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वृहत् पूजा-संग्रह रन जावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ ५ ॥ दर्शन रोधक प्रकृति दूर हटावे रे, नर चतुर सुजान । मंजुल महिमा गुण सौरभ उपजावे रे, सुजान ॥ प्र० ॥ ६॥ ध्रुव वन्धी ध्रुव उदयी ध्रुव सत्ता की रे नर चतुर सुजान । देश सरव घाती का घात करावे रे, सुजान || प्र० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु चरणे कुसुम चढ़ावे रे, नर चतुर सुजान । कुसुम विकासी आतम भाव बढ़ावे रे, सुजान ।। प्र० ॥८॥
॥ काव्यम् ।। चंचत्सुपंचास्वर्णविराजिभित्र० सन्त्र-ॐ हीं अहं परमात्मने दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
॥ चतुर्थ धूप पूजा ॥
॥ दोहा ॥ काल अनादि नींद का, आतम को है रोग। प्रभुपद धूप विधान हो, जागृत जीवन योग ॥१॥ धूप ऊर्ध्वगति को करे, अर्ध्वगमन अधिकार । प्रभु पद में वर धूप कर, चलो चारगति पार ||२|| (तर्ज-पूजो पार्श्वनाथ भगवान शरण सुख कारणा रे)
पूजो प्रभुपद धूप सुगन्ध, उर्च गति कारणारे । प्रकटे निजगुण भाव निरोग, परम सुख कारणारे ।। टेर ॥ आतम