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वृहत् पूजा-संग्रह
पूव भव कृत पाप को धोते । हरि कवीन्द्र नरभव सुख
पाओगे || करो० ||
|| काव्यम् || चञ्चत्सुपञ्चवरवर्ण विराजिभिर्वै । सन्त्र — ॐ ह्रीं श्रीं अर्ह परमात्मने "आयुष्य कर्म समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा । ॥ चतुर्थ धूप पूजा || ॥ दोहा ॥
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धूप धरो उंचा चढ़ो, पाओ सुगुण सुगन्ध । रोग शोक व्यापे नहीं, सिटे पाप-दुर्गन्ध ॥१॥ प्रभु पूजा की भावना, आतम भाव प्रकाश । परमातमता प्रकट हो, जीवन ज्योति विकास ॥२॥
( तर्ज - लटपट छाइ नागर वेल करेलवा० ) भविक जन ! प्रभु आखातन टार । भविक जन प्रभु पूजन चितधार । भविक जन प्रभु आसातन टार || टेर || अर्हपद आसातना कह दुर्गति पद दातार । नरक और तिर्यचका कांड आयुष बन्धन कार ॥ भ० ॥ १ ॥ एक तीन सत दश कहे कांड सतरा और बाईस । तेतीस सागर आयु क्रम कांड नरके विश्वावीस || भ० || २ || हँस हँस होते पापसे कांड बंधते कर्म कठोर। रोते छुटकारा नहीं