________________
१०५
पंचपमेष्ठी-पूजा राजता, अमृतधर्म उदार वाचक पद छाजता ॥ १७ ॥ पाठकमें परधान क्षमा गुण सारता । तसू सुत धरम विशाल मुनिव्रत धारता ॥ १८॥ सुमति कहे गुण सार, भविक मन सोहता। बीकानेर मझार सकल मन मोहता ॥ १६ ॥ संघ सकल सुसदाय सेवो प्रभु भावस। पूज रची चित लाय अधिक चित चावसु ॥ २० ॥ सम्बत सय उगणीसके तेपन जाणीये, माहा सुद चवदस वार मंगल मन आणिये ॥ २१ ॥ भणतां गुणतां एह सदा सुख पामसे, घर घर मंगल माल हुवे जिन नामसे ॥ २२ ॥ इति पंचपरमेष्टी पूजा सपूर्णम् ॥