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गोत्र कर्म निवारण पूजा
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पावे ॥ पुण्य० ॥ १ ॥ जीन विपाकी गोन करम यह, परावर्त मानी । नीच गोत्र को ऊंच करे धन, उसकी जिन्दगानी || पुण्य० ॥ २ ॥ ऊंच गोत्र में जनम लिया अन, फरो ऊंच कामा । दर्शन ज्ञान चरण अधिकारी, परणो शिनरामा || पुण्य० || ३ || होवे अगर गुण होन फोड जन, करो न अपमाना । नित्र गुण का अभिमान करो मत, यह भी दुखदाना || पुण्य० ॥ ४ ॥ कोई भी हों तीर्थंकर या, चक्रवर्ती राजा । कर्म अनघा उदय काल, फल पायेंगे वाज्ञा ॥ पुण्य० || ५ || नीच कहो मत कमी किसी को, खींच नीच रेखा । सदा सदाचारों का निज में, कर लेना लेखा ॥ पुण्य० || ६ || मुख सागर भगवान महोदय, जिन हरि पूज्य प्रधाना । निर्भय भाव जिनागम बोलें, निजका करो निदाना || पुण्य० ॥ ७ ॥ निजमें ऊंच बनो साथी को, ऊंच बना देना । दिव्य कवीन्द्र विजय फल पानो, कटं करम सेना || पुरप० ॥ ८ ॥
|| काव्यम् ॥ पीयूष पेशल रमोत्तम भाव पूर्णः ० । मन्त्र - ॐ श्रीं अर्ह परमात्मने गोत्र कर्म मूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहं साधा |
॥ कन्ा ॥
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(नाव निवारण बुषा ) के चन्द्र में प्रकाशित पत्रा दो।