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बृहत् पूजा-संग्रह ॥ राम गरखो || (तर्ज-सुण चतुर सुजाण, परनारी सुप्रीति कबहु नहीं कीजिये ) सुनिसुव्रत जिनेन्द्र सुनिजर घरी मुझपर वर दर्शन दीजिये । प्रभु दरश प्रीति निरुपाधिकता, करिये लहिये शिव साधकता | तब तुरत मिटे शिव बाधकता ॥ ० ॥१॥ अमृत में साध्य पणो विलसे, प्रभु दर्शन साधनता उलसे । तद् मुझने साधकता मिलसे ॥ मु० ॥ २ ॥ भिन्नाधि करणता यदि विघटे, एकाधिकरणता यदि सुघटे । तद् मुझे शिव साधकता प्रगटे || सु० ॥ ३ ॥ एकाधिकरणता मुझ करिये भिन्नाधिकरणता परिहरिये । शिवचन्द्र विमल पद वरिये ॥ सु० ॥ ४ ॥
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॥ काव्य ॥
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमतमुनिसुव्रत जिने० ॥
॥ एकविंशति श्रीनमि जिन पूजा || ॥ दोहा ॥
अंतर वैरी नमाविया, तब लहियुं नमि नाम | भविजन-ए प्रभु - पूजर्से, खरीये चंछित काम ॥