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वृहत् पूजा-संग्रह हुआ अधम, यह पुण्य-पाप खेला। करो पुण्य को तजो पाप को दो दिन का मेला ॥ क० ॥ ८ ॥
॥ दोहा ।। चढ़ते पड़ना जगतमें, होता है आसान । पड़ चढते जो आतमा, होते हैं भगवान ॥१॥
(तर्ज-कांटो लाग्यो रे करमन को मोसे० ) करम के कांटों को दें तोड़, दौड़कर पूजा जो करते । मिटे मरण भय हुए अभय जिन पूजा जो करते ॥ टेर ॥ लगे करम का कांटा तब तो, बड़े बड़े पड़ते । कांटे के आंटे से निकले, जन ऊँचे चढ़ते ॥०॥१॥ दशम देवलोके मरुभूति, जीव देव रचते । शाश्वत जिन प्रतिमा पूजा कर, पापों से बचते ॥ क० ॥२॥ अव्रत था जीवन में फिर भी, व्रत लिप्सा धरते। महाव्रती साधु-सन्तों की, सेवा ये करते ॥ क० ॥३॥ अपने उज्जवल भावी में, अति पुष्ट भाव भरते । भोग रहे थे भोग योग पर, मन में आदरते ॥ क० ॥ ४ ॥ कीचड़ में हो कमल वढे जल, से पर अलग रहे । महा भोग को करे भाव, निर्लेप सदैव वहे ॥ क० ॥ ५॥ इन्द्र नाम दुश्च्यवन च्ववच का, भारी दुख भरते । छह महीनों पहिले से ही