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रल य पूजा
३६१ (तर्ज-चित हरस धरी अनुभव रगे वीस परम पद सेविये)
नित ज्ञानी की, सेना दे सुख मेवा आतम ज्ञान का ॥ टेर ॥ परमातम पूरण ज्ञान कला, पद पूजा से जीवन सफला । मिट जाय अनादि करम बला, नित ज्ञानी की० ॥ १ ॥ प्रद्वप नहीं अपलाप नहीं, मात्सर्य नहीं अन्तराय नहीं। आसातन अरु उपघात नहीं, नित ज्ञानी की० ॥ २ ॥ आश्रय मिटते सवर होता, ज्ञानावरणी क्षय भी होता । ज्ञानोदय जीवन में होता, नित ज्ञानी की० ॥३॥ है ज्ञेय रूप संसार सभी, उसमें यह अपना रूप कमी। दीसे हो सम्यग्ज्ञान तभी, नित ज्ञानी की० ॥ ४ ॥ सुख सागर पद भगनान मिले, हरि कवीन्द्र कीवित ज्ञान खिले । फिर मोह महादृढ़ दुर्ग हिले, नित ज्ञानी की० ॥ ५ ॥
॥दोहा॥ ज्ञानी के सतसग से, होता आतम ज्ञान । जडविज्ञानी जाव का, मिटता है अभिमान ||२|| पट कुट्यादिक आवरण, से ज्यों सूर्य प्रकाश । तरतम भावे होत है, ज्ञान प्रकाश विकास ||२||
(त-प्रभु धर्मनाथ मोहे प्यारा जग जीवन) पूजो ज्ञानी जिन जयकारी, दें ज्ञान परम उपकारी