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वृहत् पूजा संग्रह ॥ सप्तदश समाधि पद पूजा ॥
॥दोहा॥ सतरम पदमें सेविये, सहु सुख करण समाधि । जिन सेवनते भविकनो, गमे व्याधि अरु आधि । ब्रह्मनगर पथि विचरतां, वर पाथेय समान । ए समाधि पद जाणिये, सुरमणि किये हैरान ॥
॥राग कहरवो ॥ (तर्ज-बाजे तेरा विछुआ रे वा० ) मेरो रे समाधि चरण वित बसियो, तसु गुण समरण कियो मनु वसियो । मे० ॥ सकल जगत जन जिनकुस्तवतुहे, अनुभवरंगे अतिहि विकसियो ।मे० ॥१॥ द्रव्यत भावत दुविध समाधि, सुरतरु मार्नु नित भुवन विलसियो । असन वसन सलिलादिक भक्ति, करिय संघनी करुणा रसियो ।। मे० ॥२॥ द्रव्य समाधि प्रथम ए सुणिये, कहो जिन लोकालोक दरसियो। सारण वारण चोयण प्रमुखे, पतित सुथिर करे ध्रममें हरसियो । मे० ॥ ३ ॥ भाव समाधि द्वितीय ए कहिये, जो करे सो जिन चुरण फरसियो। सकल संघको जो उपजावत, दुविध