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वृहन् पूजा संग्रह
भयो भवि कुमुद विमवा, वर गुण रयण समंदो रे ॥
भवि० ॥
२ ॥ यदि भव बंध हरण भवि चाहो, प्रभु चंदो घन मय रूपी, नित चंदव
चिरनंदो | विमल चिदानंद शिवचन्दो रे || भवि० ॥ ३ ॥
॥ काव्य ||
सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्री सत्वमल जिने० || ॥ चतुर्दश श्री अनंत जिन पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
हिव चवदम जिन पूजता हरिये विषय विकार । सो भवियण सुणिये सदा, ए प्रभु सरणाधार ॥ || ढाल भैरवी ॥
(तर्ज - पंचवर्णी अंगी रची० )
पूज करणी प्रभुनी दुरित निवारो । दुरित० ॥ पू० ॥ अनंत तरणि हिस किरण तरुण तर, किरण निकर जीता है भारी । अनंत नाणवर दर्शन तेजे, प्रभु सुयशोदर है अवतारी ॥ पू० ॥ १ ॥ लोकालोक अनंत द्रव्य गुण, पर्याय प्रकट करण हारी । तातें अन्य युत जिन धरियो, अनंत नाम अति मनुहारी ॥ पू० ||२|| सिंहसेन नृप नंदन वंदन करते इन्द्रचन्द्र सुखकारी । '