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वृहत् पूजा-संग्रह से, कर्म बना प्रतिहारा मैं वारिजाउ कर्मः । दर्शन रोक लगाता हरदम, जीवन होता खारा मैं वारिजाउं जीवन० ॥ ५० ॥ ३ ॥ सत्ता बन्ध उदय होते हो, दर्शन का न सहारा मैं वारिजा दर्शन० । जड़ अभिमुख पाता जन जीवन, चारगति संसारा मैं वारिजाउं चार० ॥ प्र० ॥४॥ चक्षु अचक्षु अवधि केवल, दर्शनचार प्रकारा मैं चारिजाउं दर्शन० । आवरणे नहीं हो पाता है, दर्शन दिव्य विचारा मैं वारिजाउं दर्शन० ॥ प्र० ॥ ५ ॥ बहिरातम रहता है आतम, भूलभुलैयाकारा मैं बारिजाउं भूल भुलैया० । अंतर आतम फिर परमातम, पद न मिले अधिकारा मैं वारिजाउं पद० ॥ १० ॥६॥ पुण्योदय से दुर्गति हटते, सुर नर भव अवतारा मैं वारिजाउ सुर० । सद्गुरुगम प्रभु दर्शन पायो, चार निक्षेप प्रकारा मैं वारिजाउं चार० ॥ प्र०॥७॥ स्पाद्वाद सुन्दर प्रक्षु दर्शन, त्रिभुवन तारणहारा मैं चारिजाउंत्रिभुवन । पाया हरि कवीन्द्र गुण कीर्तन, गाया जय जयकारा मैं वारिजाउंगाया० ॥ ८ ॥
॥ काव्यम् ॥ पापोपतापशमनाय सहद्गुणाय०
मन्त्र-ॐ हीं अह परमात्मने "दर्शनावरणीय कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय चन्दनं यजामहे स्वाहा ।