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[ ४६ ] वर छत्रीश गुणे करी सोहे, युगप्रधान जग मोहे ॥ जग बोहे ना रहे खिण कोहे, सूरि नमूं ते जोहेरे ॥भ०२॥ नित्य अप्रमत्त धर्म उचएसे, नहिं विकथा न कपाय ।। जेहने ते आचारजनमिये, अकलुप अमल अमाय रे ॥भ०३ : जे दिये सारण वारण चोयण, पडिचोयन वली जनने ।। पटधारी गच्छथंम आचारज, ते मान्या मुनिमनने रे ।भ०४ अत्थमिये जिन सूरज केवल, चंदे ते जग दीवो ॥ भुवन पदारथ प्रकटन पटुते, आचारज जिरंजीवो रे भ०५॥
॥ ढाल॥ ध्याता आचारज भला, महामंत्र शुभ ध्यानी रे। पंच प्रस्थाने आतमा. आचारज होय प्राणी रे॥ वीर० ॥
॥ श्री आचार्यपद काव्यम् ॥ णं तं सुहं देइ पियाणमाया, जेदिति जीवाणिह सूरीस पाथा। तुम्हाहुते चेव सया सहेह, जमुक्ख सुक्खाई लहुँ लहेह ॥१
काव्यम् ॥ विमल केवल भासन भास्कर, जगति जंतु महोदय कारणम् । जिनवरं बहुमान जलौघतः, शुचिमनाः स्नपयामि विशुद्धये।२