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वृहत् पूजा संप्रद
कहे भवि ज्ञान अराधो, श्री जिनदेव बतावे; म्हा० ॥ जि०
॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं श्री परमा०
श्रीमनपर्यवज्ञानधारकेभ्यः
अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ||
|| पंचम केवलज्ञान पूजा ॥ ॥ दोहा ॥
प्रभु पूजा ए पंचमी, पंचम ज्ञान प्रधान | सकल भाव दीपक सदा, पूजो केवलज्ञान ॥ फल दीपक अक्षत धरी, नैवेद्य सुरभि उदार । भाव धरी पूजन करो, पावो ज्ञान अपार ॥
|| ढाल ||
( तर्ज - तुम विन दीनानाथ दयानिधि कोन खवर ले ) तु चिदरूप अनूप जिनेसर, दरसण की बलिहारि रे || तु ० ॥ निरमल केवल पूरण प्रगट्यो, लोकालोक विहारी रे । केवलज्ञान अनंतविराजे, क्षायक भाव विचारी रे ॥ ० ||१|| ज्योति सरूपी जगदानंदी, अनुपम शिव सुख धारी रे । जगत भाव परकाशक भानू, निज गुण रूप सुधारी रे । ||०||२|| सकल विमल गुण धारक जगमें, सेवत सब नरनारी रे, आत्म शुद्ध रूपी भविजन, गुण मणिरयण भंडारी रे || || ३ || केवल केवलज्ञान विराजे, दूजो भेद