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वृहत् पूजा-संग्रह
जलघर समो, वलि समकित वृन्द विनाश ए ॥ व० ॥ १ ॥ हां हो रे वाला, कनक रजत मणि धातुनो, जल, थल खज पशु पटकूल ए ॥ ज० ॥ हां हो० इम तनु थूल जगत भस्या, लही सकल पदारथ मूल ए || ल० ॥ २ ॥ हां हो० कुमति दुरति रमणी तणो, छे सदन ए चोरीनो कर्म ए ॥ छे० ॥ हां हो० विपद जलधि पिण जाणिये, सचपल थह नाशे धर्म ए ॥ स० ॥ ३ ॥ हां हो० ए व्रतः सुरतरु सारिखो, शिवसुख फल देन उदार ए ॥ शि० ॥ हां हो० ॥ कुशल कला युत कीजिये, लहीये भवजलनो
पार ए ॥ ल० ॥ ४ ॥
॥ दोहा ॥ पूज चतुर्थी मालनी, करिये भक्ति वसेण । मोह तिमिर भर उपसमे, प्रगटे बोध खिणेण ॥
॥ राग खंभायची ||
( तर्ज - भव भय हरणा, शिव सुख करणा, सदा भजो ) भविजन पूजो जिन ग्रीवा धरी, वर फूलन की माला, मैं वारी जाउं व० ॥ ए पूजन दुरगति घर छेदी, विरचे शिव सुख शाला || मैं वा० विर० भवि० ॥ १ ॥