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वृहत् पूजा संग्रह ॥०॥०॥६॥ प्रीतिविलास धर्मसुन्दर गणि, अमृतसमुद्र सुभ्राजे । पाठक विजयविमल प्रभुके गुण, गावत घन जिम गाजे ॥ प्र० ॥७॥ हंसविलास प्रवरगणिवरकी, प्रेरणया सुसमाजे। श्रीजिनवरकी स्तवना कीधी, धर्म प्रभावन काजे ॥ प्र०॥०॥८॥ ॐ ही श्री प० अ० जन्मजरामृत्युनिवारणाय निर्वाणकल्याणके अष्टद्रव्यं यजामहे स्वाहा ॥
पंचकल्याणक पूजाकी आरती
॥ राग मालवी गोडी ॥ शुभ आरती प्रभुकी उदारचित्ते, करो भविक रसाल रे। प्रथम धूप सुगंध जिनक्, उखेवो जिननाल रे ॥ शु० ॥१॥ भाल निजकर तिलक सुन्दर, पहरपुष्प सुमाल रे । दक्षिणकर जिनराज जीके, कर आवर्त सुथाल रे ॥शु०॥२॥ यथासकते शुद्धभगते, करो दिल खुशियाल रे। द्रव्यभावे द्विविध पूजा, भविक भाव विशाल रे ॥ शु० ॥३॥ गुण अनन्त महन्त गावो, प्रभु परमदयाल रे । जन्म सफल करो भविकजन, कहे पाठक वाल रे ॥शु०॥४॥
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