वृहत् पूजा संग्रह तेरह संवत में, काती पुनम लय लायो रे // धन० // 5 // सद्गुरु प्रस्थापित विद्यालय, विद्यारथि समुदायो / कर्म निवारक प्रभु गुण पूजा, पारस रस वरसायो रे // धन० / 6 // आतम भाव प्रधान निरूपण, सहज समाधि उपायो। कर्म आठ धन काठ जला कर, आठ परम गुण पायोरे / धन० // 7 // पाठक दिव्य कवीन्द्र निजातम, बोध बुद्धि हित गायो। परमातम पद पूजा गाते, अजर अमर पद पायो रे // धन० // 8 //