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पंचकल्याणक - पूजा साधु साधवी श्रावक श्राविका, इन्द्रादिक सुरी सुखरे ए । नरनारी तिर्यग विद्याधर, द्वादश विध परिपद भरे ए ॥ अ० ॥ ४ ॥ भविजन धर्म तणे उपदेशे, योजनगामि मधुरगिरे ए । प्रतिपोधत चौमुस श्रीजिनवर, निज निज भाषा अनुसरे ए || अ० ॥५॥
॥ दोहा ॥ प्रगटपणे प्रभुकी प्रभा, प्रगट प्रकाशक रूप । प्रगटी प्रभुता परमसम, परमातम पद भूप ॥
( तर्ज - बिगरी कौन सुधारे नाथ बिन )
भूमंडल भविकमल विद्योधन, दिनकर सम जिनराया रे || भू० || अहूते इक कोडि अमरपद, पंकज भ्रमर लुभाया रे || भू० ||१|| ग्राम नगर पुर पट्टण विचरत, त्रिभुवननाथ कहाया रे । चौसठ इन्द्र करे जाकी सेवा, तन मन से लय लाया रे ॥ भू० ||२|| इन्द्राणी मिल मगल गावत, मोतियन चौक पुराया रे । सर्व जीव हितकारक प्रभुजी, निःश्रेयस मुसाया रे || भू० ||३|| भव जलनिधि निर्यामक जगगुरू, तारक सकल कहाया रे । शासननायक सघ सकलकु, प्रवचन तल सुनाया रे || भू०|| ४ || अनंत