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[ ५३ ] ॥ श्री साधुपद काव्यम् ॥ संतेय दंते य सुगुत्ति गुत्ते, मुत्ते पसंते गुण जोग जुत्ते । गप्प माए हय मोह माए, गाएह निच्चं मुणिराय पाए ।४ ॥ काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्करं, जगति जंतु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥ ५
मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा-मृत्यु निनारणाय, श्रीसाधुपदे पंचामृतं, चंदन- पुष्पं- धूप-दीपं अक्षतान् नैवैद्य - फलं वस - वास यजामहे
स्वाहा ।
॥ अथ पष्ठी श्रासम्यग् दर्शनपद पूजा || ॥ दोहा ॥ जिनवर भाषित शुद्ध नय, तत्त्व वणी परतात ते सम्यक दर्शन सदा, आदरिये शुभ रीत ॥ १ ॥
|| कान्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
जिणुत्त तत्ते रुइ लक्खणस्स, नमो नमो निम्मल दसणस्स । मिच्छत्त नासाह समुग्गमस्स, मूलस्स सद्धम्म महादुमस्म । १