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सतरहभेदी-पूजा ॥ राग ललित ॥
॥दोहा॥ करहुं विलेपन मुससदन, श्रीजिनचन्द शरीर । तिलक नवे अंग पूजता, लहे भवोदधि तीर । मिटे ताप तसु देहको, परम शिशिरता सग । चित्त खेद सवि उपसमे, सुखमें समरसी रंग ।।
॥ राग बिलावल || विलेपन कीजे जिनपर अंगे ; जिनवर अंग सुगधे ॥वि०॥ कुंकुम चन्दन मृगमद यक्षकई म, अगरमिश्रित मनरंगे ॥ वि० ॥ १॥ पग जान कर संधे सिर, भालकण्ठ उर उदरंतर सगे। विलुपति अघ मेरो करत विलेपन, तपत बुमति जिम अगे ॥ वि० ॥२ ॥ नव अग ना नव तिलक करत ही, मिलत नवे निधि चंगे। कह साधु तनु शुचि, करो सुललित पूजा जैसे गगतरगे || वि० ॥ ३ ॥
॥ तृतीय वस्त्रयुगल पूजा ॥
॥दोहा॥ वसनयुगल उज्वल निमल, आरोपे जिण अग। लाम जान दर्शन लहे, पूजा तृतीय प्रसग ॥