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॥ ढाल रूपातीत स्वभाव जे, केवल दसण नाणी रे। ते ध्यावा निज आतमा, होये सिद्ध गुण खाणी रे ॥१॥
॥ वीर जिनेसर उपदेशे।
॥ श्री सिद्धपद काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥ दुछुट्टकम्भावरण पमुक्के, अनंतनाणाइ सिरि चउक्के । सम्मग लोयग्ग पयप्प सिद्ध, माएह निच्चपि समत्त सिद्ध।
॥ काव्यम् द्र तविलंबित वृत्तम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर,
__ जगति जन्तु महोदय कारणम् । जिनवर बहुमान जलौघता,
शुचि मनाः स्नपयामि विशुद्धये ॥२॥ मत्र-ॐ ही अहं परमात्मने, अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये, जन्म-जरा - मृत्यु - निवारणाय, श्रीसिद्धाय, पंचामृतंचन्दन-पुष्प-धूप-दीपं-अक्षतान् - नैवेद्य - फलं - वस्त्रं-वासं
तापमाना।