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नाम कर्म निवारण पूजा
४४६ करते, और बीच में जीव जो मरते । अपर्याप्त विशेप कहाचे ॥ धूप० ॥ ४ ॥ जीव अनन्ते एक शरीरे, साधारण तरू जाति कही रे। नाम करम नवरूप दिखावे ॥ धूप० ।। ५ ॥ स्थिर नहीं होते अंग उपांगा, अथिर नाम का यही अडंगा । पुण्य योग थिर रूप उपावे ॥ धूप० ॥ ६ ॥ पाप रूप जो होता अशुभ है, ठीक लगे ना वह दुर्भग है। दुःस्वर स्वर जिसका न सुहावे ॥धूप० ॥७॥ वचन अमान्य अनादेय नामा, अपजश कारण हो दुख धामा । हरि कवीन्द्र न जो प्रभु ध्यावे ॥ धूप० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ॥ स्फूर्जत्सुगन्ध विधिनोर्ध्वगति प्रयाणे० ।
मन्त्र -ॐ हीं श्रीं अर्ह परमात्मने "नाम कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय धूपं यजामहे स्वाहा ।
॥ पंचम दीपक पूजा ॥
॥दोहा॥ दीपक से प्रभु पूजते, दीपक गुण अभिराम । आतम हो परमातमा, पूजो करो प्रणाम ॥१॥ जहां पात्र तपता नही, स्नेह न होता नाश । वृत्ति जहां जलती नही, आतम दीप उजास ॥२॥ ,