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वृहत् पूजा-संग्रह
। काव्य ॥ सलिल० ॐ ह्रीं श्री प० श्रीमत्धर्म जिने० जलं०॥ ॥ षोडश श्रीशान्ति जिन पूजा ।।
॥दोहा॥ अचिरा उदरे अवतरी, शांति करी सुखकार । मारि विकार मिटायके, नामर्यो शांति सार ॥
॥राग विभास ॥ (तर्ज-भावधरि धन्य दिन आज सफलीगणु)
शान्ति जिन चन्द्र निज चरण कज शरण गत, तरणि, गुणधारि, भववारि तारी। कुमति जन विपिन जनि, कुमति धन व्रतनि तति, छितिनि शितधार तखार वारी ॥ शांति० ॥ १॥ एक भव पद उभय चक्रधर तीर्थकर, धारिया वारिया विधनसारा । सकल मद मारिया, विमलगुण धारिया, सारिया भक्त चंछित अपारा ॥ शांतिः ॥ २॥ हरिण लंछन धरा, वर्ण सुवरण करा, सुरवरा हित धरा गत विकारा। मोहभट धरणिघर गण हरण वज्रधर, कुमुद शिवचन्द्र पद रजनिकारा ॥ शांति० ॥३॥