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पंचपरमेष्ठी-पूजा
१०१ धरम सनेही साधुजी ॥ सु० ॥ करता पर उपगार ॥ प्या० ॥ लालच लोभ न जेहने, सु० । नहीं राखे द्वप लगार ॥ प्या०॥ ममता माया छोडीने, सु०। धारे वा सुसकार | प्या० ॥ १॥ गाम नगर पुर पाटणे, सु० । करता धरम व्यापार ॥ प्या० ॥ राग द्वेष मुनिराजने, सु० ! नहीं कोई विपय विकार || प्या० ॥२॥ उपगारी सिर सेहरो सु० । कुमति करे परिहार प्या०॥ विन कारण मुनिराजजी, सु० । भन्य जीव हितकार ॥ प्या० ॥ ३ ॥ ज्ञानी ध्यानी सूरमा, सु० । महिमा करत नरेस ॥ प्या०॥ वाणी अमृत सारसी, सु० । सुणतां हरप हमेस || प्या० ॥ ४ ॥ अनेक जीव प्रतियूमिया, सु० । घरम तणा परधान ॥ प्या० || माया न करे साधजी, सु० । नहीं विकथा नहीं मान ॥ प्या० ॥ ५ ॥ पच महाव्रत धारता, सु०। पटकाया प्रतिपाल ॥ प्या० ॥ दोप वपालीस टालता, । सू० । ऐसे दीन दयाल || प्या० ॥ सुमति धारक पांच ने, सु० । गुपतिना रसपाल ।। प्या० ॥६॥ उद्देशक आदे करी स० । कृतकड़ने वलि दूत ॥ प्या०॥ सिज्यातर राय पिंड, स०। नहीं धारे अवधत ॥ प्या० ॥७॥ वासी विदल