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वृहत् पूजा-संग्रह
किये बहु
विचारे खास | अहो जग विषयनमें लीना ॥ 'उपकार० || २ || अरे धिग मोह फसे प्रानी | राग द्वेष वश जन्म गमा देवे नर अज्ञानी । क्रोधसे नाश करे प्रीति । मान विनयका नाश नाश मायासे मित रीति । लोभसे चलती नहीं । नीति काम सुभट वश जीव हा !, जाने नहीं निज रूप अरघट घटी के न्यायसु, क्रिया करे अक्कूप चिंतत इम चित्त हुआ खीना ॥ किये बहु उपकार० || ३ || प्रभु वैराग्य से भीना । त्यागन कर संसार चरण लेने में चित दीना । बुलाई राज्यसभा भारी । -आशय अपना सुनाय भरतको राज्यासन धारी । बनाया विनीता अधिकारी । राज्य भाग सबको दिया, पुत्र बाहुबलि आद । उचित विधि सब साधके, कियो धर्मको जाद | / प्रभुने वर्षीदान दीना ॥ किये बहु उपकार० ||४|| प्रभु हैं स्वयंवुद्ध धोरी । तो भी अनादि रीत लोकांतिक आए कर जोरी । नमन करी वाणी मधुर बोले । जग उपकारी नाथ नहीं कोइ जगमें तुम तोले । जो मारग
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शुद्ध धर्म खोले । धर्म तीर्थ वरताइए, आतम लक्ष्मी हेतु । धर्म सदा भवि जीवको, भवसागर में सेतु । धर्म वल्लभ - चीना || किये बहु उपकार० || ५ ||