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बारह व्रत पूजा
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त्रिकरण त्रिकयोगे इक मुहरत, निरतिचारे चाल रे ॥ भ० ॥ सा० || १ | गृह व्यापार तजीने शुभ मन, धरि निरवद्य विसाल रे | म० ॥ सा०||२|| मन वच वपु प्रणिधान असेवन स्मृति विहीनता टाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ३ ॥ द्वात्रिंशत दूषण परिहरिने, पचम गुण घर झाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ४ ॥ इम धनमित्र तणी पर सीझो, कुशल कला परनाल रे ॥ भ० ॥ सा० ॥ ५ ॥
॥ दोहा ॥ दशमी दर्पण पूजना, कीजे श्रावक शुद्ध । सुर पादप शम शकरण, हरण पाप संक्रुद्ध ॥ || राग कालिंगडो ||
(तर्ज- नेमप्रभुजी सु कहज्यो जी म्हारा ) जिन पूजनमे रहिये रे, म्हारा जि० । मन वछित फल लहीये रे, म्हा० जि० || टेर || कंचन मणिरतनेकर जडियो, वर दरपण कर गहीये। जिनवर सनमुख दाखन विधि, सकल करम वन दहिये रे, म्हा० जि० ॥ १ ॥ प्रभुजीकी सेना सत्र सुखदाई, भाव भक्ति उर चहिये । शिव वनिता तुम प्रेम विलघे, अपर अधिक किम कहने