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वृहत् पूजा-संग्रह नरक निगोदी दुःख का, ज्ञानी करते अंत।
ज्ञानी की पूजा करो, हो सुख सिद्धि अनन्त ॥२॥ (तर्ज-करलो करलो रे थे भविजन प्राणी शिवसुख वरलो रे )
पूजन करलो रे ओ भविजन भावे हित सुख वरलोरे ॥ पूजन० ॥ टेर ॥ पूजा पाप निवारे प्रभु की, पूजा हित सुखकारी रे। आगम दीपक देख अहिंसा, पूजा प्यारी रे ॥ पू० ॥१॥ प्रभु मुद्रा अप लाप करे और, पूजा पाप बतावे रे। नरक निगोद भयंकर भव में, यह दुख पावे रे ॥ पू० ॥ २॥ एकेन्द्रिय वेइन्द्रिय जानो, तेइन्द्रिय भी प्राणी रे। चौरेन्द्रिय पंचेन्द्रिय तिर्यच, हैं दुख खाणी रे ॥ पू० ॥ ३ ॥ प्राण और पर्याप्ति-शक्ति, अरे अविकसित होती रे। तियचो में आत्म चेतना, रहती सोती रे ॥ पू० ॥ ४ ॥ तिर्यञ्चायु बन्ध जिना गम, सास्वादन तक मानारे। उदय देशविरति सत्ता क्षय, साते ठाना रे ॥ ३० ॥५॥ स्वस्थ पुरुष इक श्वासोच्छवासे, साडी सतरा होते रे । क्षुल्लक अव यों भाव निगोदे, दुख मय होते रे ॥ पू० ॥६॥ तीन पल्योपम उत्कृष्टी स्थिति, पञ्चेन्द्रिय की भारी रे । प्रभु पूजा से पाप गति यह, दूर निवारी रे ॥ पू० ॥ ७ ॥ हरि कवीन्द्र प्रभु पद पूजन से, नरक तिरि