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श्री जिनहर्षसरि कृत ॥ वीसस्थानक पूजा॥ ॥ प्रथम अरिहंतपद पूजा ॥
॥दोहा॥ सुखसंपति दायक सदा, जगनायक जिनचंद । विधनहरण मंगलकरण, नमो नाभि नप नंद ।। लोकालोक प्रकाशिका, जिनवाणी चित धार । विंशतिपद पूजन तणो, कहिस्यु विधि विस्तार ॥ जिनवर अंगे भाखिया, तप जप विविध प्रकार । विंशतिपद तप सारिखो, अवर न कोई उदार ॥ दान शील तप जप क्रिया, भाव विना फलहीन । जैसे भोजन लवण विन, नहीं सरस गुण पीन । जे भवियण सेवे सदा, भावे स्थानक वीश । ते तीर्थकर पद लहे, वंदे सुरनर ईश ।।
॥ ढाल | (चाल-तीरथपति त्रिभुवन सुखदाई) श्रीअरिहंत पद१ सिधपद२ ध्यावो, प्रवचन