________________
३३४
वृहत् पूजा-संग्रह भ० ॥ १ ॥ शुम आदिक दश गणधर होते, प्रभु प्रवचन परचारी। द्वादशांग गणिपिटक प्रणेता, दर्शन दर्शनकारी रे ।। अ० ॥२॥ स्यादवाद सर्वोदय कारण, प्रभुवाणी अधिकारी। आतम भावी जन होते हैं, परमातम पद धारी रे ॥ भ० ॥ ३ ॥ सर्व विरतिधर देश विरतिधर, अनगारी सागारी । दुविध धरम धारक हो होते, भवपारी नरनारी रे ॥ भ० ॥ ४ ॥ कनक कमल पद कमल धारते, ग्राम नगर पुर स्वामी। आलोकित करते प्रभु विचरे, त्रिभुवन अन्तर्यामी रे ॥ ५० ॥ ५ ॥ तीस वरस घर वास रहे प्रभु त्यासी दिन छद्मस्था । सात दिवस नवमास गुनतर, वर्ष केवलावस्था रे ॥ भ० ॥६॥ शत-वीं पूर्णायु जीवन, जीना जिनने जाना । जीयो जीने दो ओरों को, प्रभु आदर्श महाना रे ।। भ० ॥ ७॥
॥दोहा॥ श्री समेत गिरि ऊपरे, प्रसु अन्तिम चउमास । ठाया शिवपाया वहीं, धन तीरथ वह खास ॥१॥
(तर्ज-पास जिनंदा प्रभु मेरे मन बसिया) तीर्थकर प्रभु पार्श्व सांवरिया, नाथ विराजे समेत शिखरिया । तीन तीस साध प्रभु साथी, एक मास अनशनवर