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अन्तराय कर्म निवारण पूजा ४७५ ॥ पंचम दीपक पूजा ।।
/ ॥दोहा॥ दीपर्क भावे दीपता, पूजो श्रीजिनराज । आतम गुण आसाद कर, पाओ सुखद स्वराज ॥१॥ रहन सहन उपभोग को, करदो प्रभु पद मेट । देता है पाता वही, यही नियम हे जेट ॥२॥ (तर्ज जाओ जाओ हे मेरे साधु रहो गुरु के संग)
फर दो कर दो प्रभु के चरणों मे उपभोगों का त्याग । भर दो भर दो अपने जीवन में परमातम अनुराग ॥ टेर ॥ जो देता है सो पाता है, हो जाता जग जेठ । बादल देखो उपर रहते, सागर देखो हेठ ॥ क० ॥१॥ उपमोक्ता उपमोग करें क्या १, साधन सीमित देस। इसीलिये झगड़े रगडे हैं, अन्तराय की रेख ॥ क० ॥२॥ सतोपी सुखिये रहते हैं, धरो हृदय सन्तोष । प्रभुपद पूजा में प्रकटेगा, बही भाव निर्दोष ।। क० ॥३॥ उपभोगों में फँसे देवता, दुख पाते भरपूर । अन्त समय छह महीने पहिले, मिट जाता है नूर ॥ क० ॥ ४ ॥ पुद्गल साधन उपमोगी की, सदा दुर्दशा जान । यहां वहां चारों गतियों मे, होता दुःख महान || क० | ५ || आतम गुण उप