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वृहत् पूजा-संग्रह भक्तात्मा परिढोकयेद्र चिपरः सोधनजनाशयेत् । भित्ते दुर्गति भूधरंच लभते स्वर्गादि मोक्षाश्रयं ॥२॥
ॐ ह्रीं श्रीपर० भोगोपभोग व्रत उपदेशकाय अष्टमंगलं यजामहे स्वाहा ॥ ॥ नवम भनर्थदंड विरमण व्रत अक्षत पूजा !
॥दोहा॥ भवि ए व्रत अष्टम धरो, अनरथदंड विचार । पाप चिरंतन उपशमे, प्रगटे पुण्य प्रचार ।।
॥ ढाल || (तर्ज-सगुन सनेही साजन श्रीसीमंधरस्वाम)
त्रिकरण शुद्ध निसुण भवि अनरथ दंड विचार, समकित सुभटनो गंजन भंजन संवर द्वार। मनमथ बोध विकाशक शास्त्र पठन अधिकार, मुख भ्र हग तनुथी करे, भंड कुचेष्टा-गार ॥ १॥ हास्य थकी बलि कुवचन भाषण मुखर प्रबंध, ऊखल मूसल घरटादय अति धरण दुरंध, स्नान समे जल तेल अधिकतर अप्रति-बंध,* विन कारण ॐ इसके बाद रत्नसार में यह पाठ है :पाप विधाना देश प्रकाशन दूपण खंध। सरस वस्तु धृत पात्र मात्र विन छादन ठान । धरण करण सुविवेक विकल तिम दाना दान ।