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दर्शनावरणीय कर्म निवारण पूजा
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वस्तुगत सामान्य रहे, रहे भान विशेषविशेष । दर्शन ज्ञान है बोध उन्हीका, करता दूर कलेश रे || पद प्यारो० ॥ १ ॥ मेद अभेदे वर्णित होता, स्यादवाद विचार । पूर्वापर सव मानापेक्षित, दर्शन पदनिर्धार रे || पद प्यारो० ॥ २ ॥ आज्ञा अपाय विपाक विचयस स्थान विचय धर्म ध्यान । जो कर पाते प्रभु पूजन में, पा जाते कल्यान रे || पद० ॥३॥ चौथे से सप्तम गुण थानक, तक होता धर्म ध्यान । प्रभुपद दर्शन वन्दन पूजन में होता विज्ञान रे || १६० ॥४॥ धर्मध्यान से शुक्ल सुलेश्या, होता शुक्ल सुध्यान। ध्यान पवन घन घोर घटा हो, दूर करम व्यवधान रे || पद० ||५|| शुक्ल ध्यान भी चार प्रकारी, पहिले के दो प्रकार । पूरवधर श्रुत केली धारें, दो केवल पद धार रे || पद० ॥६॥ ज्ञान को रोके दर्शन रोके, वह आवरण निकार, कर्म कहावें कर्म से काटो, तो हो बेडा पार रे || पद० ॥ ७ ॥ सुखसागर भगवान प्रभुपद, निज पद में अवतार । हरि naiद्र सफल विधिपूजो, पाओ शिनफल साररे ॥ १६० ॥८॥ || काव्यम् || पीयूषपेशलरसोत्तम भाव पूर्णैः० मन्त्र — ॐ ही अर्ह परमात्मने समूलोच्छेदाय श्रीवीर जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा । ( कलश अन्तराय कर्म निवारण पूजा से बोलें । }
दर्शनावरणीय कर्म
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