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। प्रस्तावना
जैनागों में निक्षेपा सत्य माना गया है और इसी कारण स्थापना निक्षेपा की सत्यता स्वीकार करते हुए जिनप्रतिमा के समक्ष धूप खेने के 'घूव दाउणं जिनवराण' शास्त्र पाठ द्वारा जिन प्रतिमा जिन सारसी होना स्वयं सिद्ध है। जैनागमों मे स्थानस्थान पर जिन प्रतिमा को अनादिकाल से शाश्वत माना गया है और उसकी पूजन पद्धति भी देवों में, मनुष्यों में प्रचलित होने के प्रमाण शास्त्र सम्मत हैं। शाश्वत-अशाश्वत तीर्थों का वन्दन पूजन शास्त्र विहित है। चतुर्विधसंघ को जिन प्रतिमा के वंदनपूजन की स्पष्ट आज्ञा ही नहीं अपितु साधु लोगों के लिए जिनवदनार्थ मंदिरों में जाना अनिवार्य है और न जाने पर महानिशीयसूत्र मे दण्डनीय माना है। हाँ साधु के लिए सावध योग का त्याग होने से वह केवल भाष पूजा का अधिकारी है और श्रावक सागारधर्मी होने से द्रव्य और भाव दोनों प्रकार का पूजन करने की उसे उन्मुक्त आज्ञा है। वर्तमान में महाविदेह में फेवली अवस्था में विचरने पाले भगवान श्री देवचन्द्रजी महाराज ने जिन पूजा और श्रावकों के भक्तिभाव की स्पष्ट अनुमोदना की है।
मूल जैनागमों में अष्टप्रकारी-सतरह प्रकारी आदि पृजाओं का विधान है और इसी पुष्टावलम्बन से रावण आदि ने तीर्थ