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वीसस्थानक पूजा
१३७ हगुनवीस पदमे भजो, जिनवर श्रुतनी भक्ति। इनपद बदनसे लहे, विमलनाण युक्त भुक्ति ॥
ढाल (तर्ज प्रजवासी कान त मेरी गागर ढोरी रे)
भविजन श्रुतभक्ति, चरण उर धरिये रे । ए श्रुतमक्ति सुमगल माल, विमल केवल कमला वरमाल || भवि० ॥१॥ सरल द्रव्यगण गुणपर्याय, प्रगट करण ए श्रुत मन माय ॥ भ० ॥ अतुल अनतकिरण समवाय, धरण तरणिगणतम कहिवाय ॥ भ० ॥२॥ ए श्रुत कुमति युवतिने संग अगणित रमणितणो करे भग ।। भ० ॥ अरथे भाख्यो श्रीजिनरास, ससे गणधर मुनि मिरताज ॥ म० ॥ ३ ॥ ए श्रूत मागर अगम अपार, अनत अमल गुणरयणाधार ॥ म० ॥ भवमय जलनिधि तग्ण महाज, निमुणि मगन मई सफल समाज || भ० ॥४॥ भवकोटी लगे तप करी जीर, सार्ना मरे जितनी सदोन ॥ म० ॥ कर्मनिरजरा जितनी होग, गानीके रक क्षणमें जाय ॥ भ० ॥ ५ ॥ एक मइम फोदि उसयकोडि, चतुरतीस कोडि अक्षर जोडि ॥ म. ॥ अमठि लापरु मात हजार, अटसप असीय प्रमिन निराधार || म० ॥६॥ इतने परनसे एक पद होय.