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[ ४५ ] बहुभन्यलोका सुमार्गेनयंता,
हुजोरि मुख्या सदा तेजवन्ता ॥३॥ भवि प्राणीने देशना देश काले,
सदा अप्रमत्ता यथा सूत्र आले ॥ जिक शासनाधार दिग्दन्तिकल्पा,
___ जगत्ते चिरंजीवजो शुद्ध जल्पा ||४||
॥ ढाल उल्लालानी देशी ॥ आचारज मुनिपति गणी, गुण छत्तीसे धामोजी ॥ चिदानन्द रस स्वादता, परमावे निःकामोजी आचा० १॥
॥ उल्लालो॥ निकाम निर्मल शुद्ध चिद्घन, साध्य निजनिरधार थी। निज ज्ञान दर्शन चरणवीरज, साधना व्यापार थी। भवि जीवबोधक तत्वशोधक, सयल गुण सपति धरा । संवर समाधि गत उपाधि, दुविध तप गुण आगरा ॥२॥
॥ पूजा-ढाल ॥ श्रीपालनारासनी-देशी ॥ पंच आचार जे बधा पाले, मारग भासे साचो । ते आचारज नमिये तेशु, प्रेम करीने जाचो रे भविका०१