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वृहत् पूजा संग्रह नगर पथि शबर सरिखो, अरति व्यापन घोलरे ॥ वाल्हा अर० सु० ॥ २ ॥ निपट कूट कलाप करिने, पर गुप्त मत खोल रे । ऋण विधौ धन धान्य निकरे, कपट कूट न तोल रे ॥ वाल्हा कप० सु० ॥ ३ ॥ कूट लेख कुशाख भरिने, रचय मा डमडोल रे। अन्य शिरसि कलंक धरिने, चरित छांनु न बोल रे। वाल्हा चरि० सु० ॥४॥ वसुनरेसर वृथा रचिने, लह्यो कुगति कचोल रे। द्वितीय व्रत रस राग भाखी, कुशलसार विमोल रे ॥ वाल्हा कु० सु० ॥५॥
॥दोहा॥ जगदाधार जिनेन्द्रने, पूजो वास रसेण । शिव वनिता वस कीजिये, पूजा त्रयतमएण ॥
॥ राग गरयो॥ (तर्ज-भवि चतुरसुजाण परनारीखें, प्रीतड़ी कबहु न कीजिये ) ___ भवि भाव घरी भव सागर निसतारक जिन पति सेवीये ॥ भवि० ॥ टेर॥ बावनचन्दन खंडन करिये, तेहमा वलि कुङ्कम रस भरिये, मृगमद परिमलता अनुसरिये ॥ भ० ॥ १॥ कंकोल सुवासित वलि कीजे, तिम विविध