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रत्न अय पूजा
३६७ परम चारित्र धर्म एलान, जगत को सदा सुनाने वाले ॥ सु० ॥ ४ ॥ लेते नहीं अदत्तादान, दिया लेते पाते अनिदान । उनका हरि कपीन्द्र गुण गान करें, धन संयम जीवन वाले। सु० ॥ ५॥
॥दोहा ॥ भोग रोग सम जानते, करते योगाभ्यास । निन्दा विकथा त्याग कर, भर से रहे उदास ॥१॥ सागर सम गभीर जो, मेरू सम जो धीर। महावीर संसार के, पहुंचे अन्तिम तीर ||२|| (तर्ज-भीनासर स्वामी अंतरजामी तारो पारसनाथ)
पूजो व्रतधारी हो अधिकारी त्रिभुवन तारणहार । रहते ब्रह्मचारी नित अविकारी जगमें जय जयकार | टेर॥ नवविध ब्रह्म सुगुप्ते गुप्ता, शील रतन रखवाल | कलुपित काम कुसंग न करता, हरता जग जजाल रे॥ पू० ॥१॥ दिन में रात में एक अनेक में, सोते जागते आप। पाप रहित जीवन हो जिनका, वे सच्चे माँ बाप रे ॥ ३० ॥२॥ द्रव्य क्षेत्र और काल भाव से, नित रहते सावधान | जड़ चल जगकी जूठन जानें, पुद्गल द्रव्य विधान रे ॥पू०॥३॥ शन्द रूप रस गन्ध विषय में, रहवे आप अलीन ! आप अपाप रहें