________________
४०६
वृहत् पूजा-संग्रह योगते साता बंधे, बन्धे पाप असात ॥ पू० ॥ १ ॥ छ8 गुण ठाने तक होता, सात असाता बन्ध । उपर में तेरह तक होता, केवल साता बन्ध ॥ पू० ॥ २ ॥ तेरहवें गुण ठाणे तक हो, उदय असाता सात । साता प्रकृति उदय आयोगी, शुण ठाणे विख्यात ॥ पू० ॥ ३ ॥ उदीरणा दोनों की होती, तक छडा गुण ठाण | साडी तेरह तक दो सत्ता, साता अंत मुजाण ।। पू० ॥ ४ ॥ तेरहवें गुण ठान परीपह, ग्यारह रूप असात। पर साता कर वेदें प्रभुजी, यह शासन की बात ॥ पू० ॥ ५ ॥ दुख को सुख में बदल सके यह, श्रीजिन शासन सार । गोवर को गुड़ कर देले की, शक्ति विशद विचार ॥ पू० ॥६॥ वनी विगाड़ें बात अज्ञानी, उनका उलटा दंग। विगड़ी बात बनार्वे ज्ञानी, करो सदा सतसंग ॥ पूजो० ॥ ७ ॥ दुख में परम सहायक होता, जिन दर्शन दृग रंग । हरि कवीन्द्र पाकर के उसको, जीतो जीवन जंग ॥ पू० ॥ ८ ॥
।। काव्यम् ॥ चञ्चत्सुपञ्च वर वर्ण विराजिभिः । · मन्त्र-ॐ हीं अर्ह परमात्मने वेदनीय - कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीरजिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।