________________
[ ४४ ]
॥ तृतीया श्रीआचार्यपद पूजा || ॥ दोहा ॥ हिव आचारिज पद तणी, पूजा करो विशेष । सोह तिमिर दूरे हरे, सूके भाव अशेष || १ || ॥ काव्यम् इन्द्रवज्रावृत्तम् ॥
सुरीण दूरी कय कुग्गहाणं, णमो णमो सूर समप्पहाणं । सद्द सणादाण समायराणं, अखंड छत्तीस गुणायराणं ॥ १ ॥ ॥ भुजंग प्रयातवृत्तम् ॥
नमू' सूरि राजा सदा तत्व ताजा,
षड्वर्ग वर्गित
जिके पंच आचार पाले सुभावे,
जिनेन्द्रागमे प्रौढ़ साम्राज्य भाजा । गुणेशोभमाना,
पंचाचारने पालवे सावधाना ॥१॥
अनित्यादि सद्भावना नित्य भावे ।
जिनेन्द्रागमे ज्ञान दाने सुरता,
बहुभव्य में जे रहे अप्रमत्ता ॥ २ ॥ छतीसे गुणे दीपमाना गणेशा, सदा
शासनाधारभूता सुलेशा ।