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पंच ज्ञान पूजा तरा। अंग इग्यारमें जिनवर दासे, कर्मविपाक विविध परा ॥नि०॥६॥ वारमो अग जिणंद बसाणे, अतिशय गुण विद्याधरा । अक्षर श्रुत बलि सन्नी कहिये, सम्यक् भेद अधिकतरा ॥ नि० ॥ १० ॥ सादि भेद सपरजव लहिये, गम्यक् मेद सुणो नरा । अंग प्रविष्ट कहे जिनवरजी, मेद चवद सुणजो सरा ॥ नि० ॥११॥ इम जो श्रीश्रुतज्ञान आराधे, भाव भगत कर नहु परा, सुमति कहे गुरु ज्ञान आराधो, पछितपूरण सुरतरा ॥ नि० ॥ १२ ॥ ॐ हीं श्री पर० श्रीश्रुतज्ञानधारकेभ्यः अष्टद्रव्य यजामहे स्वाहा ॥ ॥ तृतीय अवधिज्ञान पूजा ||
॥दोहा॥ अगर सेल्हारस धूपसे, पूजोअवधि उदार । वोध वीज निरमल हुवे, प्रगटे सुक्ख अपार ॥ नवल नगीने सारसो, ज्ञान बडो संसार । सुरनर-पूजे भावसु, महियल ज्ञान उदार ॥
॥ ढाल॥ (तर्जे-निरमल हुय भजले प्रभु प्यारा, सब संसार) अवधिज्ञानको पूजन कर ले, ज्यू पावो भवपार सलूणा ॥ १०॥ ज्ञान बडो सख देण जातो. लपगारी सिरदार