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बारह व्रत पूजा
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धारो, हिंसा कुदोष वारो, प्रभु नाम ना विसारो
|| हो ता० ॥४॥ तज पाप भार फंदा, शिवशंकलाप कदा,
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साधे कपूरचंदा || हो ता० ॥ ५ ॥
॥ काव्य ॥
अमल कुकुम केशर मिश्रितैश्चति यो घनसार सुचन्दनैः । जिनपतेर्युग पादसमर्चनं, स हरते भवदाघम सवरम् ॥ ॐ ह्रीं श्रीपरमा० प्राणातिपात विरमणत्रत ग्रहणाय चदनं यजामहे स्वाहा |
तृतीय मृषावादविरमण व्रत वासक्षेप पूजा ॥ दोहा ॥
मृपात्याग व्रत दूसरो, कुमति दुरवि हरतार |
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भविजन भावे आदरो, शिवतरु फल दातार ॥
वसन्त ॥
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॥ राग वसन्त
(तर्ज- सब अरति मथन मुदार धूपं )
सुण भविक नर धर ' दुतियं व्रत मन, मृषावाद न
बोल रे, वाल्दा मृषा० ॥ टेर ॥ मृपावाद कुवाद शेखर, कुजसवाद न ढोल रे, 'वाल्हा कुज० सु० ॥ १ ॥ सकल शिनशख धामधरवि, ढकण राह निटोल रे । शिवपुर
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