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वीसस्थानक पूजा
१२९ जिनदरसण फरस्यो भलो, अंतर मुहुरत मान । अर्द्ध पुग्गल परियट रहे, तमु संसार वितान ॥
|| राग कामोद ॥
(तर्ज-चपक केतक मालती ए) जिणदरिसण मुझ मनवस्यो ए, अडयो मन वस्यो ए, उपजत परम आनन्द । जिनदरसण दरसण दिये, विमल नाण तरु कंद ॥१॥ दरसण मोह रिपु जीतिया ए ॥१०॥ वर सरसण उलसंत। दरसण घट परगट हुवा, भवियण भव न भमत ॥ २ ॥ जिनपर देव सुगुरु व्रती ए ॥ अ० ॥ केवलि कथित जिनधर्म । तीन तत्त्व परिणति रमे, ते दरसण करे शर्म ॥३॥ जिन प्रभु वचनोपरि सदा ए ॥ अ० ॥ थिर सरदहण धरत। इण लक्षणते जाणिये, समकितवत महंत ॥ ४ ॥ डग दुग ति चउ शर दस विहा ए, सत्तसठि भेदविचार ।। अ० ॥ वलि परीति समकित भण्यो, द्रव्य भाव परकार || ५ ॥ द्रव्ये जिण दरसण कयो ए॥ अ० ॥ भावे ममकित सार । द्रव्यत दरसण भावतो, दरसण कारण धार ॥ ६ ॥ द्रव्य दरस यदिगत वली ए ॥ अ० ॥ तदपि उत्तर हितकार । सय्यंभर जिनदरसणे, पायो दरसण सार ।॥ ७॥ दरसण विण किरिया इता ए