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वेदनीय कर्म निवारण पूजा ४०५ आचारांगे पर हिंसा को, अपनी ही कही। हिंसक को होता दुःख विपाके, देसो गह गही ।। प्र० ॥६॥ भाव अहिंसक प्रभु पूजा में, होता है सही । आतम परमातम रूप समझ में, आता है यही || प्र० ॥७॥ हरि कवीन्द्र नित नित आराधो, पूजा पुण्य मही। कर द्रव्य भाव से पूज्य बनोगे, मिथ्या है नहीं ॥ प्र० ॥ ८॥
॥ काव्यम् ।। पापोपताप शमनाय महद्गुणाय० ।
मन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने "वेदनीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दन यजामहे स्वाहा ।
॥ तृतीय पुष्प पूजा ॥
॥दोहा॥ फूलों से पूजा करो, फूले जीवन वेल । गुण सौरभ की हो यहां, भारी रेल पेल ॥१॥ प्रम चरणों में फुलसा, जीवन अर्पण आप । कर दें भर दें पुण्यसे, हो न पाप सन्ताप ॥२॥ (तर्ज-जाओ जाओ अय मेरे साधु रहो गुरु के संग)
पूजो पूजो प्रभु फूल विकासे, होता आत्म विकास । पुण्य प्रकाश अविनाशी पद की, प्रकटेगी सुख राश टेर।। शिव में भर में सुख होता है, वेदनी कर्म अधात । पुण्य