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वेदनीय, कर्म, निवारण, पूजा
॥ चतुर्थ धूप पूजा
॥ दोहा ॥
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खेवें . धूप- दशाङ्गको, हरे हृदय दुर्गन्ध ।
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1 वायु मण्डल शुद्धिसे, भगे पापं प्रतिबन्ध ॥ १ ॥
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पूजा धूप विशेषको करते पुण्य प्रसंग ।
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प्रभु महिमा से आत्मा, परिचित हो हढरंग ||२|| (तर्ज-जाग जाग तू प्रभात काल भयो भ्रातरे ) करम करम से कटे मिटे सभी विकार रे । धूप धूम धार धार, प्रभु से सार रे ॥ धू०] || || प्रभु सेव आतमा, निमित्त चित्त धार रे । कर्त्ता कर्म : कारकों में, आतमा उतार रे || धू० || १ || प्रवाह से अनादि मे कर्म जाल फैल रहा दुःख महा, दे रहा कराल रे ॥ धू० ॥ २ ॥ कर विवेक नेक चेत, चेत आत्मा
काल, आतमा
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अचेत ! | सेत गधे खा रहे तू सोच हो सचेत रे ॥ धू०
॥ ३ ॥ वेदनीय है आघात, किन्तु घास कर्म वात ।
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अधिक अधिक होय जात, पेच नहीं आत रे ॥ धू० ||४|| तीस कोडा कोडि बन्ध, सागर उत्कृष्ट धन्ध | अन्ध भाप हो रहा है, वेदनी सम्बन्ध के || धू० ॥ ५ ॥ प्रभु चरण शरण पाय, आचरण शुद्ध ठाय । हो अमाय कुप